कुंड्ली में राजयोग और धनयोग
गजकेसरी योग
परिभाषा – (क) यदि चन्द्र से केन्द्र मे गुरु स्थित हो तो “गजकेसरी” योग होता है।
(ख) यदि चन्द्रमा शुक्र, गुरु, बुध से दृष्ट हो और देखने वाले ग्रह नीच अथवा अस्त न हो तो भी “गजकेसरी” योग बनता है।
फल – गज केसरी योग में उत्पन्न मनुष्य तेजस्वी धनधान्य से युक्त, मेधावी, गुण सपन्न, राजा से लाभ उठाने वाला होता है।
हेतु – प्रथम प्रकार के गजकेसरी योग में गुरु की चन्द्र से केन्द्र स्थिति के कारण चन्द्र पर प्रभाव पडेगा और चन्द्र के गुण बढ़ जायेंगे। चन्द्र चूंकि लग्नवत् है अतः गुरु के प्रभाव के कारण शरीर मे तेज आ जायेगा, चन्द्र का खाने-पीने की वस्तुओं से विशेष सबन्ध है, अतः उक्त गुरु के शुभ प्रभाव से धन धान्य की भी वृद्धि होगी। चन्द्रमा मन है, मन मे गुरु की मेधाशक्ति का सचार होगा तथा अन्य शुभ गुणों की प्राप्ति होगी। गुरु ‘ राज्य कृपा’ का कारक है वह लग्न (Self) को, निज को, राज्य की कृपा (Governmental favor) की प्राप्ति भी करवा देगा।
द्वादश शुक्र योग
परिभाषा – यदि शुक्र द्वादश स्थान में हो तो धन तथा स्त्री के लिए शुभ है और ” द्वादश शुक्र” का योग बनाता है।
फल – जैसा ऊपर कहा है द्वादश में शुक्र स्त्री की आयु को बढाने वाला तथा धन एश्वर्यं प्रदान करने वाला होता है ।
हेतु – शुक्र भोगात्मक ग्रह है, द्वादश भोग स्थान है, अत शुक्र की द्वादश भाव मे स्थिति शुक्र के अनुकूल बैठती है । अब चूंकि शुक्र ‘स्त्री’ का कारक है अतः इस योग द्वारा स्त्री का दीर्घायु हो जाना युक्तिः युक्त है। द्वादश शुक्र से भोगो की प्राप्ति भी इसी प्रकार सिद्ध है ।
दिग्बल योग
परिभाषा – शनि ग्रह को छोड़ कर जब चार अथवा पाँच ग्रह “दिक्वल’ से युक्त हो तो साधारण मनुष्य भी राजा की पदवी को प्राप्त करता है । यदि दो अथवा तीन ग्रह दिग्बल से युक्त हो तो जातक राज पदवी को प्राप्त करता है ।
- लग्न में स्थित होने से बुध तथा गुरु को दिग्बल की प्राप्ति होती है,
- शुक्र तथा चन्द्र यदि चतुर्थ स्थान मे स्थित हों तो इनको दिग्वल प्राप्त होता है
- शनि यदि कुण्डली मे सप्तम स्थान मे स्थित हो तो उसे वहा दिग्बल मे बली माना है।
- इसी प्रकार दशम भाव मे यदि मंगल अथवा सूर्य स्थित हों तो इनको उस स्थान में दिक् वल (Directional Strength) की प्राप्ति होती है ।
फल – राजपदवी की प्राप्ति।
हेतु – जब ग्रहो को दिशा की अनुकूलता प्राप्त होती है तो उनमें एक विशेष प्रकार के बल की सृष्टि होती है । ग्रह जब बली होते है तो मनुष्य को मान, धन, पदवी राज्य सब कुछ देते हैं । अत जब चार अथवा पाँच ग्रह दिक्बल से बली होगे और उनकी केन्द्र स्थिति के कारण कण्डली का स्तर ऊँचा हो जायेगा।
कर्तरि – योग
परिभाषा – लग्न से द्वितीय तथा द्वादश मे ग्रहो की स्थिति से “कर्तरि योग” बनता है।
इसके दो भेद हैं – यदि लग्न से द्वितीय तथा द्वादश स्थान में शुभ ग्रहो की स्थिति है तो योग का नाम “शुभ कर्तरि’ होगा और यदि इन स्थानो मे पाप ग्रहो की स्थिति हो तो योग “पापकर्तरि ” नाम से कहा जायेगा।
