रंगों द्वारा ग्रह शांति

अति प्राचीन समय से मानव के आचरण को व्यवस्थित करने में रंग एक मजबूत तथा सूक्ष्म शक्ति रहे हैं। हमारे चारों ओर प्रकृति में इतना रंग फैला पड़ा है कि आदि मानव न केवल इसकी विभिन्नता से प्रभावित हुआ बल्कि इसकी शुरूआत की कोशिशें की तथा अपने भाग्य को मजबूत करने तथा दुःखों से बचाव के लिए इनकी सहायता प्राप्त की।

प्राचीन लोगों ने रंगों को प्राकृतिक शक्तियों से जोड़ा। उनके अनुसार लाल लौ होने के कारण लाल रंग अग्नि का प्रतीक है इत्यादि । आधुनिक समय में भी हम जाने-अनजाने अपनी परम्परा में प्रचलन के अनुसार रंग चिकित्सा का प्रयोग कर रहे हैं। विवाह से पहले हल्दी, को आटे में मिलाकर वर और वधू के शरीर पर उसका उबटन लगाया जाता है। इसका दोहरा प्रभाव पड़ता है। हल्दी वृहस्पति का प्रतिनिधित्व करती है, जो कि नैतिक-शास्त्र का ग्रह है। यह पति और पत्नी के बीच फ्यूज का काम करती है। दूसरे आटे के साथ हल्दी का उबटन सुन्दरता में वृद्धि करता है तथा त्वचा के रोग को दूर करता है जिससे एक का त्वचा रोग दूसरे में न जा सके।

इसी तरह वर और वधू दोनों के पिता गुलाबी रंग की पगड़ी पहनते हैं। यह रंग मंगल का प्रतिनिधित्व करता है। इस तरह परोक्ष रूप से मंगल की शांति की जाती है। इसके अतिरिक्त यह भी परम्परा थी कि वर-वधू को लाल और गुलाबी रंग के कपड़े पहनने होते थे। लाल रंग ओजस्विता तथा शक्ति के लिए हैं। मंगल लाल रंग का प्रतिनिधित्व करता है जो परिणाम को बिगाड़ सकता है। हम देखते हैं कि यदि हम लाल सिग्नलों का उल्लंघन कर उसे पार कर जाएं तो दुर्घटना हो सकती है।

यम का प्रतिनिधित्व शनि करता है, जो हमारे कर्मों के अनुसार निर्णय देता है, इसलिए न्यायाधीशों तथा वकीलों को काला कोट तथा काली टाई पहननी होती है। आमतौर से ईसाई लोग जब शोक प्रकट करने जाते हैं तो काले कपड़े पहनते हैं। हमारे ऋषि-मुनि नारंगी रंग के कपड़े पहनते हैं। पीला रंग वृहस्पति का है।

ग्रहों से विभिन्न रंगों की असंख्य किरणें आ रही हैं। उसमें से कुछ ठंडी हैं और कुछ गर्म। सूर्य की किरणों में सात रंग बनते हैं जिसे प्रकृति ने व्यक्ति के स्वास्थ्य को सहीं बनाये रखने के लिए प्रदान किया है।

सूर्य की किरणों से बैंगनी, नील, नीला, हरा, पीला, संतरी या लाल रंग विकीर्ण होते हैं। अंग्रेजी में वी. आई. बी. जी. वाई. ओ. आर. (VIBGYOR) यानी वायलेट इंडिगो, ब्लू, ग्रीन, येलो, औरेंज, रेड । इन रंगो के अलावा अदृश्य लाल तथा अदृश्य बैंगनी किरणें भी सूर्य के प्रकाश में पाई जाती हैं। इन किरणों को खाली आंखो से नहीं देखा जा सकता तथा ये राहु और केतु की किरणें भी हैं। विभिन्न ग्रहों के रंग इस प्रकार हैं।

सूर्य – संतरी, बुद्धहरा, चन्द्रसफेद, मंगल – लाल, वृहस्पति – पीला, शुक्र – सफेद, शनिबैंगनी, राहुअदृश्य बैंगनी, केतुअदृश्य लाल।

