भावार्थ रत्नाकर अध्याय 13 | साधारण योग
1. ततद्भावेश्वराः खेटा: तत्तत्कारक संयताः । तस्य भावस्य सर्वस्य प्राबल्यं प्रोच्यते बुधः ॥ १ ॥
भावार्थ – यदि किसी भाव का स्वामी उसी भाव के कारक के साथ स्थित हो तो इस योग द्वारा उस भाव की वृद्धि कहनी चाहिये जिस भाव के स्वामी के साथ कारक स्थित है।
2. तृतीयाष्टमलाभाधिपतित्वन्तु स दोषकम् । सुतभाग्याधिपत्यन्तु खेटानां शुभदं भवेत् ॥ २ ॥
भावार्थ – तृतीय, अष्टम और एकादश भाव का स्वामी होना दोष युक्त है, परन्तु पांचवें और नौंवें भाव का स्वामी होना शुभफल प्रद है ।
3. तथापि च गुरोराशिभ्रातृ षष्ठाष्टमेशितः । रन्ध्रस्थान स्थितश्चापि योंगवा भवति ध्रुवम् ॥ ३॥
भावार्थ – परन्तु गुरु यद्यपि तीसरे, छठे अथवा अष्टम का स्वामी हो अथवा अष्टम भाव में स्थित भी क्यों न हो शुभ फल करता है।
व्याख्या – ग्रन्थकार ने गुरु के तृतीय और षष्ठ के स्वामी होने के सम्बन्ध में पहले ही अपनी सम्मति अध्याय १ तुला लग्न श्लोक १ में दी हुई है। इसी प्रकार अष्टम गुरु के सम्बन्ध में देखिये अध्याय ८ श्लोक १५ ।
जब गुरु छठे और नौवें भाव का स्वामी हो तो यद्यपि इसकी मूल त्रिकोण राशि एक बुरे (छठे ) भाव में पड़ती है तो भी गुरु थोड़ा अच्छा फल ही करता है, क्योंकि यह साथ-साथ शुभतम भाव (नवम) का भी स्वामी हो जाता है।
इसके अतिरिक्त षष्ठ उपचय भाव है- नवम भाग्य भवन है और गुरु धन कारक सबमें ‘धन’ साझा है, अतः गुरु धनदायक सिद्ध होता है।
जब गुरु पंचम और अष्टम का स्वामी होता है तो उसकी मूल त्रिकोण राशि एक शुभ भाव (पंचम) में पड़ती है। अतः यहाँ भी गुरु शुभ फल करता है।
4. शुक्रस्य षष्ठसंस्थानं योगदं भवति ध्रुवम् । व्यवस्थितस्य शुक्रस्य यथा योगं वदन्ति हि ॥ ४॥
भावार्थ – शुक्र छठे स्थान में स्थित होकर उतना ही योगप्रद है जितना कि वह द्वादश भाव में स्थित होकर होता है।
5. राज्यलाभ चतुर्थेषु पञ्चमे वा स्थितो यदि । राहुर्येगप्रदः प्रोक्तो विद्वद्भिजर्तक कोविदै ॥५॥
भावार्थ – राहु दशम, एकादश, चतुर्थ अथवा पंचम में योगप्रद होता है।
व्याख्या – राहु एक छाया ग्रह होने के नाते उस भाव का या उस ग्रह का फल करता है जिससे कि यह सम्बन्धित होता है। एकादश, पंचम में तो इसलिये शुभ होगा कि यह स्थान धनप्रद है । चतुर्थ और दशम में यह तभी पूर्णतया शुभ होगा जब इस पर किसी केन्द्र भाव के स्वामी का प्रभाव होगा ।
6. केन्द्राधिपति यस्सौम्य खेटायदि नयोगवाः । केन्द्रस्था केन्द्रनावस्तु क्रूराचेद्राजयोगवाः ॥ ६॥
भावार्थ – केन्द्र भावों के स्वामी यदि नैसर्गिक शुभ ग्रह हो तो वे अपनी दशा भुक्ति में शुभ फल नहीं देते, परन्तु नैसर्गिक पापी ग्रह केन्द्र के स्वामी होकर केन्द्र ही में स्थित हों तो राजयोग देते हैं ।