फल – जब किसी भी भाव अथवा ग्रह से द्वितीय तथा द्वादश स्थान में ग्रहो की स्थिति होती है तो वे ग्रह उस भाव अथवा ग्रह को जिस से कि वह द्वितीय द्वादश होते हैं, प्रभावित करते हैं। वह प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि वे दोनो ग्रह नैसर्गिक पापी है अथवा नैसर्गिक शुभ।
यदि दोनो नैसर्गिक पापी हैं तो फल अशुभ होगा और यदि दोनो शुभ हैं तो फल शुभ निकलेगा। यदि एक पापी हो और एक शुभ तो फल मे कोई अन्तर न होगा अर्थात् जो लग्न आदि उन ग्रहो के मध्य मे है उनके बल पर तथा लग्नादि पर अन्य ग्रहो की शुभता-अशुभता के अनुसार फल का निर्णय होगा।
शुभ-कर्तरि में जन्म लेने वाला मनुष्य तेज, धन तथा बल से परिपूर्ण होता है और पाप-कर्तरि में जन्म लेने वाला भिक्षा मांग कर जीने वाला अर्थात् निर्धन और गन्दा होता है।
हेतु – यहा शुभता अथवा अशुभता मे हेतु ग्रहो का द्वादश तथा द्वितीय स्थान पर प्रभाव है। जब भी किसी भी प्रकार किसी भाव के द्वितीय द्वादश स्थान पर शुभ प्रभाव पड़ेगा तब वह भाव प्रफुल्लित होगा।
अन्य किसी प्रकार यह प्रभाव द्वितीय तथा द्वादश स्थान पर पड़ सकता है, इस का विवरण नीचे की पक्तियों में देखिये –
होराशास्त्र के विद्वानो ने भावों के फल कहने के लिये “शुभ मध्यत्व’ और ‘पाप मध्यत्व’ का उल्लेख किया है। चन्द्राधियोग का जो धनदायक शुभ फल होता है उसका कारण भी यही है कि षष्ठ तथा अष्टम में स्थित शुभ ग्रहों की दृष्टि के फलस्वरूप चन्द्र के द्वादश तथा द्वितीय भाव पर शुभ प्रभाव पड़ता है जिससे चन्द्र शुभमध्यत्व में मानो आ जाता है।
अतः जिस किसी भी भाव अथवा ग्रह का फल कहना हो तो देख लेना चाहिये कि उस पर “पार्श्वगामिनी” शुभ दृष्टि है अथवा नही। यदि है तो वह भाव अथवा ग्रह जिसके आस पास शुभ प्रभाव पड़ रहा है शुभ फल देगा।
इसी प्रकार यदि किसी भाव अथवा ग्रह से षष्ठ, अष्टम मे पापी ग्रहों की स्थिति हो (अथवा अन्य किसी प्रकार से उस भाव के आस पास पाप प्रभाव पड़ता हो) तो आस पास (पार्श्वगामी) पाप प्रभाव के कारण वह भाव अर्थात ग्रह अशुभ फल देगा।
दुरुधरा योग
परिभाषा – जब चन्द्र से द्वादश तथा द्वितीय स्थान मे सूर्य को छोडकर कोई ग्रह स्थित हो तो दुरुधरा योग बनता है।
फल – दुरुधरा का फल योग बनाने वाले ग्रहो की प्रकृति गुण-स्वभाव पर निर्भर करता है। प्राय ऐसा मनुष्य सुख भोग करने वाला, धनी होता है।
हेतु – ग्रहो का चन्द्र से द्वितीय, द्वादश होना चन्द्र में कार्य करने की शक्ति का सचार करता है। यह स्वाभाविक ही है कि यह कार्य शुभता की ओर अधिक अग्रसर होगा जबकि दो ग्रह – नैसर्गिक शुभ हों।
चन्द्र से द्वितीय, द्वादश में सूर्य के होने से चन्द्र पक्ष बल मे क्षीण हो जाता है। क्योकि चन्द्र का मुख्य बल उस के लिये “पक्षबल” ही है। अर्थात् चन्द्र जितना जितना सूर्य के समीप आता चला जावेगा उतना उतना निर्बल होता चला जावेगा। इसीलिये सूर्य द्वितीय, द्वादश न हो ऐसा कहा है।
