भावार्थ रत्नाकर | अध्याय 8 | भाग्य योग

1. भाग्माधिपो लाभगे वा लाभेशो भाग्यगो यदि । लाभ भाग्याधिपत्योश्च संबन्धे भाग्यमादिशेत् ॥ १ ॥

भावार्थ – यदि नवम भाव का स्वामी एकादश भाव में हो अथवा एकादश भाव का स्वामी नवम में हो अथवा उनमें युति दृष्टि आदि से परस्पर संम्बन्ध हो, तो जातक भाग्यशाली होता है ।

व्याख्या – एकादश भाव न केवल धन और यश का भाव है बल्कि यह वस्तुओं आदि की प्राप्ति की शक्ति का भी द्योतक है । समस्त वस्तुएँ जिनका एकादश भाव से सम्बन्ध हो वह प्राप्त हो जाती है। इसी सिद्धांत को यहाँ अपनाया गया है।

2. द्वन्द्वी भूय ग्रहश्चाटौ वेदसंख्यासु राशिषु ।स्थितश्चेद्बहु भाग्यस्तु वक्तव्यो जातकस्य हि ॥ २ ॥

भावार्थ – यदि जन्म कुण्डली में सब ग्रह दो-दो होकर चार राशियों में स्थित हों, तो बहुत भाग्यप्रद योग बनता है ।

व्याख्या – ग्रन्थकार ने यह नहीं बतलाया कि ग्रह किन चार राशियों में स्थित होने चाहियें, अतः यह शुभ योग क्यों और कैसे बनता है इस विषय पर कुछ नहीं कहा जा सकता ।

3. द्वन्द्वीभूयग्रहाषष्टा गुणसंख्यासु राशिषु । स्थिताश्चेद्भाग्ययोगस्तु वक्तव्यो जातकस्य हि ॥ ३ ॥

भावार्थ – यदि ६ ग्रह तीन राशियों में दो-दो होकर स्थित हों तो जातक भाग्यशाली होता है ।

4. चतुर्णां शुभ खेटानां पापखेटक वीक्षणम् । नास्ति चेद्भाग्य बाहुल्यं धनयोगं समश्नुते ॥ ४।

भावार्थ – यदि चार नैसर्गिक शुभ ग्रहों में से किसी पर भी पाप ग्रहों की दृष्टि न हो, तो जातक बहुत धनी और भाग्यशाली होता है ।

व्याख्या – यदि चन्द्रमा सूर्य से दूर हो, यदि बुध का योग शुभ ग्रह से हो, इसी प्रकार यदि शुक्र और गुरु बलवान् हों तो वे सब किसी न किसी रूप धन के द्योतक होंगे, अतः उन पर पापी ग्रहों के प्रभाव का न होना और भी धनप्रद होगा ।

5. तृतीय षष्ठ लाभेषु स्थिताश्चेत् क्रूर खेचराः । जातस्य योगो भाग्यस्य वक्तव्यस्सूरिभिस्तथा ॥ ५ ॥

भावार्थ – यदि नैसर्गिक पापी ग्रह कुण्डली में तृतीय, षष्ठ और एकादश भाव में स्थित हों, तो यह धनदायक शुभ योग समझना चाहिये ।

व्याख्या – इस श्लोक का आशय यह है कि नैसर्गिक पाप ग्रह शुभ भावों के स्वामी होकर यदि तृतीय आदि उक्त भावो में हों, तो वे उन भावों की वृद्धि करेंगे जिनके वे स्वामी होंगे और इसीलिए शुभ फलप्रद होंगे।

6. यद्भावकारको लग्नाद्व्यये तिष्ठति चेद्यदि । तस्य भावस्य सर्वस्य भाग्ययोग उदीरितः ॥ ६ ॥

भावार्थ – जातक को इस भाव -विषयक बातों से लाभ होगा जिस भाव का कारक लग्न से द्वादश भाव में स्थित हो ।

व्याख्या – उदाहरणार्थ, सूर्य को लें ! सूर्य यदि द्वादश भाव में हो, तो ग्रन्थकारानुसार नवम भाव सम्बन्धी पिता की वृद्धि होगी, क्योंकि नवम का कारक सूर्य द्वादश में है । सूर्य की यह स्थिति नवम से चतुर्थ केन्द्र में होगी ।

