भक्ति द्वारा ग्रह शांति
किसी भी उत्तम भवन को देखकर उसके निर्माता को प्रत्यक्ष न देखकर भी अनुभव के द्वारा उसके रचयिता का निश्चय होता है । दार्शनिक पद्धत्ति के अनुसार कोई भी कार्य ज्ञानवान, इच्छावान क्रियावान् कर्ता के बिना नहीं होता। इसी प्रकार अखिल ब्रह्माण्ड का कर्त्ता भगवान ही है । वे सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान हैं ।
हम देखते हैं कि इस जगत की व्यवस्था भी नियमानुसार ही चलती है। रात्रि के अनन्तर दिवस, दिन के पश्चात रात्रि, ग्रीष्म के पश्चात वर्षा, वर्षा के पश्चात शरद आदि ऋतुओं के परिवर्तन भी नियमबद्ध है । कृष्ण पक्ष के पश्चात शुक्ल पक्ष का आगमन सुनिश्चित है। जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी निश्चित है ।
समस्त विश्व के कार्य नियमों से चलते रहते हैं। जो ग्रह चलते हैं वे नियमबद्ध होकर चलते रहते हैं। जो ग्रह जिस नियम से अचल हैं, वे सर्वदा अचल ही रहते हैं। वे कभी नियम भंग नहीं करते हैं। पानी नीचे की ओर और अग्नि की लपट ऊपर की ओर चलती है। इन नियमों की सत्यता ही ईश्वर है।
कर्मों के अनुसार फल भुगताने वाले सर्वव्यापी परमात्मा की सत्ता न मानने से मनुष्य में उच्श्रृख्लता बढ़ती है और इसके बढ़ने से मनुष्य में झूठ, कपट, चोरी, हिंसा आदि अवगुणों की वृद्धि होती है। इस प्रकार उसका पतन हो जाता है।
दुर्भाग्य के हमले से जूझने के लिए भक्ति एक अचूक शस्त्र है। हम तो यहां तक कह सकते हैं कि शारीरिक आक्रमण के विरुद्ध भी भक्ति हमारी रक्षा करती है, और यदि आवश्यकता पड़े तो उतनी या उससे भी अधिक शक्ति से लड़ती है।
यह एक ऐसा सरल उपाय लगता है जो हितकर होता है और किसी तरह के तर्क भी पाठकों को संतुष्ट नहीं कर सकते। अतएव ये कहना उचित होगा कि खीर का स्वाद तो चखने पर ही पता चलता है।
भक्ति – प्रेम और समर्पण दोनों का दूसरा नाम है। हम किसी से प्रेम करते हैं और उसके लिए सब कुछ करने को तैयार हैं। प्रेम के तीव्र आवेग में हम अपना स्वाभिमान तथा बलिदान करने को तत्पर हो जाते हैं और इसके प्रति उत्तर में हम किसी न किसी दिन अपने प्रेम का प्रतिदान पाते हैं। धीरे-धीरे देखते हैं कि हमारा प्रिय भी उतनी ही तीव्रता से हमें प्रेम करने लगता है। जब मानव जैसी स्थूल वस्तु में यह प्रवृत्ति काम करती है तो सूक्ष्म सतहों पर तो यह महान चमत्कारिक ढंग से काम कर सकती है
विषय के विस्तार में जाने से पहले हम भौतिक संसार के कुछ उदाहरण देकर इसे स्पष्ट करते हैं। हम जानते हैं कि हर क्षण किसी न किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है और कभी-कभी तो हम मृत शरीर को अंतिम संस्कार के लिए जाता भी देखते हैं। शव के साथ जाने वाले व्यक्ति दुःखी होते हैं । उनमें से कुछ तो रोते और बिलखते हैं। क्या देखने वाले असंबंधित व्यक्तियों पर इसका कोई प्रभाव पड़ता है ? नहीं, ऐसा नहीं होता।
पर यदि इन्हीं दर्शकों में से किसी के अपने सगे संबंधी की मृत्यु होती है तो वह भी रोता है और शायद और भी जोरों से। अपनों की मृत्यु और अन्यों की मृत्यु में क्या अन्तर है? यह अन्तर है लगाव का।
जितना अधिक लगाव होगा, उतना ही अधिक प्रभाव होगा। दूसरे शब्दों में यदि हमें लगाव नहीं है या हम संबंधित नहीं हैं तो कोई प्रभाव नहीं होगा। भक्ति, इस प्रवृत्ति से अलग करने का यन्त्र है। व्यक्ति इसी संसार में रहता है । वह अन्य व्यक्तियों के समान ही काम करता है। अच्छे और बुरे का फल उस पर उतना ही पड़ता है जितना की अन्य व्यक्तियों पर । इतना सब होते हुए भी दुख का कोई प्रभाव उस पर नहीं पड़ता। इसका कारण यह है कि उसने इस प्रवृत्ति को अपने से सम्बद्ध नहीं किया है। वह इस व्यक्ति से भी उतना ही असम्बद्ध है जितना की अन्यों से। हम इसे इस तरह से भी कह सकते हैं वह सभी से समान रूप से सम्बद्ध है, इसलिए समान रूप से प्रभावित है । इस दुःख या उस दुःख से इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
भक्ति द्वारा ग्रह शांति
ईश्वर की भक्ति में, हमें आवश्यकता होती है अपने अस्तित्व को ईश्वर के अस्तित्व में विलीन करने की। हम मानते हैं कि कर्ता केवल ईश्वर है, हम तो मात्र उसके हाथ के खिलौने हैं।
