कालसर्प योग की परिभाषा
यदि सभी ग्रह राहु और केतु के मध्य में आ जाएं तो ‘कालसर्प योग’ की सृष्टि होती है। मोटे तौर पर कालसर्प योग दो प्रकार के होते हैं। एक उदित गोलार्द्ध और दूसरा अनुदित गोलार्द्ध। उदित गोलार्द्ध को ग्रस्त योग कहते हैं तथा अनुदित को मुक्त योग कहते हैं।
लग्न में राहु तथा सप्तम में केतु हो, सारे ग्रह 7/8/9/10/11/12वें स्थानों में हों तो यह उदित कालसर्प योग कहलाता है। राहु-केतु का भ्रमण हमेशा उलटा चलता है। इस योग में सभी ग्रह क्रमशः राहु के मुख में आते चले जाएंगे।
जन्मकुण्डली के जब सारे ग्रह राहु-केतु के बीच में पूर्ण रूप से कैद हो जाते हैं, तब ‘पूर्ण कालसर्प योग बनता है। ऐसी स्थिति में जिस भाव में राहु होगा, उस भाव के सुख से जातक को वंचित करेगा।
राहु, केतु की कैद में से एकाध ग्रह बाहर निकल जाएं तो आंशिक कालसर्प योग बनता है। आंशिक कालसर्प योग का कुफल आधा होता है पर होता जरूर है।
प्रबुद्ध पाठकों की जिज्ञासा शान्त करने हेतु उदित गोलार्द्ध एवं अनुदित गोलार्द्ध का भेद निम्न दो उदाहरण कुण्डलियों के द्वारा स्पष्ट करना चाहूँगा। उदाहरण कुण्डली-


राहु-केतु हमेशा उलटे चलते हैं। श्री राजकुमार सोनी की कुण्डली में गोचर का राहु पहले सिंह राशि में जाएगा। फिर कर्क वगैरह को क्रमशः ग्रसित करेगा अर्थात् कुण्डली के खाली भाग में गतिशील होगा तो यह ‘अनुदित गोलार्द्ध’ वाला कालसर्प योग हुआ।
नम्बर दो वाली उदाहरण कुण्डली श्री अशोक सचदेवा की है। जिसमें अनन्त नामक कालसर्प योग ही है परन्तु जब गोचर में ग्रह चलेंगे तो राहु पहले वृश्चिक राशि में जाएगा फिर क्रमश: तुला, कन्या वगैरह में जाएगा। राहु सर्प का मुख कहा गया है। फलतः राहु के मुख में ग्रसित होते चले जाएंगे अतः यह उदित गोलार्द्ध वाला कालसर्प योग हुआ।
उदित गोलार्द्ध वाले को पीड़ा व कष्ट जन्म से ही शुरू हो जाते हैं तथा राहु जब इस घेरे से बाहर निकलता है, तब उसे आराम मिलता है। जबकि अनुदित गोलार्द्ध वाले को प्रारम्भ में इतना कष्ट वगैरह कुछ नहीं होता। उसको कष्ट का अनुभव तभी होगा जब राहु गोचर में आकर के ग्रहों को ग्रसित करना शुरु करेगा। यह सब प्रैक्टिकल रूप से अनुभूत बातें हैं जो पहली बार प्रकट की जा रही हैं।
जैसे उपर्युक्त दोनों कुण्डलियाँ अनन्त नामक कालसर्प योग की होती हुई भी उसके फलादेश अलग-अलग होंगे। वर्गीकरण का यह सूक्ष्म भेद पाठकों को सही ढंग से समझ लेना चाहिए।
विशेष ज्ञातव्य
1. कालसर्प योग के निर्माण में यूरेनस, नेपच्यून व प्लूटो का कोई स्थान नहीं है।
2. यदि कोई ग्रह समान राशि में बैठा हो। नक्षत्र या अंशों की गणना से राहु केतु से दूर चला जाए, ऐसी अवस्था में कालसर्प योग भंग हो जाता है, ऐसी मान्यता यहां इस योग में निरर्थक है।