यदि चन्द्रमा जोकि माता का कारक है यदि द्वादश भाव में हुआ तो मातृ स्थान से नवम होगा, इसलिये माता के लिये शुभकारक होगा ।

मंगल जोकि भ्रातृ कारक है यदि द्वादश भाव में स्थित हुआ, तो तृतीय भाव जिसका कि वह कारक है से दशम केन्द्र में होकर बलवान् होगा।

गुरु जो पुत्र कारक है द्वादश भाव हुआ, तो पंचम जिसका कि वह कारक है से अष्टम होगा । यह स्थिति यद्यपि पंचम के लिए अशुभ है, तो भी पंचम से आयु स्थान के लिए कुछ शुभ सिद्ध हो सकती है।

शुक्र जोकि स्त्री कारक है यदि द्वादश में होगा, तो सप्तम से छठे होगा। शुक्र की यह स्थिति ग्रन्थकारों ने शुभ मानी ही है आदि-आदि ।

प्रायः सब स्थितियों में उस भाव को जिसका कि ग्रह कारक है। उक्त द्वादश स्थिति से लाभ पहुँचता है ।

7. वाहनेशश्च शुक्रश्च सप्तमेश्वर भाग्यौ । लाभभाग्यगतास्तेस्तु शनि संबन्धिनो यदि ॥ ७ ॥

तद्दृशान्तंदेशाकाले गजवाहन गजवाहन लाभकृत् । बृहज्जातक योगोयं सूरिभिः परिकीर्तितः ॥ ८ ॥

भावार्थ – जातक को शनि की दशा भुक्ति में हाथियों की प्राप्ति होती है यदि चतुर्थेश, शुक्र, सप्तमेश और नवमेश सब एकादश अथवा नवम भाव में हों और शनि से सम्बन्धित हों ।

व्याख्या – उक्त ग्रह योग में शनि हाथी का रूप धारण कर लेता है । शनि भारवाही तो है ही और निम्नतम ग्रह होने से पशु बन सकता है। धीरे भी चलता है । अब चूंकि चतुर्थेश वाहन होता है और इसी प्रकार सप्तमेश भी क्योंकि सप्तम चतुर्थ से चतुर्थ होता है। शुक्र तो वाहन कारक है ही।

अतः स्पष्ट है कि इन सब का एकादश भाव में योग उनकी प्राप्ति का योग होगा। उनकी भाग्य भवन में स्थिति भी उनकी प्राप्ति का सूचक होगी क्योंकि भाग्य भी तो अचानक प्राप्ति का नाम है।

9. लग्नभाग्य चतुर्थशाः राज्येशेन च राज्यगाः । अथवा लग्नदारस्थाः तेषां दायेथबांतरे ॥ ९ ॥

काले सिंहासनप्राप्ति लभते बहुभाग्यभाक् । महत्कीति समायुक्तो भवतीत्यनु शुभ मः ॥ १० ॥

भावार्थ – यदि लग्न, नवम और चतुर्थ भाव के स्वामी तीनों ग्रह दशम भाव में दशमेश के साथ स्थित हों अथवा उक्त तीनों लग्न में हों अथवा सप्तम भाव में हो तो इनमें से किसी की भी दशा भुक्ति में जातक को राज्य, भाग्य और यश की प्राप्ति होगी।

व्याख्या – यदि दशम और उसका स्वामी लग्नेश से सम्बन्धित होगा तो दशम प्रदर्शित राज्य की प्राप्ति युक्ति युक्त है। इसी प्रकार वे नवमेश से जब सम्बन्धित होंगे तो राज्य का भाग्य में होना सिद्ध होगा ।

श्लोक के द्वितीय भाग में उक्त ग्रहों के लग्न अथवा सप्तम में होने को शुभ कहा है। यदि लग्नेश लग्न में चतुर्थेश और नवमेश के साथ होगा तो दो केन्द्र स्वामी दो त्रिकोण स्वामियों से सम्बन्ध स्थापित करेंगे जोकि प्रबल राजयोग होगा। उनका सप्तम स्थान में होना भी शुभ होगा, क्योंकि तब लग्नेश की लग्न पर दृष्टि होगी और वह राजयोग कारक भी होगा ।

11. पञ्चमे भाग्यराशौ वा उच्चस्था खेचरा स्थिताः । जातो योगमवाप्नोति कीर्तिञ्चापि समश्नुते ।। ११ ।।

