भावार्थ रत्नाकर अध्याय 12 | दशा के परिणाम

1. शुक्रान्तरे शनेये शुक्रदाये तथा शने । अन्तर्द्दशायां संप्राप्ते योगहीनो भवेन्नरः ॥ १ ॥

भावार्थ – शनि की दशा में शुक्र की भुक्ति और शुक्र की दशा में शनि की भुक्ति हो तो मनुष्य की आर्थिक स्थिति खराब होती है ।

व्याख्या – लग्नों को ध्यान में रखे बिना यह कहना कि शनि में शुक्र अथवा शुक्र में शनि की दशा खराब होती है एक अतिशयोक्ति है जिसे ठीक मानना कठिन है । किसी लग्न विशेष के लिए ये अच्छे या बुरे हों वह बात दूसरी है । देखिए अगला श्लोक ।

2. शनिदये तु शुक्रस्तु शुक्रदाये शनिस्तथा । मीने धनुषि जातस्य योगदो भवति ध्रुवम् ॥ २ ॥

भावार्थ – धनु अथवा मीन लग्न हो तो शुक्र महादशा में शनि की भुक्ति अथवा शनि की महादशा में शुक्र की भुक्ति बहुत धनदायक होती है ।

व्याख्या – धनु लग्न हो, तो धन की दृष्टि से शुक्र लाभेश होता हुआ शुभ फल करता है और शनि उपचय (तृतीय) भाव का स्वामी शुभ होगा। यदि मीन लग्न हो, तो लाभेश शनि शुभ होगा और शुक्र तृतीयेश होकर (उपचय भाव का स्वामी) शुभ होगा। संभवतया शुक्र और शनि की शुभता में यह कारण ग्रन्थकार के मन में हो। यद्यपि तृतीयेश को पाराशर ने पापी माना है ।

3. षष्ठाष्टमव्ययस्थ रन्ध्रेशस्य हृतियंदा । वष्ठाष्टमव्ययेशानां भुक्तिकालो हि मारकः ।। ३ ॥

भावार्थ – यदि आठवें भाव का स्वामी छठे, आठवें अथवा बारहवें हो तो षष्ठ, अष्टम अथवा द्वादश भाव के स्वामी की भुक्ति मारक सिद्ध हो सकती है ।

व्याख्या – जब अष्टमेश छठे हो तो षष्ठेश अपना और अष्टम दोनों का बुरा फल करता हुआ मारक होगा। जब अष्टमेश द्वादश में होगा तब द्वादशेश अपना और अष्टम भाव का अनिष्ट फल करता हुआ मारक होगा। इस संदर्भ में अष्टमेश अष्टम में पड़ा हुआ अर्थात् स्वक्षेत्री भी कोई विशेष अच्छा नहीं ।

4. राज्यविक्रमपत्योश्च संबंधो यदि विद्यते । राज्येशवाये च योगस्सुयोगो विक्रमेशतुः ।। ४ ।।

भावार्थ – यदि दशमेश और तृतीयेश में परस्पर युति आदि सम्बन्ध हो, तो राज्येश अर्थात् दशम भाव के स्वामी की दशा में शुभ फल की प्राप्ति होगी और तृतीय भाव के स्वामी की दशा में उससे भी अधिक शुभ फल की प्राप्ति होगी ।

व्याख्या – दशम और तृतीय दोनों उपचय भाव तृतीय थोड़ा और दशम बहुत फल देने वाला भाव है। यदि भुक्ति नाथ के फल को मुख्य माना जावे तो दशम भाव की महादशा में तृतीयेश का फल थोड़ा होगा, परन्तु तृतीयेश की दशा में दशमेश की भुक्ति का फल बहुत अच्छा होगा । ग्रंथकार का यही आशय प्रतीत होता है।

5. अपत्य भार्य भाग्येशाः निजराशिसु संस्थिताः । तशान्तरंशा प्राप्ते गंगस्ननं समश्नुते ।। ५ ॥

भावार्थ – यदि पाँचवें, सातवें तथा नौवें भाव के स्वामी अपनी अपनी राशियों में पंचम, सप्तम तथा नवम में स्थित हों तो एक की दशा और दूसरे की भुक्ति में गंगा स्नान की प्राप्ति होती है।

