वृषभ लग्न
1. वृषभजातस्य च शनिः भाग्यकर्मेश्चरोऽपि वा । सोमसुताभ्याम् वा न युक्रतौ नैव योगदः ॥ १ ॥
भावार्थ – वृषभ लग्न में जन्म हो, तो शनि केन्द्र (दशम) तथा त्रिकोण (नवम) का स्वामी होता हुआ भी योग (बहुत शुभ) फल नहीं दे सकता, यदि इसके साथ सूर्य तथा बुध की युति न हो।
व्याख्या – शनि के बहुत शुभ फल न देने का कारण संभवतया यह है कि उसकी मूल त्रिकोण राशि दशम भाव में पड़ती है। यह केन्द्रेश होकर अशुभ नहीं रहता अर्थात् थोड़ा शुभ होता है । शनि चूँकि ग्रहों में निम्नतम श्रेणी का है, इसलिए इसका नवमेश होना इसको अधिक शुभ नहीं बना सकता, इसलिए इसकी शुभता को बढ़ाने के लिए इसके साथ दूसरे योगकारक ग्रहों का संसर्ग आवश्यक है ।
सूर्य केन्द्रेश और बुध कोणेश मिलकर राजयोग की सृष्टि करते हैं, इसलिए उनका शनि से योग शनि में अधिक शुभता लाता है। स्वतंत्र रूप से शनि अपनी दशा भुक्ति में शुभ फल तो करेगा, परन्तु उत्तम फल न कर सकेगा ।
2. वृषभर्क्षेऽपि जातस्य राज्येराहुर्यदि स्थितः । मकरे गुरुभौमौ वा गंगास्नानम् समश्नुते ॥ २ ॥
भावार्थ – यदि दशम भाव में कुंभ राशि में राहु स्थित हो अथवा नवम भाव में मकर राशि में गुरु तथा मंगल स्थित हों, तो मनुष्य गंगा स्नान का भागी होता है ।
व्याख्या – राहु एक छाया ग्रह है। इसका स्वतन्त्र फल नहीं होता, इसलिए यदि इस पर दृष्टि अथवा युति द्वारा कोई प्रभाव नहीं, तो यह दशम भाव से प्रभावित होकर दशम भाव ही का फल करेगा । दशम भाव चूँकि धर्म-कर्म आदि यज्ञीय कृत्यों का भाव है, राहु गंगा स्नान आदि धार्मिक कृत्य देगा ।
उधर नवम स्थान भी धर्म स्थान है, अतः वहाँ उच्च मंगल की स्थिति विशेषतया एक धार्मिक ग्रह गुरु के साथ होकर धर्म उत्कृष्टता लावेगी जिससे तीर्थादि में गंगा स्नान भी होगा ।
3. वृषत्रे जायमानस्य चतुर्थे यदि चन्द्रमाः । गुरुणा च बुधेनापि वीक्षितो यदि योगदः ॥ ३ ॥
भावार्थ – चन्द्रमा यदि चतुर्थ भाव में सिंह राशि में गुरु और बुध द्वारा दृष्ट हो, तो बहुत धन आदि देता है ।
व्याख्या – महर्षि पाराशर ने वृषभ लग्न वालों के लिए चन्द्र को पापी कहा है, क्योंकि यह तृतीय स्थान का स्वामी बनता है । ग्रन्थकार की सम्मति में यदि चन्द्र पर गुरु और बुध की दृष्टि हो, तो वह बहुत शुभ फल (धन आदि) के देने वाला हो जाता है ।

गुरु लाभेश होने के कारण और धनकारक होने के कारण धन के विषय में बहुत शुभ फलदायक है। इसी प्रकार बुध द्वितीय और पंचम दो शुभ धनदायक भावों का स्वामी होकर और गुरु से मिलकर चन्द्रमा पर आर्थिक दृष्टिकोण से शुभ प्रभाव डालेगा। परन्तु मुख्य प्रश्न यह है कि क्या तृतीयेश एक पापी भाव का स्वामी होकर शुभ प्रभाव में आकर और अधिक अशुभ फल न करेगा । ग्रन्थकार की यह सम्मिति नहीं ।
ऐसा लगता है कि जब अष्टम जैसे अशुभ भाव के आधिपत्य का दोष चन्द्र को नहीं लगता, तो तृतीयेश होने का दोष उसे क्यों लगेगा । हमको अन्ततः यह मानना होगा कि चन्द्र एक लग्न के रूप में गुरु और बुध के शुभ प्रभाव में आकर शुभ फल ही करेगा ।
