लग्नो के विशेष धनादायक ग्रह
‘राजयोग’ कारक ग्रहों की अन्तरदशा में विशेष धन, मान, पदवी की प्राप्ति होती है। संक्षेप में विविध लग्नों के लिये विशेष धन देने वाले ग्रहों का उल्लेख नीचे किया जाता है ।
1. जब दो धनदायक ग्रह दृष्टि, योग, व्यत्यय (Exchange) आदि द्वारा परस्पर संबन्धित होते हैं तो धन की प्रचुर सृष्टि करते हैं। इन्हीं योगों का शास्त्रीय परिभाषा में ‘महा धन’ योगों के नाम से उल्लेख किया गया है ।
उदाहरणार्थ, लग्नेश, धनेश, एकादशेश, ‘धन’ कारक गुरु तथा सूर्य एवम् चन्द्र अधिष्ठित राशियों के स्वामी सभी ‘धन’ को दर्शाने (Represent) वाले ग्रह हैं।
इनका ‘युति’, ‘दृष्टि’ अथवा ‘व्यत्यय’ द्वारा एक-दूसरे पर प्रभाव डालना मनुष्य को बहुत धनी बनाता है ।
2. नियम संख्या 1 में वर्णित ग्रहों का प्रभाव दृष्ट ग्रहों आदि द्वारा प्रदर्शित ‘वस्तुओं’ ‘व्यक्तियों’ आदि को ‘मूल्यवान’, ‘धनी’, ‘ऊँचा ‘समृद्ध’ बनाता है ।
उदाहरणार्थ – कुंभ लग्न हो तथा चतुर्थ भाव में स्वक्षेत्री शुक्र पर दृष्टि आदि द्वारा गुरु का प्रभाव हो तो व्यक्ति को बहुमूल्यवान पृथ्वी तथा वाहन की प्राप्ति होगी, कारक (Significator) है। क्योंकि गुरु एक तो धन का स्थान ( House of Wealth) (House of Gains) का भी दूसरे धन का स्वामी है, तीसरे आय स्थान स्वामी है अतः गुरु में ‘मूल्य’ को बढ़ाने की शक्ति हुई । अतः चतुर्थ भाव, उसके स्वामी तथा वाहनकारक शुक्र पर ऐसे गुरु की दृष्टि भूमि तथा वाहन को अवश्य मूल्यवान बनायेगी।
3. जब पाराशर महर्षि के सिद्धान्त के अनुसार निर्धारित तृतीयेश, षष्ठेश, अष्टमेश तथा द्वादशेश अशुभ कर्ता ग्रह, पापी प्रभाव द्वारा अतीव निर्बल हों, पापयुक्त अथवा पापदृष्ट हों और किसी शुभ ग्रह से युक्त अथवा दृष्ट न हों तो इन ग्रहों की अशुभता का नाश हो जाने से मानो ‘अभाव’, ‘दरिद्रता’, ‘ऋण’, ‘व्यय’ आदि का नाश होकर, धन के आय की भावात्मक सृष्टि हो जाती है । साधारणतया शुभता को बल मिलने से धन की उपलब्धि होती है परन्तु यहां धन की उपलब्धि ‘अशुभता’ के नाश द्वारा हुई है । अतः इस योग का ‘विपरीत राजयोग’ नाम रखा गया है ।
4. साधारणतया जब कोई शुभ ग्रह अर्थात शुभ स्थानों का स्वामी ग्रह ‘नीच’ राशि में स्थित होता हो तो उन स्थानों को हानि पहुँचाता है जिनका कि वह स्वामी होता है । परन्तु यदि उस राशि का स्वामी जिसमें कि कोई ग्रह नीच का होकर पड़ा है, लग्न अथवा चन्द्र से केन्द्र में स्थिति द्वारा बली हो तो न केवल उपरोक्त हानि ही नहीं होती बल्कि उलटा राज्यादि उन पदार्थों की प्राप्ति होती है। जिनको कि वे शुभ ग्रह अपने स्वामित्व द्वारा दर्शा रहे होते हैं।