व्याख्या – जैसा कि हम श्लोक संख्या ५ की व्याख्या में उल्लेख कर चुके हैं पंचम, सप्तम और नवम तीनों के तीनों भाव धर्म तथा शुभ कर्म के द्योतक हैं जिनमें गंगा स्नान को सम्मिलित समझा जाना चाहिए, अतः इनमें से किसी की भी दशा अथवा भुक्ति गंगा स्नान देने में उपयुक्त होगी ।

6. सप्तमस्य विलग्नस्य दाये स्वाजित भाग्यभाक् । दारास्थ भाग्यराशीशदाये स्वाजित भाग्यभाक् ।। ६ ।।

भावार्थ – यदि लग्नेश सप्तम भाव में हो तो लग्नेश की दशा में जातक निज द्वारा उत्पन्न किए धन को पाता है। इसी प्रकार यदि नवम भाव का स्वामी सप्तम भाव में हो तो उसकी दशा में भी व्यक्ति अपने ही पुरुषार्थ से धन कमाता है।

व्याख्या – सप्तम भाव को ‘वीर्य’ भाव कहते हैं । ‘वीर्य’ शब्द से न केवल सन्तानोत्पत्ति में काम आने वाले वीर्य से तात्पर्य है बल्कि उत्साह और पुरुषार्थ भी इस शब्द का अर्थ है, अतः जब लग्नेश (धन कमाने वाला अपना आप) सप्तम में होगा तो अपने ही उत्साह से लग्न प्रदर्शित धन की प्राप्ति होगी । इसी प्रकार जब नवमेश सप्तम भाव में होगा तो भी भाग्य की प्राप्ति अपने वीर्य द्वारा होगी।

7. राहुर्द्दशायां संप्राप्ते राहुकेतोस्तथा शनेः । रवेरन्तर्भुक्तिकाले पिता मरणमाप्नुयात् ।। ७ ।।

भावार्थ – राहु-केतु अथवा शनि की दशा में सूर्य की अन्तर्दशा आने पर पिता का मरण होता है ।

व्याख्या – चूँकि दशानाथ राहु, केतु और शनि सभी सूर्य के शत्रु हैं सूर्य की भुक्ति, सूर्य अर्थात् पिता के लिए हानिप्रद सिद्ध हो सकती है। कुछ अनुवादकों ने राहु की दशा में राहु, केतु, सूर्य तथा शनि की भुक्ति को पिता के लिए अनिष्टकारी माना है । यह श्लोक का आशय प्रतीत नहीं होता, क्योंकि श्लोक में ‘तथा’ शब्द का प्रयोग शनि केतु को भी राहु की तरह दशानाथ बताता है ।

8. केतुर्द्दशायां संप्राप्तौ पितुमरणमुच्यते । भौममन्दरवीणां च राहोरन्तर्द्दशासु च ॥ ८ ॥

धरासूनुर्दशाकाले पितुनिचनमुच्यते । राहुकेशनीनां च रन्तर्दशासु हि ॥९॥

शनैर्महई शाकाले पितु निधनमुच्यते । राहुभौमरवीणां च केतोरन्तवंशासु हि ॥ १० ॥

(क) मंगल की दशा हो और राहु, केतु शनि अथवा सूर्य की भुक्ति हो ।

(ख) शनि की दशा हो और राहु, सूर्य, मंगल, केतु की भुक्ति हो।

(ग) केतु की दशा हो और मंगल, शनि, सूर्य अथवा शुक्र की भुक्ति हो तो पिता का मरण होता है ।

व्याख्या – मंगल, शनि, अथवा केतु की महादशा में शेष पापी ग्रहों की अन्तर्दशा में पिता ही की मृत्यु होती है। यह विचारणीय है क्योंकि कम से कम सूर्य का पाप प्रभाव में आना तो अनिवार्य है, अतः राहु, केतु, मंगल अथवा शनि में सूर्य की भुक्ति हो तो पिता के लिये कुछ हानिकारक सिद्ध हो सकती है।

11. राहो महाकालात्पूर्वन्तु निधनं पितुः । धरासूनुर्दशाच्छिद्रकाले भवति निश्चयः ॥ ११ ॥

भावार्थ – मंगल की दशा की समाप्ति और राहु की दशा के आरम्भ में पिता की मृत्यु होगी।

