ज्योतिष योगों के आधारभूत नियम
वैसे तो ज्योतिष शास्त्र में फल कहने के अनेक नियम है, परन्तु यहा हमने उन्ही नियमों का उल्लेख किया है जिन का योगों से घनिष्ठ सम्बन्ध है। ये नियम इस प्रकार है :-
ग्रह की केन्द्रस्थिति का प्रभाव
ग्रहो आदि की केन्द्रस्थिति उस भाव आदि पर शुभ अथवा अशुभ प्रभाव डालती है जिस भावादि से वे ग्रह केन्द्र में होते है; विशेषतया दशम स्थान में। केन्द्र स्थान कुण्डली के प्रथम, चतुर्थ, सप्तम तथा दशम भाव को कहते है।
उदाहरण के लिए यदि दशम भाव मे कोई शुभ अथवा अशुभ ग्रह उपस्थित हो तो उस शुभ अथवा अशुभ ग्रह का प्रभाव लग्न पर पड़ा हुआ समझा जायेगा। पाश्चात्य ज्योतिष में इस को “स्क्वेअर एस्पेक्ट ” (Square Aspect) कहते हैं। उनके यहाँ यह केन्द्रीय प्रभाव सदा सर्वदा बुरा ही माना जाता है, चाहे केन्द्र में स्थित ग्रह नैसर्गिक शुभ ग्रह बृहस्पति अथवा शुक्र ही क्यो न हो।
परन्तु हमारे शास्त्र ऐसा नही मानते। हमारे शास्त्रों के अनुसार केन्द्र में स्थित ग्रह का लग्न पर शुभ अथवा अशुभ प्रभाव उसके शुभत्व अथवा अशुभत्व पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिये यदि कुण्डली मे शनि दशम भाव में स्थित हो तो यद्यपि शानि की दृष्टि लग्न पर नही है तो भी शनि का लग्न पर पूर्ण प्रभाव माना जायेगा और एक पापी ग्रह के नाते शनि अपनी इस दशम स्थिति द्वारा लग्न को हानि पहुँचायेगा।
इसी दशम स्थान (केन्द्र) स्थिति के नियम को आप अन्य भावो आदि पर भी लगा सकते हैं। जैसे, मान लीजिये कि बृहस्पति किसी कुण्डली के द्वितीय स्थान मे पड़ा हुआ है और शनि एकादश मे। यहाँ भी शनि चूँकि बृहस्पति से दशम स्थानमे विद्यमान है, अत उसका पाप अथवा पृथक्ताजनक प्रभाव द्वितीय भाव तथा बृहस्पति, दोनो पर माना जायेगा।
अत निष्कर्ष यह है कि प्रत्येक राशि, ग्रह अथवा भाव पर उस ग्रह अथवा ग्रहो का प्रभाव पडेगा जो कि उक्त राशि, ग्रह अथवा भाव से दशम केन्द्र मे स्थित हो।
अपने स्वामी द्वारा दृष्ट भाव की वृद्धि
जब कोई भाव अपने स्वामी द्वारा दृष्ट होता है तो उस भाव की वृद्धि होती है, चाहे भाव का स्वामी नैसर्गिक पापी ग्रह मंगल, शनि आदि ही क्यों न हो। यह वृद्धि और भी अधिक हो जाती है जब कि अपने स्वामी द्वारा दृष्ट भाव पर शुभ ग्रह का प्रभाव भी युति अथवा दृष्टि द्वारा हो।
चेतावनी – परन्तु उपर्युक्त नियम का प्रयोग करते समय यह ध्यान रहे कि यदि कोई ग्रह अपने स्वामी द्वारा दृष्ट है और वह स्वामी पापी ग्रह है और किसी शुभ ग्रह की युति अथवा दृष्टि दृष्ट भाव पर नही है अथवा भावेश पर नही है तो भी दृष्ट भाव से लाभ होगा परन्तु यह लाभ वस्तु संबन्धी होगा, जीवन संबन्धी न हो पावेगा।
इस बात को उदाहरण से इस प्रकार समझिये – किसी कुण्डली मे कोई नैसगिक पापी ग्रह, जैसे शनि, लाभेश होता हुआ पंचम भाव में स्थित है तो यद्यपि शनि की एकादश भाव में स्थित अपनी राशि पर दृष्टि होने के कारण लाभ प्राप्ति पुरुषार्थं आदि लाभ भाव द्वारा प्रदिष्ट वस्तुओ की प्राप्ति तो होगी परन्तु बड़े भाई की प्राप्ति, जिसका विचार एकादश भाव से किया जाता है, न होगी अर्थात् जातक को बड़े भाई का अभाव कहना चाहिये।