उभयचरी योग
परिभाषा – सूर्य से द्वादश तथा द्वितीय स्थान मे स्थित ग्रहो का नाम “उभयचरी” है। जब ये ग्रह नैसर्गिक पापी हो तो पाप “उभयचरी” और यदि नैसर्गिक शुभ हो तो शुभ “उभयचरी” कहलाते हैं। उभय का अर्थ ‘दोनो ओर’ है ।
फल – “पाप” उभयचरी का फल यह है कि इसके कारण मनुष्य रोग ग्रस्त, दरिद्री, अस्वतन्त्र कर्म करने वाला होता है और शुभ उभयचरी ग्रह मनुष्य को राजा तुल्य, धनी, एश्वर्यशाली, बलवान् सुखी सुशील, दयावान् बनाते है।
हेतु – जैसा कि हम बहुधा कह चुके हैं “सूर्य” भी लग्न की भाति कार्य करता है और लग्न ही की भाँति शुभ अथवा अशुभ फल के देने वाला होता है। यदि सूर्य पर शुभ प्रभाव पडे तो जातक सूर्य लग्न की शुभता के कारण राज्य, बल, यश, धन, सुख पाता है।
इस के विपरीत यदि सूर्य पर पापी ग्रहो का प्रभाव हो तो दुख, दरिद्र, अपयश, अस्वतन्त्रता, रोग आदि अनिष्ट पदार्थों की प्राप्ति होती है। जो कि लग्न के विरोधी दोषो की ही प्राप्ति है।
अब उभयचरी योग मे ग्रहो की स्थिति सूर्य से द्वितीय तथा द्वादश होती है जिस से यदि वे ग्रह शुभ हुए तो शुभ “उभयचरी” अथवा शुभ मध्यत्व का फल निकलता है और यदि सूर्य से द्वितीय द्वादश पाप ग्रह हुए तो सूर्य पर पाप मध्यत्व के कारण सूर्य लग्न से विरोधी अर्थात् पाप फल दुख दरिद्र, रोग आदि निकलता है ।
कारक – योग
परिभाषा – यदि दो अथवा दो से अधिक ग्रह उच्च राशि मे अथवा स्वक्षेत्र में हों तथा परस्पर केन्द्र में स्थित हो तो “कारक” योग उत्पन्न करते है । कारकयोग पदवी तथा धन देने वाला महान् योग है।
हेतु – जब दो ग्रह उच्च होकर अथवा स्वक्षेत्र में होकर स्थित होगे तो यह स्पष्ट है कि वे बली होगे। ऐसे बली ग्रहो के परस्पर केन्द्र मे स्थित होने का अर्थ यह होगा कि वह अपनी उस केन्द्र स्थिति से अपनी उच्चता का अथवा स्वक्षेत्र मे होने के कारण उत्पन्न शुभता का सचार एक दूसरे मे कर सकेगे जिसके फलस्वरूप उच्च अथवा स्वक्षत्री ग्रह को और भी अधिक बल की प्राप्ति होगी और इस प्रकार वह अतीव शुभफल, जैसे ऊँची पदवी, धन, यश, आदि देने मे समर्थ होगा।
अधियोग
परिभाषा – जब शुभ ग्रह लग्नादि से षष्ठ, सप्तम तथा अष्टम स्थान मे स्थित होते है तो ‘अधि योग’ की सृष्टि होती है।
यदि यह शुभ ग्रह लग्नसे षष्ठ, सप्तम, अष्टम हो तो “लग्नाधि योग” होता है। यदि शुभ ग्रहो की स्थिति चन्द्र से हो तो “चन्द्राधि योग” बनता है। हम इस नियम को सर्वत्र अपना सकते है अत जब शुभ ग्रहो की उक्त प्रकार की स्थिति सूर्य से हो तो “सूर्य लग्नाधि योग” का निर्माण होना समझना चाहिये।
फल – “अधियोग” से विशेष धन की प्राप्ति होती है तथा अन्य कई शुभ प्राप्तिया भी होती है।