उदाहरणार्थ यदि कर्क लग्न हो और चतुर्थ स्थान में सूर्य नीच राशि तुला का होकर बैठा हो, चन्द्र पञ्चम में वृश्चिक राशि का तथा शुक्र द्वितीय स्थान में सिंह राशि का हो तो सूर्य द्वितीय स्थान (शासन स्थान) का स्वामी तथा शासन ( Ruling Powers) का कारक होते हुए यद्यपि नीच है, परन्तु चूंकि सूर्याधिष्ठित तुला राशि का स्वामी शुक्र चन्द्र से दशम केन्द्र में स्थित है अतः ‘नीच’ योग को भंग कर, राजयोग की सृष्टि करेगा ।
5. जब धन लग्न से चन्द्र से अथवा सूर्य से, छठे, सातवें तथा आठवें नैसर्गिक शुभ ग्रह बुध, गुरु तथा शुक्र, किसी भी क्रम से, बैठ जाते हैं तो क्रमशः ‘लग्नाधियोग’, ‘सूर्याधियोग’ तथा ‘चन्द्राधियोग’ की उत्पत्ति होती है । ये तीनों ‘अधि’ योग मनुष्य के आर्थिक स्तर को काफी ऊँचा करने वाले होते हैं जिस के फलस्वरूप हजारों रुपये की मासिक आय होती है।
इस योग का कारण (Rationale) यह है कि शुभ ग्रहों की षष्ठ, सप्तम तथा अष्टम स्थिति से लग्नादि को शुभता एवं बल की प्राप्ति होती है । अतः स्पष्ट है कि लग्न, सूर्य तथा चन्द्र अपनी पुष्टि द्वारा हर प्रकार का सुख देंगे । लग्नादि से सप्तम में स्थित ग्रह की पूर्ण दृष्टि लग्नादि पर पड़ेगी यह तो एक प्रारम्भिक नियम है जिसे समझाने की कोई आवश्यकता नहीं । षष्ठ में पड़े शुभ ग्रह की पूर्ण दृष्टि द्वादश पर तथा अष्टम में पड़े हुए शुभ ग्रह की दृष्टि द्वितीय स्थान पर पड़ेगी। इसका अर्थ यह हुआ कि लग्नादि के आसपास शुभ प्रभाव पड़ेगा जिसको आप लग्नादि के लिये एक प्रकार का ‘शुभ मध्यत्व’ ही समझ सकते हैं । अतः लग्नादि ‘अधि’ योगों में बल पाकर धनदायक बन जाते हैं ।
‘अनफा’, ‘सुनफा’ आदि योग भी चन्द्र से द्वितीय द्वादश भाव में सूर्य को छोड़कर अन्य ग्रहों की स्थिति द्वारा बनते हैं ‘सुनफा’ योग में मनुष्य अपने पुरुषार्थ से धन को प्राप्त करने वाला, राजा अथवा उसके समान बुद्धि-धन-यश से तथा आरोग्य से युक्त होता है। इसी प्रकार ‘अनफा’ योग में भी उपरोक्त गुणों तथा विषय-सुख से युक्त तथा निर्वृत्त होता है । भाव यह कि ‘अनफा’, ‘सुनफा’ आदि योगों की शुभता में कारण चन्द्र का लग्नरूप से बल पा जाना है ।
6. जब कोई भी भाव अपने स्वामी द्वारा दृष्ट होता है तो ऐसी दृष्टि उस भाव से संबन्धित वस्तुओं की वृद्धि करती है विशेषतया जबकि वह भाव अथवा उसका स्वामी शुभ ‘दृष्ट’ अथवा शुभ ‘युक्त’ भी हो। ऐसी स्थिति में अपने भाव को देखने वाले ग्रह की शत्रु स्थिति कोई हानि नहीं करती।