भावेश जिस राशि में हो उसके स्वामी के बलाबल पर भी भावेश का फल निर्भर है।
किसी भावेश का अपने भाव के लिये जिसका कि वह स्वामी है अच्छा अथवा बुरा फल, जहाँ उसकी उस राशि पर निर्भर करता है जहाँ पर कि वह स्थित है, वहाँ वह फल इस बात पर भी निर्भर करता है कि जिस राशि मे वह स्थित है उसका स्वामी बलवान् है अथवा निर्बल।
उदाहरण के लिये यदि कर्क लग्न की कुण्डली हो और सूर्य तुला राशि का चतुर्थ स्थान मे स्थित हो तो यह स्थिति अपने मे इस बात की सूचक है कि द्वितीयाधिपति सूर्य धन का द्योतक होता हुआ नीच राशिमे स्थित होकर निर्बल है। अत इस कुण्डली वाले को सूर्य अपनी दशा अन्तर्दशामे अधिक हानि पहुँचाने वाला है परन्तु सूर्य अधिष्ठित राशि अर्थात् तुला का स्वामी शुक्र यदि सप्तम आदि शुभ स्थानो में स्थित हो और शुभयुक्त अथवा शुभदृष्ट हो तो सूर्य को तथा द्वितीय स्थान को जिसका कि सूर्य स्वामी है, निर्बल नही समझना चाहिये।
द्वादशस्थ शुक्र
शुक्र ग्रह चूँकि एक भोगात्मक ग्रह है इस कारण इसका भोगात्मक द्वादश भाव से विशेष सबन्ध तथा लगाव है। जितना अधिक शुक्र द्वादश भाव तथा उसके स्वामी पर प्रभाव डालेगा उतना ही अधिक वह शुक्र जातक के लिये भोगो की सृष्टि करेगा। अत स्पष्ट है कि जव द्वादशेश तथा शुक्र दोनो इकट्ठे द्वादश स्थान मे स्थित हो तो मनुष्य बहुत धन तथा भोगो के भोगने वाला होगा। शुक्र का लगाव द्वादश भाव से इतना घनिष्ठ है कि शुक्र यदि षष्ठ भाव में भी स्थित हो तो भी शुभ फल ही करता है ।
निष्कर्ष यह है कि द्वादश भाव से सबन्ध होने से शुक्र अनुकूल स्थिति पाकर तथा प्रबलता को पाकर शुभ फल को करता है। शुक्र द्वादश स्थिति से शुक्र को बल मिलता है और शुक्र चूँकि “स्त्री” का कारक है अत जिन कुण्डलियो मे शुक्र द्वादश स्थान मे स्थित होता है उनकी स्त्री प्राय दीर्घजीवी होती है। निष्कर्ष यह कि साधारण नियम, कि जो ग्रह द्वादश भाव में स्थित हो वह निर्बल हो जाता है, शुक्र पर लागू नही होता ।
मूल्यप्रद अंग (FACTORS)
आय (Income) का भाव एकादश है और द्वितीय भाव एकादश से चतुर्थ होने के कारण “आय” के रहने का या रखने का घर “धनागार” अथवा (Accumulated Income) है। धन ( Wealth) और मूल्य (Value) का परस्पर घनिष्ठ सबन्ध है । जितना अधिक धन प्राप्त होगा अथवा सचित होगा उतना ही अधिक उसका मूल्य भी होगा। अत “मूल्य” का निरीक्षण-परीक्षण अथवा विवेचन हमको उन सब भाव आदि के द्वारा तथा उनके स्वामियो द्वारा करना चाहिये जो कि धन का किसी भी रूप से प्रतिनिधित्व करते हो। अतः किसी वस्तु, सामग्री, पुरुष, सस्था, आदि को मूल्यवान् उत्कृष्ट उच्चकुलीन, आदि बनाने वाले निम्नलिखित मूल्यप्रद कारक (Factors) है :-
(1) लग्न (2) लग्नाधिपति (3) धनभाव (4) धनेश (5) एकादश भाव (6) एकादश भाव का स्वामी (7) गुरु लग्न (8) चन्द्र लग्न का स्वामी (9) सूर्य लग्न का स्वामी।