4. वृषभ जायमानस्य कुजस्सप्तमगश्शुभः । लाभस्यौ भानुभाग्येशौ दीर्घायुर्योगवान् सदा ॥ ४ ॥
भावार्थ – वृश्चिक राशि में सप्तम स्थान में स्थित मंगल शुभ फल करता है। सूर्य और शनि (नवमेश) यदि लाभ स्थान में स्थित हों, तो जातक धनी और दीर्घायु होता है।
व्याख्या – पाराशरीय नियमों के अनुसार द्वादशेश स्थानान्तर अर्थात् यहाँ सप्तम भाव का फल करेगा। एक नैसर्गिक पापी ग्रह होकर मंगल केन्द्राधिपति होकर अपना पापत्व खो देगा । अतः उसका पुनः केन्द्र में निज राशि में स्थित होना उसके शुभत्व की वृद्धि करेगा (देखिए नियमाध्याय का नियम संख्या ४) ।
जहाँ तक सूर्य और शनि की एकादश स्थान में स्थिति का प्रश्न है, सूर्य एक लग्न के नाते और शनि एक आयुष्य कारक के नाते प्रबल उपचय स्थान में होकर बलवान् होंगे और इसीलिए आयु को बढ़ावेंगे ।
सूर्य और शनि की युति योगप्रद भी हो जावेगी, क्योंकि शनि को कोणेश सूर्य की सहायता मिलेगी ।
5. वृषभलग्ने तु जातस्य गुरोस्सोमसुतस्य च । संबन्धो वीक्षणम् वाऽपि विद्यते धनयोगदः ॥ ५ ॥
भावार्थ – यदि वृषभ लग्न हो और गुरु और बुध परस्पर एक दूसरे को देखते हों अथवा एक राशि में स्थित हों, तो धनदायक योग बनाते हैं ।
व्याख्या – गुरु धनकारक होता हुआ और एकादशेश होता हुआ धन का और अधिक प्रतिनिधित्व करता है । इसी प्रकार बुध स्वतन्त्र रूप से द्वितीयेश और पंचमेश होता हुआ शुभ है । इसका गुरु से युति आदि सम्बन्ध दो धनदायक ग्रहों का सम्बन्ध होगा और इसलिए धन की सृष्टि जातक के लिए करेगा ।
6. वृषभे जायमानस्य गुरोस्सोमसुतस्य च । कुजेन सहसम्बन्धो वीक्षितो वा भवेद्यदि । विशेष धन संप्राप्तिम् न प्राप्नोति न संशयः ॥ ६ ॥
भावार्थ – यदि श्लोक संख्या ५ के अनुसार गुरु और बुध का पारस्परिक दृष्टि आदि सम्बन्ध हो, परन्तु साथ ही इन पर मंगल का भी प्रभाव हो, तो विशेष धन की प्राप्ति नहीं होती ।
व्याख्या – पाराशरीय नियमों के अनुसार द्वादशेश मंगल ने सप्तम भाव का फल करना है। एक पापी ग्रह के नाते मंगल सप्तम केन्द्र का स्वामी होकर अशुभ नहीं रहता, परन्तु इसको शुभ भी तो नहीं कहा जा सकता, इसलिए इसकी दृष्टि में कुछ-न-कुछ पापत्व रहेगा जोकि गुरु तथा बुध के शुभत्व को कम करेगा, इसलिए ‘बहुत धन’ की प्राप्ति न होगी, तो भी धन की पर्याप्त प्राप्ति रहेगी ।
7. वृषभे जायमानस्य गुरुसौम्यकुजा यदि । परस्परयुतास्सौम्यदायस्तु ऋणयोगदः ॥ ७ ॥
भावार्थ – वृषभ लग्न हो और गुरु, बुध और मंगल यदि एक राशि में स्थिति हों, तो बुध की दशा ऋण देने वाली होगी ।
व्याख्या – प्रत्येक जन्म कुण्डली में छठा, आठवाँ और बारहवाँ भाव बुरे भाव माने गये हैं। यह भाव अभाव, कमी, निर्धनता आदि के सूचक हैं। अब आप देखेंगे कि गुरु की मूल त्रिकोण राशि अष्टम स्थान में पड़ती है और मंगल की द्वादश भाव में, इसलिए इन दोनों ने मिलकर ऋण की सृष्टि करनी है। बुध का काम तो दूसरों के प्रभाव को व्यक्त करना हैं, इसलिए बुध अपनी दशा में मंगल और गुरु के ऋणदायक प्रभाव को ला खड़ा कर देगा ।
