माता का अल्प आयु योग

परिभाषा – जब चतुर्थ भाव, चतुर्थेश से तथा चन्द्र पर बहुत पाप प्रभाव हो तो माता की आयु बहुत थोड़ी होती है अर्थात् व्यक्ति के बाल्यकाल मे ही उसकी माता की मृत्यु हो जाती है ।

हेतु – चतुर्थ भाव तथा इसका स्वामी और इस भाव का कारक चन्द्र, सब, माता का प्रतिनिधित्व करते हैं । अत स्पष्ट है कि इन सब का प्रबल पाप प्रभाव मे आ जाना माता के जीवन को शीघ्र ही समाप्त करने वाला सिद्ध होगा ।

उदाहरण – इस कुण्डली मे मगल और शनि दो पापी ग्रहों की पूर्ण दृष्टि चतुर्थ भाव अर्थात् माता के भाव पर पड़ रही है । पुन इन्ही दो पापी ग्रहो की दृष्टि माता के “कारक” चन्द्र पर भी पड़ रही है* चन्द्र यद्यपि पक्ष बल में बलवान् था परन्तु तीन अशुभ प्रभावो में आकर बल को खो चुका है । इस प्रकार माता का भाव तथा माता का कारक दोनों पीड़ित तथा निर्बल पाये गये ।

रह गया चतुर्थेश शनि, सो शत्रु राशि में केतु से युक्त है जिसका असर चन्द्र पर भी है । अतः भाव भावाधिपति तथा कारक, सभी माता के विरुद्ध सिद्ध हुए। इसकी माता की मृत्यु बालक की तीन दिन की आयु मे ही हो गयी थी ।

पुत्राभाव योग

परिभाषा – यदि मंगल द्वितीय स्थान में, शनि तृतीय स्थान मे तथा गुरु पंचम अथवा नवम स्थान में, हो और नवमेश पंचमेश निर्बल हो तो पुत्र का अभाव कहना चाहिये ।

हेतु – मंगल की द्वितीय तथा शनि की तृतीय स्थिति महान् पुत्र

नाशक स्थिति है। इस में कारण यह है कि शनि तथा मगल दोनों की पूर्ण दृष्टि पुत्र भाव अर्थात् पंचम भाव पर पड़ेगी ।

चूँकि “भावात् भावम्” के सिद्धान्तानुसार नवम भाव भी पुत्र विचार में पंचम भाव ही की भांति उपयुक्त है अतः इन दो पापी ग्रहों अर्थात् शनि तथा मगल की पूर्ण दृष्टि नवम भाव पर भी पडेगी ।

अब यदि गुरु, जोकि पुत्रकारक है, पंचम अथवा नवम भाव मे हुआ तो इन्ही दो पापी ग्रहों शनि तथा मंगल की दृष्टि उस पर भी पडेगी । इस प्रकार पंचम भाव, नवम भाव तथा पुत्रकारक तीनो प्रबल पाप प्रभाव में आ जायेगे ।

अब यदि “ पुत्र” के प्रतिनिधि (i) पंचम भाव, (ii) पंचमाधिपति (iii) नवम भाव (iv) नवमेश और (v) गुरु, ये पाँच माने जावे, जैसा मानना कि सर्वथा शास्त्रानुकूल ही है, और पचमेश, नवमेश भी पाप प्रभाव मे आ जाये तो पुत्र देने में कोई भी अंग समर्थ नही रहेगा और पुत्रभावयोग पूर्ण बन जायेगा ।

उदाहरण – इस व्यक्ति को सन्तान का अभाव है । देखिये किस प्रकार पांचों के पाचों ” पुत्र” के प्रतिनिधि पाप प्रभाव मे आ चुके है।

(i) पंचम भाव, (ii) उसके स्वामी बुध पर सूर्य, मंगल, शनि तीन पापी ग्रहों का प्रभाव, (iii) गुरु पर शनि, राहु, मंगल तीन ग्रहों का पाप प्रभाव (iv) नवम भाव पर शनि, राहु, मंगल तीन पापी ग्रहो का प्रभाव (v) नवमाधिपति शुक्र की, अनिष्ट स्थान पष्ठ मे शत्रु राशि मे स्थिति तथा उस पर शनि, राहु का केन्द्रीय प्रभाव ।

मृत सन्तान उत्पत्ति योग

परिभाषा – यदि शनि और राहु का सबन्ध पंचम भाव, उसके स्वामी तथा गुरु से हो तो सन्तान योग होने पर मृत सन्तान की उत्पत्ति होती है ।