लग्न का महत्व – लग्न की जितनी श्लाघा की जाये उतनी कम है। लग्न के वलशाली होने से मनुष्य को जीवन मे मूल्य की प्राप्ति होती है अर्थात् उसे ऐसी मूल्यवान् वस्तुएँ जैसे स्वास्थ्य, अथवा धन चरित्र आयु आदि की प्राप्ति होती है और लग्ने जितनी जितनी बलवान् होती चली जायेगी मनुष्य उपर्युक्त धनादि मूल्यो से उतना ही अधिक सम्पन्न होता चला जायेगा ।
लग्न के महत्व की ओर संकेत करने के लिये “सारावली” में लिखा है, “यदि लग्न मे तीन शुभ ग्रह पड जाये तो शोकरहित राजाओ के जन्म के परिचायक होते हैं और इस के विरुद्ध यदि लग्न मे तीन पापी ग्रह पड जाये तो मनुष्य रोग और शोक से प्रपीडित निर्धन तथा अपमानित होकर जीवन के दिन काटता है।“
इस प्रकार लग्नेश, एकादशेश, धनेश तथा गुरु यह चार ग्रह विशेष रूप से धन तथा मूल्य के द्योतक है और अपनी युति तथा दृष्टि से प्रभावित भाव से संबद्ध बातो को अत्यधिक मूल्यवान् बनाते है।
उदाहरण के लिए यदि कुम्भ लग्न का जन्म हो और सूर्य एकादश भाव में बृहस्पति से अथवा चन्द्र से दृष्ट हो तो मनुष्य का विवाह किसी बहुत ऊंचे राजा-नबाव-रईस की लडकी से होता है।
इसी प्रकार यदि कुम्भ लग्न हो और गुरु चतुर्थ भाव तथा चतुर्थेश दोनों पर अपना युति तथा दृष्टि का प्रभाव डाल रहा हो तो व्यक्ति को लाखो की जायदाद अथवा सम्पत्ति की प्राप्ति होती है ।
धन की दृष्टि से शुभ तथा अशुभ भाव
कुण्डली के बारह भावों को स्थूलरूप से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है, एक शुभ भाव, दूसरा अशुभ भाव। पहले अर्थात् शुभ विभाग में लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, पञ्चम, सप्तम, नवम, दशम एकादश भावों का समावेश है और दूसरे विभाग मे तृतीय, षष्ठ, अष्टम तथा द्वादश भावो का समावेश होता है।
यह वर्गीकरण आर्थिक दृष्टिकोण से है अर्थात् लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम आदि भावों के स्वामी जब केन्द्र आदि शुभ स्थानो मे स्थित होकर शुभ-युक्त अथवा शुभदृष्ट होंगे तो मनुष्य को धन, सुख, भाग्य आदि की प्राप्ति तथा इनका सबर्धन प्राप्त होगा और इस के विपरीत जब तृतीय, षष्ठ, अष्टम द्वादश भावों के स्वामी केन्द्रादि मे बलवान् होंगे तो अभाव, दरिद्रता, रोग आदि की प्राप्ति अथवा वृद्धि होगी।
इसी प्रकार जब द्वितीय, चतुर्थ, पचम भावो के स्वामी निर्बल हो तो धन आदि का नाश कहना चाहिये और षष्ठेश आदि ग्रह निर्बल हो तो धन की प्राप्ति कहनी चाहिये।
एकादश भाव के स्वामी को महर्षि पाराशर ने पापी माना है। उनका इस ग्रह को पापी मानना स्वास्थ्य अर्थात् मारक दृष्टि से है न कि आर्थिक दृष्टि से। अत एकादशेश भले ही किन्ही दशाओं मे रोग आदि देता हो, प्रायः बलवान् एकाद्शेश धनदायक ही सिद्ध होता है ।
पार्श्वगामिनी दृष्टि
यद्यपि यह साधारण नियम सत्य है कि ग्रहों की षष्ठ तथा अष्टम भाव में स्थिति उनके लिये हानिकारक है; परन्तु यह ध्यान रहे कि यदि किसी भाव से अथवा ग्रह से षष्ठ और अष्टम दोनों स्थानो मे (एक मे नही) शुभ ग्रह आ बैठे तो उस भाव अथवा ग्रह की अवश्य वृद्धि होगी जिस से कि ग्रह षष्ठ तथा अष्टम में है।