व्याख्या – एक पापी ग्रह की दशा का अन्त और साथ ही दूसरे पापी ग्रह की दशा का आरम्भ जीवन के लिए हानिकारक कहा है, परन्तु यह हानि पिता ही को हो और किसी सम्बन्धी को न हो। यह विचारणीय है।

12. क्रूरप्रहर्वशाकाले राहोरन्तरंशा यदा । तथैव निधनं बूयुः पितुर्जातक कोविदाः ॥ १२॥

भावार्थ – क्रूर ग्रह की दशा ओर राहु की अन्तर्दशा में पिता की मृत्यु कही है।

व्याख्या – यह गत तीन श्लोकों में प्रयुक्त सिद्धान्त ही का वर्णन है ।

13. गुरुशुको वृश्चिकस्बो शुक्रवाये समागमे। राजयोगकरश्शुको भवेदेव न संशयः ॥ १३॥

भावार्थ – यदि शुक्र गुरु के साथ वृश्चिक राशि में स्थित हो तो शुक्र की दशा में राजयोग की प्राप्ति होती है।

व्याख्या – गुरु और शुक्र किन-किन भावों के स्वामी हैं इस बात का उल्लेख ग्रन्थकार ने नहीं किया। ऐसा भी है कि ग्रह प्रायः जिस दूसरे ग्रह के साथ होते हैं उसी का फल करते हैं, अतः यदि इस नियम को ध्यान में रखा जाये तो शुक्र अपनी दशा में गुरु का फल करेगा और गुरु चूंकि धन का कारक है और अपनी राशि मीन को देख भी रहा है, इसलिए धन के विषय में शुभ फल देगा।

14. रस्सोमसुतस्यापि संबन्धे यदि विद्यते। बुधदाये प्रबलदो रवे दायस्थु मध्यमः ॥ १४ ॥

भावार्थ – सूर्य और बुध का यदि परस्पर युति आदि से सम्बन्ध हों तो बुध की महादशा में प्रबल रूप से शुभ फल की प्राप्ति होगी। सूर्य की महादशा में मध्यम रूप से होगी ।

व्याख्या – यहां भी वही सिद्धान्त लागू किया गया है जिसका उल्लेख गत श्लोक की व्याख्या में किया गया है। सूर्य चूँकि नैसर्गिक रूप से बड़ा भी है और स्वतंत्र भी । अतः इसका फल बुध की दशा में उत्तम होगा और बुध जो सूर्य से छोटा और परतंत्र भी है उसका फल मध्यम दर्जे का रहेगा । निकृष्ट फल इसलिए नहीं कि महादशा नाथ तो बड़ा ग्रह रहेगा ।

15. चन्द्रमंगळ संबन्धे चन्द्रवाये बहुप्रदः । कुजदाये तु संप्राप्ते कुजवायस्तु मध्यमः ॥ १५ ॥

भावार्थ – चन्द्र और मंगल की युति हो तो चन्द्र की दशा में मंगल की भुक्ति बहुत अच्छा फल करती है और यदि मंगल की दशा में चन्द्र की भुक्ति हो तो फल मध्यम रहेगा।

व्याख्या – यहाँ भी वही सिद्धान्त प्रयोग में लाया गया है। जिसका उल्लेख हमने श्लोक १३ की व्याख्या में किया है। अतः जब मंगल की महादशा में चन्द्र की भुक्ति होगी तो मध्यम फल होगा। क्योंकि चन्द्र सदा अपनी कलाओं में वृद्धि ह्रास के कारण अधिक अवसरों पर निर्बल होगा ।

16. गुरुशन्योश्च संबन्धे शनिदायो विशेषदः । गुरुवाये च संप्राप्ते तद्दशा मध्यमास्मृता ॥ १६ ॥

भावार्थ – गुरु और शनि यदि युति आदि द्वारा परस्पर सम्बन्धित हों तो शनि की दशा में विशेष योग की प्राप्ति होगी, परन्तु गुरु की दशा मध्यम फल देगी ।

व्याख्या – पिछले तीन श्लोकों पर व्याख्या देखिए ।

17. गुरोरङ्गारकस्यापि संबन्धे यदि विद्यते । भौमवायास्तूत्तमस्याद् गुरुवायस्तु मध्यमः ॥ १७ ॥

भावार्थ – गुरु और मंगल का पारस्परिक युति आदि संबन्ध होने पर मंगल की महादशा में बहुत अच्छे फल की प्राप्ति रहेगी और गुरु की दशा मध्यम दर्जे की रहेगी।

