भावार्थ रत्नाकर | अध्याय 10 | तीर्थ स्नान

1. कर्मकारक देवेन्द्र पूजयस्य यदि विद्यते । संबन्ध कर्मनाथेन सत्कर्मनिरतो भवेत् ॥ १ ॥

भावार्थ – कर्मों के कारक गुरु का यदि युति दृष्टि आदि से दशम भाव के स्वामी से सम्बन्ध हो, तो जातक सदा सत्कर्म करने वाला होता है ।

व्याख्या – दशम भाव शुभ कर्मों का भाव है, इसीलिये इस स्थान का नाम “कर्म” भाव है। उधर ग्रहों में गुरु शुभ तथा निःस्वार्थ कर्मों का प्रतिनिधि है, अतः सादृश्य सिद्धांतानुसार इन दोनों की युति शुभ कर्मों में प्रवृत्ति की सूचक होगी।

2. कळत्रपुत्र भाग्येशः गुरुकर्माषपती तथा । जलराशि स्थिता सर्वेान्योन्यसंगता यदि ॥ २ ॥

गुरुवाये च संप्राणी गंगास्यनदीषु च। स्नानसिद्धिर्भवेत्सेव गंगास्नानं न सिद्धयति ॥ ३ ॥

भावार्थ – यदि सातवें, पाँचवें, नौवें और दसवें भाव के स्वामी और गुरु जलीय राशि में इकट्ठे हों तो जातक पुण्य तीर्थ की नदी में स्नान करेगा । यह स्नान गुरु दशा में होगा, परन्तु गंगा में स्नान न होगा ।

व्याख्या – नवम भाव और नवम से नवम अर्थात् पंचम इसी प्रकार दशम भाव और दशम से दशम अर्थात् सांतवा भाव तथा धर्म-कर्म का कारक गुरु ये सभी पुण्य कर्मों जैसे पवित्र नदियों में स्नान के द्योतक हैं, अतः उनका जलीय राशि में पारस्परिक सम्बन्ध पवित्र स्नान के देने वाला है ।

4. पुत्रदारेशवायेतु यात्राकार्य न सिद्धयति । पुण्यश्लोकस्य विष्णोश्च कथासु निरतो भवेत् ॥ ४ ॥

भावार्थ – यदि पंचम अथवा सप्तम भाव के स्वामी की दशा हो, तो तीर्थ यात्रा में सिद्धि नहीं मिलती, परन्तु इन दशाओं में धर्म शास्त्र और अवतारों के सम्बन्ध में श्रवण मिलता है ।

व्याख्या – पंचम और सप्तम भाव धर्म-कर्म के भाव हैं, परन्तु सीधे ढंग से नहीं बल्कि “भावात् भावम्” के सिद्धांतानुसार हैं। जैसा कि गत श्लोक की व्याख्या में हमने बताया है, अतः पूर्ण फलदायक नहीं।

5. युग्मजातस्य भाग्यस्थो गुरुमन्दौ तयोवंशा । काले भवति गंगायाः स्नानं भवति निश्चयः ॥ ५ ॥

भावार्थ – यदि मिथुन लग्न हो और शनि और गुरु नवम भाव में हों, तो अपनी दशा में गंगा स्नान देते हैं ।

व्याख्या – शनि की मूल त्रिकोण राशि नवम भाव में पड़ती है, अतः नवमेश होकर धर्म-कर्म से सम्बन्ध रखने के कारण शनि अपनी दशा में गंगा स्नान दे सकता है ।

इसी प्रकार गुरु दशम और दशम से दशम भाव का स्वामी होने के कारण शुभ कर्मों से सम्बन्धित है और इसलिए यह भी अपनी दशा में अपना और नवमेश का फल करते हुए गंगा स्नान दे सकता है।

6. मेषलग्ने तु जातस्य शुक्रेज्यार्यम्णो यदि । राज्यस्थास्तद्द शाकाले गंगास्नानं भविष्यति ॥ ६ ॥

