भावर्थ रत्नाकर | नियम अध्याय

नियम १ : जिन भावों के स्वामी उन भावों के कारकों के साथ संयुक्त हों, उनकी वृद्धि होती है। (अध्याय १२, श्लोक १)

नियम २ : कोई भी कारक ग्रह यदि उस भाव में स्थित हो जिसका कि वह कारक है तो उस भाव का बहुत थोड़ा फल मिलता है। (अध्याय २, श्लोक १) इस सन्दर्भ में अध्याय ४ का श्लोक २ भी देखिये जहां गुरु को चतुर्थ भाव के सम्बन्ध में एक अपवाद बताया गया है।

नियम ३ : वह भाव जिसका कारक लग्न से द्वादश भाव में स्थित हो, फलता फूलता है। (अध्याय ८ श्लोक ६)

नियम ४ : यदि किसी केन्द्र का स्वामी नैसर्गिक पापी ग्रह हो और वह क्रेन्द्र ही में स्थित हो तो राजयोग का शुभ फल करता है। (अध्याय १२, श्लोक ६)

नियम ५ : जो ग्रह अष्टम भाव में स्थित हो वह उस भाव से सम्बन्धित बातों को, जिसका कि वह स्वामी है, हानि पहुंचाता है और साथ ही अपने कारकत्व को; परन्तु शनि इस नियम में अपवाद है। अष्टम भाव में शनि अच्छी आयु देता है । (अध्याय ७, श्लोक ३)

नियम ६ : शुक्र द्वादश अथवा छठे स्थान में स्थित होकर भी शुभ फल करता है। (अध्याय १२, श्लोक ४)

नियम ७ : जो ग्रह अपनी दोनों राशियों से बुरे भावों में स्थित होता है उन भावों के लिए अशुभ फल करता है। (अध्याय १, मेष लग्न, श्लोक १३)

नियम ८ : जो ग्रह दो भावों का स्वामी होता है वह उस भाव का फल करता है जिसमें कि उसकी मूल त्रिकोण राशि होती है। (अध्याय १, कर्क लग्न, श्लोक १)

नियम ९ : नैसर्गिक शुभ ग्रह जब द्वितीय और द्वादश भावों के स्वामी हों तो मारक होते हैं। (अध्याय १, श्लोक १)

नियम १० : यदि दो ऐसे ग्रहों की युति हो जो किसी साझी बात के द्योतक हैं तो वह साझी बात फलीभूत होती है। (अध्याय १, वृश्चिक लग्न, श्लोक १)

नियम ११ : जब दो से अधिक ग्रहों का परस्पर सम्बन्ध हो तो कोई एक ग्रह अपनी दशा भुक्ति में उन गुणों की अभिव्यक्ति करेगा जो उन ग्रहों में साझे हैं जोकि इसे प्रभावित कर रहे हैं। (अध्याय १, धनु लग्न, श्लोक ३)

नियम १२ : यदि कोई ग्रह किसी लग्न विशेष के लिए योग कारक ह परन्तु दिक् बल से शून्य हो तो ऊंचा फल न करेगा । ( अध्याय १, मकर लग्न, श्लोक ३)

नियम १३ : ग्रह उस भाव का मुख्यतया फल करते हैं जिसमें कि उन की मूल त्रिकोण राशि पड़ती है। (अध्याय १, मीन लग्न, श्लोक ८)

नियम १४ : द्वादश भाव का  स्वामी कमी (अल्पता) का सूचक है । यदि यह धन द्योतक ग्रहों के साथ हो तो धन को घटा देता है। (अध्याय २, श्लोक ५; श्लोक २, अध्याय २)

नियम १५ : दो ग्रह धनादि साझे गुणों वाले यदि परस्पर सम्बन्ध न भी रखते हों, परन्तु यदि वह अपने-अपने भावों में स्वक्षेत्री होकर बलवान् हों तो शुभ फल करते हैं । (अध्याय २, श्लोक २)

नियम १६ : विद्या का मुख्य स्थान द्वितीय भाव है जिसके द्वारा विद्या की मात्रा आदि का विचार करना चाहिए। (विद्या शीर्षक में श्लोक ३, ४, ७ से १०)

नियम १७ : कुण्डली का चतुर्थ स्थान ‘जनता’ का और स्त्री जाति का भाव होने से जनता की स्त्री का प्रतिनिधित्व करता है । यदि चतुर्थेश का सम्बन्ध सप्तम सप्तमेश से हो तो मनुष्य व्यभिचारी होता है । (अध्याय ६, श्लोक २२)

नियम १८ : जब दो ग्रह एक स्थान में हों तो वे अपनी दशा भुक्ति में साथी ग्रह का बहुत हद तक फल करते हैं । (सिंह लग्न, श्लोक ७)

भावार्थ रत्नाकर

  1.   मेष लग्न | वृश्चिक लग्न
  2.  वृषभ लग्न | तुला लग्न
  3.   मिथुन लग्न | कन्या लग्न
  4.  कर्क लग्न | सिंह लग्न
  5.  धनु लग्न | मीन लग्न
  6.  मकर लग्न | कुंभ लग्न
  7.   अध्याय 2 | धन योग | विद्या | खान-पान
  8.  अध्याय 3 भ्रातृ-भाव |अध्याय 4 वाहन तथा भाग्य | अध्याय 5 शत्रु और रोग
  9.   अध्याय 6 स्त्री और काम | अध्याय 7 आयु और स्वास्थ्य
  10.  अध्याय 8 भाग्य योग | अध्याय 9 राज योग
  11.  अध्याय 10 तीर्थ स्नान | अध्याय 11 मृत्यु योग
  12.  अध्याय 12 दशा के परिणाम
  13.  अध्याय 13 साधारण योग | अध्याय 14 ग्रहमालिका योग | अध्याय 15 ग्रहों का आधिपत्य आदि
  14.  नियम अध्याय

0 Comments

Leave a Reply

Avatar placeholder

Your email address will not be published. Required fields are marked *