व्याख्या – केन्द्राधिपत्य दोष के सम्बन्ध में पहले श्लोकार्थ में कही बात आरम्भिक ज्ञान की सर्वविदित है। जब नैसर्गिक पापी ग्रह केन्द्र का स्वामी होगा तो वह अपनी नैसर्गिक अशुभता को खो देगा और पुनः केन्द्र में स्थित होकर शुभ फलप्रद हो जावेगा ।
7. यस्मिन् भावे स्थितो मन्दो य भावं वीजितेयया । तस्य तस्यापि भावस्यन्यूनतां च वदन्ति हि ॥ ७ ॥
भावार्थ – जिस किसी भाव पर शनि का युति अथवा दृष्टि द्वारा प्रभाव पड़ता है उस भाव सम्बन्धित बातों में न्यूनता आ जाती है ।
8. विक्रमं भाग्यराशिश्च शनिना वीक्षितो यदि । तस्य भावस्य प्रावल्यमित्यूचुर्गणकोत्तमाः ॥ ८ ॥
भावार्थ – यदि शनि की तृतीय अथवा नवम भाव पर दृष्टि हो तो दृष्टभाव को बल मिलता है।
व्याख्या – साधारण नियम तो यह है कि जिस भाव आदि पर शनि की दृष्टि पड़ेगी उसमें न्यूनता आवेगी । परन्तु यहाँ ग्रन्थकार की सम्मति में तृतीय और नवम भाव पर शनि की दृष्टि इन भावों को बल देगी । यह बात सर्वथा ग्राह्य नहीं हो सकती।
किसी भाव विशेष के लिये जैसे आयु के लिये तृतीय भाव पर शनि की दृष्टि भले ही शुभ हो, क्योंकि तृतीय भाव भी अष्टम की भाँति आयु का भाव है । इसी प्रकार दर्शन शास्त्र की जानकारी के लिये संभवतया शनि की नवम पर दृष्टि शुभ हो ।
9. क्षीणचन्द्रो विलग्नस्थो मन्दधीरन्यपोषितः । पूर्णचन्द्रो विलग्नस्थो गुणवान् धनवान् भवेत् ॥ ९ ॥
भावार्थ – यदि क्षीण चन्द्र (सूर्य से ७२ अंशों के अन्दर अन्दर स्थित) लग्न में हो तो खोटी बुद्धि वाला और दूसरे द्वारा पाला हुआ व्यक्ति होता है, परन्तु यदि लग्न में पूर्ण चन्द्र हो तो जातक गुणवान और धनी होता है ।
व्याख्या – ज्योतिष शास्त्र क्षीण चन्द्रमा को एक पापी ग्रह मानता है । इसका क्षीण होकर लग्न में स्थित होना दो प्रकार से धन आदि की हानि करने वाला होगा। एक तो इसलिये कि पापी चन्द्र द्वारा लग्न पीड़ित होगी और चूंकि लग्न का धन से घनिष्ट सम्बन्ध है लग्न का पीड़ित होना धन की कमी का सूचक होगा। दूसरे, चूंकि चन्द्र स्वयं भी लग्न की भाँति धन आदि गुणों का द्योतक है उसका निर्बल होना धन, मन आदि का निर्बल होना सिद्ध होगा ।
10. बिलग्नस्थौ चन्द्रभौमो वा मृर्ति भाग्यवान् भवेत् । चतुर्थेशयुतो भौमः क्षेत्रवान् भवति ध्रुवम् ॥ १०॥
भावार्थ – यदि चन्द्र और मंगल लग्न अथवा अष्टम भाव में हों तो जातक भाग्यशाली होता है। यदि मंगल चतुर्थ भाव के स्वामी के साथ हो तो जातक जमीन-जायदाद का स्वामी होता है ।
व्याख्या – ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार इस सिद्धान्त को यहाँ अपना रहा है कि ग्रहों की चन्द्र के साथ स्थिति उनमें शुभता लाती है । यह सत्य है, परन्तु हमारा विचार है कि ऐसी स्थिति में चन्द्र बलवान् होना चाहिये ।
