भावार्थ रत्नाकर | अध्याय 2 | धन योग

1. धनेशे पञ्चमस्थे च पञ्चमेशो घने यदि । धनपे लाभगे वापि लाभेशो धनगो यदि ।

पञ्चमेश पंचमे वा भाग्ये भाग्याधिपो यदि । विशेष धन योगाश्चेत्याहुर्जातकको विदाः ॥ १,२ ॥

भावार्थ – यदि द्वितीयेश और पंचमेश में स्थान परिवर्तन हो या द्वितीयेश लाभ भाव में हो या लाभेश द्वितीय स्थान में स्थित हो या पंचमेश और नवमेश क्रमशः पंचम और नवम भाव में हों, तो जातक को विशेष धन की प्राप्ति होती है।

व्याख्या – इस श्लोक में सादृश्य सिद्धान्त के बहुत से उदाहरण दिये गये हैं । द्वितीय और पंचम दोनों धनदायक भाव हैं, इसलिये इन भावों के स्वामियों का एक दूसरे के भाव में स्थित होना धन प्राप्ति का योग बनावेगा । नवम भाव भी यद्यपि भाग्य और धन का भाव है बल्कि पंचम भाव से अधिक, परन्तु धनेश का व्यत्यय पंचम से धनप्रद कहा है।

नवमेश से धनेश के व्यत्यय का कोई उल्लेख नहीं । कारण, कि यदि यह व्यत्यय लिया जावे, तो धनेश निज भाव द्वितीय से अष्टम होकर धन प्राप्ति को कम कर देगा। इसी प्रकार नवमेश भी नवम से छठे होकर भाग्य में कमी करता ।

सादृश्य के सिद्धान्त को द्वितीय और लाभ दो धन भावों पर भी लागू किया गया है । इसी कारण धनेश के लाभ में होने से या लाभेश के धन स्थान में होने पर धन की प्राप्ति होती है।

श्लोक के अन्तिम भाग से यह बात भी स्पष्ट है कि जब दो भाव एक ही तथ्य के द्योतक हों, तो उनका अपने-अपने भाव में स्वक्षेत्री होना भी उनके साझे गुण की वृद्धि करता है। यहाँ नवम भाग्य भवन है और पंचम नवम से नवम होने के कारण भाग्य ही समझना चाहिये, इसलिये नवमेश और पंचमेश के नवम और पंचम में स्वक्षेत्री होने पर भी भाग्य की प्राप्ति कही ।

3. धनलाभाधि पत्योधिनयोगम् नवे विना । नव पञ्चमेशयोरन्यरेण सहसंगति ॥ ३ ॥

भावार्थ – यदि धनेश और लाभेश, पंचमेश अथवा नवमेश के बिना किसी अन्य भाव के स्वामी से सम्बन्ध स्थापित करें, तो यह धन योग नहीं बनता ।

व्याख्या – ग्रन्थकार ने गुण सादृश्य पर जोर दिया है । यदि धन द्योतक भावों के स्वामियों का अन्य धन द्योतक भावों के स्वामियों से सम्बन्ध न होकर दूसरे किसी भावेश से सम्बन्ध होगा, तो ‘धन’ रूपी साझे गुण की अनुपथिति में धन की प्राप्ति न हो सकेगी ।

4. विशेष धनयोगस्य चाभावे व्यस्तिस्वल्पकम् । इति देवशमनयो वदंति विभुरोत्तमाः ॥ ४ ॥

भावार्थ – धन की सदृशता न होने पर पारस्परिक योग विशेष धनदायक नहीं रहता ।

व्याख्या – ग्रन्थकार का आशय यह है कि यदि धनेश और लाभेश का पंचमेश और नवमेश को छोकड़र अन्य किसी अच्छे भाव के स्वामी से भी यदि सम्बन्ध हो, तो भी यद्यपि धन की प्राप्ति होगी, पर इतनी नहीं जितनी कि उक्त चार भावों के स्वामियों के परस्पर सम्बन्ध से होगी ।