हेतु – शनि पत्थर है, चमड़ा है । अर्थात् यह बेजान है, मृत है । और राहु तो शनि ही का रूप है अतः वह भी मुर्दा ही हुआ । जब इन मृतावस्था द्योतक ग्रहों का प्रभाव सन्तान द्योतक अंगों अर्थात् पंचम भाव पंचमेश तथा गुरु पर पडेगा तो सन्तान को मृतावस्था की प्राप्ति होगी अर्थात् मृत सन्तान की उत्पत्ति होगी परन्तु इस के लिए आवश्यक है कि गर्भधारण करने का योग पंचम आदि पर शुभ दृष्टि आदि द्वारा बनता हो। यद्यपि स्पष्ट है कि राहु तथा शनि के पृथक्ताजनक प्रभाव के कारण वह गर्भ पूर्ण न हो पायेगा ।

महान आध्यात्मिक योग

परिभाषा – जब मनोद्योतक अंगों चतुर्थ भाव, चतुर्थेश तथा चन्द्र पर शनि का प्रभाव हो और लग्नों तथा लग्नों से नवम भाव के स्वामियो का परस्पर सम्बन्ध हो तो मनुष्य महान् आध्यात्मिक जीवन का मालिक, महात्मा होता है।

हेतु – शनि एक तपस्वी, योगी, वैराग्यपूर्ण ग्रह है। जब इस ग्रह का प्रभाव युति अथवा दृष्टि द्वारा मन पर पडता है तो स्पष्ट है कि मन मे वैराग्य की, प्रपच से हटने की, एकान्त प्रियता आदि की वृत्ति उत्पन्न होगी और इसके साथ-साथ यदि मनुष्य के निज (Self) का अर्थात् उसके लग्नो का नवमाधिपति, अर्थात् धर्म, तथा आध्यात्मिकता द्योतक ग्रहो से भी सपर्क हुआ तब तो धर्म मे तथा आध्यात्म मे रुचि निष्ठा का रूप धारण कर लेगी।

शराबी होने का योग

परिभाषा – लग्न, लग्नाधिपति, चन्द्र लग्न, चन्द्र लग्नाधिपति तथा द्वितीय, द्वितीयाधिपति पर यदि राहु अथवा शनि का प्रभाव हो तो मनुष्य को शराब पीने का दुर्व्यसन होता है।

हेतु – लग्न तथा द्वितीय भाव ” मुख” का जिस द्वारा वस्तुऐ खायी और पी जाती है, प्रतिनिधि है। इसी प्रकार चन्द्र का भी खाने-पीने से विशेष सम्बन्ध है। अतः जब राहु जैसे दैत्यराज का पीने से घनिष्ट संबन्ध होगा तो शराब खोरी की आदत आ ही जायेगी।

उदाहरण – यह एक ऐसे सज्जन की कुण्डली है जो चाहे कुछ भी हो जाए शराब और वह भी काफी मात्रा मे पिये बिना नही रह सकते। यहाँ देखिये कितना प्रबल योग है* लग्नाधिपति बुध, द्वितीयाधिपति शुक्र तथा चन्द्र सब एकादश मे इकट्ट हैं और सभी पर राहु दैत्यराज की पूर्ण दृष्टि है। अत शराबी होना सिद्ध है ।

घातक (Murderer) योग

परिभाषा – जब तृतीयाधिपति तथा अष्टमाधिपति एक ही ग्रह हो ओर वह तीन चार प्रकार से पाप प्रभाव में पडता हो और शुभ प्रभाव से रहित हो तो “घातक” योग होता है।

फल – ऐसे योग में उत्पन्न होने वाला मनुष्य दूसरों की जान लेने वाला होता है।

हेतु – यह सिद्धान्त है कि जब कोई ग्रह अत्यन्त निर्बल होता है तो जिन दो राशियों का वह स्वामी हो उनको हानि पहुचती है। इसके साथ साथ एक भाव को दूसरे से हानि पहुँचती है।

जैसे मान लीजिये मीन लग्न है और शुक्र तृतीयाधिपति तथा अष्टमाधिपति होकर अतीव निर्बल है तो ऐसी स्थिति में अष्टम को तृतीय से हानि पहुचेगी अर्थात् आयु को निज (बाहु) से हानि पहुचेगी।

चूँकि अष्टम स्थान अपनी तथा अन्य सब की आयु का स्थान है इसका अर्थ यह हुआ कि उस व्यक्ति के बाहु से (निज द्वारा) दूसरो की जान जायेगी।