भावार्थ – यदि शुक्र गुरु और सूर्य मकर में दशम स्थान में हों तो यह ग्रह अपनी अपनी दशा में गंगा स्नान देते हैं ।

व्याख्या – यह युति नवम, पंचम और सप्तम भाव के स्वामियों की युति है और इन्हीं स्थानों में क्रमश: इनकी मूल त्रिकोण राशियाँ हैं । जैसा कि हम देख चुके हैं नवमेश, पंचमेश (नवम से नवम का स्वामी) और सप्तमेश (दशम से दशम का स्वामी) सभी धर्म के द्योतक हैं, अतः ये अपनी दशा में गंगा स्नान दे सकते हैं ।

7. कर्माधिपो गुरुयुतः कर्मप्राबल्यमादिशेत् । षष्ठव्ययस्थः कर्मश: कर्महीनो भवेन्नरः ॥ ७ ॥

भावार्थ – यदि दशम भाव का स्वामी गुरु से युक्त हो, तो जातक बहुत धार्मिक और यज्ञीय कर्मों के करने वाला होता है। यदि दशमेश छठे अथवा द्वादश भाव में स्थित हो, तो जातक कर्महीन अर्थात् शुभ धार्मिक कर्मों से हीन होता है ।

व्याख्या – कुण्डली में छठा और बारहवां भाव अभाव तथा कमी के भाव हैं, अतः यदि कर्मेश का इन भावों अथवा इन भावों के स्वामियों से युति आदि सम्बन्ध होगा, तो कर्मेश की धर्म-कर्म करने की शक्ति का ह्रास होगा ।

भावार्थ रत्नाकर | तीर्थ स्नान | मृत्यु योग

भावार्थ रत्नाकर अध्याय 11 | मृत्यु योग

1. व्ययेशस्य दशाकाले धनेशो भारको भवत् । द्वितीयेश दशाकाले व्ययेशो मारको भवेत् ॥ १ ॥

भावार्थ – द्वादश भाव के स्वामी की दशा हो और दूसरे भाव के स्वामी की भुक्ति अथवा द्वितीय भाव के स्वामी की दशा ही और बारहवें भाव के स्वामी की भुक्ति, तो वह समय मारक अर्थात् मृत्यु देने वाला होता है।

व्याख्या – व्ययेश लग्न से बारहवें भाव का स्वामी होने से लग्न अर्थात् आयु के अभाव (मृत्यु) का सूचक है। इसी प्रकार द्वितीयेश तृतीय भाव (आयु) के व्यय भाव का स्वामी होने से तृतीय (आयु) का अभाव (मृत्यु) है, अतः द्वितीय और द्वादश भावों के स्वामियों की दशा मृत्युकारक सिद्ध हो सकती है।

2. व्ययनाथ दशाकाले द्वितीयेशेन संगताः । द्वितीयेशेन दृष्टाश्च मारकप्रबलताः ।। २ ।।

भावार्थ – यदि द्वादश भाव के स्वामी की महादशा हो और किसी ऐसे ग्रह की भुक्ति जो द्वितीयेश के साथ हो अथवा उससे दृष्ट हो, तो वह भुक्ति मारक सिद्ध हो सकती है।

व्याख्या – द्वितीय भाव के स्वामी से प्रभावित ग्रह भी मारक होता है। यह इस श्लोक का भाव है।

3. द्वितीयेश दशाकाले व्ययस्थनस्थिता खगाः । व्ययाधिपतिना दृष्टाः प्रबला मारकश्रुताः ॥ ३ ॥

भावार्थ – यदि दूसरे भाव के स्वामी की दशा हो और भुक्ति ऐसे ग्रह की हो जो व्यय स्थान में स्थित होकर व्ययेश से दृष्ट है तो इस ग्रह (द्वादशस्थ ग्रह) की भुक्ति में मृत्यु हो सकती है।

व्याख्या – यहां भी बारहवें भाव और उसके स्वामी से प्रभावित ग्रह भी उतने ही मारक हैं जितना कि द्वादशेश ।

