भावार्थ रत्नाकर | अध्याय 6 | स्त्री और काम

1. कलत्राधिपतिर्यस्तु कारकेण युतो यदि । क्रूरसंबन्ध रहितः कलत्रं चैकमेव हि ॥ १ ॥

भावार्थ – सप्तम भाव का स्वामी क्लत्र कारक शुक्र के साथ यदि (पुरुष की जन्म कुण्डली में) हो और उस पर क्रूर ग्रहों का किसी प्रकार से प्रभाव न हो, तो जातक की एक ही स्त्री (दीर्घजीवी) होती है ।

व्याख्या – ग्रन्थकार का आशय यह है कि जातक की स्त्री दीर्घजीवी होगी । सप्तमेश और शुक्र का बली होने का ही यह शुभ परिणाम होगा।

2. पापाग्रहस्य संबन्धः कलत्राधिपते यदि । कुटुंबे सप्तमे वापि स्थिताः पापग्रहा यदि ॥ २ ॥

लाभं गतो वा शुक्रश्च शुक्रो नीचं गतोऽपि वा । सप्तमाधिपतिष्षष्ठे व्यये वा संस्थितो यदि ॥ ३ ॥

कलत्रान्तरयोगोयं विद्वद्भिः परिकीर्तितः । लग्ने पापग्रहयुते कलत्रान्तरभाकू भवेत् ॥ ४ ॥

भावार्थ – यदि पापी ग्रह सप्तम भाव के स्वामी के साथ युति अथवा दृष्टि सम्बन्ध रखता हो अथवा द्वितीय तथा सप्तम भावों में पाप ग्रह स्थित हों, अथवा शुक्र एकादश स्थान में स्थित हो अथवा शुक्र अपनी नीच राशि में स्थित हो अथवा सप्तमेश छठे या बारहवें स्थान में हो अथवा लग्न में पापी ग्रह स्थित हो, तो प्रथम स्त्री की मृत्यु होकर द्वितीय स्त्री की प्राप्ति होती है ।

व्याख्या – प्रथम स्त्री की आयु से सम्बन्धित भाव सप्तम और द्वितीय है । द्वितीय इसलिए भी कि यह भाव सप्तम से अष्टम होने के कारण स्त्री का आयु स्थान है ।

इसी प्रकार शुक्र स्त्री का कारक ग्रह होता हुआ स्त्री की आयु से सम्बन्धित है, अतः यह बात स्पष्ट है कि सप्तम सप्तमेश, द्वितीय द्वितीयेश अथवा शुक्र जब निर्बल और पीड़ित होंगे, तो प्रथम स्त्री की आयु को हानि पहुँचेगी । लग्न में पाप ग्रह की स्थिति से भी, चूंकि सप्तम स्थान को हानि पहुँचती है यह योग भी स्त्री की हानि में कारण है ।

5. कुटुंबदाररन्ध्रेषु चतुर्थे व्ययभेऽपि वा । सितः कुजश्च शुक्रश्च बलहीनो द्विदारदः ॥ ५ ॥

भावार्थ – यदि शनि और मंगल शुक्र के साथ द्वितीय, सप्तम, अष्टम, चतुर्थ अथवा द्वादश भाव में स्थित हों और शुक्र बलहीन हो, तो जातक को पहली स्त्री की मृत्यु के कारण दूसरा विवाह करना पड़ता है ।

व्याख्या – उक्त योग के द्वारा स्त्री की आयु को हानि पहुँचती है जिससे प्रथम स्त्री की मृत्यु हो जाती है। मंगल की उक्त स्थिति ‘मांगलिक दोष’ अथवा ‘कुज दोष’ खड़ा करती है ।