5. धन लाभाषिपत्योश्च व्ययेशेन सहस्थितिः । सबधो यदि विधेत् धनाधिक्यं न विद्यते ॥ ५ ॥

भावार्थ – यदि द्वितीयेश और लाभेश की युति व्ययेश के साथ हो, तो जातक बहुत धनी न होगा ।

व्याख्या – षष्टेश और अष्टमेश की भाँति द्वादशेश भी कमी और न्यूनता का सूचक है, इसलिये धन द्योतक ग्रहों से द्वादशेश की युति धन में न्यूनता लाती है ।

6. गुरोश्च धनकारस्य धनाधिपतिना सहा । संबन्धश्च बुधेनापि धनयोग उदीरितः ॥ ६ ॥

भावार्थ – यदि गुरु का द्वितीयेश और बुध से युति आदि द्वारा सम्बन्ध हो, तो यह सम्बन्ध धनदायक होता है ।

व्याख्या – यहाँ भी सादृश्य का सिद्धान्त काम करता है। धनाधिपति और धनकारक गुरु दोनों धन के द्योतक हैं। इसलिये इन दोनों का सम्बन्ध धन की वृद्धि का सूचक है। बुध का स्वतन्त्र फल नहीं होता। वह अपनी युति द्वारा द्वितीयेश और गुरु की युति के फल को बढ़ावेगा ।

7. लाभेशो लाभगोवाऽपि लग्नेशो लग्नगो यदि । धनेशो धनगश्चैव धनयोग इतीरितः ॥ ७ ॥

भावार्थ – यदि लग्नेश, धनेश और लाभेश अपने-अपने भावों में स्वक्षेत्री हों, तो भी धन की वृद्धि का योग बनता है ।

व्याख्या – ग्रह स्वक्षेत्र में सदा बलवान् होते हैं। यदि धन के द्योतक ग्रह परस्पर सम्बन्धन भी स्थापित कर रहे हों, उनका अपने-अपने धनदायक घरों में स्वक्षेत्री होना भी तो एक से अधिक स्थान पर धन की प्रचुरता की अभिव्यक्ति करता है ।

8. धनेशो लाभराशीशः उभौ लग्नगतौ यदि । धनयोग इति प्रोक्तः बुधैर्जातककोविदैः ॥ ८ ॥

भावार्थ – यदि लाभेश और धनेश दोनों लग्न भाव में स्थित हों, तो भी प्रचुर धन की प्राप्ति होती है।

व्याख्या – धनेश और लाभेश दोनों धन द्योतक हैं और लग्न भी धन द्योतक है, अतः तीनों का योग सादृश्य सिद्धान्तानुसार धन की प्रचुरता का योग है।

9. सर्वेषु भावस्थानेषु तत्त्द्भावादिकारकः । विद्यते तस्यभावस्य फलम् स्वल्पमुदीरितम् ॥ ९ ॥

भावार्थ – यदि कोई ग्रह उसी भाव में स्थित हो जिसका कि वह कारक है, तो उस भाव सम्बन्धित फल बहुत कम मिलता है ।

व्याख्या – यह बहुत महत्वपूर्ण श्लोक है। इसका अर्थ बहुत कम समझा जाता है। इस योग के पीछे जो तर्क है उसको समझने की आवश्यकता है ।

जब कोई ग्रह उस भाव में हो जिसका कि वह कारक है, तो ऐसी स्थिति में दो ऐसे ज्योतिषपरक अंग इकट्ठे होंगे जोकि किसी एक साझे तथ्य के द्योतक हैं और यदि उन पर किसी एक भी पापी ग्रह का प्रभाव पड़ा, तो उनके साझे तथ्य की हानि होगी। चूंकि संख्या में पापी ग्रह शुभ ग्रहों से अधिक है, इसलिये अधिकतर पाप प्रभाव पड़ता ही है, इसीलिये यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि “कारको भाव नाशाय” ।