द्वितीया – स्थान विद्या अथवा ज्ञान का स्थान

द्वितीय स्थान “विद्या” का स्थान है। इसे ज्ञान अथवा जानकारी का भाव भी कह सकते हैं। जिस प्रकार का प्रभाव द्वितीय स्थान पर अथवा उसके स्वामी पर पड़ता है विद्या भी मनुष्य की उस ही प्रकार की होती है।

द्वितीय भाव पर गुरु और शुक्र का प्रभाव मनुष्य को कानून की विद्या (Law) प्रदान करता है। शनि तथा राहु के प्रभाव से डाक्टरी विद्या (Medical line) की प्राप्ति होती है। शुक्र तथा बुध प्रभाव से कला (arts) का ज्ञान होता है। आदि आदि ।

विद्या – दिशा ज्ञान योग

परिभाषा – द्वितीय भाव तथा उसके स्वामी पर पडने वाला प्रभाव विद्या की दिशा का सूचक होता है ।

हेतु – कुण्डली मे “विद्या” का स्थान दूसरा है। कुण्डली का पंचम स्थान चूँकि बुद्धि का है वह विद्या ग्रहण करने की शक्ति को तो अवश्य जतलाता है परन्तु विद्या की दिशा, इसका प्रकार तो द्वितीय स्थान से ही देखा जायेगा।

अतः जिस प्रकार का प्रधान प्रभाव द्वितीय भाव तथा उसके स्वामी पर हो मनुष्य उसी लाइन की विद्या ग्रहण करता है। जैसे सूर्य, राहु तथा शनि ये, डाक्टरी के ग्रह हैं। यदि इन में से दो अथवा तीन ग्रहों का द्वितीय भाव तथा उसके स्वामी पर प्रभाव पड़ता हो तो डाक्टरी विद्या (Medical Line) कहनी चाहिये।

गुरु, बुध तथा शुक्र ये कानून (Law) के ग्रह है। यदि इनमे से दो अथवा तीन का प्रभाव द्वितीय भाव तथा द्वितीयेश पर पड़ रहा हो तो मनुष्य कानून की शिक्षा आदि की उपाधि प्राप्त करेगा।

यदि इस स्थान पर शनि तथा मंगल का प्रभाव हो तो मिलिटरी की अथवा पुलिस की नौकरी की शिक्षा प्राप्त करेगा ।

यदि द्वितीय, द्वितीयेश पर पापी अष्टमेश का प्रभाव हो और अष्टम, अष्टमेश भी पाप प्रभाव में हो तो विदेश जाकर विद्या प्राप्त करेगा।

विज्ञान योग

परिभाषा – जब अष्टमेश तथा तृतीयेश एकत्रित हो और बलवान् हो तो विज्ञान योग बनता है।

फल – इस योग मे जन्म लेने वाला मनुष्य विज्ञान (Science) जानने वाला, अनुसन्धान मे रुचि रखने वाला आविष्कारक (Inventor ) तथा खोजी (Discoverer ) होता है।

हेतु – अष्टम “गभीर खोज” का स्थान है और भावात् भावम के सिद्धान्तानुसार तृतीय भी भारी खोज आदि का स्थान हुआ। दोनों भावो के स्वामियो का परस्पर योग खोज अनुसन्धान आविष्कार का द्योतक है। विशेषतया जबकि दोनो पर शुभ प्रभाव भी हो।

उदाहरण – यह कुण्डली जगत् विख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टाइन की  है जिस ने “सापेक्षवाद” (Theory of relativity) को ससार के सामने रखा। यहां शनि अष्टमेश है और सूर्य तृतीयेश दोनो प्रमुख दशम केन्द्र मे बलवान् होकर बल्कि दो नैसर्गिक शुभ ग्रहों बुध तथा शुक्र के साथ होकर स्थित है।

ज्योतिष योग

  1. ज्योतिष योगों के आधारभूत नियम
  2. फलादेश के सामान्य नियम
  3. कुंड्ली में राजयोग और धनयोग
  4. कुंड्लि में दरिद्र योग
  5. कुंड्ली में विवाह योग
  6. कुंड्ली में रोग योग
  7. विविध ज्योतिष योग
  8. मेष लग्न के योग
  9. वृष लग्न के योग
  10. मिथुन लग्न के योग
  11. कर्क लग्न के योग
  12. सिंह लग्न के योग
  13. कन्या लग्न के योग
  14. तुला लग्न के योग
  15. वृश्चिक लग्न के योग
  16. धनु लग्न के योग
  17. मकर लग्न के योग
  18. कुंभ लग्न के योग
  19. मीन लग्न के योग

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