मंगल भूमि का कारक है और चतुर्थ भाव भूमि भाव है, अतः चतुर्थेश का मंगल से मिलना शुभ है। विशेषतया जबकि दोनों पर शुभ प्रभाव हो और उनका सम्बन्ध लग्न अथवा लग्नेश से भी हो ।
11. चतुर्थनाथ देवेज्यौ य चतुर्थे यदि संस्थितौ । चतुष्पाद वृद्वियोगो यमित्याहुर्जातककोविदाः ।। ११॥
भावार्थ – यदि गुरु और चतुर्थ भाव का स्वामी चतुर्थ भाव में हो तो यह योग पशुधन की वृद्धि का सूचक है ।
व्याख्या – चतुर्थ स्थान घर और उसके सुखों से सम्बन्धित है । घर के सुख में पशुधन भी सम्मिलित है, अतः यदि चतुर्थेश के साथ बैठकर गुरु शुभ और बलवान् होता है तो पशु सुख की भी वृद्धि होगी ।
12. पापमध्यगता भावास्तथा भावेशकारकाः । तद्द्भाव भावराशीश कारका दुःखदायकाः ॥ १२ ॥
भावार्थ – यदि कोई भाव, किसी भाव का स्वामी अथवा किसी भाव का कारक पापी ग्रहों के बीच में स्थित हो तो उस भाव, भावेश अथवा कारक के गुणों की हानि होती है ।
व्याख्या – फलादेश कहने के लिये तीन ही मुख्य बातें चाहियें भाव, भावेश और उसका कारक । जब यह तीनों पाप ग्रहों के बीच में होंगे तो स्पष्ट है कि सब बातें दुःखप्रद होंगी ।
13. लाभग्ययाषिपत्योश्च संबन्धो योगदो भवेत् । लाभाधिपस्तृतीये वा व्यये वा योगदो भवेत् ॥ १३ ॥
भावार्थ – यदि बारहवें और ग्यारहवें भावों के स्वामी परस्पर युति आदि से सम्बन्धित हों तो वे योगप्रद अर्थात् शुभ फलदायक होते हैं । ग्यारहवें भाव के स्वामी का तृतीय अथवा द्वादश में बैठना भी शुभ है ।
व्याख्या – चूँकि पाराशरीय नियमों के अनुसार द्वादश भाव का स्वामी ‘स्थानान्तर’ का फल करता है, इसलिये जब एकादशेश और द्वादशेश की युति होगी तो द्वादशेश एकादश भाव का फल करेगा अर्थात् लाभ देगा ।
इसी प्रकार जब एकादश (उपचय) का स्वामी एक दूसरे उपचय भाव (तृतीय) में होगा तो उपचय (आय) की प्राप्ति होगी।
एकादश भाव का स्वामी द्वादश में कैसे शुभ फल देगा यह विचारणीय है क्योंकि नियम है कि जिस भाव का स्वामी द्वादश में जाता है उसकी हानि होती है।
14. सर्वं राशिषु जातस्य भाग्येशोह्यष्टमे यदि । न योगं लभते जात सामान्यो भवति ध्रुवम् ॥ १४ ॥
भावार्थ – कोई भी लग्न हो यदि नवमेश अष्टम भाव में स्थित हो तो बहुत शुभ फल की प्राप्ति नहीं होती । साधारण फल मिलता है।
व्याख्या – यह स्थिति भाग्य से द्वादश और लग्न से अष्टम होने के कारण अच्छा फल न देगी, परन्तु गुरु अपवाद है । देखिये तुला लग्न पर प्रथम श्लोक ।
15. षष्ठस्थो यदि वा चन्द्रो बुद्धिकौशल्यवान् भवेत् । द्वितीयस्थो भवेच्चन्द्रः नेत्र चञ्चलवान् भवेत् ।। १५ ।।
भावार्थ – यदि चन्द्रमा छठे भाव में हो तो वह बुद्धि से चतुर होता है । यदि चन्द्रमा द्वितीय भाव में हो तो उसकी आँखें चंचल होती हैं ।
व्याख्या – चन्द्रमा बहुत परिवर्तनशील है और साथ ही आँख का कारक भो, अतः आँख के स्थान में स्थित होकर अपनी चंचलता को आंखों में डालेगा ।
