कर्क लग्न

1. कर्किजातस्य च गुरुविशेषेण न योगदः । मकरे जायमानस्य बुधो योगप्रदो भवेत् ॥ १ ॥

भावार्थ – कर्क लग्न के जातकों के लिए गुरु कोई विशेष धनदायक सिद्ध नहीं होता, परन्तु मकर लग्न वालों के लिए बुध विशेष धनदायक होता है ।

व्याख्या – ग्रन्थकार का अभिप्राय मूल त्रिकोण राशि के प्रभाव के महत्व को दर्शाना है । यद्यपि कर्क और मकर लग्न में क्रमशः गुरु और बुध को छठे और नवम भाव का एक जैसा अधिपत्य प्राप्त होता है, तो भी दोनों के फल में अन्तर है। गुरु की अपेक्षा बुध बहुत शुभ फल करता है। कारण यही है कि मकर लग्न हो, तो बुध को मूल त्रिकोण राशि कन्या नवम भाव में पड़ेगी और बुध नवम त्रिकोण का शुभ धनप्रद फल करेगा।  

और यदि कर्क लग्न हो तो गुरु की मूल त्रिकोण राशि छठे भाव में पड़ेगी जिसके फलस्वरूप गुरु साधारण-सा ग्रह बनकर रह जावेगा, विशेष धन न दे पावेगा । हाँ, इतना ध्यान रहे कि बुध का शुभ फल भी तभी मिलेगा जब उस पर पाप प्रभाव न हो ।

2. कर्कटे जायमानस्य भौंमो योगप्रदो भवेत् । पञ्चमे वाथराज्येवा योगदो भवति ध्रुवम् ॥ २ ॥

भावार्थ – कर्क लग्न वालों लिए मंगल योगकारी होता है, परन्तु यदि पञ्चम अथवा दशम में पड़ जावे, तो विशेष रूप से शुभ फल करता है ।

व्याख्या – योगकारक मंगल स्वक्षेत्री होने से और भी बलवान् हो जावेगा, इसीलिए अधिक शुभ फलदायक सिद्ध होगा ।

3. जातस्य शुक्रस्तु व्ययस्थो धनगोऽपि वा । योगप्रदस्तु भवतिह्यन्यत्र नहि योगदः ॥ ३ ॥

भावार्थ – शुक्र यदि द्वादश भाव में (मिथुन राशि में) स्थित हो, तो अच्छा धनादि देता है । यदि और किसी भाव में स्थित हो, तो बहुत अच्छा फल नहीं करता ।

4. कर्किजातस्य भौमेज्य चन्द्राश्च धनगो यदि । रविशुक्री पञ्चमस्थो धनवान् भाग्यवान् भवेत् ॥ ४ ॥

भावार्थ – यदि मंगल, गुरु और चन्द्रमा द्वितीय भाव में (सिंह राशि में) हों और सूर्य और शुक्र पंचम भाव में हों, तो जातक धनी और भाग्यशाली होता है ।

व्याख्या – राज योग कारक मंगल का तथा भाग्येश गुरु का और लग्नेश चन्द्र का धन स्थान मे बैठना सभी धन द्योतक ग्रहों का धन स्थान में बैठना है, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति धनी तथा भाग्यशाली बनता है। इसी प्रकार धनेश सूर्य और लाभेश शुक्र की शुभ स्थान में युति भी धन द्योतक और धनदायक होगी।

5. बुधशुक्रौ पंचमस्थो बुधदाये समागमे । ककिजातस्य च बुधो योगदो भवति ध्रुवम् ॥ ५ ॥

भावार्थ – यदि बुध और शुक्र पंचम भाव में (वृश्चिक राशि में) स्थित हों, तो बुध अपनी दशा में बहुत शुभ फल करता है ।

व्याख्या – बुध मौलिक नियमानुसार शुक्र ही का फल करेगा, जिससे कि यह युति द्वारा प्रभावित है। शुक्र चूंकि लाभेश है, बुध भी लाभप्रद सिद्ध होगा । यद्यपि बुध स्वतंत्र रूप में द्वादश और तृतीय दो अशुभ भावों का स्वामी है ।

