कुंड्ली में विवाह योग
विवाह के अभाव का योग
परिभाषा – जब सप्तम भाव, सप्तमेश तथा शुक्र तीनों, पीडित तथा निर्बल हों और इनमें किसी पर भी कोई शुभ युति अथवा दृष्टि न हो तो मनुष्य को पत्नी की प्राप्ति नही होती।
हेतु – स्पष्ट है कि विवाह के तीनों अंग (Factors) निर्बल होने से विवाह न होगा।
उदाहरण – यह एक व्यक्ति की कुण्डली है जिसने विवाह नहीं किया। यहाँ सप्तम भाव मे केतु का पाप प्रभाव विद्यमान है और उस भाव पर युति अथवा दृष्टि द्वारा कोई शुभ प्रभाव नही पड़ रहा।
सप्तमाधिपति स्वय सप्तम कारक है अर्थात् शुक्र है और यह अपने पूर्ण प्रतिनिधित्व को लेकर शनि और मंगल दो पापी ग्रहो से योग कर रहा है और तीसरे पापी एव शत्रु ग्रह सूर्य की राशि मे बैठा है और चौथे पापी केतु द्वारा जो इससे दशम है प्रभावित है और पुन शुक्र पर कोई शुभ प्रभाव नही। अत विवाह की क्या गुजाइश हो सकती हैं। ध्यान रहे कि शुक्र चन्द्र लग्न से भी सप्तमेश होकर पीडित है।

पति त्याग – योग
परिभाषा – एक स्त्री की कुण्डली मे जब पति द्योतक अर्थात् सप्तम भाव, सप्तमाधिपति तथा सप्तम कारक अर्थात् बृहस्पति पर “त्यागात्मक” अथवा पृथक्ताजनक ग्रहो सूर्य, शनि, राहु अथवा इनसे अधिष्ठित राशियो के स्वामियो का प्रभाव हो तो स्त्री का उसके पति से वियोग हो जाता है अर्थात् तलाक तक हो सकता है।
हेतु – सूय, शनि, राहु, द्वादश स्थान, ये सब पृथकता (Separation) उत्पन्न करते है। इसी प्रकार इन से अधिष्ठित राशियों के स्वामी भी जहां युति अथवा दृष्टि द्वारा प्रभाव डालते है उस स्थान, सम्बन्धी आदि से मनुष्य को पृथक् कर देते है। अतः स्पष्ट है कि जब पति द्योतक सभी अंगो पर पृथक्ता का प्रभाव पड़ेगा तो पत्नी पति से पृथक् (त्यक्त) हो जावेगी।

उदाहरण – इस स्त्री का त्याग इस के पति द्वारा विवाह के शीघ्र बाद ही कर दिया गया था। यहाँ बृहस्पति न केवल सप्तम स्थान का स्वामी है बल्कि स्त्री का “पति” रूप से कारक भी है। यह गुरु तीन पापी ग्रहो के प्रभाव मे है अर्थात् सूर्य, केतु, तथा सूर्य युक्त क्षीण चन्द्र।
पत्नी – त्याग योग
परिभाषा – पुरुष की कुण्डली मे जब पत्नी द्योतक अंगों अर्थात् सप्तम भाव, सप्तमाधिपति तथा सप्तम कारक अर्थात् शुक्र पर सूर्य, शनि, राहु अथवा इनसे से अधिष्ठित राशियों के स्वामियो का प्रभाव हो तो पुरुष का उसकी स्त्री से वियोग हो जाता है।
हेतु – सूर्य, शनि, राहु, द्वादश स्थान ये सब पृथक्ता (Separation) उत्पन्न करते है। इसी प्रकार इनके स्वामी भी जहां अपनी युति अथवा दृष्टि द्वारा प्रभाव डालते है उस स्थान सम्बन्धी आदि से मनुष्य को पृथक् कर देते है । अत: स्पष्ट है कि जब पत्नी द्योतक सभी अंग पृथकता के प्रभाव को अपने ऊपर लेगे तो पत्नी से पृथक्ता हो जायेगी ।
उदाहरण – इस व्यक्ति का विवाह 20 वर्ष के लगभग हुआ था । 20 वर्ष की आयु मे ही उसका पत्नी से वियोग हो गया और मृत्यु पर्यन्त उसका अपनी पत्नी से वियोग ही रहा।