उदाहरणार्थ सिंह लग्न हो और सूर्य सप्तम भाव में गुरु के साथ स्थित हो अथवा गुरु सिंह लग्न पर दृष्टि डाल रहा हो तो ‘लग्न’ को बहुत बल मिलेगा जिसके फलस्वरूप लग्न प्रदर्शित ‘राज्य’, ‘धन’ आदि की प्राप्ति होगी । सूर्य का सप्तम स्थान में शत्रु राशि कुंभ में पड़ना, ऐसी स्थिति में सूर्य अथवा लग्न के लिए हानिकारक नहीं है ।
यदि चार अथवा चार से अधिक ग्रह किसी कुण्डली में अपने-अपने स्थानों पर दृष्टि डाल रहे हों तो यह योग कुण्डली के स्तर को बहुत ऊँचा ले जाकर उसको अन्तरप्रान्तीय यश तथा कीर्ति का स्वामी बना देगा ।
7. जब कोई ‘स्वक्षेत्री’ अथवा उच्च ग्रह परस्पर एक-दूसरे से केन्द्र में स्थित होते हैं तो ‘कारकाख्य’ योग की उत्पत्ति होती है । इस योग में महान् पुरुषों का जन्म होता है, क्योकि एक तो ग्रहों की उच्चता श्रेष्ठता तथा गौरव की परिचायक है, दूसरे ऐसे उच्च ग्रहों का केन्द्रस्थिति द्वारा एक-दूसरे पर प्रभाव उनको और भी उच्च बनाकर जातक को जीवन में ऊँचाई, पद, मान धन की ओर ले जाता है । यदि ऐसे उच्च अथवा स्वक्षेत्री ग्रहों की स्थिति लग्नादि से भी केन्द्र में हो तो फिर सोने पर सुहागा होगा ।
8. जब कोई ग्रह कुण्डली में शुभ भावों का स्वामी होने से ‘शुभ’ अथवा ‘राजयोग कारक’ ग्रह की श्रेणी में गिना जाता है और बली होता है तो स्पष्ट है कि वह धनादि देता है । परन्तु यह ग्रह जब केवल लग्न के विचार द्वारा ही शुभ निकले बल्कि चन्द्र लग्न तथा सूर्य लग्न से विचार द्वारा भी ‘शुभ’ अथवा ‘योगकारक’ निकले तो उसमें असाधारण शुभता आ जाती है । बल यह होता है कि उसमें प्रचुर धन देने की क्षमता आ जाती है । अतः लग्न, सूर्य लग्न तथा चन्द्र लग्न तीनों लग्नों से प्राप्त शुभता अतीव धनप्रद सिद्ध होती है।
9. जब लग्नाधिपति, धनाधिपति, भाग्याधिपति आदि शुभ ग्रह अच्छे भाव में उच्च राशि में स्थित हों और जिस उच्च राशि में उनकी स्थिति हो उसका स्वामी भी उच्च हो तो प्रथमोक्त उच्च ग्रह जिस राशि का स्वामी है उसको अच्छी प्रकार बली करेगा जिसके फलस्वरूप धनादि की प्राप्ति होगी ।
उदाहरणार्थ कन्या लग्न हो, चन्द्र नवम स्थान में उच्च हो तथा शुक्र सप्तम में उच्च हो तो ऐसी स्थिति में लाभाधिपति चन्द्र खूब लाभ देने वाला होगा ।
10. जब कोई नैसर्गिक शुभ ग्रह ‘गुरु’, ‘शुक्र’ आदि अपनी राशि में केतु के साथ स्थित हों तो उस भाव की जिसमें यह स्थित हो अतीव वृद्धि होती है।
उदाहरणार्थ स्वक्षेत्री शुक्र तुला राशि में द्वितीय स्थान में केतु के सहित हो तो मनुष्य को लक्षाधिपति बना देता है । केतु का अर्थ है ‘झंडा’ जो ऊँचाई का प्रतीक है । और वैसे भी एक छाया ग्रह नाते केतु भी ऐसी स्थिति में शुक्र का ही शुभ फल करेगा।
