रत्नों द्वारा ग्रह शांति
आजकल कीमती पत्थरों या रत्नों को अंगुठियों में जड़वाने का एक फैशन सा हो गया है जिसे संबंधित व्यक्ति को पहनना पड़ता है। कभी-कभी क्रिया हास्यास्पद स्थितियों तक पहुंच जाती है। हमने व्यक्तियों को आठ-आठ अंगुठियां पहने देखा है, दोनों हाथों में चार-चार। भगवान का शुक्र है कि एक हाथ में चार अंगुलियां ही हैं। रत्नों के प्रयोग पर आजकल बड़ी लापरवाही से व्यवहार किया जाता है, इससे ज्योतिषीय या वैज्ञानिक आधार की पुष्टि नहीं हो सकती ।
रत्नों के उपायों के बारे में विभिन्न विचारधाराएं हैं।
- पहली विचारधारा के अनुसार, रत्नों को पहनने से लग्न के स्वामी को शक्ति मिलनी चाहिए। वे सोचते है लग्नेश केन्द्र है जिसके चारों ओर जीवन चक्र घूमता है।
- दूसरी विचार धारा के अनुसार शक्तिशाली ग्रह को और भी शक्तिशाली करना चाहिए ताकि वह अधिक से अधिक भार वहन कर सके।
- तीसरी विचारधारा के अनुसार, पराशर व्यवस्था के अन्तर्गत शुभ ग्रहों का परामर्श दिया जाना चाहिए ताकि वे और भी अधिक शक्तिशाली हो पाए तथा उत्तम फल प्राप्त हो सके।
- एक अन्य विचारधारा के अनुसार व्यक्ति की समस्या अनुसार यह विभिन्न रत्न पहन सकता है।
यद्यपि हमने प्रारम्भ से पुस्तकीय ज्ञान से बचने का प्रयत्न किया है, जो हमारे पाठकों के पास पर्याप्त रूप में है और कई स्थानों पर हमने अपने मत भी प्रतिपादित करने के लिए जोर दिया है।
ऋषि पराशर ने हर राशि के लिए शुभ और अशुभ मूल ग्रहों की ओर इंगित किया है। राशिवार ब्यौरा इस प्रकार है:-
रत्नों के धारण की दूसरी विचारधारा लग्नेश पर आधारित है। ग्रह (जो लग्न का स्वामी है) उसका रत्न तथा उसके धातु इत्यादि नीचे दिए गए हैं।
तीसरी व्यवस्था के अनुसार, सशक्त ग्रहों को और अधिक सशक्त करना चाहिए इसे विस्तृत करने की जरूरत नहीं है।
ज्योतिषियों की राय में, व्यक्ति की जिस प्रकार की समस्या है, उसी के अनुसार रत्न धारण करने चाहिए।
- वित्तीय समस्या, विवाह, संतान प्राप्ति, बहाली इत्यादि – पुखराज
- पदोन्नति या सरकारी सहायता, माणिक्य
- मानसिक शांति या मानसिक संतुलन मोती
रत्न का परामर्श ग्रह के कारकत्व पर आधारित है। सूर्य सरकार के लिए कारक है अतः इसके लिए माणिक का परामर्श दिया जाता है।
ऐसे बहुत से व्यक्ति हैं जिनके पास उनकी जन्मपत्री नहीं है। ऐसे मामलों में ज्योतिषी उन्हें उनके प्रचलित नाम के अनुसार रत्नों को धारण करने का परामर्श देते हैं।
रत्नों द्वारा ग्रह शांति
इसमें कोई शक नहीं कि दुर्भाग्य को टालने तथा शारीरिक तथा मानसिक व्याधि के उपचार के लिए रत्नों ने एक मुख्य स्थान प्राप्त कर लिया है। वे राय देते हैं कि यदि व्यक्ति रोग से पीड़ित है तो रत्न के प्रयोग द्वारा इनका उपचार किया जा सकता है। रत्नों के नैदानिक महत्व के बारे में विदेशों में बहुत से अनुसंधान किए गए हैं तथा रत्नों के प्रयोग का परामर्श दिया गया है। विदेशी वैज्ञानिकों द्वारा बहुत सी पुस्तकें लिखी गई हैं। परन्तु अनुसंधान तभी पूरा होगा जब हम दशा और भुक्ति को देखेंगे यानी रत्न के धारण करने से या ग्रहों के अन्तर्दशा अच्छी होने के आधार पर व्यक्ति को लाभ हुआ है।