3. कई बार ऐसा होता है कि राहु-केतु के मध्य सातों ग्रह न आकर एकाध ग्रह उनकी (कैद) पकड़ से बाहर निकल जाता है। ऐसे में उस कुण्डली पर कालसर्प योग की छाया बरकरार है। इसे ‘आंशिक कालसर्प योग’ कहते हैं। शान्ति अनिवार्य है, ऐसा समझना चाहिए।
4. राहु-मंगल, राहु-गुरु, राहु-बुध, राहु-शुक्र, राहु-शनि ये युतियां अनिष्ट फल देती हैं तथा ऐसी पत्रिकाएं शापित मानी जाती हैं।
5. चन्द्र-केतु, चन्द्र-राहु, सूर्य-केतु युतियां प्रतियुतियां कालसर्प योग की तीव्रता को पुष्ट करती हैं तथा पीड़ा उत्पन्न करती हैं।
6. ऐसा अनुभव में आया है कि वृषभ, मिथुन, कन्या और तुला इन लग्नों में पड़ा कालसर्पयोग ज्यादा पीड़ा देता है।
7. राहु से अष्टम में सूर्य पड़ा हो तो ‘आंशिक कालसर्प योग बनता है।
8. ऐसे ही चन्द्रमा से राहु-केतु आठवें हो तो ‘आंशिक कालसर्प योग’ बनता है।
9. जन्मपत्रिका में राहु 6-8-12 में हो तो ‘आंशिक कालसर्प योग’ बनता है।
10. जिस पत्रिका में ‘कालसर्प योग’ पड़ा है तथा शुभग्रह राहु से पीड़ित हैं अथवा राहु स्वयं पापग्रहों से पीड़ित है तो ऐसे जातक को राहु की महादशा में कष्टों का सामना करना पड़ेगा ।
11. राहु मिथुन एवं कन्या का हो तो अन्धा होता है। यदि कालसर्प योग मिथुन या कन्या राशि में राहु द्वारा ग्रसित हो रहा हो तो ज्यादा पीड़ादायक होता है।
कालसर्प योग में जन्मे व्यक्ति को राहु या केतु की दशा, अन्तर्दशा अथवा गोचर में राहु का 6 / 8 /12 स्थानों में भ्रमण विशेष कष्टदायक रहता है।
कालसर्प योग का प्रभाव
कालसर्प योग में जन्मे व्यक्ति को प्रायः बुरे स्वप्न आते हैं। स्वप्न में सांप दिखलाई पड़ते हैं। रात को चमकना, पानी से डरना तथा ऐसे जातक को अकाल मृत्यु का भय रहता है। नींद में चमकना, हमेशा कुछ-न-कुछ अशुभ होने की आशंका मन में रहना, नाग का दीख पड़ना, उसे मारना, उसके टुकड़े होते देखना, नदी-तालाब, कुएं व समुद्र का पानी दीखना, पानी में गिरना और बाहर आने का प्रयत्न करना, झगड़ा होते देखें और खुद झगड़े में उलझ जाएं, मकान गिरते देखना, वृक्ष से फल गिरते देखना। स्वप्न में विधवा स्त्री दीखे, चाहे वह स्वयं के परिवार की ही क्यों न हो।
जिनके पुत्र जीवित नहीं रहते हैं, उन्हें स्वप्न में स्त्री की गोद में मृतबालक दिखलाई पड़ता है। नींद में सोते हुए ऐसा लगे कि शरीर पर सांप रेंग रहा हो पर जागने पर कुछ भी नहीं। छोटे बच्चे बुरे स्वप्न के कारण बिस्तर गीला कर देते हैं। ये सभी स्वप्न अशुभ हैं तथा कालसर्प योग की स्थिति को स्पष्ट करते हैं।
कालसर्प योग का प्रमुख लक्षण एवं प्रत्यक्ष प्रभाव संतान अवरोध, गृहस्थ में कलह, धनप्राप्ति की बाधा एवं मानसिक अशान्ति के रूप में प्रकट होता है।