मंगल द्वितीय में होगा, तो सप्तम से अष्टम अर्थात् स्त्री की आयु को हानि पहुँचेगी। यदि चतुर्थ में होगा, तो अपनी चतुर्थ दृष्टि से स्त्री के दूसरे आयु भाव अर्थात् सप्तम भाव को हानि पहुँचेगी। यदि सप्तम में हुआ, तो भी सप्तम पीड़ित होगा । अष्टम में हुआ, तो इसकी सप्तम दृष्टि द्वारा स्त्री का आयु भाव (द्वितीय) हानि उठावेगा और यदि द्वादश में हुआ, तो मंगल की अष्टम दृष्टि द्वारा स्त्री के आयु भाव सप्तय को हानि पहुँचेगी।

इस प्रकार श्लोक में कहा योग सप्तम भाव अथवा उससे अष्टम भाव और शुक्र (स्त्री कारक) को हानि पहुँचाकर प्रथम स्त्री की मृत्यु ले आवेगा ।

6. कुटुंबसप्ताष्टम वाहन व्ययेष्ववस्थितो भूमिसुतस्तथैव । देवेन्द्रपूज्यस्तु गुरुः कुटुंबे चिरात्कलत्रांन्तरमादिशान्ति ॥ ६ ॥

भावार्थ – यदि मंगल द्वितीय, सप्तम, अष्टम, चतुर्थ अथवा द्वादश भाव में हो और गुरु द्वितीय में, तो स्त्री की मृत्यु तो होगी परंतु कुछ देर से।

व्याख्या – मंगल की उपरोक्त भावों में स्थिति स्त्री के जीवन को हानि पहुँचाती है परन्तु गुरु की द्वितीय स्थान में स्थिति से चूँकि द्वितीय स्थान कुछ बलवान् हो जाता है और द्वितीय स्थान स्त्री का आयु स्थान है, इसलिए स्त्री की मृत्यु कुछ वर्ष रुक जाती है।

7. शनिः कुटुंबे राहुश्चेत्सप्तमे यदि विद्यते । द्विकलत्रकयोगोयमित्याहुर्जातकोविदाः ॥ ७ ॥

भावार्थ – यदि राहु सप्तम स्थान में हो और शनि द्वितीय स्थान में तो जातक की दो शादियाँ होती हैं।

व्याख्या – द्वितीय और सप्तम दोनों भावों का जैसा कि हम पहले बता चुके हैं, स्त्री की आयु से सम्बन्ध है, अतः इन दो भावों में दो क्रूर ग्रहों का बैठना स्त्री की आयु को हानि पहुँचावेगा ।

यदि राहु तथा शनि शत्रु राशि में स्थित हों, तो यह योग शीघ्र ही प्रथम स्त्री की मृत्यु के देने वाला बन जावेगा और यदि इन भावों पर अन्य पाप ग्रहों का भी प्रभाव हो तो स्त्री की आयु और भी थोड़ी होगी ।

8. द्वितीयासप्तमेशी शुक्रौ वा युगसप्तमे । पश्यन्तश्शुभसंयुक्ता यावत्संख्याग्रहैर्युताः ॥ ८ ॥

तावज्जीव कलत्राणि क्रूरयुक्तास्तुते यदि । कलत्रं भगमाप्नोति चैकभार्या विशिष्यते ॥ ९ ॥

भावार्थ – यदि दूसरे और सातवें भाव के स्वामी और शुक्र द्वितीय अथवा सप्तम भाव में स्थित हों, तो उनको जितने शुभ ग्रह अपने युति अथवा दृष्टि द्वारा प्रभावित करें उतनी ही स्त्रियाँ जातक की होंगी और यदि उक्त तीन ग्रह पापी ग्रहों से युक्त हों, तो स्त्रियों की मृत्यु होती है और केवल एक स्त्री बचती है ।

व्याख्या – द्वितीयेश, सप्तमेश और शुक्र प्रथम स्त्री के प्रतिनिधि हैं। इन पर यदि केवल मात्र शुभ प्रभाव हो, तो स्त्री के मरने का कोई प्रश्न नहीं उठता। परन्तु यह ग्रह उक्त स्थिति पर हो और शुभ और पापी दोनों प्रभावों में हो, तो स्त्री मरती है । पुनः प्राप्त होती है, मरती है, प्राप्त होती है । इस प्रकार अन्त में एक ही स्त्री रह जाती है।