व्याख्या – यहाँ भी उसी सिद्धान्त का प्रयोग है जिसका उल्लेख हम गत चार श्लोकों में करते चले आ रहे हैं ।

18. गुरोस्सुधांशु संबन्धे चन्द्रदायो विशेषदः । गुरोर्दशा संप्राप्ती गुरुदायस्तु मध्यमः ॥ १८ ॥

भावार्थ – यदि गुरु और चन्द्र का युति आदि द्वारा पारस्परिक संबंध हो तो चन्द्रमा की दशा में उत्तम फल और गुरु की दशा में मध्यम फल की प्राप्ति होती है।

व्याख्या – श्लोक १४ पर व्याख्या देखिये ।

19. केन्द्रकोणस्थ राहोश्च दायकाले समागमे । स्वतन्त्र राजयोगं च महत्कीर्ति समश्नुते ॥ १९ ॥

भावार्थ – राहु यदि केन्द्र अथवा कोण में स्थित हो तो अपनी दशा में राजयोग और महान् यश देता है ।

व्याख्या – हमारा विचार है कि राहु यदि केन्द्र में हो तो उसे त्रिकोण भाव के स्वामी से शुभ सम्बन्ध स्थापित करना होगा तब वह राजयोग का फल करेगा। इसी प्रकार राहु यदि कोण स्थान में है तो उस पर किसी केन्द्र के स्वामी ग्रह का प्रभाव होना चाहिये । तात्पर्य यह है कि राहु चूंकि एक छाया ग्रह है उस पर केन्द्र और त्रिकोण दोनों का प्रभाव हो तो वह राजयोग का फल करता है।

20. गुरोर्बुषस्य शुक्रस्य संबन्धो यदि विद्यते । विशेष धनयोगश्च कीर्तिमान्भाग्यवान् भवेत् ॥ २० ॥

भावार्थ – यदि गुरु, बुध और शुक्र परस्पर युति आदि से सम्बन्ध स्थापित करें तो यह योग बहुत धन, कीर्ति और भाग्य देने वाला है ।

व्याख्या – इस योग में भाग लेने वाले सभी ग्रह नैसर्गिक शुभ ग्रह हैं, स्वयं भी और दूसरों की संगति से भी, इसलिये वे अपनी-अपनी दशा में अन्य शुभ ग्रहों ही का फल करेंगे ।

21. शुक्रस्य यदि संबन्धो बुधेन गुरुणापि वा । शुक्रवाये च संप्राप्ते धनयोगं लभेन्नरः ॥ २१ ॥

भावार्थ – शुक्र यदि युति आदि के द्वारा गुरु और बुध से सम्बन्धित हो तो शुक्र की दशा में बहुत शुभ फल की प्राप्ति होती है।

व्याख्या – शुक्र अपनी महादशा में गुरु और बुध का फल करेगा । गुरु शुभ ग्रह भी है और धनकारक भी। बुध ने गुरु साथ मिलकर गुरु ही का शुभ रूप धारण करना है । अतः शुक्र की दशा बहुत शुभप्रद होगी !

22. गुरुदाये च संप्राप्ते धनहीनो भवेन्नरः । बुधस्यदाये संप्राप्ते मिश्रयोगो भवेद ध्रुवम् ।। २२ ॥

भावार्थ – गत श्लोक को दृष्टि में रखकर कहते हैं कि गुरु की दशा में व्यक्ति धनहीन होगा और बुध की दशा में मिश्रित अर्थात् अच्छा और बुरा दोनों फल पावेगा ।

व्याख्या – ऐसा प्रतीत होता है कि इस श्लोक का फल कहते समय ग्रन्थकार के मन में दशानाथ के साथ भुक्तिनाथ की मैत्री अथवा शत्रुता का विचार था। बुध की दशा में गुरु और शुक्र का फल होता है (देखिये श्लोक १३ पर व्याख्या) ।

गुरु शुक्र का शत्रु है, परन्तु बुध शुक्र का मित्र, इसलिये बुध की दशा मिश्रित फल करेगी, परन्तु जब गुरु की दशा होगी तो फल शुक्र और बुध करेंगे। शुक्र और बुध दोनों गुरु के शत्रु हैं, अतः फल निकृष्ट रहेगा ।