हेतु – जब लग्न से शुभ ग्रह छठे, सातवे तथा आठवे स्थित होगे तो एक बात तो निर्विवाद सिद्ध है कि लग्न पर सप्तमस्य शुभ दृष्टि द्वारा लग्न को बल तथा लाभ पहुँचेगा। रह गई बात उन शुभ ग्रहो की जोकि लग्न से छठे तया आठवे स्थित है। उनके सबन्ध मे हम नियम सख्या सात मे स्पष्ट कर चुके है कि षष्ठस्थ ग्रह की लग्न से द्वादश स्थान पर शुभ दृष्टि के कारण तथा अष्टमस्थ ग्रह की लग्न से द्वितीय स्थान पर शुभदृष्टि के कारण लग्न के आस-पास शुभप्रभाव के कारण, एक प्रकार का शुभ मध्यत्व भी प्राप्त होगा।
इस प्रकार लग्न न केवल शुभदृप्ट ही होगा बल्कि शुभमध्यत्व का फल भी देगा। अतः लग्न अपने संबन्ध रखने वाली सब बाते जैसे धन, यश, स्वास्थ्य, आयु आदि मनुष्य को प्रदान करेगा। यही हेतु “चन्द्राधियोग” में भी जहा, चन्द्र से छठे, आठवे तथा सप्तम मे शुभ ग्रह होते है समझ लेना चाहिये ।
अखण्ड साम्राज्य योग
परिभाषा – लाभेश, धर्मेश (नवम भाव का स्वामी), तथा धनेश – इन मे से कोई एक भी ग्रह यदि चन्द्र लग्न से (अथवा लग्न से) केन्द्र स्थान मे स्थित हो और साथ ही यदि गुरु भी द्वितीय, पंचम अथवा एकादश भाव का स्वामी होकर उसी प्रकार केन्द्र मे स्थित हो तो “अखण्ड साम्राज्य” नाम के योग की सृष्टि होती है ।
फल – यह योग स्थायी साम्राज्य तथा धनादि प्रदान करने वाला महान् योग है।
अमला योग
परिभाषा – जब लग्न अथवा चन्द्र से दशम स्थान मे शुभ ग्रह की स्थिति हो तो “अमला योग” बनता है ।
फल – अमला योग में जन्म लेने वाला मनुष्य निर्मल कीर्ति वाला तथा स्थायी धनवान् होता है ।
हेतु – हम इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि ग्रहों की केन्द्रस्थिति द्वारा उनका प्रभाव लग्न पर पड़ता है। यह प्रभाव यदि शुभ है तो लग्न शुभ फल देती है और यदि यह अशुभ है तो लग्न अशुभ फल देती है।
हम यह भी उल्लेख कर चुके है कि लग्न की स्थिति से धन की स्थिति देखी जाती है। साथ ही ज्योतिष के विद्यार्थी यह बात भी जानते है कि केन्द्रो में मुख्य केन्द्र दशम केन्द्र है। अर्थात् इस केन्द्र में स्थित ग्रह जहां खूब बल पाता है वहाँ वह लग्न पर भी दूसरी स्थिति (चतुर्थ स्थिति) की अपेक्षा अधिक प्रभाव डालता है।
अत स्पष्ट है कि जब कोई शुभ ग्रह दशम केन्द्र में स्थित होगा वह बलवान् होकर लग्न पर अपना शुभ प्रभाव डालेगा जिसके फलस्वरूप लग्न, प्रदर्शित गुण-जैसे धन, स्वास्थ्य आदि, वृद्धि को प्राप्त होंगे।
इसी प्रकार हम यह भी जानते है कि कुण्डली में यदि “यश ” अथवा कीर्ति अथवा “मान” का विचार करना हो तो लग्न और दशम दोनों भावो से करना चाहिये क्योकि ये दोनों के दोनो भाव “मान” के भाव है।
अतः यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिये कि शुभ ग्रह की दशम भाव में स्थिति दशम तथा लग्न दोनों को, चूँकि, शुभ तथा बलवान् बनाती है, अतः, दोनो के सॉझे (Common) गुण “यश” को अवश्य बढ़ाने वाली होगी।
कलानिधि योग
परिभाषा – जब गुरु द्वितीय अथवा पंचम भाव में स्थित हो और बुध तथा शुक्र दोनो से युक्त अथवा दृष्ट हो अथवा गुरु, बुध अथवा शुक्र के नवाँश राशि आदि में स्थित हो तो “कला निधि” नाम का योग बनता है ।
फल – “कलानिधियोग” में उत्पन्न होने वाला मनुष्य राज्य एश्वर्य से युक्त तथा कलाओं में निपुण होता है ।