विशेषतया जब गुरु जैसा शुभ ग्रह कारक रूप से अपने कारकत्व वाले भाव मे स्थित होगा, तो यह लोकोक्ति अधिक चरितार्थ होगी, क्योंकि गुरु पर शुभ ग्रहों की दृष्टि की संभावना कम हो जावेगी । जैसे गुरु पंचम भाव में शत्रु राशि में अथवा स्त्री संज्ञक राशि में प्रायः पुत्र के अभाव का सूचक होता है। हाँ, यदि गुरु वक्री होने के कारण बलवान् हो और उसकी दृष्टि से नवमेश भी लाभान्वित होता हो, तो फिर पुत्र प्राप्ति हो जाती है।

अनुभव में आया है कि कारकत्व वाले भाव में कारक शत्रु राशि में भाव के गुणों का नाश करता है जैसे

  • मंगल छोटे भाइयों का कारक छोटे भाइयों के भाव (तृतीय) में शत्रु राशि में स्थित हुआ छोटे भाइयों के अभाव का सूचक है,
  • धनु राशि में सप्तम में शुक्र विवाह में बाधक होगा,
  • कुंभ राशि में नवम भाव में सूर्य पिता की आयु को बहुत थोड़ा करेगा।
  • इसी प्रकार वृश्चिक राशि में अष्टम भाव में शनि आयु को कम करेगा ।

परन्तु जब कोई कारक उस भाव में स्थित हो जिसका कि वह कारक है। और मित्र राशि में अथवा स्वक्षेत्र आदि में हो और शुभ दृष्ट हो, तो फिर उस भाव की वृद्धि करेगा । जैसे मेष राशि में तृतीय भाव में स्थित मंगल गुरु दृष्ट छोटे भाई अवश्य देगा । इसो प्रकार कर्क का चन्द्रमा चतुर्थ भाव में गुरु दृष्ट माता को दीर्घजीवी करता है, इत्यादि ।

10. सप्तमाधिपतिश्चन्द्रो धनस्थाने स्थितो यदि । केवलेन्दुश्च धनगो नष्टद्रव्यागमो भवेत् ॥ १० ॥

भावार्थ – यदि चन्द्र सप्तमेश होकर द्वितीय भाव में अकेला स्थित हो, तो जातक को नष्ट धन की पुनः प्राप्ति होती है ।

व्याख्या – छठा स्थान चोर का स्थान है, इसलिये सप्तम छठे से द्वितीय होने के कारण चोर का धन हुआ अर्थात् चुराया गया धन हुआ, अतः चन्द्र का द्वितीय भाव जोकि व्यक्ति का अपना संचित धन है, में बेठना चुराये गये धन की पुनः प्राप्ति का द्योतक है ।

इस प्रकार सप्तमेश की सप्तम से अष्टम स्थिति चोर के धन का नाश और उसकी स्वयं को प्राप्ति (पकड़ा जाना) की परिचायक होगी। हाँ, चन्द्र का बलवान् होना आवश्यक होगा ।

भावार्थ रत्नाकर | धन योग | निर्धनता के योग | खान-पान

निर्धनता के योग

1. लग्नवाहन भाग्येशाह्यष्टमस्थान संस्थिताः । जातो जननमारभ्य महद्दारिद्रमनुते ॥ १ ॥

भावार्थ – यदि लग्न चतुर्थ और नवम भाव स्वामी तीनों अष्टम स्थान में स्थित हों, तो जातक जन्म से ही निर्धन होता है ।

व्याख्या – अष्टम भाव नाश तथा दरिद्रता दोनों का सूचक है, अतः स्पष्ट है कि धन, सुख और भाग्य को दर्शाने वाले ग्रहों का इस स्थान में आना धनादि के नाश द्वारा निर्धनता की प्राप्ति का सूचक होगा। चूँकि लग्नेश जन्म और जन्मकालीन स्थिति का द्योतक है, उसका इस प्रकार अष्टम में आना जन्म से ही दरिद्रता की प्राप्ति का सूचक होगा ।