23. रम्यादि प्रयोगसंयोगे रवेदय समागमे । रवियोगदोयुक्तः इतरे मध्यमास्मृताः ।। २३ ।।

भावार्थ – जब सूर्य की किसी अन्य ग्रह से युति हो तो सूर्य की दशा शुभ फल देती है, परन्तु अन्य ग्रहों की दशा मध्यम फलदायक होती है ।

व्याख्या – सब ग्रह जब सूर्य के साथ होते हैं तो अपने तेज को खो देते हैं । अतः उनकी दशा में उन पर पड़ने वाले सूर्य के प्रभाव के कारण उनकी दशा साधारण ही सी रह जाती है। सूर्य की दशा में सूर्य को अन्य ग्रह बुध, गुरु, शुक्र, चन्द्र अपनी युति से लाभ पहुँचायेंगे । मंगल की युति यद्यपि एक पापी की युति होगी, परन्तु एक मित्र की युति होगी। शनि की युति कुछ हानिप्रद हो सकती है, परन्तु शनि एक छोटा ग्रह है वह सूर्य को अकेला अधिक हानि न पहुँचा सकेगा ।

24. प्रहैरन्यैश्च राहोस्तु संबन्धो यदि विद्यते । यो ग्रहः प्रवतस्तेषां तत्फलं च ददाति सः ।। २४ ।।

भावार्थ – यदि राहु का अन्य ग्रहों से युति आदि द्वारा सम्बन्ध हो तो सम्बन्ध करने वाले ग्रहों में जो सबसे बलवान ग्रह होगा उसका फल राहु करेगा ।

व्याख्या – राहु चूँकि एक छाया ग्रह है यह उसी प्रकार का फल करेगा जिस प्रकार का कि प्रभाव इस पर पड़ रहा होगा ।

25. राहु सूर्यस्तथामन्वस्तु तृतीये यदि संस्थितः । राहोर्वशा विपाकस्तु भाग्य विक्रमयोगवः ॥ २५ ॥

भावार्थ – यदि राहु, सूर्य और शनि तृतीय भाव में स्थित हों तो राहु अपनी दशा में भाग्य और पराक्रम देगा ।

व्याख्या – यह श्लोक गत श्लोक में वर्णित सिद्धान्त का एक उदाहरण है। राहु को सूर्य का अथवा शनि का फल करना है जो भी सूर्य तथा शनि में बलवान हो । सूर्य बड़ा ग्रह होने से शनि से अधिक बलवान होगा अतः वह अपना फल अर्थात् पराक्रम और राज्य यश आदि देगा ।

26. राहोर्दशा विपाकेतु विक्रमस्थो बुधोयदि । धैर्यहीनो भवेज्जात इति जातककोविदाः ।। २६ ॥

भावार्थ – यहाँ राहु की तृतीय स्थिति से ताप्पर्य है । अत: जब राहु और बुध तृतीय भाव में होंगे तो राहु स्वयं भी शनि की भाँति एक अभाव का ग्रह है और बुध भी राहु के साथ राहु जैसा होगा तो स्पष्ट है कि दोनों के सम्मिलित प्रभाव से तृतीय भाव के गुण – ‘धैर्य’ का ह्रास होगा ।

भावार्थ रत्नाकर

  1.   मेष लग्न | वृश्चिक लग्न
  2.  वृषभ लग्न | तुला लग्न
  3.   मिथुन लग्न | कन्या लग्न
  4.  कर्क लग्न | सिंह लग्न
  5.  धनु लग्न | मीन लग्न
  6.  मकर लग्न | कुंभ लग्न
  7.   अध्याय 2 | धन योग | विद्या | खान-पान
  8.  अध्याय 3 भ्रातृ-भाव |अध्याय 4 वाहन तथा भाग्य | अध्याय 5 शत्रु और रोग
  9.   अध्याय 6 स्त्री और काम | अध्याय 7 आयु और स्वास्थ्य
  10.  अध्याय 8 भाग्य योग | अध्याय 9 राज योग
  11.  अध्याय 10 तीर्थ स्नान | अध्याय 11 मृत्यु योग
  12.  अध्याय 12 दशा के परिणाम
  13.  अध्याय 13 साधारण योग | अध्याय 14 ग्रहमालिका योग | अध्याय 15 ग्रहों का आधिपत्य आदि
  14.  नियम अध्याय

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