6. कर्किजातस्य लाभे तु सौम्यशुक्रेन्दवस्थिताः । लग्नसंस्थो यदि गुरुः राज्यस्थाने स्थितो रविः ॥ ६ ॥

राजा भवेत्साहसिकः गुणवान् कीर्तिवान् भवेत् । बृहज्जातकयोगोयं महाराजिक संज्ञिकः ॥ ७ ॥

भावार्थ – यदि बुध, शुक्र और चन्द्र एकादश स्थान में (वृषभ राशि में) हों, गुरु लग्न में और सूर्य दशम भाव में हों, तो जातक एक उत्साही, गुणी और यशस्वी राजा होता है । इस योग को ‘वृहत् जातक’ ग्रन्थ में ‘महाराजा’ योग की संज्ञा दी है ।

व्याख्या – राज्य सत्ता की प्राप्ति के लिए लग्नों का और राज्य का बलवान् होना अनिवार्य है । ये हैं (क) लग्न, (ख) लग्नेश, (ग) चन्द्र लग्न तथा (घ) चन्द्र लग्न का स्वामी । यहाँ ये चारों के चारों निस्सन्देह बलवान् हैं ।

लग्न तो इसलिए बली है कि इसमें उच्च का होकर शुभतम ग्रह गुरु स्थित है । लग्नेश चन्द्र इसलिए बली है कि वह लाभ स्थान उच्च भी है और दो शुभ ग्रहों से युक्त भी । चन्द्र भी इस प्रकार बली हुआ । यद्यपि पक्ष बल में वह बली नहीं ।

चन्द्र लग्न का स्वामी भी स्वक्षेत्री होकर और दो शुभ ग्रहों से युक्त होकर बली है। राज्य इस लिए बली है कि एक तो राज्यकारक सूर्य प्रमुख केन्द्र में उच्च है और दूसरे दशम स्थान भी उच्च ग्रह पाकर बलवान् है ।

8. रविभौमौ तु राज्यस्थौ धनवान् कविजातकः । ककिजातस्य च गुरोर्दशाकालस्तु मारकः ॥ ८ ॥

भावार्थ – यदि सूर्य और मंगल दशम भाव में (मेष राशि में) हों, तो जातक धनवान होगा। गुरु की दशा उसके लिए मारक सिद्ध होगी ।

व्याख्या – सूर्य और मंगल दोनों लग्नेश चन्द्रमा के मित्र हैं, जिनमें सूर्य तो धन भाव का स्वामी है और मंगल राजयोग कारक है फिर दोनों प्रमुख दशम केन्द्र में स्थित हैं जहाँ पर कि दोनों को ‘दिक्’ बल प्राप्त होता है इसलिए सूर्य और मंगल बहुत शुभ फल के देने वाले होंगे।

गुरु के मारकत्व में गुरु के आधिपत्य का हाथ है, चूंकि गुरु की मूल त्रिकोण राशि छठे भाव में पड़ती है जोकि रोग भाव है, इसलिए गुरु रोगेश होकर अपनी निर्बल स्थिति द्वारा मृत्यु तक दे सकता है ।

9. कर्कटे जायमानस्य बुधशुक्रौ व्ययस्थितौ । शुक्रदाये च संप्राप्ते राजयोग उदीरितः ॥

भावार्थ – यदि बुध और शुक्र द्वादश स्थान में (मिथुन राषि में) स्थित हों, तो शुक्र अपनी दशा में राज योग देता है ।

व्याख्या – शुक्र की द्वादश भाव में स्थिति बहुत शुभ फल देने वाली है । इसमें कारण यही है कि शुक्र भी एक भोग-विलास का ग्रह है और द्वादश भाव भी भोग-विलास का घर । और फिर यहाँ तो बुध द्वादशेश भी सम्मि लित है, इसलिए द्वादश भाव, उसका स्वामी बुध और शुक्र सभी भोग-विलास राज योग के सुख देंगे ।

10. कर्कटे जायमानस्य चन्द्रजीवौ तु लग्नगौ । राजयोग इति प्रोक्तः भाग्यवान्कीतिमान्भवेत् ॥ १० ॥