इन रंगों को अलग-अलग खाली आंखो से नहीं देखा जा सकता। रंगावली यानि प्रिज्म से इन्हें अलग-अलग देखने में सहायता मिल सकती है या सात रंगो को कभी-कभी इन्द्रधनुष में देखा जा सकता है। वातावरण असंख्य किरणों तथा उनके परिणामी प्रभावों की अभिव्यक्ति है। आइए, देखें सूर्य किरण चिकित्सा किस प्रकार कार्य करती है ।

जैसा कि ऊपर बताया गया है, कि सूर्य की किरणों में सात रंग होते हैं। जब ये किरणें लाल रंग की वस्तु पर गिरती हैं तो लाल रंग की वस्तु सभी रंगो को आत्मसात कर लेती है और केवल लाल रंग की वापिस होता है। लाल रंग की किरणें जो लाल रंग की वस्तु से वापिस होती हैं आंखो में आती हैं और हम अनुभव करते हैं कि वस्तु का रंग लाल है। लाल रंग के शीशे तथा लाल मूंगे में मुख्य अन्तर जो साधारण शीशे में नहीं होती। इसलिए हम रत्नों का प्रयोग करते हैं रंगीन शीशों का नहीं ।

  • अनुभव बताता है कि जो काम रत्न या बहुमुल्य पत्थर करते हैं वह आंशिक रूप से कपड़ो के रंगो द्वारा भी होता है।
  • रंगो के उपचार पर लौटते हुए हम व्यक्ति को विशेष दिन किसी विशेष रंग के कपड़े पहनने तथा कुछ सप्ताह पश्चात ये कपड़े याचकों को देने का परामर्श देते हैं।

मान लें कि मंगल आक्रान्त है और कष्ट के लिए उत्तरदायी है है तो हम आगन्तुक को केवल मंगलवार के दिल लाल वस्त्र पहनने को कहते हैं। लगातार पांच या सात मंगलवारों को पहनने के बाद वे ये वस्त्र किसी याचक को दे सकता है। इस तरह के उपायों का प्रयोग हमने बहुत बार किया है।

  • विशेष रंग के वस्त्र पहनना एक सुन्दर हल होगा। इसका कारण साधारण है, कोई भी अशुद्ध गणना मूलतः कपड़ों के मामले में इतना काम नहीं करेगी जितना कि वह रत्नों के मामलों में करती है ।

लाल : लाल रंग का गुण, तापन, उत्तेजना तथा फैलाव का निर्देशक है तथा एक टानिक के रूप में कार्य करता है। यह तन्त्रिकीय प्रणाली का उद्दीपक है तथा शरीर में रक्त के संचरण को नियमित करता है । लसीका संबंधी (लिम्फैथेटिक) तन्त्रिकीय प्रणाली को भी उद्दीपित करने में इसका महत्वपूर्ण योगदान है। शरीर में शीत भावना की अवस्था पर काबू पाने तथा शरीर का रंग पीला या नीला पड़ जाने पर यह सहायता करता है। चिरकाली घबराहट, खांसी तथा नपुंसकता की समस्याओं को दूर करने में भी यह मदद करता है । परन्तु शरीर में जलन की संवेदना या उत्तेजना होने पर इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए।

संतरी : यह भी स्वभाव से गर्म है परन्तु लाल से कम। यह भी तन्त्रिकीय प्रणाली को उद्दीप्त करता है तथा शरीर में रक्त संचरण को नियमित करता है।

पीला : यह स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा और लाभदायक है । यह हमें खुशी देता है। यह रेचक का काम करता है तथा मूत्र तथा मल के उचित उत्सर्जन में मदद करता है। यह मस्तिष्क, जिगर तथा तिल्ली को मजबूत करता है। यह दिमागी शक्ति में सुधार में सहायक होता है तथा नपुंसकता तथा लकवे की बीमारियों को दूर करने में सहायक होता है। किन्तु यदि हृदय-स्पन्दन, दस्त, मरोड़ या तन्त्रिकीय उत्तेजना हो तो इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि ये गर्मी के दुष्प्रभाव या शरीर में लाल रंग की अधिकता के कारण होते हैं।