भावार्थ – यदि पंचम अथवा नवम भाव में कोई उच्च राशि में स्थित ग्रह हो, तो जातक धनी और विख्यात होगा ।

व्याख्या – जिस भाव में कोई ग्रह उच्च होता है, वह उस भाव के गुणों की उत्कृष्टता का द्योतक होता है । नवम भाव सबसे शुभ भाव है और नवम से नवम होने के कारण और त्रिकोण भवन होने के कारण पंचम भी शुभ है, अतः इन भावों की उत्कृष्टता भाग्य और धन आदि देगी ही।

12. सूर्य शुक्र बुधाः पुत्रे लाभस्यश्च भवेद्गुहः । बुधदाये विशेषेण धनभाग्यं समश्नुते ।। १२ ।।

भावार्थ – यदि सूर्य बुध और शुक्र पंचम भाव में हों और गुरु एकादश में, तो जातक को बुध की दशा में विशेष धन की प्राप्ति होती है।

व्याख्या – उक्त स्थिति में सूर्य पर बुध, शुक्र और गुरु के तीन शुभ प्रभाव होंगे । अब चूंकि बुध ने उन ग्रहों का फल करना है जिनके कि प्रभाव में वह है, यहाँ वह मुख्यतया सूर्य का फल करेगा, क्योंकि सूर्य इनमें प्रमुख है, अत: सूर्य के शुभ प्रभाव में होने के कारण बुध भी सूर्य का शुभ फल करेगा और सूर्य से सम्बन्धित, यश, राज्य आदि देगा ।

13. पितृकारक भानोश्च भाग्यभावेश्वरोपि वा । उभौ तौ व्ययगौस्यातां पितृभाग्यमुदीरितम् ॥ १३ ॥

भावार्थ – यदि पितृकारक सूर्य और नवम भाव का स्वामी दोनों द्वादश भाव में हों, तो पिता भाग्यशाली हो ।

व्याख्या – सूर्य की द्वादश स्थिति पिता के लिए शुभ है, इस बात का उल्लेख छठे श्लोक में हो चुका है । यहाँ नवमेश (पिता) को भी सम्मिलित कर लिया गया है।

14. सूर्य मेषं गतेचैव पितृभाग्यमुदीरितम् । तुलायां यदि वा भानुः भाग्यहीनो भवेत्पिता ॥ १४ ॥

भावार्थ – सूर्य मेष में हो, तो पिता भाग्यशाली और तुला में हो, तो निर्धन होता है ।

व्याख्या – सूर्य पिता का कारक है, अतः उसकी स्थिति पिता की स्थिति की बहुत हद तक सूचक होगी । ‘बहुत हद तक’ इसलिए कि नवम भाव और नवमेश का बलवान् होना भी पिता के भाग्यशाली होने के लिए आवश्यक है ।

15. धनुर्लग्ने तु जातस्य पितृभाग्यमुदीरितम् । तुलायां संस्थितोपिस्याद्रविस्तत्रैव भाग्यदः ॥ १५॥

भावार्थ – धनु लग्न हो और सूर्य तुला में (नीच) भी हो, तो भी पिता से लाभ रहता है ।

व्याख्या – धनु लग्न वालों का सूर्य पिता स्थान का स्वामी भी होता है और कारक भी। ऐसे प्रतिनिधित्व पूर्ण ग्रह का प्रमुख उपचय भाव में स्थित होना सूर्य को बलवान् करेगा । यद्यपि वह नीच राशि में स्थित होगा। सूर्य इसलिए भी बलवान् होगा कि वह अपने नवम भाव से भी उपचय में होगा, अतः बलवान् सूर्य जातक के लिए शुभप्रद हो जावेगा ।

16. व्ययेश भाग्यराशीश सूर्याणां संस्थितिर्व्यये । पितृस्तु भाग्ययोगश्च व्यये देवेज्य रिफपौ ॥ १६ ॥

भावार्थ – यदि नवमेश, द्वादशेश और सूर्य बारहवें भाव में हों, तो पिता भाग्यशाली होता है। यदि द्वादशेश और गुरु द्वादश भाव में हों, तो भी यही फल होता है ।