8. भौमदायस्तु धनदो गुरोर्दायस्तु मिश्रदः । केन्द्रस्थितस्य सौम्यस्य दायोर्योगप्रदस्मृतः ॥ ८ ॥
भावार्थ – गत श्लोक में वर्णित गुरु, मंगल और बुध की युति के सम्बन्ध में बुध का फल कहकर अब ग्रन्थकार मंगल और गुरु का फल कहते हैं कि मंगल तो अपनी दशा में धन देगा, परन्तु गुरु की दशा मिश्रित फल के देने वाली होगी।
व्याख्या – मंगल अपनी दशा में गुरु और बुध का फल करेगा, क्योंकि पापी केन्द्रेश होने के कारण यह पापी नहीं रहा और इसीलिए शुभ प्रभाव में आकर शुभ फल करेगा, परन्तु गुरु ने मंगल और बुध का फल करना है । मंगल तटस्थ है और बुध भी मंगल के साथ मिलकर तटस्थ, अतः गुरु जहाँ बुध की युति के कारण और अपने लाभेश होने के कारण शुभ फल करेगा, वहाँ वह मंगल के तटस्थ होने के कारण अपने शुभ फल में कमी भी पावेगा, इसलिए गुरु का फल मिश्रित कहा।
बुध जब अकेला केन्द्र में स्थित होगा, तो शुभ फल देगा । कारण कि द्वितीयेश और पंचमेश होने के नाते, “स्थानान्तरानुगुण्येन” के नियमानुसार इसने पंचम त्रिकोण का फल करना है, जोकि शुभ होगी और चूँकि बुध ने अपनी केन्द्र स्थिति का भी फल करना है, यह फल शुभता से बढ़कर योगप्रद हो जावेगा।
9. लग्नस्थो बुधशुक्रौ तु सप्तमस्थो गुरुमंदिः । बुधदायस्तु प्रबलयोगदो वृषजन्मनः ॥ ९ ॥
भावार्थ – यदि वृषभ लग्न में बुध और शुक्र हों और गुरु की सप्तम दृष्टि उन पर हो, तो बुध अपनी दशा में बहुत ऊँची कोटि का योगफल करता है ।
व्याख्या – बुध द्वितीय और पंचम का स्वामी होने से, गुरु लाभेश होने से और शुक्र लग्नेश होने से सभी धन द्योतक होंगे और इसीलिए धनदायक सिद्ध होंगे।

यदि इस योग पर मूल त्रिकोण राशि के आधिपत्य की दृष्टि से विचार किया जावे, तो भी फल शुभ ही निकलता है। कारण कि शुक्र की मूल त्रिकोण राशि छठे भाव में पड़ती है । शुक्र छठे से आठवें होने के कारण ऋण आदि का नाश कर विपरीत राजयोग का शुभफल करेगा।
इसी प्रकार गुरु की मूल त्रिकोण राशि (धनु) अष्टम में पड़ती है । गुरु अष्टम से द्वादश है। यहाँ भी अष्टम को हानि पहुँचाने के कारण गुरु शुभ फलप्रद है । बुध ने तो गुरु और शुक्र के सम्मिलित फल को ही व्यक्त करना है, अतः बुध भी शुभ फलदायक होगा ।
10. लग्नस्थौ कुजशुक्रौ तु मकरस्थो गुरुमंदि । गुरुसौम्यदशाकाले भाग्यंस्याद् वृषजन्मनः ॥ १० ॥
भावार्थ – यदि मंगल और शुक्र वृषभ लग्न में हों और गुरु मकर में, तो गुरु और मंगल की दशा में भाग्य फले-फूलेगा ।
व्याख्या – ऐसा प्रतीत होता है कि श्लोक में “सौम्य ” शब्द के स्थान पर “भौम” शब्द होना चाहिए। चूँकि योग बनाने वाले ग्रहों में श्लोक के पूर्वार्द्ध में मंगल, शुक्र और गुरु का उल्लेख है, फल भी इन्हीं ग्रहों का कहना बनता है न कि बुध का, जिसका कोई उल्लेख नहीं। गुरु की दशा तो इसलिए शुभ और भाग्यप्रद होगी कि गुरु अपनी राशि धन से द्वितीय और मीन से एकादश है अर्थात् दोनों राशियों से शुभ स्थानों में स्थित है।