हरा : इसके गुण हैं, तटस्थ, समन्वय, विलोपन तथा रक्त शुद्धता । मुख्यता यह शरीर पर लाल और नीले के मध्यम प्रभाव का प्रतिनिधित्व करता है। यह पीले तथा नीले का मिश्रण है। यह आंखों में जलन, संवेदना, हिस्टीरिया तथा जननेंद्रिय अंगों से संबंधित समस्याओं को दूर करने में सहायक होता है। यह उत्तेजना, जीव- विष के जमाव तथा अस्वस्थता संबंधी मामले जैसे ज्वर, फुंसियां तथा बवासीर की बीमारियों को ठीक करने में सहायक होता है। इसे इसी तरह या शरीर की मांग के अनुसार लाल या पीले रंग में मिलाकर प्रयोग करना चाहिए।

नीला : इसका गुण है ठंडक, शामक, अनुबंधन (संकुचन) तथा रोगाणुरोधक । स्वभाव में यह ठंडा है। इसमें रोगाणुरोधक गुण है जिसकी वजह से यह जलन को नियंत्रित करता है। जलने या तपन से हुए दर्द के नाश में यह सहायक होता है। ज्वर को नियंत्रित करने में यह एक अद्वितीय औषध का काम करता है। चोट के स्थान पर यह रक्त के प्रवाह को नियंत्रित करता है। यह हैजे, लू, त्वचा रोग, मुहासों तथा चिरकाली जख्मों को नियंत्रित करता है। जोड़ों के दर्द, लकवे तथा शरीर में ठंड की अनुभूति होने पर इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए।

हल्का नीला : इसकी प्रकृति बहुत ठंडी है तथा वाहिका संकीर्णता ज्वर दूर करना, तन्त्रिका प्रणाली को शक्तिशाली बनाना तथा दबावों को नियंत्रित करना इसके गुण हैं। यह रोगाणुरोधक भी होता है तथा लाल तथा नीले रंग को मिला कर बनता है।

जामुनी : इसके गुण भी हल्के नीले के समान हैं। यह अनिन्द्रा (इन्सोमिया) रोग को दूर करता है। यह लोहिताणुओ को बढ़ा कर अनीमिया को दूर करता है तथा तीव्र टी.बी. की बीमारी को नियंत्रित करने में भी यह सहायक होता है।

रंगों द्वारा ग्रह शांति

आयुर्वेद के अनुसार वात, पित्त तथा कफ तीन दोष हैं जो प्रकृति के पीले, लाल तथा नीले रंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यदि किसी व्यक्ति को इन दोषों तथा शरीर में इनके लक्षणों का ज्ञान है तो विशेष दोष के नियामक रंग के प्रयोग द्वारा इन्हें ठीक किया जा सकता है।

रंग चिकित्सा साधारण सी है तथा प्रकृतिक चिकित्सा में इसे क्रोमो थेरापी या क्रोमोपैथी कहते हैं, दैनिक होने वाले रोगों तथा आपातकाल में दवाईयों के स्थान पर इसको व्यवहार में लाया जा सकता है। स्थानिक प्रयोग, रंग श्वसन (कलर ब्रीथिंग), सांस खींचने तथा रंग विकिरण द्वारा इसे तैयार करने के कई तरीके हैं। इन दवाईयों को जल, चीनी, शहद, तेल, ग्लेसरीन तथा घी इत्यादि की सहायता से तैयार किया जा सकता है।

इन सात रंगों के अलग-अलग गुण हैं तथा शरीर पर इसके प्रभाव भी भिन्न हैं परन्तु मुख्यता यह तीन रंगों में विभाजित हैं, लाल, पीला तथा नीला । दिन का प्रकाश इन तीनों का मिश्रण है। यदि यह प्रकाश प्रिस्म से होकर गुजरे तो उपर्युक्त सातों रंग दिखाई दे सकते हैं। मूल रूप से हमने तीन रंग बताए हैं तथा इन तीन रंगों की सहायता से विभिन्न मिश्रण तैयार किए जा सकते हैं, जिनका मानवों के लिए चिकित्सीय महत्व है।

कभी-कभी विशिष्ट रंग की आवश्यक दवाई नहीं मिलती, ऐसी परिस्थितियों में पता रहना चाहिए कि कौन सा रंग बनाया जा सकता है।

  • आठ भाग नीले रंग के तथा चार भाग लाल रंग मिलकर हरा रंग बनाया जा सकता है।
  • चार भाग लाल रंग में पांच भाग नीला रंग मिलाकर हल्का नीला रंग बनाया जा सकता है।