व्याख्या – श्लोक का प्रथमार्द्र का फल श्लोक संख्या ६ में कहे सिद्धान्तानुसार कहा गया है। और द्वादश भाव में द्वादशेश और गुरु सुख कारक के बैठने का अर्थ होगा कि पिता के स्थान अर्थात् नवम स्थान से सुख स्थान में सुख भाव का स्वामी और सुख कारक सभी इकट्ठे हैं, उनका इस प्रकार इकट्ठा होना पिता के सुख में वृद्धि करने वाला होगा ।

17. व्यये शुक्रस्य संस्थानं कलात्रात्भाग्यमुदेशेत् । व्यये चन्दस्य संस्थानं मातृभाग्यमुदीरितम् ।। १७ ।।

भावार्थ – शुक्र यदि द्वादश भाव में हो, तो पत्नी द्वारा भाग्य की प्राप्ति होती है । इसी प्रकार द्वादश स्थान में चन्द्र हो, तो माता द्वारा भाग्य की प्राप्ति होती है ।

व्याख्या – यह फल श्लोक सं ६ में वर्णित सिद्धान्तानुसार है।

18. कुजो व्यये स्थितो यस्य भ्रातृभाग्यमुदीरितम् । भाग्येशः कुवलं रिःके पितृभाग्यमुदीरितम् ॥ १८ ॥

भावार्थ – यदि मंगल द्वादश भाव में हो, तो भाइयों द्वारा भाग्य की प्राप्ति हो। इसी प्रकार नवमेश यदि द्वादश भाव में हो, तो पिता से भाग्य की प्राप्ति कहनी चाहिये ।

व्याख्या – भाग्येश शब्द का यहाँ “कुबलं” विशेषण है । कुबलं शब्द के प्रयोग का भाव स्पष्ट नहीं है । जैसा कि इसका अर्थ ‘बुरे अथवा थोड़े बल वाला’ है । यह अर्थ पिता स्थान को लाभ कैसे दे सकता है ? क्योंकि ग्रह का निर्बल होना शुभ फल नहीं देता। ऐसा प्रतीत होता है कि “कुवलं” के स्थान पर “सुवलं” होना चाहिए।

19. भाग्याधिपस्सप्तमस्थः भाग्ये सप्तमनायकः । कलत्र भाग्यमाप्नोति स्वार्जित धनमेव च ॥ १९ ॥

भावार्थ – यदि भाग्याधिपति सप्तम में और सप्तमेश नवम में हो, तो यह व्यत्यय (Exchange) स्त्री से धन प्राप्ति और स्वार्जित धन की प्राप्ति का योग है।

व्याख्या – इस योग द्वारा सप्तम और नवम का घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो जावेगा जिसके फलस्वरूप अपने भाग्य में स्त्री का हाथ होगा । इसी प्रकार चूंकि नवमेश लग्न को देखेगा, भाग्य का स्व अर्थात् निज से भी सम्बन्ध स्थापित हो जावेगा ।

20. द्वितीयेश बुधष्वष्ठे ज्ञातीनां धनमश्नुते । केवलं तु बुधष्षष्ठे ज्ञातीनां धनमश्नुते ॥ २० ॥

भावार्थ – यदि द्वितीयेश होकर बुध छठे भाव में हो अथवा वैसे ही वह छठे हो, तो जातक को मामाओं से धन की प्राप्ति होती है।

21. पञ्चमेशोपि वागीशो उच्चस्थानस्थितो यदि । भाग्यवन्तस्तस्य पुत्रा इति ज्योतिषकोविदुः ॥ २१ ॥

भावार्थ – यदि पंचमेश और गुरु दोनों उच्च राशि में स्थित हों, तो जातक के पुत्र बहुत भाग्यवान होते हैं ।

व्याख्या – पंचम भाव, पंचम भाव का स्वामी और पंचम भाव का कारक गुरु ये तीन “पुत्र” का प्रतिनिधित्व करते हैं । यदि पंचमेश और गुरु उच्च होंगे, तो तीन में से दो अंग तो बलवान् होंगे ही । अतः यह योग पुत्रों की उन्नति का सूचक बनेगा ।

भावार्थ रत्नाकर | भाग्य योग | राज योग

भावार्थ रत्नाकर अध्याय 9 | राज योग

1. द्वितीय पञ्चमेश तु द्वितीये पञ्चमे यदि । भाग्यराज्यस्थितौवापि राजयोगप्रदी तो ॥ १ ॥