10. सप्तमस्थो यदि भृगुस्सौरिणा संयुतो यदि । स्वस्त्रीसक्तक इति प्रोक्तो जातो ज्योतिषकोत्तमः । १०।।

भावार्थ – यदि शनि और शुक्र सप्तम स्थान में स्थित हों, तो जातक की अपनी ही स्त्री में आसक्ति रहती है ।

व्याख्या – इसमें सन्देह नहीं कि शनि शुक्र का मित्र है और जब शनि और शुक्र दोनों सप्तम स्थान में अपने किसी मित्रादि (जैसे वृषभ, मिथुन, कन्या, तुला, मकर, कुंभ) की राशि में स्थित होंगे, तो स्त्री के दीर्घ आयु के द्योतक होंगे और ऐसी स्थिति में उनमें परस्पर प्रेम की भी संभावना है।

परन्तु हम समझते हैं कि यदि शनि और शुक्र किसी शत्रु राशि (मेष, कर्क, सिंह, वृश्चिक, धनु, मीन) में हुए तो फिर न केवल पति-पत्नी में प्यार का अभाव होगा बल्कि वे एक-दूसरे से पृथक् हो जावेंगे; विशेषतया जब सप्तम भाव पर सूर्य अथवा राहु का प्रभाव भी होगा। कारण कि शनि, सूर्य और राहु पृथकता-जनक ग्रह हैं ।

11. सप्तमस्थो यदि बुधः परस्त्रीसक्त उच्यते । सप्तमस्थो यदि गुरुः भार्या पतिपरायणा ॥। ११ ॥

भावार्थ – यदि बुध सप्तम भाव में हो, तो पुरुष अन्य स्त्री में आसक्त होता है और यदि कुण्डली में गुरु सप्तम भाव में हो, तो उसकी स्त्री पति के अनुकूल चलने वाली होती है ।

व्याख्या – बुध राजसिक ग्रह है और गुरु सात्विक, इसीलिए फल में तारतम्य है। बुध युवा भी है और उचित-अनुचित प्रभाव को ग्रहण भी जल्दी करता है, इसलिए भी यह अन्य स्त्री आसक्त करने की संभावना रखता है ।

12. सप्तमेश कुटुंबेश कर्मे शास्तु चतुर्थगाः । परस्त्रीषु रतो जातः इत्यूचुर्गणिका बुधा ॥ १२ ॥

भावार्थ – यदि द्वितीय सप्तम और दशम भाव के स्वामी चतुर्थ भाव में हों, तो जातक परस्त्री गामी होता है ।

13. सप्तमस्थः सैंहिकेयः जातेन निपुणो भवेत् । सप्तमस्थो यदि ध्वजः भार्या धूर्तेति कथ्यते ॥ १३ ॥

भावार्थ – यदि सप्तम भाव में राहु हो, तो मनुष्य कार्यों में निपुण होगा और यदि इस स्थान केतु हो, तो उस जातक की भार्या धूर्ता (चालाक और ठग) होगी।

व्याख्या – जब राहु सप्तम में होगा, तो निश्चित है कि केतु लग्न में होकर लग्न को प्रभावित करेगा। चूँकि केतु मंगल की भाँति कार्य करता है, व्यक्ति के स्वभाव में मंगल के गुण आ जावेंगे । केतु की पंचम दृष्टि भी बुद्धि स्थान अर्थात् पंचम भाव पर पड़ेगी जिसके फलस्वरूप भी बुद्धि में तीव्रता आवेगी, क्योंकि मंगल का एक गुण तीव्र बुद्धि वाला और कार्य कुशल होना इसलिए जातक में यह गुण आ जावेंगे और यदि सप्तम में केतु हुआ, तो स्त्री को आवश्यकता से अधिक चालाक बना देगा ।