जैसे किसी भी लग्न से शुक्र छठे पडा हो और गुरु अष्टम मे तो लग्न को शुक्र तथा गुरु के कारण बहुत बल प्राप्त हो जाता है। इस मे कारण यह है कि ऐसी स्थिति मे शुक्र की दृष्टि तो लग्न से द्वादश स्थान पर पडेगी और गुरु की दृष्टि लग्न से द्वितीय स्थान पर इस प्रकार लग्न के दोनो ओर शुभ प्रभाव पडने से, मानो, लग्न को शुभ मध्यत्व की प्राप्ति हुई हों।
ज्योति शास्त्र जानने वालो ने शुभ मध्यत्व (ग्रह अथवा भाव का दो शुभ ग्रहो के बीच मे आ जाना) और “पाप मध्यत्व” ( ग्रह अथवा भाव का दो पापी ग्रहो के बीच मे आ जाना) का उल्लेख किया है।
जब हम “चन्द्राधि-योग” नाम के योग (चन्द्र से छठे, सातवे आठवें शुभ ग्रहो के होने पर यह योग बनता है) पर विचार करते है तो उस की शुभता का कारण यह है कि चन्द्र के द्वितीय तथा द्वादश भाव पर शुभ प्रभाव पडता है, जिस से चन्द्र को मानो शुभमध्यत्व का लाभ पहुँचता है जिस के फल स्वरूप वह लग्न रूप से धन, आयु, यश, स्वास्थ्य सद्गुण आदि को देता है ।
निष्कर्ष यह कि जिस किसी भी भाव या ग्रह से शुभ ग्रह पष्ठ तथा अष्टम होगे उस भाव अथवा ग्रह की खूब वृद्धि करेंगे।
पाराशरीय राजयोग
(1) भावों की पांच श्रेणियाँ – कुण्डली के द्वादश भावो को पाँच श्रेणियों में विभक्त किया गया है। प्रथम, चतुर्थ, सप्तम तथा दशम भाव केन्द्र सज्ञा वाले प्रथम श्रेणी में; लग्न, पंचम, तथा नवम भाव जिनकी त्रिकोण सज्ञा है द्वितीय श्रेणी में; द्वितीय तथा द्वादश भाव तृतीय श्रेणी मे; तृतीय, षष्ठ तथा एकादश भाव चतुर्थ श्रेणी में; तथा अष्टमेश पंचम श्रेणी मे आता है।
(2) केन्द्र के स्वामी ग्रह यदि नैसर्गिक शुभ गुरु, शुक्र आदि हों तो अपनी नैसर्गिक शुभता खो देते है।
(3) त्रिकोण के स्वामी सदा सर्वदा शुभ फल देते हैं; चाहे वे नैसर्गिक शुभ ग्रह हों अथवा पापी।
(4) द्वितीय तथा द्वादश भाव के स्वामी –
- यदि एक राशि के स्वामी अर्थात् सूर्य अथवा चन्द्र हों तो शुभ अथवा अशुभ फल सूर्य तथा चन्द्र के बल तथा स्थिति पर निर्भर करता है ।
- यदि दो राशियो के स्वामी हों तो फल उस भाव का होगा जिस मे कि ग्रह की द्वादशेतर राशि स्थित हो।
(5) तृतीय, षष्ठ तथा एकादश स्थान के स्वामी पापी कहलाते हैं। एकादशश स्वास्थ्य के लिये बुरा है, धन के लिये नही।
(6) अष्टमेश पापी है। बलवान् अष्टमेश आयुदायक तो है परन्तु निर्धन बनाता है।
(7) सूर्य तथा चन्द्र को अष्टमेश होने का दोष नही लगता।
(8) अष्टम तथा तृतीय आयु स्थान है। इनसे द्वादश अर्थात् सप्तम तथा द्वितीय मारक स्थान है। निर्बल द्वितीयेश तथा सप्तमेश अपनी दशा अन्तर्दशा मे शारीरिक कष्ट देते है। और यदि आयु का अन्तिम खण्ड आ चुका हो तो मृत्यु भी देते हैं ।
(9) केन्द्राधिपत्य से जो शुभ ग्रह अपनी शुभता खो बैठते हैं, उनमे गुरु सब से अधिक शुभ होने के कारण सब से अधिक शुभता खो बैठता है । अत दो केन्द्रो का स्वामी गुरु यदि द्वितीय षष्ठ, अष्टम द्वादश आदि अनिष्टकारी भावो मे निर्बल होकर स्थित हो तो बहुत अरिष्ट करता है ।
(11) ग्रह की अन्तिम शुभता अथवा अशुभता का निर्णय उस की दोनो राशियो के आधिपत्य द्वारा करना चाहिये।
