मकर लग्न

1. मकरे जायमानस्य अष्टमस्थो भवेद्बधः । लग्नसंस्थो यदि गुरु शुक्रेण च निरीक्षितः ।

दीर्घायुर्योगमाप्नोति जातस्तत्र न संशयः । निर्धनश्च भवेज्नातोद्यत्रापि च न संशयः ॥ १,२ ॥

भावार्थ – यदि मकर लग्न हो, बुध अष्टम भाव में हो और लग्न में स्थित गुरु पर शुक्र की दृष्टि हो, तो जातक दीर्घायु और निर्धनता दोनों को प्राप्त होगा ।

व्याख्या – लग्न और अष्टम भाव दोनों आयु के भाव हैं। दो शुभ ग्रहों गुरु और शुक्र का लग्न पर प्रभाव डालना आयु की वृद्धि का योग बनायेगा। इसी प्रकार एक शुभ ग्रह की अष्टम (आयु) स्थान में स्थिति भी आयु को बढ़ावेगी, परन्तु जहाँ तक धन प्राप्ति का प्रश्न है, बुध की मूल त्रिकोण राशि नवम भाव में है, अतः यह भाग्येश होकर नाश स्थान में जाकर भाग्य का नाश करेगा।

उधर गुरु दो अशुभ भावों अर्थात् द्वादश और तृतीय का स्वामी होकर द्वादश से द्वितीय और तृतीय से एकादश में स्थित होगा और इस प्रकार बुरे भावों को बल देगा, विशेषतया इसलिए भी कि यह योगकारक शुभ ग्रह शुक्र द्वारा भी दृष्ट होगा। इस प्रकार शुभ बुध के निर्बल होने के कारण और अशुभ गुरु के बलवान् होने के कारण निर्धनता का योग बनेगा ।

3. मकरे जयमानस्य पंचमस्थेद्भृगुश्शुभः । राज्यस्वश्वेदभृगुर्योगं न ददाति कदाचन ॥ ३॥

भावार्थ – मकर लग्न हो और शुक्र पंचम भाव में हो, तो शुक्र अपनी दशा में बहुत धनादि देता है, परन्तु वही शुक्र दशम भाव में स्थित हो, तो बहुत घनादि नहीं देता ।

व्याख्या – शुक्र मकर लग्न वालों के लिये राजयोग कारक ग्रह है। यह केन्द्र की अपेक्षा त्रिकोण में स्थित क्यों अधिक शुभ फल देता है ? यह प्रश्न है क्योंकि पंचम और दशम दोनों में यह स्वक्षेत्री होता है।

शुक्र के लिए पंचम में स्थिति उसे बहुत ‘दिक् बल’ देती है, क्योंकि वह चतुर्थ भाव के समीप है, परन्तु उसकी दशम भाव स्थिति उसके ‘दिक् बल’ के अभाव की सूचक है, इसलिये फलों में तारतम्य है और पंचमस्थ शुक्र दशमस्थ शुक्र की अपेक्षा अधिक बलवान् है।

4. मकरे जायमानस्य लग्नस्थौ शुक्रचन्द्रजौ । पंचमस्थश्च चन्द्रस्तु गुरुणा वीक्षितो यदि ॥

मंडलाधीश्वरो राज भवध्येव न संशयः । भृहज्जातकयोगोऽयं महाराजक संज्ञिकः ॥ ४, ५ ॥

भावार्थ – यदि शुक्र और बुध मकर लग्न में स्थित हों और पंचम भाव में स्थित चन्द्र पर गुरु की दृष्टि हो, तो जातक राजराजेश्वर बनता है। बृहजातक में इसको ‘महाराजा’ योग कहा है।

व्याख्या – इसमें सन्देह नहीं कि यह एक उत्तम योग है। शुक्र जो मकर लग्न वालों का राजयोग कारक ग्रह है, मित्र राशि में केन्द्र में अपने मित्र और भाग्येश के साथ और अपनी राशि तुला और वृषभ से शुभ स्थान शुभ स्थान में होगा, होगा, अतः इसको चार चाँद और भी लग जायेंगे।

उधर चन्द्र पंचम भाव में उच्च होगा, सूर्य से प्रायः दूर होगा। अपने शुभ मित्र गुरु से दृष्ट होगा। इस प्रकार लग्न और चन्द्र लग्न और राजयोग कारक ग्रहों और भाग्येश की प्रबलता के कारण धन, भाग्य, शासन, सत्ता सभी की प्राप्ति होगी।