भावार्थ – यदि दूसरे और पांचवें भाव के स्वामी द्वितीय अथवा पंचम भाव में स्थित हों अथवा ये दोनों नवम अथवा दशम भाव में स्थित हों, तो जातक को राजयोग प्रदान करते हैं ।

2. धनलाभाषियों राज्ये दोषादि रहितो स्थितौ । तयोये तु संप्राप्ते राजयोगप्रदौ श्रुतौ ॥ २ ॥

भावार्थ – यदि द्वितीय और एकादश भाव के स्वामी दशम भाव में पाप ग्रह की युति अथवा दृष्टि के बिना स्थित हो तो अपनी दशा में जातक को राजयोग का फल देते हैं ।

3. राज्यलाभचतुर्थेषु पञ्चमे वा स्थितो यदि । राजयोगप्रद्रो राहुस्तद्दशान्तई शासु च ॥ ३॥

भावार्थ – यदि राहु दशम, एकादश, चतुर्थ अथवा पंचम भाव में स्थित हो तो अपनी दशा भुक्ति में राजयोग का फल करता है ।

व्याख्या – राहु एक छाया ग्रह है और अपने ऊपर पड़ने वाले प्रभाव के अनुसार ही फल करता है। चूंकि उक्त भाव सभी धन अथवा राज्य के द्योतक हैं, राहु इनमें बैठकर धनादि प्रदान करेगा। परंतु राहु पाप प्रभाव में नहीं होना चाहिये।

4. केतोस्ततीय संस्थानं योगदं भवति ध्रुवम् । भाग्यापत्यस्य केतुस्तु न शुभो दोषमावहेत ॥ ४ ॥

भावार्थ – केतु की तृतीय भाव में स्थिति धनादि योग देती है। नवम अथवा पंचम में केतु दोषी है शुभफल नहीं करता ।

व्याख्या – केतु का तृयीय भाव में स्थित होकर शुभ फल करना इस नियमानुसार है कि पापीग्रह उपचय (३, ६, १०, ११) भावों में स्थित होकर शुभ फल करते हैं । ग्रन्थकार का कहना उन अवस्थाओं के लिए है जहाँ केतु पर कोई प्रभाव नहीं, यदि कोई प्रभाव हुआ तो केतु उस प्रभाव के अनुसार ही फल करेगा।

5. तृतीये चन्द्रशुकौ तु स्थितीचेद्योगदो भृगुः । शुक्रदायेतु संप्राप्ते शुक्राद्योगं समश्नुते ॥ ५ ॥

भावार्थ – यदि चन्द्र और शुक्र तृतीय भाव में स्थित हों तो शुक्र अपनी दशा भुक्ति में बहुत शुभ फल देता है ।

व्याख्या – चन्द्र के साथ स्थित ग्रह चन्द्र का फल करेगा ही, और चन्द्र चूंकि एक लग्न और धनदायक ग्रह है उसका फल धनादि के विषय में शुभ ही होगा । परन्तु इतना ध्यान रहे, चन्द्रमा को पक्षबल आदि में बलवान् होना चाहिए ।

6. राज्याधिपस्तृतीये च लाभे वा यदि संस्थितः । सर्वत्र योगो न भवेत्कुत्रचिच्च भविष्यति ॥ ६ ॥

भावार्थ – यदि दशम भाव का स्वामी तृतीय अथवा एकादश स्थान में स्थिति हो, तो इससे पक्के योग की प्राप्ति नहीं होती । कभी-कभी लाभ भी होता है ।

व्याख्या – यदि दशमेश नैसर्गिक पापी ग्रह हो, तो उपचय में स्थित वह शुभ फल भी कर सकता है । परन्तु चूंकि तृतीय स्थान दशम से छठे है, इसलिए दशम कुछ हद तक हानि भी उठावेगा ।

इसी प्रकार यदि दशमेश पराशरीय नियमों के अनुसार शुभ हुआ, तो उसका एकादश में बैठना शुभ फल देगा और यदि वह अशुभ हुआ, तो फल भी अशुभ होगा ।

7. राज्याधिपोषि च गुरुस्तृतीये यदि संस्थितः । भ्रातृशत्रु यथा योगः कथययोगप्रदो गुरुः ॥ ७ ॥