4. व्ययनाथ दशकाले तत्रस्थाः पापिनाः खगाः । तेषां अन्तर्दशाकाले मारकास्तु भवन्ति ते ॥ ४ ॥

भावार्थ – यदि द्वादशेश की दशा हो और द्वादश भाव में स्थित एक ऐसे ग्रह की भुक्ति हो जो पापी हो, तो उस पापी की भुक्ति में मृत्यु हो सकती है ।

व्याख्या – पापी ग्रहों से तात्पर्य उन ग्रहों से है जो पाराशरीय नियमों के अनुसार लग्न विशेष के लिये पापी बनते हों। जैसे तुला लग्न के लिए गुरु तृतीयेश और षष्ठेश होने से पापी है । ऐसे ग्रह मृत्यु लाने में कारण होते हैं और जब द्वादश भाव में स्थित होंगे, तो उस भाव की मारक शक्ति को पाकर प्रबल मारक सिद्ध होंगे।

5. द्वितीयराशिस्थितपापलेटा दशाविपाके व्यवनाथ संगताः। तन्भुक्तिकाले च त एव पापिनो प्रहस्तथा मारकनायकस्युः ।। ५ ।।

भावार्थ – यदि द्वितीय भाव में पापी ग्रह स्थित हों और उनके साथ द्वादश भाव का स्वामी भी हो, तो वे ग्रह अपनी दशा भुक्ति में मृत्यु दे सकते हैं।

व्याख्या – पापी ग्रह की जब दशा होगी तो वह द्वितीय भाव और द्वादशेश दोनों का बुरा फल करेगा । इसी प्रकार पापी ग्रह की जब अन्तर्दशा होगी, तो वह भी द्वितीय भाव और द्वादशेश के कारकत्व का फल करेगा ।

6. व्ययराशिस्थ पापिनां दशाकाले तु मारकः । द्वितीयाधिप संबन्धी सचराः पापिनो ग्रहाः ॥ ६ ॥

भावार्थ – यदि (पाराशरीय नियमों के अनुसार) पापी ग्रह द्वादश भाव में हो और उसकी दशा हो और भुक्ति एक ऐसे पापी ग्रह की हो जिसको द्वितीय भाव का स्वामी अपनी युति अथवा दृष्टि से प्रभावित करता हो, तो भुक्ति मारक सिद्ध हो सकती है ।

व्याख्या – यहाँ भी मारकेश से सम्बन्धित ग्रहों की दशा को मारक दशा बतलाया है ।

7. अष्टमेश दशाकाले तत्भक्तौ सोऽपि मारकः । षष्ठेशवाये निधनं रन्ध्रेशान्तर्हृतो भवेत् ॥ ७ ॥

भावार्थ – अष्टमेश की दशा और अष्टमेश ही की भुक्ति मारक सिद्ध हो सकती है। छठे भाव के स्वामी की दशा में अष्टमेश की भुक्ति भी मृत्यु दे सकती है।

व्याख्या – इस श्लोक से पता चलता है कि षष्ठेश और अष्टमेश मिलकर आयु के लिये कितने हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं।

8. अष्टमेश दशाकाले षष्ठराशिस्थ पापिनाम् । हृतौ जातस्य निधनं वदन्ति विबुषोत्तमाः ॥ ८ ॥

भावार्थ – अष्टमेश की दशा में छठे भाव में पड़े हुए पापी ग्रहों की भुक्ति मृत्यु दे सकती है।

व्याख्या – यहाँ भी पापी ग्रह छठे घर में बैठकर मारक सिद्ध होते हैं । यह सिद्धान्त जतलाया है ।

9. षष्ठनाथ दशाकाले अष्टमस्थ खगस्य च । हृतौं जातस्य निधनं वदन्ति विबुधोत्तमाः ॥ ९ ॥