भावार्थ रत्नाकर अध्याय 7 | आयु और स्वास्थ्य

1. संपच्छरीरपुत्राणां कारकस्य गुरोर्यदि । लग्नाधिपतिना योगोह्यायुः प्रबलमादिशेत् ॥ १ ॥

भावार्थ – धन, पुत्र और शरीर के कारक गुरु का यदि लग्न के स्वामी युति दृष्टि आदि द्वारा सम्बन्ध हो, तो जातक दीर्घ आयु पाता है ।

व्याख्या – ग्रन्थकार ने अध्याय १२ के श्लोक संख्या १ में इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया है कि यदि किसी भी भाव के स्वामी का उस भाव के कारक से संयोग हो, तो उक्त भाव की वृद्धि होती है ।

इसी सिद्धांत के अनुसार यहाँ यदि शरीर द्योतक लग्नेश की शरीर कारक गुरु से युति हुई, तो शरीर की वृद्धि अर्थात् लग्न प्रदर्शित आयु आदि की वृद्धि होगी ।

2. आयुष्करेण शनिनाह्यष्टमाधिपतेर्यदि । संबन्धो विद्यते यस्य दीर्घायुर्योग उच्यते ॥ २ ॥

भावार्थ – यदि आयु का कारक ‘शनि’ आठवें भाव के स्वामी द्वारा दृष्ट हो अथवा उससे युक्त हो, तो जातक दीर्घायु वाला होता है ।

व्याख्या – पूर्व श्लोक में उल्लिखित सिद्धांत यहाँ भी लागू होता है । चूंकि शनि और अष्टमेश दोनों आयु का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनका एकत्र होना आयु को बढ़ाता है। इनका बलवान् होना तो आवश्यक है ही।

3. अष्टमस्थे शनौ जातो दीर्घायुर्योगमाप्नुयात् । अष्टमेशे लग्नकेतु अल्पायुष्यं विनिदिशेत् ॥ ३ ॥

भावार्थ – यदि शनि आठवें भाव में हो, तो आयु दोर्घ होती है । यदि आठवें भाव का स्वामी लग्न में केतु के साथ हो, तो जातक की आयु थोड़ी होती है ।

व्याख्या – साधारण नियम यह है कि अष्टम स्थान में यदि कोई नैसर्गिक पापी स्थित हो, तो आयु घट जाती है । परन्तु शनि इस नियम का अपवाद है ।

परन्तु शनि के सम्बन्ध में भी हमारा विचार है कि शनि भी अष्टम भाव में यदि अपनी राशि, अपनी उच्च राशि अथवा अपनी मित्र राशि में स्थित हो, तभी दीर्घायु देता है। यदि शत्रु राशि में शनि अष्टम में हो, तो आयु को कम ही करता है ।

यदि अष्टमेश लग्न में हो, तो इतने मात्र से कोई परिणाम नहीं निकालना चाहिए। इस योग का तात्पर्य केवल इतना है कि आयु द्योतक दो तथ्य अर्थात् अष्टमेश और लग्न एक स्थान पर हैं। आगे इन पर शुभ प्रभाव से दीर्घायु और पाप प्रभाव से अल्पायु का निर्णय होगा । इसी नियम के अनुसार यदि केतु अष्टमेश तथा लग्न पर अपनी युति द्वारा प्रभाव डालेगा, तो एक क्रूर ग्रह के नाते आयु को कम करेगा। इसके विपरीत, यदि गुरु अष्टमेश के साथ लग्न में हो, तो वह आयु को बढ़ावेगा ।

4. पितृकारक भानोस्तु भाग्याधिपतिना यदि । संबन्धो विद्यते यस्य दीर्घायुः पितुरुच्यते ॥ ४॥