11. जब कोई शुभ ग्रह अर्थात् पाराशर मुनि द्वारा निर्दिष्ट बहुत अधिक पद्धति के अनुसार शुभ होता हुआ’ ‘वक्री’ हो तो उसमें शुभता आ जाती है और वह ग्रह खूब धन देता है चाहे उसकी स्थिति त्रिक (अनिष्ट) भावों में ही क्यों न हो ।
उदाहरणार्थ वृश्चिक लग्न हो, सूर्य षष्ठ स्थान में हो और गुरु द्वादश स्थान में तो ऐसी स्थिति में गुरु जो वृश्चिक लग्न के लिए अतीव शुभ ग्रह है, वक्री होने के कारण द्वितीय भाव (धन-दौलत ) तथा पंचम भाव (पुत्र-सन्तान) दोनों के लिए शुभ होगा । यद्यपि जहाँ तक पंचम का संबन्ध है साधारण दृष्टि में गुरु उस भाव से अष्टम में लग्न से व्यय स्थान में तथा शत्रु राशि में स्थित होने से पुत्रदायक नहीं होना चाहिए। फिर भी कम-से कम दो पुत्र देगा, क्योंकि इसमें ‘वक्रत्व’ का बल है ।
12. लग्न न केवल ‘शरीर’ का प्रतिनिधि है अपितु ‘निज’ (Self) को भी दर्शाता है। अतः ‘मित्र’ का मन बुद्धि-सहित जिस किसी बात से सम्बन्ध होगा वही बात निज को धन आदि से पुष्ट करेगी । अतः धन की प्राप्ति के उपायों को लग्नादि पर प्रभाव द्वारा निश्चय किया जाना चाहिए।
13. ‘धन’ तथा ‘लाभ’ भावों अथवा उनके स्वामियों से जिन संबन्धियों का शुभ संबन्ध हो उन सम्बन्धियों द्वारा धन की प्राप्ति होती है, हेतु स्पष्ट ही है।
14. सूर्य तथा चन्द्र को छोड़ कर प्रत्येक ग्रह दो राशियों का स्वामी होता है । इन दो राशियों में नैसर्गिक (Natural) सम्बन्ध रहता है । वह सम्बन्ध उस स्थिति में बहुत अर्थ रखता है जबकि इन राशियों के स्वामी या तो अधिक बली हों या अत्यधिक निर्बल ।
उदाहरणार्थ – तुला लग्न वालों का शुक्र यदि बली तथा शुभ प्रभाव में हो तो वे लोग ‘अष्टम’ भाव अर्थात् दूसरों के जीवन की रक्षा आदि के लिए प्रयत्नशील होंगे (जैसे गान्धी- क्राइस्ट) । यही लग्न यदि अधिक पाप प्रभाव में होगा तो वह व्यक्ति दूसरों की जान लेने वाला होगा (जैसे हिटलर) । यही नियम धनादिक में भी समझ लेना । उदाहरणार्थ सिंह लग्न वालों का बुध यदि बलवान होगा तो धन की प्राप्ति बड़ी बहिन (एकादश भाव) से करनी चाहिए।
15. भाग्य भवन अथवा भाग्येश, राहु, केतु तथा ‘बुध’ ये सब शीघ्र अचानक तथा देव योग द्वारा फल देते हैं । अतः जब इनका शुभ धनदायक स्थानों से शुभ सम्बन्ध होता है तो धन की प्राप्ति भी ‘अचानक’ (Unexpectedly) दैवयोग से होती है जिसमें पुरुषार्थ का अंक बहुत कम रहता है।
16. धन की मात्रा ग्रहों की शुभता तथा बल पर निर्भर करती है । अतः जितने अधिक ‘धनदायक’ योग किसी कुण्डली में पाये जायें तथा जितने अधिक वली वे योग हों उतना ही अधिक धन मनुष्य को प्राप्त होता है । यह धन मनुष्य को शुभ ग्रहों की दशा तथा शुभ ग्रहों की भुक्ति में प्राप्त होता है ।