देखिये गुरु सप्तमाधिपति है और शुक्र सप्तम कारक अर्थात् पत्नी कारक; दोनो इकट्टे हैं और दोनो पर सूर्य का प्रभाव है । जैसा कि हम कई बर लिख चुके हैं, सूर्य एक पृथक्ताजनक ग्रह है । और यहाँ तो त्याग और व्यय के घर का स्वामी होन से और भी अपने अन्दर पृथक् कर डालने की शक्ति रखता है ।
इस के अतिरिक्त यह सूर्य, केतु-अधि- ष्ठित राशि का स्वामी भी है अर्थात् केतु का पृथक्ताजनक प्रभाव भी अपने अन्दर रखता है। इस प्रकार सूर्य कई रूपों से अपने अन्दर पृथक् करने की शक्ति लिये हुए है। वह सूर्य शनि की शत्रु राशि मे अप्रसन्न होकर गुरु तथा शुक्र को अर्थात् पत्नी को पीड़ित करता हुआ पत्नी से पृथक्ता उत्पन्न कर रहा है ।
पत्नियों की मृत्यु का योग
परिभाषा – जब द्वितीयाधिपति तथा द्वितीय भाव, शुभ दृष्टि, स्थिति आदि से बलवान् हो परन्तु मंगल की पर्याप्त दृष्टि में हो तो एक के बाद दूसरी पत्नी प्राप्त होती चली जाती है और मरती चली जाती है।
हेतु – द्वितीय भाव सप्तम भाव से अष्टम होने के कारण स्त्री का आयु स्थान होता है। इस भाव पर अथवा इसके स्वामी पर शुभ दृष्टि का अर्थ यह होगा कि पत्नी की आयु है परन्तु मंगल की दृष्टि का अर्थ होगा कि पत्नी की आयु नहीं है। दोनो बातो का समन्वय इस प्रकार होगा कि पत्नी मरती तो हो परन्तु पुन प्राप्त होती चली जाती हो ।
पति-पत्नी वैमनस्य योग
परिभाषा – जब स्त्री की कुण्डली में शुक्र लग्नाधिपति होकर सप्तम भाव, सप्तमाधिपति तथा सप्तम कारक, तीनो से अनिष्ट स्थान से स्थित हो तो पत्नी का पति के प्रति महान् वैमनस्य होता है जिसके फलस्वरूप पत्नी पति की जान तक लेने को तैयार रहती है ।
हेतु – लग्नाधिपति निज (Self) को दर्शाता ही है । स्त्री की कुण्डली मे उसका लग्नेश स्त्री को दर्शायेगा परन्तु जब शुक्र स्वय लग्नाधिपति होगा तो स्पष्ट है कि वह उस स्त्री का पक्का प्रतिनिधि होगा इसलिये भी कि वह एक स्त्री ग्रह है और स्त्री का कारक भी है।
ऐसा प्रतिनिधित्व प्राप्त शुक्र का सप्तम, सप्तमेश तथा गुरु से छठे आठवे आदि अनिष्ट अथवा शत्रुता द्योतक घरों में स्थित होना उसका उसके पति के प्रति विरोध प्रकट करेगा ही।
शास्त्रोक्ति – दशानाथ से षष्ठ स्थान मे प्राप्त हुआ ग्रह तथा वह ग्रह जो लग्नेश का शत्रु है अपनी भुक्ति मे शत्रुभय, पदच्युति करवा देता है। और ऐसी भुक्ति मे बड़े प्यारे भी दुश्मन बन जाते हैं (फलदीपिका २०-२८)। भाव यह कि शत्रु (षडष्टक) स्थिति सदा सर्वदा शत्रुत्व को उत्पन्न करती है।
सुन्दरी स्त्री (या सुरूप पति) प्राप्ति योग
परिभाषा – यदि सप्तम स्थान मे सम राशि हो और उसका स्वामीं तथा शुक्र दोनों भी समराशि में स्थित हों और अष्टम अष्टमेश पर शनि का प्रभाव न हो तो सुन्दरी स्त्रीप्राप्ति योग बनता है ।
फल – ऐसे योग मे उत्पन्न होने वाले व्यक्ति को अतीव सुन्दर स्त्री की प्राप्ति होती है।
हेतु – स्त्रियो के लिये सम राशि उनके नैसर्गिक स्वभाव स्त्रीत्व आदि की वर्द्धक होती है* अतः जब स्त्री के द्योतक तीनो अंग अर्थात् सप्तम भाव, सप्तमेश तथा शुक्र सभी सम (Even) राशि में होंगे तो स्पष्ट है कि स्त्री मे सुन्दरता का सचार होगा।
उदाहरण – यह उस व्यक्ति की कुण्डली है जिस की स्त्री अतीव सुन्दर है। यहाँ सप्तम भाव मे सूर्य विद्यमान है। अर्थात् सप्तम भाव में सूर्य लग्न भी विद्यमान् है। दूसरे शब्दो मे सप्तम लग्न तथा सप्तम सूर्य लग्न दोनो सम राशि मे है। दोनो का स्वामी चन्द्र एक स्त्री ग्रह होता हुआ पुनः सम राशि मे है। शुक्र भी सम राशि में स्त्री ग्रह चन्द्र साथ है। अत स्त्री सौन्दर्य उत्कृष्ट है।

इसी प्रकार पत्नी का एक सुन्दर पति होना अर्थात् पुरुष रूप से लावण्य युक्त होना तब होगा जब कि स्त्री की कुण्डली मे सप्तम भाव मे पुरुष राशि हो और सप्तमेश भी पुरुष राशि मे विद्यमान् होकर गुरु आदि शुभ पुरुष ग्रहों द्वारा दृष्ट हो।
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