मंगल की दशा इसलिए शुभ होगी कि तटस्थ मंगल पर दो नैसर्गिक शुभ ग्रहों शुक्र और गुरु का प्रभाव होगा । फल अच्छा होगा, परन्तु योगप्रद नहीं। क्योंकि गरु और शुक्र की मूल त्रिकोण राशि त्रिक भावों में पड़ती है।
11. मन्दसौम्यकुजा भाग्ये राहुः कुंभगतो यदि । कुजराहुदशा गंगास्नानदा वृषजन्मनः ॥ ११ ॥
भावार्थ – यदि शनि, बुध और मंगल नवम स्थान में हों और राहु कुंभ में दशम स्थान में हो, तो मंगल और राहु की दशा में गंगा स्नान होगा ।
व्याख्या – गंगा स्नान एक धार्मिक कृत्य है, अतः इसका नवम और दशम भावों से घनिष्ट सम्बन्ध है । नवम भाव में उच्च मंगल धर्म की उत्कृष्टता का द्योतक है। उसके साथ दशमेश शनि की यति मंगल की धार्मिकता में वृद्धि करती है और बुध ने तो अपनी युति से मंगल और शनि के धार्मिक फल ही को व्यक्त करता है। राहु की दशम स्थिति का उल्लेख पहले आ चुका है (देखिए मेष लग्न पर श्लोक संख्या २२) ।
12. चन्द्रशुक्रौ तु षष्ठस्थौ लाभे सौम्यगुरु यदि । गुरुदाये च संप्राप्ते धनयोग उदीरितः ॥ १२ ॥
भावार्थ – यदि चन्द्र और शुक्र तुला में छठे भाव में हों और मंगल गुरु मीन राशि में एकादश स्थान में हों, तो गुरु की दशा धनदायक होती है ।
व्याख्या – गणित-ज्योतिष के अनुसार शुक्र और बुध सूर्य से तीन भावों से अधिक दूरी पर नहीं हो सकते, इसलिए संभवतया भौम के स्थान पर “सौम्य ” छप गया है ।

गुरु एकादशेश और बुध द्वितीयेश के सम्बन्ध के कारण उनके साझे गुण “धन” का प्रादुर्भाव होगा । यदि गुरु मंगल को एकादश में लिया जाए, तो भी गुरु तो अपनी दोनों राशियों के शुभ स्थान में स्थित होने के कारण और एकादश भाव में स्वक्षेत्री होने के कारण शुभ फल करेगा और मंगल का योग हानिकर सिद्ध न होगा ।
13. शुक्रस्यदाये संप्राप्ते धनप्राबल्यमादिशेत् । भाग्ययोगं समाप्नोति वृषजन्म न संशयः ॥ १३ ॥
भावार्थ – जब शुक्र की दशा आवे (देखिए पिछला श्लोक) तो धन और भाग्य खूब चमकें ।
व्याख्या – साधारणतया वृषभ लग्न वालों के लिए शुक्र की दशा अच्छी नहीं होती, क्योंकि शुक्र की मूल त्रिकोण राशि एक त्रिक भवन (छठे भाव) में पड़ती है । इस कारणवश महर्षि पराशर ने शुक्र को इस लग्न वालों के लिए ‘पापी’ ठहराया है ।
परन्तु यहाँ शुक्र की स्थिति शुभ फलदायक है । उसमें कारण यह है कि शुक्र से युति के कारण चन्द्रमा भी सूर्य के समीप ही होगा और इसलिए पक्षबल में निर्बल होकर एक पापी ग्रह के रूप में शुक्र को पीड़ित करेगा और फिर मंगल की अष्टम दृष्टि भी शुक्र पर पड़ती है जिससे शुक्र और भी अधिक निर्बल होगा । इस प्रकार षष्ठेश पापी शुक्र के पीड़ित होने के कारण छठे भाव प्रदर्शित अभाव आदि का नाश होकर विपरीत राजयोग द्वारा धन की प्राप्ति होगी ।
14. वृषभे जायमानस्य लग्ने चन्द्रस्थितो यदि । विशेष धनयोगं तु न प्राप्नोति जातकः ।। १४ ।।
भावार्थ – वृषभ लग्न में स्थित चन्द्र विशेष धनदायक नहीं होता।