छठे स्थान में चन्द्र बुद्धि को बढ़ाता है यह बात विचारणीय है । क्योंकि छठा स्थान तो अभाव और कमी का है । चन्द्रमा छठे भाव में आ जावे तो आयु कम हो जाती है।
16. समराश्योजराशीतिश्शास्त्रे तु कथ्यते । मेषमारभ्य तत्संख्याज्ञातव्य विबुषोत्तमैः ॥ १६ ॥
भावार्थ – राशियां सम (Even) और विषम (Odd) होती है और मेष राशि से विषम, सम इस क्रम राशि से एक-एक करके गिनी जाती है।

भावार्थ रत्नाकर अध्याय 14 | ग्रहमालिका योग
1. लग्नादिवाणसंख्याक राशिगा नवखचेरा । स्थिताश्चेत्पञ्च खेटाख्य मालिकायोग उच्यते ॥१॥
भावार्थ – यदि सारे ग्रह लग्न से लेकर पाँचवें भाव तक प्रत्येक घर में हों तो ‘पंच ग्रह मालिका’ योग होता है ।
व्याख्या – मालिका से तात्पर्य माला या हार है। माला की उपमा देने का तात्पर्य यह है कि माला की भाँति कोई भी भाव ग्रहों से खाली न हो। ग्रह मालिका के पीछे क्या सिद्धान्त कार्य कर रहा है यह तो कहीं उल्लिखित नहीं है, परन्तु इन योगों के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि चूंकि ग्रह एक दूसरे के साथ-साथ भावों में हैं उन सबका प्रभाव उस भाव पर पड़ता है जिससे कि उनका आरम्भ हो और योग उतना ही शुभ होगा जितने अधिक ग्रह उसमें भाग ले रहे हों।
उक्त योग चूंकि लग्न से आरम्भ होता है, इसलिये यह योग लग्न सम्बन्धित धन, आयु, यश आदि को बढ़ाने वाला होता है।
2. लग्नमारभ्यये खेटाः ऋतु संख्य सुराशिषु । स्थिताश्चेत्षष्ठ खेटाख्यामालिका योग उच्यते ॥ २ ॥
भावार्थ – यदि सारे ग्रह लग्न से आरम्भ करके प्रत्येक भाव में एक ग्रह करके स्थित ६ भावों में हों तो ‘षटमालिका’ योग बनता है ।
3. लग्नामारभ्य शैलाख्य संख्य राशिषु खेचराः । स्थितश्चेत्सप्तखंटाख्या मालिका योग उच्यते ॥ ३ ॥
भावार्थ – यदि लग्न से आरम्भ करके सात राशियों में प्रत्येक राशि में एक-एक ग्रह हो तो ‘सप्तमालिका’ योग होता है।
4. लग्नमारभ्यवस्वाख्यराशिस्था खेचरा यदि । अष्टखेचरमालाख्य योगप्रोक्तस्तु सूरिभिः ॥४॥
भावार्थ – यदि सारे ग्रह लग्न से गिनकर आठ भावों में एक-एक ग्रह एक-एक भाव में हो तो अष्टमालिका योग होता है ।
5. लग्नादारभ्य भागाख्य संख्यराशिषु खेचराः । स्थिताश्चेन्नव खेटाख्या मालिका योग उच्यते ॥ ५ ॥
भावार्थ – यदि सारे ग्रह एक-एक करके लग्न से नवम भाव तक
स्थित हों तो ‘नवमालिका’ योग होता है ।
व्याख्या – संभवतया मालिका योगों में से यह योग सबसे उत्तम हैं। देखिये श्लोक १ के नीचे की व्याख्या ।
6. केचिद्वदन्ति सूर्यादि ग्रहाणां क्रमशस्थितिः । मालिका ग्रहयोगो ऽयमितिजातककोविदाः ॥ ६ ॥
केचिद्वदन्ति लग्नाधिराशिषु क्रमशो ग्रहः । स्थिताश्चेद ग्रहमालाख्य योगीयमिति कोविदाः ॥ ७ ॥