जैसे कर्क लग्न के लिये सप्तम केन्द्र का स्वामी होने के कारण शनि यद्यपि अपनी अशुभता खो देता है फिर भी अशुभ ही रहता है, क्योकि जिस दूसरी राशि का यह स्वामी है वह कुभ राशि अष्टम मे पड़ती है और अष्टमेश पापी होता ही है।
इसी प्रकार तुला लग्न के लिये मंगल द्वितीयाधिपति होने के कारण सप्तम भाव का जिसमें कि इस की अन्य राशि स्थित है, फल करेगा। अब मंगल एक पापी ग्रह है। उसका सप्तम केन्द्र का स्वामी होना उसकी अशुभता का नाश करता है अतः तुला लग्न के लिये मंगल थोडा शुभ ही फल करेगा। थोडासा भी पाप प्रभाव यदि इस पर होगा तो अनिष्ट फल देगा।
बृषभ लग्न वालो के लिये शनि योग कारक ही मानना चाहिये क्योकि केन्द्र का स्वामी (दशमेश) होने के कारण शनि अशुभ नही रहता और नवमेश होने के कारण शुभ होता ही है ।
(12) गुरु को दो केन्द्रो के स्वामी होने का दोष लगता है परन्तु धनु लग्न अथवा मीन लग्न हो तब नही; क्योकि ऐसी दशा मे गुरु लग्नेश भी हो जाता है और गुरु का एक साथ केन्द्र तथा कोण (लग्न कोण भी है) का स्वामी होना उसे दोषी बनाने की बजाय उलटा योगकारक बना देता है।
इसी प्रकार बुध को भी दो केन्द्रों के आधिपत्य का दोष लगता है परन्तु मिथुन अथवा कन्या लग्न वालों के लिये नही; क्योंकि यहा भी बुध केन्द्र तथा कोण का एक साथ स्वामी वन जाता है।
एक ही तथ्य के द्योतक दो ग्रहों का युति-दृष्टि-सम्बन्ध
जब दो ऐसे ग्रहों आदि का जो एक ही तथ्य के द्योतक हों परस्पर युति अथवा दृष्टि द्वारा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है तो उस तथ्य सबन्धी घटनाएँ घटती है।
उदाहरणार्थ – लग्न तथा अष्टम भाव दोनो ही “आयु” के द्योतक है। अत यदि लग्नेश तथा अष्टमेश लग्न में इकट्ठे बैठे हों अथवा अष्टम स्थान में एकत्र हों अथवा अन्य किसी भी स्थान में एक साथ बैठे हों और दोनो पर शुभ प्रभाव पड़ रहा हो तो आयु बहुत दीर्घ हो जाती है; कारण कि शुभता का प्रभाव लग्न तथा अष्टम अथवा उनके स्वामी, सभी आयुद्योतक अगों पर पडेगा।
इसी नियमानुसार यदि लग्नेश तथा अष्टमेश को उपर्युक्त स्थित मे पापी ग्रह देखते हों अथवा अन्य किसी प्रकार से प्रभावित करते हों तो आयु को बहुत कम कर देगे। इस सिद्धान्त को हम सादृश्य सिद्धान्त (Principle of Similarity) कहेंगे।
इस सिद्धान्तानुसार जव द्वितीयाधिपति पचम भाव में बलवान् हो तो मनुष्य मे भाषण शक्ति (Oratory) की विशेष योग्यता आ जाती है क्योंकि द्वितीय तथा पचम दोनो भाव भाषणशक्ति के सूचक है।
उपर्युक्त सिद्धान्तानुसार जब लग्नेश, धनेश तथा लाभेश आदि धनद्योतक ग्रहो का परस्पर युति आदि द्वारा सबन्ध स्थापित हो तो इस को एक महान् धनदायक योग समझना चाहिये क्योकि लग्न, धन, लाभ – सब धन के द्योतक हैं।
“वार” संबद्ध ग्रह का लग्न पर प्रभाव
मनुष्य जिस ‘वार’ आदि मे उत्पन्न होता है उस ‘वार’ से सबद्ध ग्रह का मनुष्य पर सदैव प्रभाव रहता है।
अतः जब मनुष्य किसी शुभ बार जैसे सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार मे उत्पन्न होता है तो चन्द्रमा, बुध, गुरु अथवा शुक्र का कुछ प्रभाव लग्न पर अवश्य पडता है।