व्याख्या – हमारी सम्मति में चन्द्रमा के पक्ष वल पर बहुत कुछ निर्भर करता है। यदि यह सूर्य से दूर शुभ दृष्ट हो, तो अवश्य उच्च पदवी के देने वाला होता है।
15. इतर जायमातो भाग्यवान् भवति ध्रुवम्।
भावार्थ – यदि वृषभ को छोड़कर अन्य कोई लग्न हो और चन्द्रमा लग्न में स्थित हो, तो जातक निश्चय ही भाग्यशाली होता है।
व्याख्या – यह श्लोकाद्धंप्रक्षिप्त प्रतीत होता है। एक तो यह अध्याय के अंत में आया है। दूसरे, इसका आशय गत श्लोक के आशय से विरुद्ध पड़ता है। यदि उच्च राशि का होकर भी चन्द्रमा लग्न में शुभ फलदायक नहीं, तो दूसरी किसी राशि में लग्नस्थ चन्द्रमा कैसे शुभ हो सकता है।

तुला लग्न
1. तुला लग्ने तु जातस्य शनिर्योगप्रदो भवेत् । तृतीय षष्ठनाथोऽपि गुरुयोंगप्रदो भवेत् ॥ १ ॥
भावार्थ – तुला लग्न वालों के लिए शनि अपनी दशा में बहुत धन देता है। तीसरे और छठे भाव का स्वामी गुरु भी अपनी दशा में योगप्रद होता है।
व्याख्या – शनि, चूँकि केन्द्र और त्रिकोण (चतुथ ओर पंचम) भावों का स्वामी है, राजयोग का फल करता है, परन्तु ग्रन्थकर्त्ता की सम्मति में दो अशुभ भावों-तृतीय और छठे का स्वामी होता हुआ भी गुरु बहुत शुभ फल करता है ।
इस शुभ फल का कारण यही प्रतीत होता है कि गुरु भी एक धनकारक ग्रह है और तृतीय और षष्ट भाव भी उपचय (Income ) के भाव हैं, अतः गुरु आर्थिक दृष्टिकोण से शुभ फल करने वाला बन जाता है । यह शुभता केवल गुरु ही को ऐसे आधिपत्य द्वारा प्राप्त होती है, क्योंकि और कोई ग्रह यह आधिपत्य धनकारक रूप से प्राप्त नहीं करता ।
2. तुला लग्ने तु जातस्य धनसप्तमनायकः । न करोति कुजः पापः निधनं तु न संशयः ॥ २ ॥
भावार्थ – तुला लग्न वालों के लिये मंगल द्वितीय और सप्तम दो मारक स्थानों का स्वामी होता हुआ भी मृत्यु कारक सिद्ध नहीं होता ।
व्याख्या – तुला लग्न वालों की कुण्डली में मंगल की मूल त्रिकोण राशि सप्तम भाव में पड़ती है और अन्य राशि वृश्चिक द्वितीय भाव में, इसलिए मंगल मुख्यतया सप्तम भाव का फल करता है । एक नैसर्गिक पापी ग्रह के नाते मंगल सप्तम केन्द्र का स्वामी होता हुआ अपनी अशुभता को खो देता है और शुभ हो जाता है । इसी कारण से वह मारक नहीं रहता ।
3. तुलायां जायमानस्य गुरुशुक्रौ समन्वितौ । अन्योन्यं वीक्षितौं वापि भौममन्देन वीक्षितौ ॥
कुजभानुजसद्यस्थौ गुरोश्शुक्रांतरेपि वा । शुक्रदाये गुरोर्भुक्ति कालेस्पोटव्रणादिकौ ॥। ३, ४ ॥
भावार्थ – तुला लग्न हो और गुरु और शुक्र का पारस्परिक युति अथवा दृष्टि संबन्ध हो और यह दोनों ग्रह मंगल तथा शनि की राशि में स्थित हों, उन पर शनि तथा मंगल की दृष्टि हो, तो शुक्र (दशा गुरु भुक्ति में अथवा गुरु दशा शुक्र भुक्ति) में जातक चेचक अथवा घाव आदि से कष्ट पाता है ।