भावार्थ – कुछ लोगों की सम्मति है कि सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि राहु, केतु इस क्रम से यथासंभव स्थित ग्रह मालिका है और लग्न द्वितीय, तृतीय आदि भावों में सूर्य आदि ग्रहों की सूर्य चन्द्र आदि क्रम से स्थिति ग्रह माला योग होता है ।
व्याख्या – यह सम्मति ग्रन्थकार की नहीं है और ऐसी स्थिति भी बहुत कम बन पावेगी ।
8. षष्ठ सप्ताष्ट नवभि संख्याख्या: ग्रहमालिकाः । भवन्ति यस्य जातस्य भाग्ययोगप्रदा स्मृताः ॥ ८ ॥
भावार्थ – ६, ७, ८ अथवा नौ ग्रहों की मालिका से जो योग बने वे योगप्रद होते हैं ।
9. पञ्चखेटाल्यमालाऽपि यस्य जातस्य विद्यते । भाग्योगस्तु वक्तव्यस्तस्य ज्योतिषकोत्तमः ॥ ९ ॥
भावार्थ – जिस जातक के लग्न से लेकर प्रथम पाँच भावों में सारे ग्रह हों पांचों में से कोई भाव खाली न हो तो भी उसको भाग्यशाली समझना चाहिये ।
10. समाराशिस्थ खेटानां मूलकोरणाधिपत्यजम् । फलम तु तदनुचेदितर राशीशतां फलम् ॥ १० ॥
भावार्थ – यदि कोई ग्रह सम राशि में स्थित हो तो उस भाव का फल दशा में पहले करेगा जिसमें कि उसकी मूल त्रिकोण राशि पड़ती है। उसके अनन्तर दूसरी राशि का फल होगा ।
11. ओजराशिस्थ खेटानामितराधीशतां फलत् । त्वग्रे भवति कोणाधिपत्यजं फलमन्यथा ॥ ११ ॥
भावार्थ – जो ग्रह ओज (Odd ) राशियों में स्थित होते हैं वे उस भाव का फल पहले करते हैं जो उनकी साधारण राशि होती है। तदनन्तर वे अपनी मूल त्रिकोण राशि का फल करते हैं।
12. रवेः द्वितीयस्थ खगा शीघ्रः गाश्च भवन्ति हि । रवेस्तृतीयस्थ खगा समानगतयो भवन् ॥ १२ ॥
भावार्थ – सूर्य से द्वितीय राशि में स्थित ग्रह शीघ्र गति से चलते हैं। सूर्य से तृतीय राशि में स्थित ग्रह सामान्य (Average) गति से चलते हैं।
13. रवेतुर्थस्थ खगाः भवेयुर्मदगामिनः । रवेः पञ्चम वष्ठस्थाः भवेयुर्वक्रगास्सदा ॥
भावार्थ – सूर्य से चतुर्थ राशि में स्थित ग्रह मन्द (Slow) चाल वाले होते हैं। पंचम और छठे जो हों उनमें थोड़ी वक्रता होती है ।
14. रवेस्सप्तमरन्ध्रस्था ग्रहाश्चात्यन्त वक्रगाः । रवेसुधर्मकर्मस्थ । ग्रहाणां कुटिलागतिः ॥ १४ ॥
भावार्थ – ग्रह जब सूर्य से सप्तम तथा अष्टम स्थान में होता है तो बहुत वक्री होता है। जब ग्रह सूर्य से नवम अथवा दशम हों तो कुटिल गति वाला कहलाता है।
15. रवेर्लाभ व्ययस्थाश्च ग्रहश्चात्यन्त शीघ्रगाः । शुभग्रहाणां शीघ्रगतयो बलहीनदाः ॥ १५ ॥
भावार्थ – सूर्य से एकादश और द्वादश स्थान में स्थित ग्रह बहुत शीघ्र (Abnormal Speed) गति से चलते हैं। शुभ ग्रह यदि शीघ्र गति में हों तो उनकी शुभता जाती रहती है ।
16. क्रूर ग्रहाणां वक्रतयश्शुभयगदाः । इत्येवं हि ग्रहगतीद्रष्टव्या गणिकोत्तमः ॥ १६ ॥
भावार्थ – क्रूर ग्रहों का वक्री होना शुभ फल देता है ।