भावार्थ – यदि नवम भाव का स्वामी पिता के कारक सूर्य से युति दृष्टि आदि द्वारा संबन्ध स्थापित किए हुए हो, तो जातक का पिता दीर्घजीवी होता है ।

5. भाग्यस्थो यदि भानुस्यादल्पायुष्यं पितुस्तथा । चतुर्थे यदि चन्द्रस्तु मातुस्यादल्पजीवितम् ॥ ५ ॥

भावार्थ – सूर्य नवम में हो, तो पिता की आयु थोड़ी होती है और चन्द्रमा चतुर्थ भाव में हो, तो माता की आयु थोड़ी होती है ।

व्याख्या – यहाँ ग्रन्थकार ने ‘कारको भावनाशाय’ के सिद्धांत को लागू किया है अर्थात् यदि किसी भाव का कारक उसी भाव में स्थित हो, तो कारकत्व गुण का नाश होता है। परन्तु हम समझते हैं कि इसमें आधी सच्चाई है। साथ ही यह शर्त भी होनी चाहिये कि उन दोनों पर पाप प्रभाव भी हो, क्योंकि शुभ प्रभाव के होने पर शुभ फल देखा गया है।

6. भाग्यस्थो भानुभाग्येशी आयुर्होनो भवेत्पिता । लाभस्यो यदि भाग्येशौ दीर्घायुर्योगवान् पिता ॥ ६॥

भावार्थ – यदि नवम भाव का स्वामी और सूर्य दोनों नवम भाव में हों, तो पिता की आयु थोड़ी होती है और यदि नवम भाव का स्वामी एकादश भाव में हो, तो पिता की आयु लम्बी होती है।

7. चतुर्थस्थानपतिना संबन्धों यदि विद्यते । मातृकारक चन्द्रस्य मात्रायुष्यं विनिदिशेत् ॥ ७ ॥

भावार्थ – यदि चतुर्थ भाव के स्वामी का मातृ कारक चन्द्र से सम्बन्ध हो, तो माता की दीर्घ आयु कहनी चाहिए ।

व्याख्या – ग्रन्थकार चतुर्थ भाव में चन्द्र की स्थिति का माता की आयु के लिये अच्छा नहीं मानता परन्तु चतुर्थ भाव के स्वामी के साथ चन्द्र की स्थिति का इस सन्दर्भ में शुभ मानता है । यहाँ भी हम समझते हैं कि फल का निर्णय शुभ अथवा अशुभ प्रभाव से ही करना चाहिये ।

8. तृतीये यदि भौमस्तु भ्रातृस्यादल्पजीवितम् । तृतीयस्थो यदिगुरुर्भ्रात्रारिष्टं वदंति हि ॥ ८ ॥

भावार्थ – तृतीय भाव में मंगल हो, तो भाई को आयु थोड़ी होती है। और तृतीय में यदि गुरु हो, तो भाई को कष्ट कहना चाहिये ।

व्याख्या – भाई के सम्बन्ध में ग्रन्थकार ने पहले तो “कारको भावनाशाय” का सिद्धांत लागू किया है। जिसके सम्बन्ध में पाँचवें श्लोक पर व्याख्या देखिये ।

गुरु की तृतीय भाव में स्थिति के कारण जब तक गुरु निर्बल न हो, बड़ा भाई देगा और उसकी आयु को दीर्घ करेगा, क्योंकि गुरु की शुभ दृष्टि एकादश भाव पर पड़ेगी ।

9. तृतीयस्थो यदि गुरु स्वक्षेत्रेस्यात्तृतीयकम् । एक एव च भ्रातास्यज्जातकस्य वदंति हि ॥ ९ ॥

भावार्थ – यदि तृतीयेश तृतीय भाव में गुरु के साथ हो, तो जातक का एक ही भाई होगा ।

व्याख्या – एक शुभ ग्रह होने के नाते उसके तृतीय भाव और उसके स्वामी पर प्रभाव डालने के कारण छोटे भाइयों के होने की संभावना है और गुरु की एकादश भाव पर दृष्टि के कारण बड़े भाई के होने की भी संभावना है, परन्तु ग्रन्थकार का भाव “स्थान हानि करो जीव ” की लोकोक्ति को लागू करता है।