भावार्थ – छठे भाव के स्वामी की दशा में अष्टम भाव में स्थित ग्रह की भुक्ति मृत्यु दे सकती है ।

व्याख्या – इस श्लोक से ऐसा प्रतीत होता है कि अष्टम भाव में स्थित ग्रह भी मारकेश का कार्य करता है ।

10. अष्टमेश दशाकाले अष्टमेशेन वीक्षिताः । षष्ठेश संगता ये च तान्वदन्ति हि मारकान् ॥ १० ॥

भावार्थ – यदि अष्टम भाव के स्वामी की दशा हो और ऐसे ग्रह की भुक्ति हो जो या तो अष्टमेश से दृष्ट हो या षष्ठेश के साथ हो तो यह स्थिति मारक सिद्ध हो सकती है ।

व्याख्या – तात्पर्य यह है कि षष्ठेश से प्रभावित ग्रह भी मारक सिद्ध हो सकता है ।

11. अष्टमास्थितपापस्य दशाकाले वदन्ति हि । षष्ठस्थानपतेरन्तर्दशाकालो हि मारकः ।। ११ ।।

भावार्थ – अष्टम भाव में स्थित पापी ग्रह की दशा हो और छठे स्थान के स्वामी की भुक्ति तो मृत्यु का समय कहा है ।

व्याख्या – इस श्लोक से पता चलता है कि कम से कम अष्टमेश की दशा में षष्ठेश की भुक्ति मारक है, चाहे अपने आपमें षष्ठेश की भुक्ति मारक न भी हो ।

12. षष्ठस्थितस्य पापस्य दशाकाले वदन्ति हि । अष्टमाधिपतेरन्तर्दशाकालो हि मारकः ॥ १२ ॥

भावार्थ – छठे स्थान में पड़े हुए पापी ग्रह की दशा में अष्टमेश की भुक्ति मृत्यु देती है ।

व्याख्या – यहां भी पापी ग्रह से पापी है। ऐसे पापी का छठे भाव से

तात्पर्य आधिपत्य द्वारा प्रभावित होना उसमें मारक शक्ति का संचार करता हैं ।

13. षष्ठस्थितस्य पापस्य दशाकालो वदन्ति हि । अष्टमस्थित रन्ध्रेश भुक्तिकालो हि मारकः ।। १३ ।।

भावार्थ – यदि छठे भाव में पापी ग्रह हो और उसकी महादशा हो तो अष्टम में पड़े अष्टमेश ही की भुक्ति मारक सिद्ध होती हैं ।

व्याख्या – इस श्लोक से पता चलता है कि ग्रन्थकार की सम्मति में अष्टमेश चाहे अष्टम स्थान में अपनी ही राशि में क्यों न हो, मारक का कार्य करता है ।

14. अष्टमस्थित पापस्य दशाकाले वदन्ति हि । षष्ठस्थितस्य पाषस्य भुक्तिकालो हि मारकः ॥ १४ ॥

भावार्थ – एक पापी ग्रह अष्टम भाव में हो और इसकी महादशा हो और एक पापी ग्रह छठे स्थान में स्थित हो और उसकी भुक्ति हो, तो यह समय मृत्यु कारक कहा है।

व्याख्या – इस श्लोक का भाव यह है कि छठे अथवा आठवें भाव में स्थित पापी ग्रह अपनी दशा अथवा भुक्ति में मृत्यु देते हैं । पापी से तात्पर्य आधिपत्य द्वारा पापी से है ।

15. बुधशुक्रौ पञ्चमस्थावन्योन्यौ मारकौ स्मृतौ । बुधदाये तु शुक्रस्तु शुक्रदाये बुधस्तथा ।। १५ ।।

भावार्थ – यदि बुध और शुक्र पाँचवें भाव में इकट्ठे हों, तो शुक्र बुध की दशा में और बुध शुक्र की दशा में मारक सिद्ध होगा ।