निष्कर्ष यह कि शुभ भावाधिपति हो और बलवान हो तो अवश्य ‘धनदायक होता है जैसा कि ‘फल दीपिका’ ‘कार ने कहा है कि एक भी शुभ ग्रह केन्द्रादि शुभ स्थान में स्थित होकर उच्च हो तथा शुभ मित्र द्वारा युक्त अथवा दृष्ट हो तो धनाढ्य तथा राजपुरुष बना देता है ।
इसी प्रकार मंगल यदि केन्द्र में उच्च राशि का अथवा स्वक्षेत का स्थित हो तो ‘रुचक’ योग होता है, बुध यदि इसी प्रकार केन्द्र में उच्च राशि का अथवा स्वक्षेत्र का स्थित हो तो ‘भद्र’ योग होता है । गुरु इसी उच्च अथवा स्वक्षेत्रस्थिति में केन्द्र में हो तो ‘इस’ योग उत्पन्न होता है। शुक्र केन्द्र में उच्च अथवा स्वक्षेत्र का ‘मालव्य ‘योग’ बनाता है और यदि शनि उच्च अथवा स्वक्षेत्र का केन्द्र में हो तो शश योग की सृष्टि करता है ।
रूचकयोग’ वाला प्रभाव- शाली सेना से सम्बन्धित बनाता है । ‘भद्र योग’ अतीव विद्वान्, शास्त्र- ‘वेत्ता बनाता है। ‘हस’ योग से प्रतिष्ठित राजपुरुष बनता है। ‘मालव्य’ योग वाले बहुत ‘सुख’ -विलास से युक्त तथा ‘शश’ योग वाले अपने स्थान के मुखिया तथा महान भूमि सम्पत्ति वाले होते हैं ।
17. ग्रहों का बल जहां उनकी केन्द्र स्थिति, उच्च राशि आदि स्थिति, शुभ वर्गस्थिति, शुभ युति शुभ दृष्टि, युवा अवस्था स्थिति द्वारा देखा जाता है वहाँ इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि कोई ग्रह उन राशियों से किस स्थिति में है जिन राशियों का कि वह ग्रह स्वामी है ।
उदाहरणार्थ लग्न में मंगल यदि कर्क राशि का नीच का होकर स्थित हो तो अशुभ अथवा निर्बल नहीं समझना चाहिए, क्योंकि ऐसी स्थिति में मंगल अपनी एक राशि मेष से शुभ चतुर्थ स्थान में है और दूसरा वृश्चिक राशि से भी शुभ स्थान नवम में पड़ा है।
इसी प्रकार कर्क लग्न वालों को बुध यदि पंचम भाव में वृश्चिक राशि का बैठ जावे तो यद्यपि एक शुभ ग्रह की त्रिकोण स्थिति के दृष्टिकोण से आप बुध को बलवान समझोगे परन्तु ऐसी बात नहीं है, क्योंकि ‘बुध अपनी एक राशि मिथुन से षष्ठ में पड़ा है और दूसरी राशि कन्या से तृतीय में पड़ा है। तृतीय तथा षष्ठ दोनों स्थितियाँ अशुभ हैं। पुनः वुध शत्रु राशि वृश्चिक में भी स्थित है। ऐसी स्थिति में बुध निर्बल समझना चाहिए और चूँकि दो अशुभ भावों (द्वादश तथा (तृतीय) का स्वामी निर्बल बनता है बुध अपनी दशा में विपरीत राज- योग का उत्तम फल देगा, शर्त यह है कि बुध शुभ ग्रह द्वारा युक्त दृष्ट न हो ।
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