भावार्थ – यदि गुरु दशमेश होकर तृतीय स्थान में स्थित हो, तो भाई से शत्रुता परन्तु धन के विषय में शुभ फल देता है ।

व्याख्या – गुरु चूँकि तृतीय से अष्टमेश होकर तृतीय में स्थित होगा उसकी यह स्थिति भाई से शत्रुत्व उत्पन्न कर सकती है, विशेषतया जब लग्न मीन हो क्योंकि ऐसी स्थिति में गुरु तृतीय भाव शत्रु राशि में स्थिति होगा ।

परन्तु जहाँ तक धन का सम्बन्ध है धन कारक शुभ गुरु की व्यापार (सप्तम) भाग्य (नवम) और लाभ पर दृष्टि अच्छी धनदायक सिद्ध होगी।

8. भाग्याधिपश्चाष्टमस्थस्तद्दाये नैवयोगदः । भाग्याषिपोपि च गुंरोह्यं ष्टमस्थोपि भाग्यदः ॥ ८ ॥

भावार्थ – यदि नवम भाव का स्वामी अष्टम में स्थित हो, तो धन नहीं देता परन्तु गुरु यदि नवमेश होकर अष्टम में स्थिति हो, तो धनदायक है।

व्याख्या – गुरु यहाँ इसलिए शुभ होगा कि उसकी दृष्टि दो शुभ भावों अर्थात् धन भाव और सुख भाव जिनका कि गुरु कारक भी है, पर होगी।

9. रंध्रभाग्याधिपत्योश्च संबन्धो यदि विद्यते । अष्टमाधिपतेद्दय संप्राप्ते योगमादिशेत् ॥ ९ ॥

भावार्थ – यदि नवम और अष्टम भाव के स्वामियों में युति दृष्टि आदि सम्बन्ध हो तब अष्टमेश की दशा में धनादि की प्राप्ति कहनी चाहिए।

व्याख्या – ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार की सम्मति में कोई भी ग्रह उस ग्रह का फल करेगा जिससे कि वह युति द्वारा प्रभावित है । अतः यहाँ अष्टमेश नवमेश का शुभ फल करेगा ।

10. भाग्यरन्धाधिपत्योश्च संबन्धो यदि विद्यते । भाग्ये शदाये संप्राप्ते नैवयोगप्रदोह्यसौ । अष्टमाधिपतेरंतर्द्दशायां योगदो भवेत् ॥ १० ॥

भावार्थ – यदि अष्टमेश और नवमेश परस्पर युति आदि द्वारा सम्बन्धित हों, तो नवमेश की दशा शुभ फल की प्राप्ति नहीं होती । अष्टमेश की अन्तर्दशा में शुभ फल मिलता है ।

व्याख्या – यहाँ भी पिछले श्लोक से सम्बन्धित नियम को लागू किया गया है।

11. राज्यलाभाधिपत्योश्च संबन्धो यदि विद्यते । लाभाषिप दशाकाले राजयोगो भविष्यति ॥ ११ ॥

भावार्थ – यदि दशमेश और एकादशेश में परस्पर युति आदि से सम्बन्ध हो, तो एकादशेश की दशा में राज योग की प्राप्ति होती है ।

व्याख्या – यहाँ भी गत श्लोकों में लागू किए गये नियम का प्रयोग है । एकदशेश अपना फल न देकर दशम भाव (राज्य) का फल करेगा ।

12. राज्यलाभाषिपत्योश्च संबन्धो यदि विद्यते । राज्येशदाये संप्राप्ते समयोग उदीरितः ।। १२ ।।

भावार्थ – यदि दशमेश और एकादशेश में युति आदि सम्बन्ध हो, तो दशमेश की दशा में मध्यम रूप से धन की प्राप्ति होगी ।

13. लाभेशान्तर्द्द शाकाले योगहीनो भवेत् ध्रुवम् । दशमस्थ भृगोः पाके न योगं लभते नरः । सप्तमस्थः शनैः पाके राजयोगं समश्नुते ।। १३ ।।

भावार्थ – एकादश भाव के स्वामी की भुक्ति में जातक को बहुत शुभ फल की प्राप्ति न होगी । दशम भाव में स्थित शुक्र की दशा में विशेष शुभ फल नहीं होता । परन्तु सातवें भाव में स्थित शनि की दशा में बहुत धन की प्राप्ति होती है ।