व्याख्या – तुला लग्न वालों के लिए शुक्र जिसकी मूल त्रिकोण राशि लग्न में पड़ती है, लग्नेश होने से स्वास्थ्य का प्रतिनिधित्व करता है । इसी प्रकार गुरु सुख “कारक” होता हुआ षष्टेश बनता है । सुख कारक षष्टेश भी स्वास्थ्य ही का प्रतिनिधित्व करता है, अतः स्वास्थ्य द्योतक गुरु और शुक्र पर मंगल और शनि के पाप प्रभाव के फलस्वरूप गुरु और शुक्र अपनी-अपनी दशा भुक्ति में स्वास्थ्य संबन्धित अशुभ फल देते हैं। मंगल तो घाव और फोड़े-फुंसी आदि का ग्रह है ही । शनि पंचमेश होने से पित्त का ग्रह बनकर मंगल की सहायता करता हुआ उक्त रोगों को उत्पन्न करेगा ।
5. तुलायां जायमानस्य व्ययस्थौ भानुसोमजौ। शनिनावीक्षितौस्या तां मध्यायुर्भाग्यवान् पिता ॥ ५ ॥
भावार्थ – यदि सूर्य और बुध द्वादश स्थान में (कन्या राशि में) स्थित हों और उन पर शनि की दृष्टि हो, तो जातक के पिता की मध्यम आयु होती है । यद्यपि वह घनी होता है।
व्याख्या – द्वादश भाव में स्थित सूर्य बुध पर शनि की दृष्टि तभी पड़ सकती है जब शनि तृतीय, छठे अथवा दसवें भाव में हो। इन तीनों में से किसी भाव में भी स्थित शनि उपचयस्थ होगा और इसीलिए बलवान् होगा ।
पितृ स्थान (नवम) से अष्टमेश होता हुआ और आयु का कारक होता हुआ बलवान् शनि पिता की आयु को दीर्घ करेगा। परन्तु चूंकि इसकी क्रूर दृष्टि पिता के द्योतक नवमेश बुध और नवम कारक सूर्य दोनों पर पड़ेगी, उस दृष्टि के फलस्वरूप पिता की आयु कम होगी।
इस प्रकार अन्नतोगत्वा पिता की आयु मध्यम श्रेणी की हो जावेगी । शनि पिता का नवमेश है, अतः उसकी प्रबलता पिता को भाग्यवान बनावेगी ।
6. तुलालग्ने तु जातस्य रविस्सौरेर्बुधस्य च । कुजस्य यदि संबन्धो बहुभाग्यप्रदो भवेत् ॥ ६॥
भावार्थ – तुला लग्न वालों के सूर्य, शनि, बुध और मंगल यदि एक दूसरे के साथ युति अथवा दृष्टि संबन्ध स्थापित करें, तो जातक बहुत भाग्यशाली होता है।
व्याख्या – इस लग्न वालों का सूर्य लाभेश होने से, शनि राजयोग कारक होने से, बुध भाग्येश होने से और मंगल धनेश होने से सभी धन के प्रतिनिधि होते हैं, अतः उनका पारस्परिक संबन्ध धनप्रद रहता है।
7. तुला लग्ने तु जातस्य रविस्सौरेर्बुधस्य च । कुजस्यवेंदु संबधो राजयोग उदीरितः ॥ ७॥
भावार्थ – यदि सूर्य, शनि और बुध का मंगल अथवा चन्द्र से संबन्ध हो, तो जातक को राजयोग का फल मिलता है ।
व्याख्या – चन्द्र का केन्द्रेश होने के नाते कोणेश शनि. से संबन्ध राजयोग कारक है और मंगल धनेश, बुध नवमेश होने से उस शुभ फल में वृद्धि करेंगे। इसी प्रकार मंगल की युति भी सभी धन और योगप्रद ग्रहों से होगी, जिसका उत्तम फल निकलेगा ।
8. तुलायां जायमानस्तु शुक्रसूर्यबुधा यदि । लग्नस्थाः भाग्यवान् जातः धन वानश्च भव ध्रुवम् ॥ ८ ॥
भावार्थ – यदि तुला लग्न वालों के लग्न में सूर्य, शुक्र और बुध स्थित हों, तो जातक धनी और भाग्यशाली होता है ।

व्याख्या – सूर्य लाभेश होने से, शुक्र लग्नेश होने से और बुध भाग्येश होने से ये सभी धनदायक ग्रह हैं। लग्न भी धनदायक भाव है, अतः इस भाव में स्थित होकर ये सब ग्रह शुभ फल धनादि देने वाले होंगे ।
9. सौम्य मंदसितादित्याः लग्नस्थाश्चन्द्र भूमिजौ । सप्तमस्थो चन्द्रजस्य दशाकाले समागमे ॥