2. धनेशे व्ययभावस्थे व्ययेशो धनगो यदि । जातस्य निर्धनो योगो वक्तव्यस्य सदा बुधै ॥ २ ॥

भावार्थ – यदि द्वितीयेश और द्वादशेश में परिवर्तन योग हो, तो जातक की दरिद्रता का सूचक होता है ।

3. धनेशो व्ययराशौस्यात् व्ययेशे लग्नगे यदि । मारक ग्रहसंदृष्टौ निर्धनश्च भवेन्नरः ॥ ३ ॥

भावार्थ – यदि द्वितीयेश द्वादश स्थान में हो और द्वादशेश लग्न में में स्थित होकर दोनों मारकेश द्वारा दृष्ट हो, तो जातक निर्धन होता है।

व्याख्या – द्वादशेश कमी का सूचक है, अतः धन द्योतक ग्रहों अथवा भावों का द्वादशेश से सम्बन्ध दरिद्रता का सूचक है। यह बात हम पहले देख चुके हैं। धन और लग्न दोनों भाव धन के प्रतिनिधि हैं, अतः इनका द्वादश अथवा द्वादशेश से सम्बन्ध दरिद्रता देगा।

मारक ग्रहों की दृष्टि दरिद्रता में सहायक होती है। इसमें कारण संभवतया यही हो कि मारक प्रायः षष्टेश और अष्टमेश होते हैं जोकि द्वादशेश की भाँति दरिद्रता सूचक हैं। द्वितीयेश और सप्तमेश मारक भी यह कमी लाने का कार्य कर सकते हैं, क्योंकि ये ग्रह अपने में पाप प्रभाव रखते हैं ।

4. पंचमेश रिपुस्थश्चेद्भाग्येशो रन्ध्रगो यदि । मारकग्रह संदृष्टौ निर्धनश्च भवेन्नरः ॥ ४ ॥

भावार्थ – यदि पंचमेश छठे भाव में हो और नवमेश अष्टम में और दोनों मारक ग्रहों द्वारा दृष्ट हों, तो जातक निर्धन होता है।

विद्या

1. शुक्रश्चतुर्थंगो यस्य गानविद्या विशारदः । चतुर्थस्थस्सोमसुतो ज्योतिश्शास्त्र विशारदः ॥ १ ॥

भावार्थ – यदि शुक्र चतुर्थ भाव में हो, तो जातक गाने में निपुण होता है और यदि बुध चतुर्थ भाव में हो, तो जातक ज्योतिष शास्त्र निपुण होता है ।

व्याख्या – चतुर्थ भाव मन और उसकी प्रवृत्ति का भाव है। शुक्र संगीत का ग्रह है और बुध गणित और ज्योतिष का, अतः इन ग्रहों का मन से सम्बन्ध होने के कारण इनके विषयों की व्यक्ति को प्राप्ति होती है।

2. रविर्वा बुधराहुर्वा पंचमस्थानसंस्थिताः । ज्योतिर्विद्या प्रवीणस्याद्विषवैद्यवरो भवेत् ॥ २ ॥

भावार्थ – सूर्य, बुध अथवा राहु यदि पंचम भाव में स्थित हों, तो जातक ज्योतिष शास्त्र में प्रवीण तथा विष सम्बन्धी वैद्य होता है ।

व्याख्या – ज्योतिष ग्रन्थों के अध्ययन से आप देखेंगे कि ग्रह त्रिकोण में स्थित हों, तो उनका प्रभाव लग्न पर रहता है। चूंकि सूर्य और राहु दोनों का डॉक्टरी से सम्बन्ध है और राहु का विष से भी, अतः इन ग्रहों का लग्न पर प्रभाव वैद्य अथवा विष वैद्य बना देगा। बुध का प्रभाव व्यक्ति को ज्योतिष शास्त्र की ओर ले जावेगा । इस सन्दर्भ में ध्यान रहे कि राहु अपनी नवम दृष्टि द्वारा भी अपना प्रभाव लग्न पर डालेगा ।