इस बारे में कोई दो राय नहीं कि रत्न अंतरिक्ष ऊर्जा की खान है जिसमें सात रंगों का इन्द्रधनुष होता है। हर रत्न में विशिष्ट सान्द्रता तथा विशेष प्रकार की अनन्त शक्ति निहित होती है और उसमें विशिष्ट तरंग दैर्ध्य (वेव लेन्थ) होता है। तरंग दैर्ध्य जो कि 50000 से 70000 तक के कम्पनों को इंगित करती है, ऐसा साधारण शीशे में नहीं होता । इस तरह ये स्वभाव से अति प्रभावी होते हैं।
हमारी आयुर्वेदिक व्यवस्था में कुछ औषधियों को बनाने के लिए स्पष्ट रूप से रत्नों के प्रयोग का परामर्श है जिससे कि वे और भी अधिक शक्तिप्रद बन जाती हैं। हीरे, मोती, सोने तथा चांदी का प्रयोग काफी किया जाता है।
रत्न चिकित्सा के हर पहलुओं पर हम अपनी टिप्पणी देते हैं। हमारी लोकप्रियता का श्रेय प्रभु भक्तों के मौखिक प्रचार पर है यानी जो पास आते हैं वे दूसरों को भी हमारे पास आने को प्रोत्साहित करते हैं क्योंकि हम कुछ गुप्त नहीं रखते तथा वैज्ञानिक ढंग से उन्हें समझाते हैं।
सूर्य और चन्द्रमा को छोड़ कर हर ग्रह की दो राशियाँ होती हैं जिसका वह स्वामी होता है। इस तरह ग्रह शुभ और अशुभ ग्रह का स्वामी होता है। रत्न के प्रयोग का परामर्श कर हम उस ग्रह द्वारा सूचित कार्यों को बढ़ावा देने का प्रयत्न करते हैं। इस तरह उस अशुभ ग्रह के कार्यों को वह बढ़ावा देगा जिसका वह स्वामी है।
उदाहरण के लिए मेष राशि में बृहस्पति नवें तथा बारहवें का स्वामी होता है। इसमें कोई शक नहीं कि पुखराज का प्रयोग नवें भाव की विशेषताओं में सुधार लाएगा परन्तु वह बारहवें भाव में दिखाए गए अनावश्यक व्यय में भी वृद्धि करेगा।
दूसरे इस राशि में सूर्य पांचवें भाव का स्वामी है तथा शुभ है और इस तरह के व्यक्ति के लिए माणिक सबसे उपयुक्त है पर यदि सूर्य तुला में स्थित होता है और जहां वह नीच होता है हम सूर्य के शुभ होने पर भी माणिक धारण करने की परामर्श नहीं करते। वह इसलिए क्योंकि अपनी नीचता के कारण सूर्य अनिष्टकर हो जाता है।
उदाहरण के लिए जन्मपत्री बताती है कि मंगल उत्तेजक है। इसका परोक्ष रूप से अर्थ हुआ कि मंगल की तरंगों में कुछ कमी है। इस कमी की क्षतिपूर्ति के लिए व्यक्ति को मूंगा पहनने के लिए कहा जाता है ताकि मूंगे द्वारा आकर्षित मंगल की किरणें त्वचा के माध्यम से आत्मसात हो जाएं और व्यक्ति का असंतुलन सही हो जाए। यह बिल्कुल आयुर्वेदिक व्यवस्था के अनुरूप है जिसमें ग्रह के तथा संभावित दोषों को एक, दो या तमाम द्रव्यों के असंतुलन से जोड़ा गया है। यह पद्धति केवल कुछ सीमा तक ही सराहनीय है। पहले उदाहरण से हमने रोग के निदान की सही कोशिश नहीं की। मंगल की किरणों की कमी के अतिरिक्त व्यक्ति अन्य असंतुलन के कारण भी कष्ट पा रहा हो सकता है। मात्र संयोजन से उपचार नहीं होता।
उदाहरण के लिए हमारे पास दो गुर्दे हैं परन्तु व्यक्ति एक गुर्दा होने पर भी जीवित रह सकता है। यह देख कर कि व्यक्ति के पास केवल एक गुर्दा है हमें दूसरा देने की कोशिश नहीं करनी चाहिए क्योंकि इस तरह कोई नतीजा संभव नहीं।
ऐसे मामलों में जो दूसरी चीज जरूरी है वह ये कि हम किस तरह विशिष्ट ग्रह की किरणों को कम करने का प्रयत्न करें जो कि अनिष्ट ग्रहों से संबंधित है तथा हानि कर रहा है। यदि निर्णय सही न हुआ तो इससे अनावश्यक दुःख तथा अनर्थ हो सकते हैं ।