व्याख्या – हमारा विचार है कि जब कोई ग्रह शीघ्र गति से चल रहा होता है तो वह अपने सन्तुलन को खो बैठता है चाहे वह नैसर्गिक शुभ ग्रह हो अथवा नैसर्गिक पापी और चाहे वह किसी भी भाव का स्वामी हो।
इसी प्रकार हमारा विचार है कि जब कोई ग्रह वक्री होता है तो वह बलवान् हो जाता है। चाहे किसी भी राशि में स्थित हो, चाहे वह नैसर्गिक शुभ हो अथवा अशुभ, चाहे उसका आधिपत्य शुभ हो अथवा अशुभ।
वक्री ग्रह मन्द गति में होता है और सूर्य से दूर होने के कारण रश्मियों से युक्त होता है, इसलिये वक्री ग्रह जिस भाव का स्वामी है अथवा जिस बात का कारक है दोनों बलवान् हो जाते हैं । फल तो ग्रह की शुभता अथवा अशुभता पर ही निर्भर करता है ।
उदाहरणार्थ – जब पंचम भाव और उसका स्वामी दोनों निर्बल और पीड़ित हों, परन्तु गुरु वक्री हो और उस पर स्त्री ग्रहों का प्रभाव न हो तो गुरु कारकत्व द्वारा पुत्रों की प्राप्ति करवाता है ।
भावार्थ रत्नाकर अध्याय 15 | ग्रहों का आधिपत्य आदि
सूर्य
1. उच्चस्थानं रवेमेषं वृषभे तु द्विषद्गृहम् । मिथुन तु समक्षेत्रं मित्रक्षेत्रकुळीरकम् ॥ १॥
भावार्थ – सूर्य की मेष ‘उच्च’ राशि है, वृषभ शत्रु राशि है, मिथुन सम है और कर्क मित्र राशि है ।
2. स्वक्षेत्रं मूलकोणं च सिप्रोक्तस्तु सूरिभिः । कन्याभं तु समक्षेत्रं तुलानीचारि मन्दिरम् ॥२॥
भावार्थ – सूर्य की सिंह स्वराशि भी और मूल त्रिकोणराशि भी है । कन्या सम है, तुला उसके लिये शत्रु और ‘नीच’ राशि है ।
3. मित्रक्षेत्र कीटधनुषी मकरं स्याद्विषद्गृहम् । कुम्भोऽपि शत्रुक्षेत्रञ्च मित्रक्षेत्रस्तु मीनभम् । रवेर्प्रहाणां गणनात्वेवं प्रोक्ताच सूरिभिः ॥३॥
भावार्थ – सूर्य के लिये वृश्चिक और धनु मित्र राशियाँ हैं, मकर और कुम्भ शत्रु राशियाँ हैं और मीन मित्र राशि है।
चन्द्रमा
4. विधोरजा समक्षेत्रमुखस्थानं वृपस्तथा । मूलकोणं तथा प्रोक्तं मित्रक्षेत्रं तु युग्मभम् ॥४॥
भावार्थ – चन्द्रमा के लिये मेष सम राशि है, वृषभ उसकी उच्च राशि है और मूल त्रिकोण राशि भी, मिथुन सम है ।
5. कर्कटं तु स्वभवनं मित्रक्षेत्रं तु सिंहभं । कन्यामित्रं तस्य भवनं तुला समगृहं भवत् ॥५॥
भावार्थ – चन्द्रमा की कर्क अपनी राशि है, सिंह उसकी मित्र राशि है, कन्या भी मित्र है और तुला सम है ।
6. वृश्चिकं तु समक्षेत्रं नीचरशिरपिस्मृता । शरासनम् समगृहं मकरस्समगृहं भवेत् ॥६॥
भावार्थ – चन्द्रमा की वृश्चिक राशि सम है और साथ ही नीच भी है । धनु सम है, मकर भी सम है ।
7. कुम्भक्षं तु समक्षेत्रं मीनस्स्यान्सम मन्दिरम् । विधोग्रहाणां गणनात्वेवं प्रोक्ताच सूरिभिः ॥७॥
भावार्थ – इसी प्रकार चन्द्र के लिए कुंभ और मीन राशियां सम राशियाँ कही हैं।
मंगल
8. कुजस्य मेषं स्वक्षेत्रं मूलकोणं तथैव च । वृषभं शत्रुभवनं मिथुनं त्वरिमन्दिरम् ॥८॥