व्याख्या – यह श्लोक स्पष्ट नहीं है। इस श्लोक का अर्थ तभी बन सकता है जबकि बुध और शुक्र दोनों मारक हों। ऐसी स्थिति में बुध की और शुक्र की दशा भुक्ति मारक सिद्ध हो सकती है ।

16. क्रूराधिपत्य युक्तस्तु कुजः पञ्चमगो यदि । कुजदाये तु संप्राप्ते करोति निधनं कुजः ।। १६ ।

भावार्थ – यदि पापी भावों का स्वामी होकर मंगल पंचम भाव में स्थित हो, तो वह अपनी दशा में मृत्यु देता है ।

व्याख्या – कोण में स्थित ग्रहों का लग्न पर प्रभाव माना गया है । मंगल नैसर्गिक और आधिपत्य दो रूपों से क्रूर होता हुआ पंचम में बैठकर लग्न को प्रभावित करेगा जिससे मृत्यु होगी ।

17. अधिकाराच्छुभो मन्दो मारक ग्रह संयुतः । अतीव बलवान्मृत्यो मारक प्रबलस्मृतः ।। १७ ॥

भावार्थ – शनि यदि शुभ भावों का स्वामी भी हो, परन्तु मारक ग्रह के साथ स्थित हो तो अपनी दशा भुक्ति में मृत्यु देता है ।

व्याख्या – इस श्लोक से पता चलता है कि ग्रन्थकार की सम्मति में शनि की आयु संबन्धी अनिष्टकारी प्रवृत्ति तब भी बनी रहती है जब वह किसी मारक ग्रह के साथ स्थित हो ।

18. लग्नस्थ रन्ध्रनाथस्य दशाकाले तु मारकः । रन्ध्रेश एव भवतीत्याहुर्जातक कोविदः ।। १८ ।।

भावार्थ – अष्टमेश लग्न में स्थित हो, तो भी उसकी दशा मारक सिद्ध होती है ।

व्याख्या – अष्टम भाव का आधिपत्य बुरा है । उसका प्रभाव लग्न पर पड़ने से लग्न प्रदर्शित आयु की हानि होती है ।

19. द्वत्रयाणां पुत्राणां संप्राप्ते राहुदायके । पितुर्निधनमित्याहुस्तद्दशामध्य एव च ।। १९ ॥

भावार्थ – यदि किसी व्यक्ति के दो अथवा तीन पुत्रों को एक ही समय राहु की दशा चल रही हो, तो उस दशा में पिता की मृत्यु होती है।

व्याख्या – ऐसी राहु की दशा पिता के लिए क्यों मत्यु कारक सिद्ध होती है इसमें हेतु स्पष्ट नहीं है । हो सकता है कि चूँकि राहु सूर्य का शत्रु है । उसकी दशा में सदा सर्वदा सूर्य को हानि पहुँचती हो और इतनी व्यापक हानि पिता की मृत्यु की सूचक हो ।

भावार्थ रत्नाकर

  1.   मेष लग्न | वृश्चिक लग्न
  2.  वृषभ लग्न | तुला लग्न
  3.   मिथुन लग्न | कन्या लग्न
  4.  कर्क लग्न | सिंह लग्न
  5.  धनु लग्न | मीन लग्न
  6.  मकर लग्न | कुंभ लग्न
  7.   अध्याय 2 | धन योग | विद्या | खान-पान
  8.  अध्याय 3 भ्रातृ-भाव |अध्याय 4 वाहन तथा भाग्य | अध्याय 5 शत्रु और रोग
  9.   अध्याय 6 स्त्री और काम | अध्याय 7 आयु और स्वास्थ्य
  10.  अध्याय 8 भाग्य योग | अध्याय 9 राज योग
  11.  अध्याय 10 तीर्थ स्नान | अध्याय 11 मृत्यु योग
  12.  अध्याय 12 दशा के परिणाम
  13.  अध्याय 13 साधारण योग | अध्याय 14 ग्रहमालिका योग | अध्याय 15 ग्रहों का आधिपत्य आदि
  14.  नियम अध्याय

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