10. आयुर्होनं च पुत्रस्य गुरुः पञ्चमगो यदि । अल्पायुष्यं कलत्रस्य भृगुस्सप्तमगो यदि ॥ १० ॥

भावार्थ – पंचम भाव में गुरु पुत्र की आयु को और सप्तम में शुक्र स्त्री की आयु को कम करता है ।

व्याख्या – यहाँ भी “कारको भावनाशाय” को अपनाया गया है ।

11. चतुर्थेशश्चन्द्रमाश्च भाग्ये राज्येऽथ लाभगे । पञ्चमेहिस्थितौस्यातां मातुः दीर्घायुषं वदेत् ॥ ११ ॥

भावार्थ – यदि चतुर्थेश और चन्द्र नवम, दशम अथवा षष्ठम भाव में इकट्ठे हों, तो माता दीर्घ आयु वाली होती है ।

व्याख्या – “भावेश कारक के साथ हो परन्तु उस भाव में न हो जिसका कि वह कारक है, तो अच्छा फल देती है।” इस सिद्धांतानुसार यह श्लोक है। साथ ही भावेश और कारक का बलवान् होना आवश्यक है ।

12. चतुर्थेश: चतुर्थस्थः मूलकोणं भर्वोद्दम् । दीर्घमायुरसमाप्नोति मातेत्यूचुबुधोत्तमाः ॥ १२ ॥

भावार्थ – यदि चतुर्थ स्थान का स्वामी चतुर्थ भाव में अपनी मूल त्रिकोण राशि में स्थित हो, तो जातक की माता दीर्घजीवी होगी ।

13. चतुर्थेशश्च चन्द्रश्च प्रबलस्थान संस्थितौ । क्षोण चन्द्रो यदि भवेच्चतुर्थर्शानवीक्षितं । अल्पायुष्यं समाप्नोति जातस्य जननी ध्रुवम् ॥ १३ ॥

भावार्थ – यदि चतुर्थेश और चन्द्र केन्द्र आदि स्थिति में भी हों परंतु यदि चन्द्रमा क्षीण हो (सूर्य से ७२ अंश के अन्दर अन्दर हो) और चतुर्थ भाव पर शनि की दृष्टि हो, तो जातक की माता की आयु थोड़ी होती है।

व्याख्या – इस श्लोक से पता चलता है कि किसी भावेश का अपने कारक के साथ बैठना ही पर्याप्त नही । कारक आदि का बलवान् होना भी अपेक्षित है ।

भावार्थ रत्नाकर

  1.   मेष लग्न | वृश्चिक लग्न
  2.  वृषभ लग्न | तुला लग्न
  3.   मिथुन लग्न | कन्या लग्न
  4.  कर्क लग्न | सिंह लग्न
  5.  धनु लग्न | मीन लग्न
  6.  मकर लग्न | कुंभ लग्न
  7.   अध्याय 2 | धन योग | विद्या | खान-पान
  8.  अध्याय 3 भ्रातृ-भाव |अध्याय 4 वाहन तथा भाग्य | अध्याय 5 शत्रु और रोग
  9.   अध्याय 6 स्त्री और काम | अध्याय 7 आयु और स्वास्थ्य
  10.  अध्याय 8 भाग्य योग | अध्याय 9 राज योग
  11.  अध्याय 10 तीर्थ स्नान | अध्याय 11 मृत्यु योग
  12.  अध्याय 12 दशा के परिणाम
  13.  अध्याय 13 साधारण योग | अध्याय 14 ग्रहमालिका योग | अध्याय 15 ग्रहों का आधिपत्य आदि
  14.  नियम अध्याय

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