भावार्थ – मेष राशि मंगल की अपनी राशि है और साथ ही उसकी मूल त्रिकोण राशि भी, वृषभ शत्रु क्षेत्र है, मिथुन भी शत्रु राशि है ।
9. कर्कटं नीच राशिश्च मित्रक्षेत्रमुदाहृतम् । सिंह मित्रभवनम् कन्या शत्रुगृहं भवेत् ॥ ९ ॥
भावार्थ – कर्क नीच परन्तु मित्र राशि है, सिंह मित्र है, केन्या शत्रु राशि है।
10. तुला शत्रुगृहंप्रोक्तं वृश्चिक स्वगृहं भवेत् । धनुमित्रगृहंप्रोक्तं मकरं शत्रुमन्दिरम् ॥१०॥
भावार्थ – मंगल के लिये तुला शत्रु क्षेत्र है, वृश्चिक उसकी अपनी राशि है, धनु मित्र और मकर शत्रु गृह है।
11. मकरंचोच्च राशिस्यत्कुम्भशत्रु गृहं भवेत् । मीनंतु मित्रक्षेत्रंस्यात्कुजस्यैव वदन्तिः हि ॥ ११॥
भावार्थ – मकर इसकी उच्च राशि है और कुम्भ शत्रु राशि और मीन मंगल के लिये मित्र राशि है ।
बुध
12. बुधस्यजा समक्षेत्रं वृषोमित्रगृहं भवेत् । मिथुन स्वगृहं प्रोक्तं कर्कटं तु द्विषद् गृहं ॥ १२ ॥
भावार्थ – बुध के लिये मेष सम राशि है, वृषभ मित्र है, मिथुन अपना घर है और कर्क शत्रु राशि है ।
13. सिंहर्क्ष मित्रभवन कन्या स्वक्षेत्रमुच्यते ।मूलकोणंतुच्चराशि: कन्या सौम्यस्ययोगदा ॥ १३॥
भावार्थ – सिंह मित्र राशि, कन्या निज क्षेत्र है, मूल त्रिकोण भी है और उच्च राशि भी है । यह राशि बुध के लिये बहुत शुभ है ।
14. तुलामित्र गृहं प्रोक्तं वृश्चिकं सममन्दिरम् । धनुर्मृगी समक्षेत्रं कुम्भक्षं सममन्दिरम् ॥ १४॥
भावार्थ – बुध के लिये तुला मित्र राशि है, वृश्चिक सम है । धनु मकर और कुम्भ राशियाँ सम राशियाँ हैं ।
15. मीने समगृहं प्रोक्तं नीचराशिस्तथा भवेत् । बुधस्य गृहगणनात्वेवं प्रोक्ता तु सूरिभिः ॥ १५॥
भावार्थ – बुध के लिये मीन सम राशि भी और उसकी नीच राशि भी है ।
16. गुमेवं मित्रगृहं वृषभस्त्वरिमन्दिरम् । मिथुनं शत्रुभवनमुच्चस्थानं तु कर्कटम् ॥१६॥
भावार्थ – गुरु के लिये मेष मित्र भवन है, वृषभ शत्रु राशि, मिथुन भी शत्रु, कर्क गुरु की उच्च राशि भी है और मित्र भी ।
17. तदेव मित्रभवनं सिंहभं मित्रमन्दिरम् । कन्या तुले शत्रुगृहे वृश्चिकं मित्रमन्दिरम् ॥१७॥
भावार्थ – सिंह राशि मित्र राशि है, कन्या और तुला शत्रु राशियाँ हैं, वृश्चिक मित्र राशि है ।
18. धनुस्थानं मूलकोणं स्वक्षेत्रचामिषीयते । मकरं नीचराशिनु समक्षेत्रमुदाहृतम् ॥१८॥
भावार्थ – धनु राशि गुरु की स्वक्षेत्र भी है और मूल त्रिकोण भी, मकर उसके लिये सम भी है और नीच राशि भी ।
19. कुम्भराशि समक्षेत्रं मीनं स्वभवनं भवेत् । गुरी गृहाणां गणनात्वेवं प्रोक्ता तु सूरिभिः ॥ १९ ॥
भावार्थ – गुरु के लिये कुंभ सम राशि है और मीन उसका अपना घर है ।
शुक्र
20. भृगोमेषं समक्षेत्रं वृषभं स्वस्य मन्दिरम् । मिथुनं मित्रभवनं कर्कटं त्वरिमन्दिरम् ॥२०॥
सिहक्षं शत्रुभवनं कन्यानीचं सुहृद्गहम् । स्वक्षेत्र मूलकोणं च तुलाप्रोक्ता भृगोस्तथा ॥ २१॥