6. लग्नसंस्थो यदि गुरुर्लाभ शुक्र कुजो यदि । गुरुवयि तु संप्राप्ते भ्रातृ मूल धनागमः ॥ ६ ॥

भावार्थ – यदि मकर लग्न हो, लग्न में गुरु और एकादश में मंगल और शुक्र स्थित हों, तो गुरु की दशा में भाई द्वारा धन की प्राप्ति होती है।

व्याख्या – प्राय: लग्न और दशम भाव को धन प्राप्ति में आय के स्रोत का द्योतक माना गया है । गुरु बड़े भाई का कारक हैं। यह भ्राता स्थान (तृतीय) का स्वामी होकर और धन का कारक होकर जब लग्न में स्थित होगा तब भाइयों से धन प्राप्ति का सूचक होगा ।

इसी प्रकार दशमेश शुक्र का बड़े भाई के स्थान (एकादश) में एकादशेश और वह भी भ्रातृ कारक मंगल से युक्त होना भी भाई द्वारा धन प्राप्ति की सूचक होगी।

7. अन्दोलिका वाहनां च मकरे जातको नरः । लभते नात्र सन्देहस्सूरिभिः परिकीर्तितः ॥ ७॥

भावार्थ – मकर लग्न में उत्पन्न जातक पालकी आदि सुन्दर वाहनों को प्राप्त करता है ।

व्याख्या – यह श्लोक पिछले श्लोक ही का भाग है और उसी श्लोक में वर्णित ग्रहों के फल को कह रहा है। इस वाहन प्राप्ति का कारण स्पष्टतया वाहन स्थानाधिपति मंगल और वाहन कारक शुक्र का प्राप्ति स्थान (एकादश) में बैठना है। गुरु भी विपरीत राजयोग की सृष्टि करता हुआ धनदायक है, परन्तु मुख्य योग तो मंगल और शुक्र की लाभ-स्थान में युति है।

8. रविचन्द्र बुधालग्ने व्ययो शुक्र कुजा यदि । भ्रातृभाग्यम् स्वभाग्यं च प्राप्नोति मृगजो नरः ॥ ८ ॥

भावार्थ – यदि मकर लग्न में सूर्य, चन्द्र और बुध स्थित हों तथा मंगल और शुक्र द्वादश भाव में स्थित हों, तो स्वयं जातक और उसके भाई भाग्यशाली होते हैं ।

व्याख्या – बुध की मूल त्रिकोण राशि कन्या भाग्य भवन (नवम) में पड़ती है, इसलिए बुध बहुत शुभ फलदायक होगा । नवम भाव की यह शुभता बुध लग्न, सूर्य लग्न और चन्द्र लग्न तीनों को प्रदान कर रहा है जिसके फलस्वरूप निज को भरपूर भाग्य की प्राप्ति हो रही है।

जहाँ तक मंगल की द्वादश स्थिति का प्रश्न है, हमको यह ध्यान रखना है कि मंगल तृतीय भाव से नवम भाव का स्वामी है और भ्रातृ कारक भी। यह तृतीय भाव से दशम में होने के कारण और मित्र राशि में स्थित होने के कारण भाइयों के भाग्य की भी वृद्धि करेगा।

9. मृगजन्मा मन्दसौम्य भाग्यस्थो भाग्यवान् भवेत् । व्ययस्थो राहु जीवौ तु राहुर्योगप्रदो भवेत् ॥ ९ ॥

भावार्थ – मकर लग्न हो, तो शनि और बुध नवम भाव में स्थित होकर भाग्यशाली बनाते हैं और राहु और गुरु द्वादश भाव हों, तो राहु योगप्रद होता है ।

व्याख्या – शनि दो शुभ स्थानों अर्थात् लग्न और द्वितीय का स्वामी होता है। इसकी भाग्य स्थान में स्थिति शुभ और ‘मित्र भाग्येश के साथ इसको और भी शुभ बनावेगी । राहु एक छाया ग्रह है, उस पर धनकारक गुरु की युति का प्रभाव है और शनि और बुध की ३/४ दृष्टि का, अतः यह भी अपनी दशा में धनादिदायक सिद्ध होगा ।

10. मकरे जायमानस्य चन्द्रः कर्कटके स्थितः । मकरस्थ धरासूनु राजयोगप्रदो भवेत् ॥ १० ॥

भावार्थ – यदि मकर लग्न में मंगल हो और कर्क में चन्द्रमा, तो राजयोग का फल मिलता है।