वस्तुतः जन्मकुण्डली पूर्वजन्म प्रदत्त पुण्य-पाप का लेखा-जोखा ही तो है। यदि पुण्य बलवान है तो केन्द्रत्रिकोण में शुभग्रह उच्च के बैठे होंगे। व्यक्ति भाग्यशाली कहलाता है। जब मनुष्य का भाग्योदय होता है तब सब दिशाओं से नाना प्रकार की सुख सम्पत्तियां अनायास भाग्यशाली व्यक्ति के पास स्वतः ही पहुँच जाती हैं।
जाने-अनजाने में किए पापकर्मों के फलस्वरूप ‘दुर्भाग्य’ का उदय होता है। पहला दुर्भाग्य सन्तान अवरोध के रूप में प्रकट होता है। कुलक्षिणी व कलहप्रिय पत्नी या पति का मिलना दूसरा दुर्भाग्य है। तीसरा दुर्भाग्य धनहीनता है। चौथा दुर्भाग्य शारीरिक हीनता या मानसिक दौर्बल्य है, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति में निराशा की भावना जागृत होती है और अपने जीवित शरीर का बोझा ढोते हुए शीघ्रातिशीघ्र मृत्यु को प्राप्त करना चाहता है दुर्भाग्य से ये चारों लक्षण ‘कालसर्प योग’ वाली कुण्डली में स्पष्टः प्रतिबिम्बित होते हैं।
सबसे पहले व्यक्ति दुर्भाग्य से बचने के लिए भौतिक उपायों का अवलम्ब लेता है। वह डॉक्टर, वैद्य, हकीम के पास पहुँचता है धन प्राप्ति के अनेक उपाय सोचता है प्लानिंग करता है। बार बार युक्तिसंगत प्रयत्न करने पर भी जब कार्य नहीं होता तब अन्तिम रूप में ज्योतिष शास्त्र की ओर ध्यान आकर्षित होता है। तब वह जन्मपत्री में दोष ढूँढता है कौन से कुयोग हैं? पूर्वजन्म कृत सर्पशाप, पितृशाप, भ्रातृशाप, ब्राह्मण शाप की वजह से विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान, शुभकर्म की फलदाई नहीं हो रहे हैं। तब स्पष्टतः कुण्डली में दिखलाई देता है ‘कालसर्प योग’।
जब व्याधि की चिकित्सा औषध व उपायों से नहीं होती तब कर्मज रोग, कर्मज व्याधि को मानना ही होता है।
कच्ची बुद्धि वाले ज्योतिषियों से एक प्रश्न है कि सूर्य के दोनों ओर की यह स्थिति से बेसी, वासी एवं उभयचारी योग बनता है या नहीं? चन्द्रमा के दोनों ओर की ग्रहस्थिति से अनफा, सुनफा, दुर्धरा एवं केमद्रुम योग बनता है या नहीं? चन्द्र के साथ शनि होने पर ‘विषयोग एवं चन्द्र के साथ राहु होने पर ‘ग्रहण योग’ होता है या नहीं? फिर क्या कारण है कि राहु और केतु के द्वारा ग्रसित हो जाने पर आप उन्हें कुग्रह जनित कुयोग नहीं मानते?
महर्षि पाराशर एवं वराहमिहिर जैसे दिग्गज आचार्यों ने ‘सर्पयोग’ की चर्चा अपने ग्रंथों में की है। ‘सारावली’ ने सर्पयोग की और अधिक विस्तृत व्याख्या की है। ‘मानसागरी’ अध्याय 4 श्लोक 10 में स्पष्ट लिखता है कि सप्तमभाव में यदि शनि राहु से युक्त हो तो सर्पदंश से मृत्यु होती है। ‘वृहत्संहिता’ में राहु सर्प का मुख माना गया है तथा केतु इस सर्प की पूँछ कहा गया है। जैन ज्योतिष एवं दक्षिण भारत के प्राचीन एवं नवीन ग्रन्थों में भी ‘कालसर्प योग’ का उल्लेख प्रचुर मात्रा में मिलता है। पर पढ़े कौन ? अध्ययन अनुसंधान कौन करे ? सत्य एवं सही चीजों को समझने-परखने के लिए समय किसके पास है?