काहल योग
परिभाषा – (क) यदि नवम भाव का स्वामी तथा चतुर्थ भाव का स्वामी परस्पर एक दूसरे से केन्द्र में स्थित हों और लग्नाधिपति बलवान् हो तो “काहल” नाम का योग बनता है ।
(ख) यदि दशम भाव का स्वामी और चतुर्थ भाव का स्वामी इकट्ठे हों अथवा चतुर्थेश को दशम भाव का स्वामी देखता हो और वह चतुर्थेश उच्च अथवा स्वराशि का हो तो भी “काहल” योग बनता है ।
(ग) लग्नाधिपति जिस राशि में स्थित है और फिर उस राशि का स्वामी पुन जिस राशि में स्थित हो उस राशि का स्वामी यदि अपनी उच्च राशि अथवा स्वक्षेत्र में होकर केन्द्र अथवा कोण मे स्थित हो तो भी “काहल” नाम का योग बनता है।
फल – काहल योग मे उत्पन्न होने वाला मनुष्य ओजस्वी, साहसी, राज्य सम्पदा से युक्त, होता है।
हेतु – (क) पहली प्रकार के काल योग मे एक तो लग्न के स्वामी के बलवान् होने से धन, बल, ऐश्वर्य की प्राप्त होती है; दूसरे, भाग्येश और चतुर्थेश का परस्पर केन्द्र में स्थित होना, भाग्य के साथ सुख का योग उत्पन्न करता है; अर्थात् उसके जीवन में हर प्रकार का सुख सम्मिलित होता है। केन्द्रेश और त्रिकोणेश का योग पाराशरीय पद्धति अनुसार राजयोग देता ही है।
(ख) दूसरे प्रकार के काहल योग में प्रवल चतुर्थेश तथा कर्मेश का सबन्ध स्थापित होता है। इस का अर्थ यह निकलता है। कि मनुष्य को राज्य (दशम) का सुख (चतुर्थ) प्राप्त होगा। लग्नेश का बलवान् होना, यहां भी अपेक्षित ही समझना चाहिये।
(ग) लग्नाधिपति जिस राशि मे स्थित है पुन उस राशि का स्वामी जिस राशि में स्थित है उस राशि के स्वामी की प्रबलता से किसी न किसी प्रकार लग्न को बल मिलता होगा, यही इस योग के पीछे हेतु हो सकता है। यह हेतु इस लिये भी संगत प्रतीत होता है। कि नीचता-भंग – राजयोग मे भी तो उस भाव को बल मिलता है। जिसका स्वामी नीच है और उस नीच राशि का स्वामी केन्द्र स्थिति से बलवान् है।
खड्ग – योग
परिभाषा – यदि भाग्येश धन भवन मे हो और धनेश भाग्य भवन मे हो और साथ ही लग्नेश केन्द्र अथवा कोण मे स्थित हो तो “खड्ग” योग बनता है।
फल – इस योग मे उत्पन्न होने वाला समस्त वेद शास्त्रो के अर्थो से अभिज्ञ बुद्धिमान्, प्रतापवान्, निरभिमानी, कुशल, कृतज्ञ मनुष्य होता है।
हेतु – यदि हम यह बात स्मरण रखे कि द्वितीय भाव “विद्या” अथवा जानकारी का भाव है। और जिस प्रकार का प्रभाव इस भाव अथवा इसके स्वामी पर पड़ता है मनुष्य की विद्या भी उसी ही प्रकार की होती है तो फिर हमें खड्ग योग के फल समझने मे कोई कठिनाई न होगी। | द्वितीयेश तथा नवमेश में व्यत्यय (exchange) का अर्थ यह होगा कि द्वितीय तथा नवम मे घनिष्ठ संबन्ध हो गया है अर्थात् जानकारी तथा धर्म मे (और धर्म शास्त्रों में) सबन्ध स्थापित हो चुका है। इसी संबन्ध के कारण मनुष्य शास्त्रज्ञ धार्मिक, कृतज्ञ आदि धार्मिक विशेषणों से युक्त होता है।
पर्वत योग