व्याख्या – लग्न भाव में एक उच्च ग्रह की स्थिति और फिर उस पर प्रबल चन्द्र की दृष्टि लग्न को बहुत बलवान् बनावेगी । इसी प्रकार प्रबल चन्द्र पर राज योगकारक मंगल (कर्क के लिए) की प्रबल दृष्टि चन्द्र लग्न की उत्कृष्टता की द्योतक है । लग्नों की उत्कृष्टता बहुत धनदायक होती है ।

भावार्थ रत्नाकर | मकर लग्न | कुंभ लग्न

कुंभ लग्न

कुंभे सिंहे तु जातस्य योगो नैव विशेषकः । भाग्यराज्येश सम्बन्धमात्रेणेति विदुरभुधाः ॥ १ ॥

भावार्थ – कुंभ अथवा सिंह लग्न हो, तो नवमेश और दशमेश के दृष्टि युति आदि सम्बन्ध मात्र से विशेष योग की प्राप्ति नहीं होती ।

व्याख्या – महर्षि पाराशर का मौलिक नियम यह है कि यदि केन्द्र और त्रिकोण के स्वामियों का परस्पर युति दृष्टि आदि द्वारा सम्बन्ध हो, तो व्यक्ति को राजयोग की प्राप्ति होती है।

कुंभ लग्न हो, तो मंगल दशमेश और शुक्र नवमेश बनता है और यदि सिंह लग्न हो, तो मंगल नवमेश और शुक्र दशमेश बनता है, इन दोनों लग्नों में किसी भी लग्न के लिए मंगल और शुक्र का पारस्परिक सम्बन्ध विशेष योगप्रद नहीं है ।

कारण कि कुंभ लग्न में दशमेश मंगल दशम के साथ एक बुरे भाव तृतीय का भी स्वामी बन जाता है और सिंह लग्न हो, तो भी शुक्र दशमेश होने के साथ-साथ तृतीयेश हो जाता है । इस प्रकार दोनों दशाओं में दशमेश पापी ग्रह बन जाता है ।

विशेषतया इसलिये भी कि दोनों ही हालतों में दशमेश की मूल त्रिकोण राशि बुरे भाव (तृतीय) में पड़ती है, इसलिए इन लग्न वालों के लिये भाग्येश और राज्येश का पारस्परिक सम्बन्ध विशेष अच्छा नहीं है ।

2. लग्ने शुक्ररविराज्ये राहुर्वा कुंभसद्मनः । गुरुराहुदशाकाले योगदो भवतो ध्रुवम् ॥ २ ॥

भावार्थ – यदि कुंभ लग्न हो, शुक्र लग्न में, सूर्य दशम में और राहु भी लग्न में हो, तो गुरु और राहु अपनी दशा भुक्ति में दोनों “योग” अर्थात् धनादि देते हैं ।

व्याख्या – राहु एक छाया ग्रह के नाते उन ग्रहों आदि का फल करेगा जिनके द्वारा कि वह प्रभावित है। राहु लग्न में शनि की राशि में कुछ शनि का जो लग्नेश है, शुभ फल करेगा और कुछ शुक्र का शुभ फल करेगा जोकि योगकारक होने से बहुत शुभ है।

राहु पर सूर्य का भी काफी प्रभाव है । सूर्य भी राज्य सम्बन्धी शुभ फल करेगा, क्योंकि सूर्य राज्यकारक भी है और दशम से दशम भाव का स्वामी भी । गुरु का आधिपत्य भी अच्छा है, क्योंकि उसकी मूल त्रिकोण राशि धनु लाभ स्थान में पड़ती हैं, इसलिये गुरु भी शुभ फलदायक होगा ।

3. कुंभे तु जायमानस्य रन्ध्रस्थौ रविभूमिजौ। तयोर्दाये दुःखदस्या बुधवाये हि योगदः ॥ ३ ॥

भावार्थ – कुंभ लग्न हो और सूर्य और मंगल अष्टम भाव में स्थित हों, तो रवि और मंगल की दशा में दुःख की प्राप्ति होगी और बुध की दशा बहुत धन देगी ।

व्याख्या – मंगल और सूर्य दोनों लग्नेश शनि के शत्रु हैं और नैसर्गिक पापी ग्रह भी, इसलिए वह अपनी दृष्टि द्वारा धन भाव को हानि पहुँचावेंगे, अतः उनकी दशा दुःखप्रद होगी।

परन्तु बुध बहुत अच्छा फल इसलिये करेगा कि वह अष्टमेश है और अष्टम भाव पापी ग्रहों से पीड़ित है । बुरे भाव का पीडित होना उसके स्वामी द्वारा शुभ फलप्रद होता ही है।