तुलायां चायमानस्तु पुरुषो धनवान् भवेत् । भाग्यवांश्च भवत्ये व संशयो नास्तिवं ध्रुवम् ॥ १० ॥
भावार्थ – यदि तुला लग्न में सूर्य शनि, शुक्र और बुध हों और सप्तम भाव में मंगल और चन्द्रमा, तो बुध अपनी दशा में धनादि के संबन्ध में बहुत अच्छा फल देगा ।
व्याख्या – बुध का फल उस पर पड़ने वाले प्रभाव के अनुकूल होता है, चूँकि बुध पर प्रभाव डालने वाले सभी ग्रह शुभ फलदायक हैं, अतः बुध धनादि के संबन्ध में शुभ फल देगा ।
11. अष्टमे तु गुरुर्भाग्ये मन्दोलाभे कुजेन्दुजौ । यदि सन्ति तुलाजातः राजयोग विशेषवान् ॥ ११ ॥
भावार्थ – तुला लग्न वालों के लिये उत्कृष्ट राजयोग की सृष्टि हो जाती है। यदि गुरु अष्टम में, शनि नवम में और मंगल और बुध एकादश भाव में स्थित हों।
व्याख्या – मंगल तुला लग्न वालों के लिये शुभ होता है। इसको प्रमुख उपचय स्थान में मित्र राशि में स्थिति इसको बलवान् करती है और फिर मंगल धन भाव में स्थित निज राशि वृश्चिक को देखता हुआ धन के लिये और भी शुभ हो जावेगा।
बुध का आधिपत्य (नवमेश होना) भी शुभ है और उसने उपरोक्त शुभ मंगल के साथ मिलकर भी शुभ फल ही करना है। बुध यदि शनि अधिष्ठत राशि का स्वामी होकर फल करता है, तो भी शुभ है, क्योंकि शनि राजयोग कारक है ।
जहाँ तक गुरु का संबन्ध है, यह तृतीय और छठे स्थानों का स्वामी है। दोनों अनिष्ट स्थान हैं । अनिष्ट स्थानों का स्वामी होता हुआ एक तीसरे अनिष्ट स्थान अष्टम में स्थित होकर गुरु अनिष्ट की हानि करता हुआ विपरीत राजयोग की सृष्टि द्वारा बहुत अच्छा धन देता है ।

गुरु अष्टम स्थान में न केवल शत्रु राशि में स्थित है बल्कि वह तृतीय से अष्टम और षष्ठ से तृतीय अर्थात् अपने दोनों अनिष्ट स्थानों से अनिष्ट स्थान में पड़ा है, इसलिए भी बहुत पीड़ित होकर अनिष्ट की हानि करता है, यदि ऐसा न भी हो, तो भी गुरु को ग्रन्थकर्त्ता ने तुला लग्न वालों के लिये शुभ माना है । विशेषतया उसकी धन कारक होकर धन स्थान पर शुभ दृष्टि धनोत्पादक सिद्ध होगी ।
12. षष्ठे वान्त्ये यदि गुरुलंग्ने चन्द्रस्थितो भवेत् । शनेदये च संप्राप्ते घटजातो हि योगभाक् ॥ १२ ॥
भावार्थ – यदि तुला लग्न वालों का गुरु छठे या बारहवें भाव में स्थित हो और चन्द्र लग्न में हो, तो शनि की दशा विशेष शुभ फल करती है ।
व्याख्या – ग्रन्थकार ने शनि की स्थिति का उल्लेख नहीं किया। शनि कहीं भी हो, वह शुभ फल ही करेगा, क्योंकि वह यहाँ तो लग्न और चन्द्र लग्न दोनों से केन्द्र और त्रिकोण का स्वामी होने के कारण दुगुना राजयोग कारक है।
गुरु भी उक्त स्थिति में बलवान् होगा, क्योंकि या तो वह छठे भाव (उपचय) में स्वक्षेत्री होगा और धन भाव को देखेगा या निज भाव को देखकर धनकारक रूप से बलवान् होगा ।
13. तुलायां जायमानस्या मारको लग्नभार्गवः । द्वितीये सप्तमेशोऽपि न भौमो मारको भवेत् ॥ १३ ॥