परिभाषा – (क) लग्न से केन्द्र घरों में शुभ ग्रह स्थित हों छठा तथा आठवां भाव ग्रहों से या तो खाली हो या इन दोनों में शुभ ग्रह स्थित हो तो ‘पर्वत योग’ बनता है ।
(ख) लग्न तथा द्वादश भाव का स्वामी यदि एक दूसरे से केन्द्र मे हो और मित्रों से दृष्ट हो तो भी पर्वत योग बनता है ।
(ग) यदि लग्नाधिपति द्वारा अधिष्ठित राशि का स्वामी उच्च राशि का अथवा स्वक्षेत्र का होकर केन्द्र अथवा त्रिकोण में हो तो “पर्वत” नाम का योग बनता है ।
लाटरी से धनप्राप्ति योग
कुण्डली मे पंचम भाव “सट्टे” तथा “लाटरी” का स्थान है। पचम भाव मे एक तो बात यह है कि यह भाव नवम भाव से नवम होने के कारण नवमवत् ही विचार किये जाने योग्य है। दूसरे शब्दो में “भाग्य” का द्योतक भी पंचम भाव है और “भाग्य” शब्द का प्रयोग हम प्राय उन स्थितियों में करते है जबकि हमे पुरुषार्थ के परिणामो पर बहुत कम विश्वास होता है और दैवयोग से, प्रभु कृपा से अचानक, आशातीत रूप से, अधिकारी न होते हुए जब हमको कोई वस्तु, धन अथवा पदवी मिलती है।
दूसरे “लाटरी” का धन प्राय सारे का सारा जनता से इकट्ठा किया होता है अत उसे “जनता” का धन कहना उपयुक्त है। और उधर कुण्डली में भी जनता का स्थान चतुर्थ होने से जनता का धन कुण्डली में चतुर्थ से द्वितीय अर्थात् पचम बनेगा ।
एक और बात जो ‘लाटरी’ के सम्बन्ध मे हम को स्मरण रखनी चाहिये वह यह है कि लाटरी मे जब कोई इनाम किसी को प्राप्त होता है तो वह प्राय उसकी आशा नही कर रहा होता। इनाम का प्राप्त होना उसके लिए एक अचानक (Unexpected) घटना होती है और अचानक घटनाओ के लिये राहु तथा केतु छाया ग्रह विख्यात ही है ।
अतः यदि राहु अथवा केतु का योग पंचम अथवा नवम अथवा धन अथवा लाभ भाव से हो जाये तो पचमेश अचानक धन देने के ज्यादा योग्य बन जायेगा और ऐसी स्थिति मे यदि पचमेश बलवान् होकर केन्द्रादि मे शुभ प्रभाव में हो तो लाटरी के धन का योग बनायेगा।
बुध के संबन्ध मे भी कहा है कि यह ग्रह “सद्य प्रतापी” है अर्थात् शीघ्र ही अपना प्रताप दिखलाता है। बुध के इस “सद्य प्रतापी ” होने के गुण के कारण हम यह भी कह सकते हैं कि यदि बुध पचमेश आदि बनता हो और पंचम आदि स्थानों में राहु अथवा केतु की स्थिति हो तो “लाटरी” मिलने की शर्तों की ओर अधिक पूर्ति ज्योतिष की दृष्टि मे होती है।
और फिर यदि बुध आदि पचमेश आदि छाया ग्रहो से अधिष्ठित राशियो के स्वामी होकर लग्न के लिये भी शुभ अथवा योगकारक हो तो सोने पर सुहागा है। फिर तो लाभ की मात्रा भी बढ जाती है और यदि योगकारक उपर्युक्त प्रकार का पंचमेश आदि दो अथवा तीन लग्नो से शुभ अथवा योगकारक बन जाये तो क्या कहना, लाटरी के धन की सख्या कई गुना अधिक हो जायेगी ।
अतः लाटरी का योग इस प्रकार है – “जब कोई ग्रह अधिकतर लग्नो का मित्र होता हुआ पचस्थ अथवा अन्य धनप्रद भावस्थ राहु अथवा केतु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो और बलवान् हो तो लाटरी के धन से लाभ देता है। विशेषतया यदि बुध ऐसा ग्रह बनता हो।”
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