3. द्वितीयस्थौ रविबुधौ ज्योतिविद्याविशारदः । तावेव शनिना दृष्टा गणितज्ञो भवेन्नरः ॥ ३॥

भावार्थ – यदि सूर्य और बुध द्वितीय भाव में स्थित हों, तो जातक ज्योतिष विद्या में निपुण होता है और यदि रवि बुध पर शनि की दृष्टि भी हो, तो व्यक्ति गणित जानने वाला होता है ।

व्याख्या – ज्ञान के कई भाव हैं। वह ज्ञान जो हमें अपने मस्तिष्क के बल पर मिलता है और जिसके हम बुद्धि द्वारा भक्त हैं, उसका सम्बन्ध पंचम भाव से है । वह ज्ञान जिसका अधिकतर सम्बन्ध हमारी भावनाओं (Emotions) से हो, उसका सम्बन्ध चतुर्थ भाव से होता है । वह ज्ञान जो हम छोटी आयु से स्कूल-कॉलिज आदि में प्राप्त करते हैं उसका सम्बन्ध द्वितीय भाव से होता है । सूर्य और बुध सूक्ष्म मेधा के ग्रह हैं, इसलिए इनका सम्बन्ध गणित और ज्योतिष से है । शनि बहुत गंभीर ग्रह है और गणित भी गंभीर है, अतः इसी कारण से सम्भवतः ग्रन्थकार ने शनि की दृष्टि का फल गणित कहा है, परंतु हम समझते हैं कि गणित (Mathematics) का कारक मंगल है |

4. द्वितीयस्थौ रविकुजौ तर्कशास्त्रविशारदः । पञ्चमस्थौ मन्दभानुबुधा वेदान्तपारगः ॥ ४ ॥

भावार्थ – यदि द्वितीय भाव में सूर्य और मंगल हो, तो व्यक्ति तर्क शास्त्र में निपुण होता है । यदि पंचम भाव में शनि सूर्य और बुध हों, तो व्यक्ति वेदान्त शास्त्र में निपुण होता है ।

व्याख्या – सूर्य सूक्ष्म है और मंगल विशेष रूप से तर्कशाली, इसलिये इन दोनों का विद्या स्थान अर्थात् द्वितीय स्थान में होना व्यक्ति को तार्किक (Logician) बनाता है। पंचम भाव ‘इट’ देवता का भाव है अर्थात् ऐसे विषय का जिसके कि हम दिल से भक्त हैं । सूर्य आत्मा है, बुध, मेधा और शनि दार्शनिक, अतः इनका पंचम भाव में स्थित होना आत्मा को इष्ट बनाकर वेदांत प्रिय बना देता है ।

5. बुधभानु केन्द्र कोण लाभस्थौ गणको भवेत् । द्वितीयस्थौ यदि भृगुः कविताधर्ममश्नुते ॥ ५ ॥

भावार्थ – यदि सूर्य और बुध केन्द्र (१, ४, ७, १० भाव) अथवा कोण (५, ९ भाव) अथवा एकादश भाव स्थित हों तो मनुष्य गणक (Mathematician ) होता है। शुक्र यदि द्वितीय भाव में हो, तो मनुष्य कविता करना जानता है ।

व्याख्या – सूर्य सूक्ष्मता का प्रतीक है और बुध हिसाब- किताव का, अतः इनका बलवान् होना अथवा लग्न को प्रभावित करना व्यक्ति को गणित जानने वाला बनाता है । शुक्र कवि है । इसका विद्या स्थान से तथा वाणी के स्थान से सम्बन्ध ‘जातक को ‘कविता’ का ज्ञान देता है ।

6. संहिकेयः पञ्चमस्थः गूढभावार्थवित्भवेत् । चतुर्थस्थ संहिकेयः जनन्यायुष्मती भवेत् ॥ ६॥

भावार्थ – यदि राहु पंचम भाव में हो, तो जातक दूसरों के गूढ़ भावों को भी जानने की क्षमता रखता है । चतुर्थ भाव में राहु माता को दीर्घजीवी बनाता है ।