उपर्युक्त से स्पष्ट है कि यदि हमारे पास लाल, पीला और नीला रंग है तो मानव शरीर के विभिन्न रोगो का उपचार किया जा सकता है।

शरीर के विभिन्न भागो पर पड़ने वाले प्रभाव के अनुसार रंगो का वर्गीकरण ।

सिर तथा मस्तिष्क : इसे हमेशा ठंडा रखना चाहिए, इसलिए इन भागों के रोगों को दूर करने के लिए नीले रंग तथा जामुनी रंग की आवश्यकता पड़ती है।

गर्दन तथा गला : इन्हें भी उन रंगो की आवश्यकता है जो ठंडक पंहुचाने वाले हों। अतः नीला रंग इसका सही चुनाव है। फिर भी ये भाग उन रंगो को भी सहन कर लेते हैं जो थोड़ी बहुत गरमाहट देते हों।

पेट : इसे मध्यम दर्ज के रंग चाहिए जो पाचन क्रिया में सहायक हों, अतः हल्के पीले रंग की आवश्यकता होती है।

जिगर छोटी आतें, तिल्ली तथा पैंक्रीयास : इन भागों के लिए लाल तथा पीले रंग की आवश्यकता है ताकि इन भागों की दोषपूर्ण क्रिया को ठीक किया जा सके तथा उनकी सामान्य क्रिया की बहाली में सहायता की जा सके।

आँते : अपनी कारगर क्रिया के लिए इन्हें पीले रंग की आवश्यकता है जिससे कि वे कब्ज को दूर कर सकें तथा आंतो की सफाई कर सकें।

श्रोणीय क्षेत्र (पेल्विस रीजन) : इस क्षेत्र के लिए हरा रंग बहुत प्रभावशाली है। इन भागों के रोगों को इससे बहुत सहायता मिलती है। यदि गर्भाशय (यूटरस) में दर्द है तथा अत्यधिक उत्तेजित है तो हरा तथा नीला रंग तथा यदि इनकी क्रिया सामान्य नहीं है तथा सुस्ती है तो पीला तथा हरा रंग प्रयोग में लाना चाहिए ।

हाथ या पांव : इन भागों के उपचार के लिए लाल तथा संतरी रंग अपेक्षित विशेष भाग में रंग का क्या प्रभाव होता है, इसके अनुसार इस वर्गीकरण से पीड़ित भागों के उपचार में सहायता मिल सकती है। यदि कोई भाग अत्याधिक क्रियाशील है तो विरोधी रंग का प्रयोग करना पड़ता है और यदि उसकी गति मन्द है तो उसे पुनः क्रियाशील करने के लिए वही रंग देना होता है।

गीता के अनुसार तीन प्रकार के व्यक्ति होते हैं, यथा तमोगुणी, रजोगुणी तथा सत्तोगुणी । जिन्हें लाल, पीले तथा नीले रंग द्वारा दर्शाया गया है।

  • तमोगुणी या लाल रंग चिड़चिड़े स्वभाव को दर्शाता है। यह आक्रामकता, उग्रता तथा उत्तेजक स्वभाग को दर्शाता है।
  • रजोगुणी या पीला खुशियों तथा साहस को इंगित करता है। यह चिड़चिड़ेपन को नियंत्रित करता है।
  • सतोगुणी या नीला सच्चाई या प्रेरक स्वभाव को दर्शाता है। यह व्यवस्था में ठंडक पहुंचाता है।

जब ये रंग उचित मात्रा में होते हैं तो मृत टिशुओं के उत्सर्जन तथा नवीन टिशुओं के संश्लेषण में सहायक होते हैं। यह प्रक्रिया शरीर को स्वस्थ रखने तथा शरीर से जीव-विष तथा विजातिय पदार्थों को हटाने में सहायक होती है। यह शरीर की प्रतिशोधक शक्ति बढ़ाकर बैक्टीरिया, रोगाणुओं तथा जीवाणुओं से उसकी रक्षा करने में सहायक होते हैं और इस तरह दीर्घायु प्रदान करते हैं, इन रंगों की मात्रा के बिगड़ने से, विभिन्न रोग उत्पन्न हो सकते हैं जिसके परिणाम स्वरूप जीवन क्षीण हो जाएगा।


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