भावार्थ – शुक्र के लिये मेष सम राशि है, वृषभ उसकी अपनी राशि है, मिथुन मित्र राशि है, कर्क शत्रु राशि ।
22. वृश्चिकं तु समक्षेत्रं धनुस्त्वरिगृहं मकरं मिनभवनं कुम्भस्तु सुहृदो गृहम् ॥२२॥
भावार्थ – वृश्चिक शुक्र का सम भवन है और धनु शत्रु राशि है, मकर मित्र राशि है और कुम्भ मित्र राशि है।
23. मीनक्षं उच्च तु राशिस्याच्छतुक्षेत्रं तथैव च । भृगोगृहाणां गणनात्वेवं प्रोक्ता च सूरिभिः ॥ २३॥
भावार्थ – शुक्र की मीन राशि उच्च राशि है और शत्रु राशि भी ।
शनि
24. शमेर्मेषो नीचराशि शत्रुक्षेत्रमुदाहृतम् । वृषभं मिथुने चैव मित्रमुदाहृतम् ॥२४॥
भावार्थ – शनि की मेष नीच राशि है और शत्रु राशि भी है। वृषभ और मिथुन मित्र क्षेत्र हैं।
25. कर्कटं शत्रुभवनं सिह शत्रुमन्दिरम् । कन्यामित्र गृहतौलितञ्चराशि सुहृद्गृहम् ॥२५॥
भावार्थ – कर्क इसका शत्रु भवन है और सिंह भी । कन्या मित्र राशि है, तुला शनि की उच्च राशि भी है और मित्र राशि भी ।
26. वृश्चिकं शत्रुभवनं धनुस्समगृहं भवेत् । मकरं स्वभवनं कुम्भः स्वागारं मूलकोणकम् ॥२६॥
भावार्थ – वृश्चिक शत्रु राशि है, धनु सम राशि है, मकर निज राशि है,
मकर निज राशि भी है और मूल त्रिकोण राशि भी ।
27. मीनक्षेतु समक्षेत्रमित्येवं निर्णयः ॥ २७ ॥
भावार्थ – मीन राशि शनि के लिये सम है ।
राहु
28. वृषभस्तूच्चराशिराहो प्रोक्ते तु सूरिभिः । मिथुनं कर्कटं चैव मूलकोणमिति श्रुतम् ॥ २८ ॥
भावार्थ – राहु के लिये वृषभ उच्च राशि है, मिथुन और कर्क मूल त्रिकोण राशियां हैं। वृषभ मित्र राशि है ।
29. वृषभं मित्रभवनं कन्या स्वभवनं भवेत् । उच्चस्थानस्थ राहोस्तु दायकालो हि राजदः ॥ २९ ॥
भावार्थ – कन्या निज भवन है । राहु अपनी उच्च राशि में स्थिति हो तो अपनी दशा में राज्य देता है ।
केतु
30. केतो स्वभवनं मीनतुला मित्रस्य मन्दिरम् । कुम्भकीटेतूच्चराशि मूलकोणौ धनुमृगौ ॥३०॥
भावार्थ – केतु के लिये मीन निज राशि है, तुला मित्र राशि, कुम्भ और वृश्चिक उसकी उच्च राशियां हैं। इसकी मूल त्रिकोण राशियां धनु और मकर हैं।
भावार्थ रत्नाकर
- मेष लग्न | वृश्चिक लग्न
- वृषभ लग्न | तुला लग्न
- मिथुन लग्न | कन्या लग्न
- कर्क लग्न | सिंह लग्न
- धनु लग्न | मीन लग्न
- मकर लग्न | कुंभ लग्न
- अध्याय 2 | धन योग | विद्या | खान-पान
- अध्याय 3 भ्रातृ-भाव |अध्याय 4 वाहन तथा भाग्य | अध्याय 5 शत्रु और रोग
- अध्याय 6 स्त्री और काम | अध्याय 7 आयु और स्वास्थ्य
- अध्याय 8 भाग्य योग | अध्याय 9 राज योग
- अध्याय 10 तीर्थ स्नान | अध्याय 11 मृत्यु योग
- अध्याय 12 दशा के परिणाम
- अध्याय 13 साधारण योग | अध्याय 14 ग्रहमालिका योग | अध्याय 15 ग्रहों का आधिपत्य आदि
- नियम अध्याय
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