4. घटजातस्य लग्नस्थो गुरुमंदो द्वितीयगः । गुरुवाये मिश्रयोगः शनिवायेव योगदः ॥ ४ ॥

भावार्थ – गुरु लग्न मे कुंभ राशि में और शनि द्वितीय भाव में हों, तो गुरु की दशा में मिश्र फल की प्राप्ति होगी और शनि की दशा वहुत अच्छा फल करेगी ।

व्याख्या – गुरु दो धन स्थानों अर्थात् द्वितीय और एकादश का स्वामी होकर तीसरे शुभ स्थान लग्न में स्थित होकर शुभ फलदायक है, परन्तु उसका अपनी एक राशि धनु से तृतीय होना और दूसरी राशि मीन से द्वादश में होना उस शुभता के विरोध में काफी कार्य करेगी, अतः गुरु मिश्र फलदायक है ।

परन्तु शनि की दशा शुभ रहेगी, क्योंकि शनि एक तो लग्नेश है, दूसरे, गुरु अधिष्ठित राशि का स्वामी होने से गुरु का शुभ फल करेगा और तीसरे उसकी धनभाव में स्थिति भी शनि के धनदायक कार्य में सहायक होगी।

शनि के शुभ फल देने में एक और भारी कारण यह भी है कि शनि अपनी द्वादशस्य (बुरे भाव) में मकर राशि से तृतीय होगा और दूसरी राशि कुंभ शुभ भाव से द्वितीय में शुभ होगा ।

5. कुंभे तु जायमानस्य शनि शुक्रौ तु लाभगौ । शुक्रदाये च संप्राप्ते शुक्रो भवति योगदः ॥ ५ ॥

भावार्थ – यदि शनि और शुक्र धनु राशि में एकादश स्थान में हों, शुक्र अपनी दशा में बहुत शुभ फल करता है ।

व्याख्या – शुक्र योगकारक है और फिर अपने मित्र शुभ फलदायक शनि के साथ लाभ स्थान में स्थित है, अतः शुक्र अपनी दशा में शुभ फल करेगा ।

6. विक्रमस्थास्सूर्य सौम्या जीवश्चेत्सूर्यदायके । रविश्शुभप्रदस्सत्यम् कुंभजातस्य राज्यदः ॥ ६ ॥

भावार्थ – यदि तृतीय भाव में मेष राशि में सूर्य, बुध और गुरु हों, तो सूर्य अपनी दशा में धन और राज्य देता है ।

व्याख्या – सूर्य एक पापी ग्रह होकर और सप्तम केन्द्र का स्वामी होकर शुभ है । उसकी शुभता गुरु, जो धनकारक, धनेश और लाभेश है, बढ़ाता है। बुध गुरु के साथ गुरु का रूप होकर सूर्य की शुभता को और बढ़ाता है।

इसके अतिरिक्त सूर्य राज्य सत्ता का द्योतक होता हुआ और दशम से दशम का स्वामी होकर बलवान् है । सप्तम चूँकि दशम से दशम है, अतः सप्तमेश सूर्य राज्य का दुगुना प्रतिनिधि होकर तथा शुभ प्रभाव होकर राज्यसत्ता प्रदान करेगा । कुभ लग्न वालों का सप्तमेश पापी सूर्य शुभ फलदाता होता है ।

भावार्थ रत्नाकर

  1.   मेष लग्न | वृश्चिक लग्न
  2.  वृषभ लग्न | तुला लग्न
  3.   मिथुन लग्न | कन्या लग्न
  4.  कर्क लग्न | सिंह लग्न
  5.  धनु लग्न | मीन लग्न
  6.  मकर लग्न | कुंभ लग्न
  7.   अध्याय 2 | धन योग | विद्या | खान-पान
  8.  अध्याय 3 भ्रातृ-भाव |अध्याय 4 वाहन तथा भाग्य | अध्याय 5 शत्रु और रोग
  9.   अध्याय 6 स्त्री और काम | अध्याय 7 आयु और स्वास्थ्य
  10.  अध्याय 8 भाग्य योग | अध्याय 9 राज योग
  11.  अध्याय 10 तीर्थ स्नान | अध्याय 11 मृत्यु योग
  12.  अध्याय 12 दशा के परिणाम
  13.  अध्याय 13 साधारण योग | अध्याय 14 ग्रहमालिका योग | अध्याय 15 ग्रहों का आधिपत्य आदि
  14.  नियम अध्याय

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