व्याख्या – ‘शनिवत राहु’ अर्थात् शनि की भाँति कार्य राहु करता है। इस कहावत के अनुसार राहु यदि चतुर्थ स्थान में मित्र राशि में स्थित हो, तो शनि की भांति यह भी चतुर्थ भाव को कारक माता की आयु बढ़ावेगा।

7. द्वितीयस्थो यदि गुरुर्वेदवेदांगपारगः । स्वोच्चस्वक्षेत्रयुक्तश्चेत्भवेदेवं न संशयः ॥ ७ ॥

भावार्थ – यदि गुरु द्वितीय स्थान में निज क्षेत्र में अथवा अपनी उच्च राशि में स्थित हो, तो जातक वेद-वेदांग में निपुण होता है ।

व्याख्या – देवताओं का गुरु होने के कारण वृहस्पति धर्म-शास्त्र और न्याय-शास्त्र (Law) आदि में निपुण है, अतः यदि वह बलवान् होकर विद्या स्थान (द्वितीय) को प्रभावित करेगा तो अपने गुणों के अनुरूप उक्त विषयों की शिक्षा जातक को देगा ।

8. सभा पूज्यश्च संपूर्ण विद्यावान् भवति ध्रुवम्। वास्थान पोवापतित्व केन्द्रकोणेषु संस्थितौ । सर्वविद्या प्रवीणस्यात्सभापूज्यो न संशयः ॥ ८ ॥

भावार्थ – यदि द्वितीयेश और गुरु केन्द्र अथवा कोण में स्थित हों, तो जातक को हर प्रकार की विद्या की प्राप्ति होती है और वह सभा में आदर पाता है ।

व्याख्या – द्वितीय भाव विद्या का है और गुरु ज्ञानी ग्रह है। इन दोनों का इकट्ठा होना और फिर केन्द्र आदि स्थिति द्वारा लग्न को प्रभावित करना जातक में हर प्रकार की विद्या और ज्ञान को लाना है ।

द्वितीय स्थान वाणी और वाणी की प्रयोगशाला अर्थात् ‘सभा’ का है। उधर बुध और गुरु दोनों भाषण देने में प्रवीण हैं, अतः वाणी के द्योतकों का बलवान् होकर लग्न को प्रभावित करना व्यक्ति में भाषण शक्ति की अधिकता के कारण उसे सभाओं में आदर दिलावेगा ।

9. द्वितीयस्थो यदि कुजस्तर्कशास्त्रविशारदः । तव च भवेदिन्दुः सूत्रतो यजको भवेत् ॥

भावार्थ – द्वितीय स्थान में मंगल व्यक्ति को तर्क शास्त्र (Logic) में प्रवीण करता है। उसी द्वितीय स्थान में यदि चन्द्रमा स्थित हो, तो भक्ति यज्ञ आदि करने वाला कर्मकाण्डी होता है।

10. द्वितीयस्यो यदि भृगुः काव्यालंकार शास्त्रवान् । तवस्याद्यदि शनिर्मूढो दुष्टो भवेद्र बम् ॥ १०॥

भावार्थ – यदि शुक्र द्वितीय में हो, तो कविता तथा अलंकार शास्त्र को जानने वाला होता है । यदि उस स्थान में शनि हो, तो मूढ़, दुष्ट होता है।

व्याख्या – शुक्र कविता, अलंकार, आभूषण तथा अन्य विलास की सामग्री का कारक है, अतः इसका विद्या स्थान बैठना कविता, अलंकार आदि के विषय में ज्ञान देता है ।

शनि प्रकाश का विरोधी विद्या से दूर रहने वाला है, अतः वह अधिक न पढ़ने देगा और इसीलिये दुष्ट कार्यों में प्रवृत्ति भी करा देगा । उसका प्रभाव चतुर्थ भाव अर्थात् मन पर भी पड़ेगा जिसमे मन में शनि के दुष्ट गुण आ जायेंगे ।