व्याख्या – श्लोक की प्रथम पंक्ति का सम्बन्ध पिछले श्लोक से है । इस प्रकार दशम भाव के स्वामी की महादशा और एकादश भाव के स्वामी की भुक्ति में (जबकि दोनों में सम्बन्ध हो) साधारण फल होगा ।

ग्रन्थकार ने ‘दिक्बल’ को बहुत महत्व दिया है। शुक्र यदि दशम भाव में हो, तो उसमें कोई दिक्बल नही होता और शनि यदि सप्तम भाव में हो तो उसमें ‘पूर्ण दिक्बल’ होता है, इसीलिए दशम में स्थित शुक्र का साधारण और सप्तम में स्थित शनि का उत्तम फल कहा है।

14. सप्तमस्थस्संहिकेयो योगदो भवति ध्रुवम् । तृतीय भाग्यगो मन्दो योगप्रद इति स्मृतः ॥ १४ ॥

भावार्थ – सप्तम भाव में राहु शुभ फल देता है । तृतीय और नवम में स्थित शनि बहुत धनदायक होता है ।

व्याख्या – यदि राहु को शनि की भाँति समझा जावे तो जैसा ऊपर कह आये हैं उस स्थान में राहु शुभ फलदायक होगा परन्तु हम समझते हैं कि शुभ फल देने के लिए राहु ऊपर किसी और स्वामी का प्रभाव होना चाहिए ताकि यह केन्द्र और कोण दोनों का फल दे सके।

शनि एक पापी ग्रह के नाते तृतीय भाव में स्थित होकर शुभ फल देगा ही । जहाँ तक शनि की नवम भाव में स्थिति का सम्बन्ध है, हम समझते हैं कि शनि को वहाँ उच्च राशि, स्वक्षेत्र अथवा मित्र राशि में होना चाहिए तभी उसका फल शुभ होगा, नहीं तो शनि भाग्य भवन की हानि करेगा ।

15. तृतीयाष्टम भाग्यस्थो गुरुर्योगप्रदो भवेत् । द्वादशस्थो यदि गुरुर्देवलोकं समश्नुते ॥ १५ ॥

भावार्थ – गुरु यदि तृतीय, अष्टम अथवा भाग्य भवन में स्थित हो तो अच्छा धन देता है । गुरु द्वादश भाव में हो तो जातक को मृत्यु के बाद स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है ।

व्याख्या

  • तृतीय भाव में गुरु हो, तो भाग्य, व्यापार और आय भावों को लाभ होगा।
  • यदि अष्टम हो, तो धन और सुख भावों पर इसकी शुभ दृष्टि होगी।
  • यदि नवम में हो तो लग्न और पंचम दो शुभ भावों पर इसका प्रभाव होगा ।
  • द्वादश भाव अन्तिम भाव है, अतः मृत्यु के बाद की अवस्था का द्योतक है, अतः यहाँ पर गुरु जिसका नाम देवेन्द्र पूज्य अर्थात् स्वर्ग के राजा इन्द्र का पूज्य है इन्द्र लोक में अर्थात् स्वर्गलोक ले जावेगा ।

16. भाग्यराज्याधिपौ राज्ये भाग्यं वा यदि संस्थितौ । राजयोगमवाप्नोति महतों कीर्तिमश्नुते ॥ १६ ॥

भावार्थ – यदि नवम और दशम भावों के स्वामी मिलकर नवम अथवा दशम भाव में स्थित हों तो बहुत शुभ राजयोग की प्राप्ति तथा यश की प्राप्ति होती है।

17. राज्यस्था यदि भाग्येशः राज्येशो भाग्यगो यदि । राजयोगमवाप्नोति महतीं कीर्तिमश्नुते ॥ १७ ॥

भावार्थ – यदि नवम भाव का स्वामी दशम भाव में और दशम का स्वामी नवम में हो तो भी राजयोग और कीर्ति की प्राप्ति होती है ।

18. भाग्याधिपो भाग्यगतो राज्येशो राज्यगो यदि । राजयोगमवाप्नोति महतीं कीर्तिमश्नुते ॥ १८ ॥

भावार्थ – यदि नवम भाव का स्वामी नवम में हो और दशम का स्वामी दशम में, तो भी राजयोग के फल की प्राप्ति होती है ।