भावार्थ – तुला लग्न वालों के लिये लग्नेश होता हुआ भी शुक्र मारक सिद्ध हो सकता है और मंगल दो कारक भावों, द्वितीय और सप्तम का स्वामी होता हुआ भी मारक नहीं होता ।
व्याख्या – इस लग्न संबन्धी श्लोक संख्या २ में इस बात का उल्लेख किया जा चुका है कि क्यों मंगल तुला लग्न वालों के लिए मारक सिद्ध नहीं होता ।
जहाँ तक शुक्र का सम्बन्ध है, “लग्न भार्गवः ” का अर्थ “लग्न में शुक्र” ऐसा नहीं लगाना चाहिये बल्कि “लग्नेश शुक्र” ऐसा अर्थ करना चाहिये । चूँकि शुक्र लग्नेश और अष्टमेश दोनों बनता है और चूँकि अष्टम और लग्न दोनों आयु से संबन्ध रखते हैं, आयु द्योतक शुक्र अपनी दुर्बल स्थिति द्वारा आयु को हानि पहुँचाकर मारक सिद्ध हो सकता है ।
14. तुलायां जायमानस्य मन्दो लग्ने स्थितो यदि । कर्कटे यदि चन्द्रस्तु राजयोग उदीरितः ॥ १४ ॥
भावार्थ – यदि शनि तुला लग्न में और चन्द्रमा कर्क राशि में स्थित हो, तो जातक राजयोग का सुख पाता है ।
व्याख्या – तुला लग्न में शनि योग कारक रूप से और निज राशियों, मकर और कुंभ से शुभ स्थिति में होने के कारण बहुत शुभ फल करेगा । चन्द्रमा शुभ ग्रह राज्येश होकर उस पर अपना ३/४ प्रभाव डालेगा जिसके फलस्वरूप शनि और भी बलवान् और राज्य और धनप्रद हो जावेगा ।
उक्त स्थिति में ‘कारक’ योग भी शनि और चन्द्र की परस्पर केन्द्र स्थिति द्वारा बनता है, इसलिये भी उक्त योग शुभ फल में उत्कृष्ट होगा ।
15. तुलाजातस्य मन्देज्य बुधभौमाः घटे यदि । राजस्थ राहुदाये पुण्यतीर्थफलम् तु भवेत् ॥ १५ ॥
भावार्थ – यदि शनि, गुरु, बुध और मंगल तुला लग्न में स्थित हों, और राहु दशम भाव में हो, तो राहु अपनी दशा में पुण्य तीर्थ की यात्रा देगा।
व्याख्या – यद्यपि लग्नस्थ ग्रहों की दृष्टि दशम भाव पर पाद मात्र है, पर जब चार ग्रह लग्नस्थ होकर एक ही तथ्य के द्योतक हों, तो स्पष्ट है कि उनकी सम्मिलित दृष्टि का दशम भाव पर बहुत प्रभाव होगा ।
यहाँ गुरु तो धर्म का कारक है और बुध धर्म स्थानाधिपति, मंगल दशम से दशम का स्वामी होता हुआ दशम भाव की भाँति शुभ कर्मों का द्योतक होगा और शनि नवम से नवम भाव का स्वामी होकर धर्म का द्योतक होगा।
इस प्रकार दशमस्थ छाया ग्रह राहु पर दशम भाव का तथा धार्मिक और यज्ञीय प्रभाव पड़ने के कारण राहु अपनी दशा में तीर्थ-स्थान आदि पुण्य कार्यों को देगा ।
भावार्थ रत्नाकर
- मेष लग्न | वृश्चिक लग्न
- वृषभ लग्न | तुला लग्न
- मिथुन लग्न | कन्या लग्न
- कर्क लग्न | सिंह लग्न
- धनु लग्न | मीन लग्न
- मकर लग्न | कुंभ लग्न
- अध्याय 2 | धन योग | विद्या | खान-पान
- अध्याय 3 भ्रातृ-भाव |अध्याय 4 वाहन तथा भाग्य | अध्याय 5 शत्रु और रोग
- अध्याय 6 स्त्री और काम | अध्याय 7 आयु और स्वास्थ्य
- अध्याय 8 भाग्य योग | अध्याय 9 राज योग
- अध्याय 10 तीर्थ स्नान | अध्याय 11 मृत्यु योग
- अध्याय 12 दशा के परिणाम
- अध्याय 13 साधारण योग | अध्याय 14 ग्रहमालिका योग | अध्याय 15 ग्रहों का आधिपत्य आदि
- नियम अध्याय
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