और यदि जिस शुभवार मे मनुष्य का जन्म हो उसका स्वामी शुभ ग्रह भी यदि सूर्य लग्न, अथवा चन्द्र लग्न अथवा लग्न में उपस्थित हो तो उस शुभ ग्रह का लग्न पर विशेष प्रभाव माना जावेगा और लग्न को विशेष शुभता प्राप्त होगी जिसके फलस्वरूप मनुष्य को धन-सुख यश आदि की प्राप्ति होगी।
अतः जहाँ किसी लग्न मे आप शुभ ग्रह देखे तो इस बात की जाच कर ले कि कही जन्म भी तो उसी ग्रह के वार (Day) में तो नही है। यदि है तो बहुत शुभ योग है।
निजत्व के प्रतिनिधि : लग्नेश, तृतीयेश आदि
व्यक्ति का अपना “निज” अथवा “स्व” लग्न द्वारा निर्दिष्ट होता है। चूँकि मनुष्य का शरीर, जो लग्न द्वारा प्रदर्शित है, अपना अधिकांश कार्य हाथों द्वारा ही संपादित करता है इस लिये कुण्डली में “हाथो” के प्रतिनिधि भाव अर्थात् तृतीय तथा एकादश भाव भी व्यक्ति के निज (Self) को दर्शाते हैं। इसी प्रकार दशम भाव का स्वामी भी “कर्मो का प्रतिनिधि होने के नाते निज के निर्धारित (Deliberate) स्वतन्त्र कार्यो को दर्शाता है । इस प्रकार निज (Self) का प्रतिनिधित्व करने वाले निम्नलिखित अंग (Factors) हुए – (क) लग्नाधिपति (ख) तृतीयाधिपति (ग) एकादशाधिपति (घ) दशमाधिपति ।
उपर्युक्त “निज” के प्रतिनिधि अंगो का प्रभाव जब किसी भाव आदि पर पूर्णरूप से पड़ता है तो मनुष्य का उस भाव-प्रदर्शित व्यक्ति अथवा वस्तु के प्रति व्यवहार जानबूझकर, सोच समझ कर अच्छा या बुरा होता है ।
उदाहरण के रूप में, यदि कुम्भ लग्न हो और शनि तथा मंगल का प्रभाव गुरु पर पड़ रहा हो तो मनुष्य का अपने बड़े भाइयो से घोर विरोध होता है और वह उनको मारने तक के लिये उद्यत हो जाता है। कारण यह कि कुंभ लग्न में शनि लग्नेश तथा मंगल तृतीयेश होने से “निज” (Self) के प्रतिनिधि बन जाते हैं। और इस प्रकार निज की ओर से जानबूझ कर गुरु अर्थात् बडे भाई के साथ (गुरु बड़े भाई का कारक है और कुभ लग्न वालो का लाभेश होने से बड़े भाई के स्थान का स्वामी भी है) दुर्व्यवहार करने का योग तथा उसके शरीर को कष्ट पहुंचाने का योग बन जाता है।
इसी प्रकार यदि मगल तथा शनि का बुध तथा पचमभाव पर प्रभाव हुआ तो इस कुण्डली वाला मनुष्य जानबूझ कर अपनी सन्तान का नाश करने वाला होगा क्योकि बुध सन्तान भाव का स्वामी है। ऐसा योग बहुधा उन लोगो की कुण्डलियो मे आपको देखने को मिलेगा जो कि “परिवार नियोजन” के भक्त हैं।
इस नियम का उपयोग करते हुए हम कह सकते हैं कि जब “निज” द्योतक अगो का प्रभाव सप्तम, सप्तमेश तथा सप्तम कारक पर पडता है तो मनुष्य जान बूझ कर स्वेच्छा की प्रधानता से विवाह करता है। दूसरे शब्दो मे उसका विवाह प्रचलित मर्यादा के अनुकूल माता पिता द्वारा निर्धारित न होकर स्वयं उस व्यक्ति द्वारा निर्धारित होता है। इस प्रकार के विवाह को ही प्रेम विवाह (Love Marriage) कहते है ।
इसी प्रकार इस नियम का प्रयोग हम “आत्मघात” के विषय में भी कर सकते है क्योंकि आत्मघात भी तो जान बूझ कर अपने द्वारा अपने को मारने ही का तो नाम है ।
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