शवदाह गृह में नियुक्त व्यक्ति प्रतिदिन अनेकों व्यक्तियों के दाह संस्कार की व्यवस्था करता है पर वह कभी भी किसी के लिए रोता नहीं। वह शवदाह गृह में उपस्थित व्यक्ति के कर्तव्य का निर्वाह मात्र करता है । भक्ति सही अर्थ में हमें इस तरह की कला सिखाती है।
जैसे माता-पिता के नाते से हम अपनी शक्ति के अनुसार अपने बच्चों के लिए अच्छे से अच्छा करते हैं और इसकी परवाह नहीं करते कि वह सफल होगा या असफल । हम संतुष्ट होते हैं कि जो हमसे संभव हो सकता था हमने किया, इसके अतिरिक्त यदि कुछ अनिष्ट हो जाता है तो यह बच्चों का दुर्भाग्य ही है। इसके विपरीत यदि हम स्वयं को कर्ता समझने लगें, तो स्वयं को उनके परिणामों से जुड़ा पायेंगे तथा तदनुसार दुःखी होंगे।
भक्ति द्वारा हम सर्वोच्च शक्ति की चाह को जागृत कर लेते हैं, जो हर तत्व तथा प्रवृत्ति को नियन्त्रित करती है और उससे प्रार्थना करते हैं कि वह हमारे चारों ओर घटित होने वाले दुष्परिणामों से हमारी रक्षा करें।
जब बच्चा त्रुटियाँ करता है और अपनी माँ की शरण में जाकर क्षमा प्रार्थना करता है तो माँ बच्चे का भार पूरी तरह अपने ऊपर ले लेती है और ऐसी व्यवस्था करती है कि बच्चे को कम से कम दुःख पहुँचे। जब हम ईश्वर की शरण में जाते हैं तो वह हमारा भार संभाल लेता है और विभिन्न सूर्य किरणों को इस तरह नियन्त्रित करता है कि हमें हानि न पहुँचे। महान चिन्तकों के जीवन में हमने देखा है कि उनके लिए हर वक्त शुभ है । यही भक्ति है।
मोक्ष प्राप्ति का सबसे सीधा मार्ग भक्ति माना जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि यह बहुत कठिन मार्ग है। हम सब कहते हैं कि ईश्वर महान है। पर हम सबमें क्या वास्तव में इतना विश्वास है ?
हम हमेशा दूसरों को बनाने की कोशिश करते हैं व अपनी इच्छानुसार फल चाहते हैं। जब हम अपने कार्य में असफल होते हैं तभी तोते की तरह रटना शुरु कर देते हैं। “ईश्वर महान है”, “ईश्वर महान है।” पूर्ण समर्पण की भावना हमारे अन्दर कभी नहीं आती।
बोध प्राप्ति के बहुत से मार्ग हैं। व्यक्ति का उत्थान क्रमशः होता है। इसमें कुछ वक्त तो लगता है परन्तु जब एक बार उसे पा लेता है तो सभी लौकिक और अलौकिक शक्तियाँ इसके नियन्त्रण में आ जाती हैं। ऐसा कुछ नहीं जो वह नहीं कर सकता हो ।
यद्यपि भक्ति में भी बहुत से यम-नियम हैं पर हम कठोर नियमों को नहीं बताते। जैसे-जैसे उनकी लगन में प्रगति होती है, इसकी प्राप्ति उन्हें स्वतः हो जाती है। हम उसे अपने ईष्ट देव की आराधना के लिए कहते हैं। उसके देवता का मन्त्र, उसे दें दिया जाता है और जितनी बार हो सके उसे दोहराने के लिए कहा जाता है।
इसमें कोई शक नहीं कि यह प्रक्रिया लम्बी और कठिन है पर इसके फल निश्चित हैं। जहां तक हमारा प्रश्न हैं, हम इसे कठिनाइयों का सार्वभौमिक उपाय कहते हैं। किसी भी चिकित्सा से जो ठीक नहीं होता, वह भक्ति से हो सकता है। सही अर्थ में हम इसे अंतिम अस्त्र मानते हैं, जब न तो ग्रह ही उसके अनुकूल होते हैं न परिस्थितियों के कारण उसे आश्रय मिलता है।
जब अग्नि लगी हो तो माँ अपने शिशु को गोद में उठा लेती है, वक्षस्थल से चिपका लेती है, उसे बाहर की हवा नहीं लगने देती । उसकी शैय्या बन जाती है और उसका पालन पोषण करती है। बच्चे के चारों ओर विस्मृति और अज्ञान का पर्दा आच्छादित रहता है। माँ उसे जगाती है और ज्ञान देती है।
बिना प्रभु की कृपा की अभिव्यक्ति के कोई भी प्राणी अपनी अनुकूलता और प्रतिकूलता को, सुपथ्य और कुपथ्य को नहीं जान सकता । चींटी शक्कर के साथ कैसे जुड़े ? पक्षी कौन सा चारा खाये ? पशु कौन सी घास चरे ? यह भोजन जीवन का साधन है या मरण का यह कैसे जान पड़े? जीव में इस विशेष ज्ञान की धारा कौन प्रवाहित करता है ? अग्नि का स्पर्श दाहक, माता का वक्षस्थल वाहक, पांव से चलना, हाथ से खाना, प्यास लगने पर जल पीना इनकी सबकी पहचान भगवान की प्रशिक्षणी कृपा के विलास हैं । अन्त में
अब मोही भा भरोसा हनुमन्ता, बिन हरि कृपा मिलहिं नहीं सन्ता ।
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