खान-पान

1. तृतीयस्थो भवेन्मन्दः तृतीयेशयुतोपि वा । पश्यन्नपि तृतीयं च कट्वाम्लद्रव्यभुक्भवेत् ॥ १ ॥

भावार्थ – यदि शनि तृतीय भाव में हो, तृतीयेश के साथ हो अथवा तृतीय को देखता हो, तो जातक कड़वे और खट्टे पदार्थों के खाने वाला होता है ।

2. तृतीये तु स्थितो भौमः उष्णद्रव्यप्रियो भवेत् । तत्र स्थितो वाक्पतिश्चेत्सात्विक द्रव्य भुक्भवेत् ॥ २ ॥

भावार्थ – यदि मंगल तृतीय भाव में हो, तो जातक गर्म वस्तुओं को खाना चाहता है, यदि तृतीय में गुरु हो, तो वह सात्विक पदार्थों को खाता है ।

व्याख्या – मंगल अग्निमय है, अतः यह अपने अनुकूल पदार्थों का सेवन करवाता है । इसी प्रकार गुरु इस भाव में सात्विक पदार्थ खिलाता है, क्योंकि गुरु स्वयं महान् सात्विक ग्रह है ।

3. द्वितीये यदि शुक्रस्य तांबूलादिप्रियो भवेत् । व्यभिचार रतश्चासीतत्रस्थो यदि भार्गवः ॥ ३ ॥

भावार्थ – द्वितीय भाव में यदि शुक्र स्थित हो, तो जातक तांबूल आदि विलास द्योतक खाद्य-पदार्थों का सेवन करता है और व्यभिचार में रत होगा ।

व्याख्या – विलासप्रिय शुक्र खान-पान के खाने में खाने-पीने की वस्तुओं को विलासात्मक बना डाले, यह बात सहज ही में समझी जा सकती है। शुक्र स्त्री भोग से भी सम्बन्धित है। और द्वितीय स्थान का भी स्त्री से तथा विवाह से घनिष्ठ सम्बन्ध है ।

4. धनेशे लाभ राशिस्ये लाभेशे धनराशिगे । अब्बे त्रयोदशे प्राप्ते विवाहं लभते नरः ॥

भावार्थ – यदि द्वितीयेश और एकादशेश में व्यत्यय हो, तो विवाह १३ वर्ष की आयु में हो जाता है । यहाँ सप्तम भाव का कोई उल्लेख नही, अतः व्यभिचारी होने की भी सम्भावना हो सकती है।

द्वितीयस्थो यदि शनिमंन्दवाग्लोभवान् भवेत् । द्वितीयस्थो केतु गुरु वा चतु निपुणो भवेत् ॥ ४ ॥

भावार्थ – द्वितीय भाव में शनि हो, तो जातक कठोर बोलने वाला तथा थोड़ा बोलने वाला हो। यदि इस स्थान में केतु अथवा गुरू हो, तो चतुर होता है ।

व्याख्या – शनि मन्द गति से चलने वाला, अभावात्मक तथा दुष्ट ग्रह है, इसलिए यह वाणी में भी धीरे अथवा थोड़ा अथवा एक-एक कर बोलने अथवा कठोर बोलने की प्रवृत्ति उत्पन्न करेगा । केतु मंगलवत् तर्कशील है और गुरु तो ज्ञानी है ही, अतः यह दो ग्रह द्वितीय भाव में स्थित होकर व्यक्ति को चतुर बनाते हैं ।

5. भानु भौमो द्वितीयस्थो वाक्क्षुकाठिन्यमुच्यते । द्वितीये संस्थितश्चेन्दुर्वाक्क्षु संभ्रम उच्यते ॥ ५ ॥

भावार्थ – यदि द्वितीय भाव में सूर्य और मंगल स्थित हों, तो जातक की वाणी में कठोरता होती है और यदि इस भाव में चन्द्रमा स्थित हो, तो जातक की वाणी भ्रमात्मक होती है।