नीच ग्रहों के विषय में हम कभी रत्नों के प्रयोग की राय नहीं देते। एक नीच ग्रह अधिक उपद्रव करने में सक्षम है। रत्न धारण करना आग में तेल देने के समान होगा। एक कहावत है “एक तो करेला दूसरा नीम चढ़ा।” नीच ग्रह के मामले में रत्न पहनने का परामर्श देना एक दुष्ट व्यक्ति के हाथ में तलवार देने के समान होगा ।
जन्मपत्री नं० 1 के व्यक्ति को विद्वान ज्योतिषी द्वारा लाल मूँगा पहनने की राय दी गई। ऐसा लगा कि मेष के मंगल को, जो कि चौथे भाव में स्थित है मजबूत करना चाहता था और व्यक्ति जमीन के क्रय-विक्रय में लगा है। मंगल नीच शनि से सम्बद्ध है जो कि दूसरे भाव का स्वामी है तथा मार्केश के रूप में कार्य कर रहा है। इस तरह मंगल का संबंध मार्केश की विशेषताओं को बढ़ाएगा। वृहस्पति में मंगल की अन्तर्दशा चल रही थी जो कि एक दूसरे से दो बारह हैं।
मैंने उन्हे तुरन्त मूँगा उतारने को कहा क्योंकि वह उसके लिए घातक हो सकता था। परन्तु व्यक्ति ने मेरी राय नहीं सुनी। भाग्य ने अपना काम करना था और उसने किया। तीन दिनों के अन्दर किसी मूत्रीय रोग के लिए उसे अस्पताल में दाखिल होना पड़ा तथा उसका आपरेशन करना पड़ा। आपरेशन के वक्त डाक्टर को उसका मूंगा उतारना पड़ा। उसने अप्रत्यक्ष कृपादान का काम किया।
जन्मपत्री नं० 2 उस व्यक्ति की है जिसने बचपन में ही अपने पिता को खो दिया था। उसे मामा ने पाल-पोस कर बड़ा किया। उसके पिता ने बहुत सम्पत्ति तथा बढ़ता व्यापार पीछे छोड़ा था। इस मामले में छठे भाव के स्वामी के रूप में शनि शक्तिशाली स्थिति में है तथा मामा के प्रभुत्व को इंगित करता है। इस स्थिति में शनि की दृष्टि अष्टम भाव, जो पैतृक सम्पत्ति को दर्शाता है, पर है। इस विषय में क्या किया जाए? उत्तम रास्ता यह है कि मंगल को शक्तिशाली बनाया जाए तथा शनि की शक्ति को कम किया जाए जिससे मामा द्वारा न्याय किया जा सके।
अन्ततः विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुसार रत्नों के प्रभावों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए कोई विशेष रीति नहीं है। प्रभावों को केवल बढ़ाया जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि बलहीन ग्रहों को शक्तिशाली बनाने के लिए हमें रत्नों का प्रयोग करना पड़ता है जो कि अनिष्टकारी होने या बलहीन होने के कारण आक्रान्त होते हैं और इसका कारण छठवें, आठवें, या बारहवें ग्रह में उनकी स्थिति होती है ।
परन्तु हमें अन्य गृहों पर रत्नों के प्रभावों का विश्लेषण भी करना होता है ताकि दूसरे के बल पर अच्छे प्रभाव प्राप्त न कर पाए। इसलिए हम रत्न धारण करने का परामर्श बहुत कम देते हैं और उसके स्थान पर ग्रह के यन्त्र पहनने का परामर्श देते हैं ।
अन्त में रत्न उस दिन धारण करना चाहिए जब उस विशिष्ट ग्रह का नक्षत्र हो । दूसरे शब्दों में सूर्य कृतिका, उत्तरफाल्गुणी, उत्तराषाढ़ा को शासित करता है तथा व्यक्ति को परामर्श दिया जाता है कि जिस दिन सूर्य का नक्षत्र हो, उस दिन वह माणिक धारण करे न कि मात्र दिन के आधार पर ।
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