एक क्षण के लिए हम यह मान भी लें कि कालसर्प योग का वर्णन प्राचीन ग्रन्थों में प्रचलित नहीं था, तो क्या ज्योतिषशास्त्र में नवीन अनुसंधान पर पाबन्दी है। कैन्सर एवं एड्स जैसे खतरनाक रोगों के बारे में पहले किसी को ज्यादा ज्ञान नहीं था तो क्या आज इन रोगों के अस्तित्व को नकारा जा सकता है?
नहीं, सत्य की खोज एवं अनवरत अनुसंधान बौद्धिक मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। न तो इसको नकारा जा सकता है, न ही इसे रोका जा सकता है। सत्य के प्रति आँखें मूंदना केवल अज्ञानता है, और कुछ भी नहीं ।
कई ज्योतिषी ‘कालसर्प योग’ में राहु के जाप पर ही जोर देते हैं तथा इसकी विधि कराने की सलाह नहीं देते। यह प्रतिक्रिया भी तथाकथित ज्योतिषी की अल्पज्ञता व अज्ञानता को ही दर्शाती है ‘नास्तिक ज्योतिषी’ शब्द से मेरा इशारा उन लोगों की ओर है, जो ब्राह्मणेत्तर हैं तथा ज्योतिषविद्या की विरासत जिन्हें परम्परागत रूप से प्राप्त नहीं है। संस्कार की कमी के कारण ऐसे लोग मन्त्र-तन्त्र विद्या एवं प्रार्थना की शक्ति से अनभिज्ञ होते हैं तथा अनुष्ठान, तपोबल या आशीर्वाद के द्वारा यजमान के भाग्य को पलटने उसका कल्याण करने की क्षमता नहीं रखते। अतः सात्विक ब्राह्मण ही कर्मकाण्ड का अधिकारी है, इस बात को सदैव ध्यान में रखना चाहिए। शास्त्रकार कहते हैं-
पूर्व जन्मकृतं पापं व्याधिरूपेण बाधते। तत् शान्तिरौषधैर्दानैः जप श्राद्धादि कर्मभिः ॥
पूर्वजन्म में किए गए पाप इस जन्म में व्याधि (बाधा) के रूप में प्रकट होते हैं। उसका परिहार जप, दान, श्राद्ध व शान्ति कर्म से ही सम्भव है।
कालसर्प योग काम नहीं कर रहा है?
एक दो बार बड़ा विचित्र अनुभव देखने में आया कि एक सज्जन की कुण्डली में पूर्ण कालसर्प योग था परन्तु उसके जीवन में कालसर्पजनित दोष का नितान्त अभाव था। सज्जन की उम्र लगभग 38 वर्ष की थी। वे सज्जन अपने प्रगति की शेखी बगार रहे थे। कालसर्प की हंसी उड़ा रहे थे, जबकि उनके दुर्दिनों की शुरुआत मात्र चार महीने बाद होने वाली थी।
उस सज्जन का ‘मकरलग्न’ था। लग्न में मंगल उच्च का, स्वगृही शनि के साथ था। मंगल की दशा समाप्त होने में 4 माह बाकी थे, राहु की महादशा लगने वाली थी। लगते ही आकाश के बादशाह जमीन पर आ गए। शेयर बाजार में चार करोड़ का झटका लगा। लम्बे-चौड़े कृषि फार्म पर भूमाफिया ने कब्जा कर लिया। मारपीट हुई अंग-भंग हुआ। शेष जीवन कोर्ट-कचहरी के चक्कर में उलझ गया।
व्यवसायिक ज्योतिषियों के पास ऐसे केस आते रहते हैं। कई बार जातक की कुण्डली में चार-चार ग्रह उच्च के स्वगृही हैं। हंस योग मालव्य योग, रचक योग, करोड़पति योग अन्य विशिष्ट प्रकार के राजयोग मुखरित हैं पर जातक व्यवहारिक धरातल पर फकीर है। आर्थिक तंगी में जी रहा है। कहाँ गया राजयोग का प्रभाव?
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