व्याख्या – सूर्य में प्रतिभा है और मंगल में शक्ति । इसलिए वाणी पर इन ग्रहों का प्रभाव वाणी को अधिकारपूर्वक कठोरता देता है ।

चन्द्र का चूँकि आकांक्षाओं आदि मन के धर्मों से सम्बन्ध है, चन्द्र की द्वितीय भाव में स्थिति (विशेषतया निर्बल चन्द्र की) वाणी में अस्थिरता और भ्रम उत्पन्न करेगी ।

6. द्वितीयस्थस्सोमसुतो युक्तियुक्तं वचो भवेत् । तत्रैव संस्थितो राहुः वाक्क्षुदीनत्वमुच्यते ॥ ६ ॥

भावार्थ – बुध द्वितीय भाव में हो, तो जातक युक्तियुक्त वाणी बोलता है। यदि वहाँ राहु स्थित हो, तो उसके वचनों से दीनता टपकती है ।

व्याख्या – बुध वाणी का कारक है और शास्त्रों में निपुण है, अत: वह वाणी को युक्तियुक्त ज्ञानमय बनाता है। राहु चतुर परन्तु चालाक है । यह मनुष्य की वाणी को अपने अनुरूप चातुर्ययुक्त (परन्तु स्वार्थपरक) बनाता है ।

7. द्वितीयस्थो यदि कविः क्षीरभक्ष्यादि भुक्भवेत् । तत्रस्थो राहु केतू वं समयोचित भुक्भवेत् ॥ ७ ॥

भावार्थ – द्वितीय स्थान में यदि शुक्र हो, तो जातक खीर (दूध में बने चावल) खाने वाला होता है । यदि वहाँ राहु केतु हों, तो वह समयानुसार अच्छा-बुरा सभी खाने वाला होगा।

व्याख्या – शुक्र जलीय और सुसंस्कृत प्रकृति का है, इसलिये यह खाद्य पदार्थों को भी अपने अनुरूप खीर आदि के रूप में सेवन करवाता है। राहु केतु राक्षसी भोजन प्रिय है, अतः ये मद्य मास आदि का सेवन देते हैं ।

8. द्वितीयस्थो यदि शनिः शूद्रान्नं कुत्सितो धनम् । उच्छिष्टान्नं च श्राद्धान्नं जातोह्यत्ति न संशयः ॥ ८ ॥

भावार्थ – द्वितीय भाव में यदि शनि स्थित हो, तो जातक घटिया कीमत का, घटिया दरजे का जूठा और दान में पाया हुआ अन्न खाता है ।

व्याख्या – शनि प्रत्येक क्षेत्र में निम्न श्रेणी का है, अतः यह खाद्य-पदार्थों को भी अपने अनुकूल निम्न श्रेणी का बनाता है।

भावार्थ रत्नाकर

  1.   मेष लग्न | वृश्चिक लग्न
  2.  वृषभ लग्न | तुला लग्न
  3.   मिथुन लग्न | कन्या लग्न
  4.  कर्क लग्न | सिंह लग्न
  5.  धनु लग्न | मीन लग्न
  6.  मकर लग्न | कुंभ लग्न
  7.   अध्याय 2 | धन योग | विद्या | खान-पान
  8.  अध्याय 3 भ्रातृ-भाव |अध्याय 4 वाहन तथा भाग्य | अध्याय 5 शत्रु और रोग
  9.   अध्याय 6 स्त्री और काम | अध्याय 7 आयु और स्वास्थ्य
  10.  अध्याय 8 भाग्य योग | अध्याय 9 राज योग
  11.  अध्याय 10 तीर्थ स्नान | अध्याय 11 मृत्यु योग
  12.  अध्याय 12 दशा के परिणाम
  13.  अध्याय 13 साधारण योग | अध्याय 14 ग्रहमालिका योग | अध्याय 15 ग्रहों का आधिपत्य आदि
  14.  नियम अध्याय

0 Comments

Leave a Reply

Avatar placeholder

Your email address will not be published. Required fields are marked *