19. राज्येश पञ्चमेशौतु राज्ये वा पञ्चमेथवा । स्थितौ चेद्योगमाप्नोति महतीं कीर्तिमश्नुते ॥ १९ ॥

भावार्थ – यदि पंचम और दशम भाव के स्वामी मिलकर पंचम अथवा दशम भाव में स्थित हों, तो राजयोग और महान् कीर्ति की प्राप्ति होती है ।

व्याख्या – दशम भाव केन्द्र है और पंचम त्रिकोण । उनका मिलकर पंचम अथवा दशम भाव में स्थित होना पाराशरीय नियमों के अनुसार राजयोग बनाता है ।

20. भाग्यराज्याधिपो यत्र सप्तमस्थौ च लग्नगौ । राजयोगमवाप्नोति महतीं कीर्तिमश्नुते ।। २० ।।

भावार्थ – नवम और दशम भाव के स्वामी यदि लग्न में अथवा सप्तम भाव में स्थित हों, तो राजयोग की प्राप्ति होती है।

व्याख्या – केन्द्र और त्रिकोण के स्वामियों की युति का प्रभाव दोनों स्थितियों में लग्न पर पड़ेगा जिसके फलस्वरूप राजयोग की प्राप्ति होगी।

21. रिपुसप्तम राज्येशाः केन्द्रस्था यदि कोणगाः । राजयोगं च लभते महतीं कीर्तिमाप्नुयात् ॥ २१ ॥

भावार्थ – यदि छठे, सातवें और दसवें भाव के स्वामी केन्द्र अथवा कोण स्थान में स्थित हों, तो जातक को राजयोग और कीर्ति को प्राप्ति होती है।

व्याख्या – सातवें और दसवें केन्द्रों के स्वामी अपनी कोण स्थिति द्वारा केन्द्र और कोण में सम्बन्ध उत्पन्न करते हैं और इसीलिए राजयोग और कीर्ति देते हैं। यह बात तो समझ में आ सकती है, परन्तु इस योग में छठे भाव के स्वामी को सम्मिलित करने का भाव समझ में नहीं आता । षष्ठेश तो अपने अभावात्मक प्रभाव के कारण योग की सार्थकता में उलटा बाधा डालेगा । इसमें सन्देह नहीं कि छठा एक उपचय भाव है, परन्तु षष्ठेश का योग भी राजयोग दे यह बात साधारण नियमों के विरुद्ध है । संभव है, ग्रन्थकार ने षष्ठेश को इस संदर्भ में इसलिए शुभ मान लिया हो कि वह दशम भाव का भाग्याधिपति है ।

22. मेषे रवि कर्कटस्यो जीवचन्द्र तुला शनि । मकरस्यो भवेत्भौमो राजयोग उदीरितः ।। २२ ।।

भावार्थ – यदि सूर्य मेष में हो और चन्द्र और गुरु कर्क राशि में, शनि तुला में और मंगल मकर में हों तो राजयोग की प्राप्ति होती है।

व्याख्या – इस योग में उच्च ग्रह एक दूसरे से केन्द्र में पड़ जाते हैं जिससे ‘कारक’ योग बनता है।

भावार्थ रत्नाकर

  1.   मेष लग्न | वृश्चिक लग्न
  2.  वृषभ लग्न | तुला लग्न
  3.   मिथुन लग्न | कन्या लग्न
  4.  कर्क लग्न | सिंह लग्न
  5.  धनु लग्न | मीन लग्न
  6.  मकर लग्न | कुंभ लग्न
  7.   अध्याय 2 | धन योग | विद्या | खान-पान
  8.  अध्याय 3 भ्रातृ-भाव |अध्याय 4 वाहन तथा भाग्य | अध्याय 5 शत्रु और रोग
  9.   अध्याय 6 स्त्री और काम | अध्याय 7 आयु और स्वास्थ्य
  10.  अध्याय 8 भाग्य योग | अध्याय 9 राज योग
  11.  अध्याय 10 तीर्थ स्नान | अध्याय 11 मृत्यु योग
  12.  अध्याय 12 दशा के परिणाम
  13.  अध्याय 13 साधारण योग | अध्याय 14 ग्रहमालिका योग | अध्याय 15 ग्रहों का आधिपत्य आदि
  14.  नियम अध्याय

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