भावार्थ – कर्क लग्न में यदि चन्द्र और गुरु स्थित हों, तो जातक राजयोगी, भाग्यशाली और यशस्वी होता है ।

व्याख्या – कर्क लग्न के श्लोक संख्या १ से हमने देखा था कि गुरु साधारण फल करता है, तो भी यह फल अशुभ नहीं कहा जा सकता, अतः यदि गुरु की यह थोड़ी मात्रा में शुभता यदि लग्न लग्नेश, चन्द्र लग्न और चन्द्र लग्न के स्वामी सभी को मिल जावे, तो अन्ततोगत्वा लग्न को सामूहिक रूप से तो बहुत शुभता की प्राप्ति हो जावेगी । इसी कारण से गुरु चन्द्र की कर्क लग्न में श्लाघा की गई, परन्तु चन्द्रमा को सूर्य से दूर होना होगा ।

11. कर्कटे जायमानस्य चन्द्रो लग्ने स्थितो यदि । मकरस्थो भवेत्भौमः राजयोग उदीरितः ॥ ११ ॥

भावार्थ – यदि चन्द्र कर्क लग्न में हो और मंगल सप्तम भाव में हो, तो इस ग्रह स्थिति से राजयोग की प्राप्ति होती है ।

व्याख्या – यहाँ भी लग्न लग्नेश चन्द्र लग्न और चन्द्र लग्न के स्वामी सभी पर राजयोग कारक मंगल की दृष्टि के कारण राजयोग की प्राप्ति कही। मंगल का उच्च होना दशमेश का उच्च होना है, इसलिये भी राज योग की प्राप्ति युक्तियुक्त है ।

12. कर्कटे जायमानस्य लग्ने चन्द्रस्थितो यदि । तुलायां यदि मन्दस्तु राजयोग उदीरितः ॥ १२ ॥

भावार्थ – यदि चन्द्र कर्क लग्न में हो और शनि तुला में चतुर्थ भाव में हो, तो राजयोग होता है ।

व्याख्या – वैसे तो शनि एक अभाव सूचक ग्रह है, इसलिए इसकी लग्न लग्नेश और चन्द्र लग्न और उसके स्वामी पर दृष्टि अभाव और दरिद्रतादायक होनी चाहिये ।

परन्तु यहां ‘कारक’ योग बनता है, क्योंकि चन्द्र निज राशि में केन्द्र में है और शनि उच्च राशि में केन्द्र में है । इस प्रकार दो बलवान् ग्रहों का लग्न से और एक दूसरे से केन्द्र में होना इस ‘कारक’ योग की सृष्टि करता है ।

13. कर्कटे जायमानस्य चन्द्रो लग्ने स्थितो यदि । मेषस्थितो यदि रविः राजयोग उदीरितः ।। १३ ।।

भावार्थ – यदि कर्क लग्न में चन्द्र और दशम में सूर्य हो, तो भी राजयोग होता है ।

14. जातस्य लग्नस्थौ रविसौम्यौ त सौख्यगः । कविर्लाभे चन्द्रभौमगुरवः संस्थिता यदि ॥ १४ ॥

रवेर्दा त संप्राप्ते निर्धनं योगमश्नुते । इतरेषां दशाकाले योगदास्तु भवन्ति हि ॥ १५ ॥

भावार्थ – यदि सूर्य और बुध कर्क लग्न में हों, शुक्र चतुर्थ भाव में, चन्द्र मंगल और गुरु एकादश भाव में हों, तो जातक को सूर्य की दशा में निर्धनता की प्राप्ति होगी और अन्य ग्रहों की दशा धनप्रद रहेगी ।

व्याख्या – ग्रह प्रायः उन ग्रहों का भी फल देते हैं जिनसे कि वे प्रभावित होते हैं। यहाँ सूर्य पर केवल बुध ही का प्रभाव है, इसलिए सूर्य बुध के अनिष्ट फल को देगा । बुध दो अशुभ घरों द्वादश और तृतीय का स्वामी होने से पाप फलदायक है ।

चन्द्र, मंगल तथा गुरु एकादश स्थान में सभी शुभ फलदायक होंगे, क्योंकि सभी आर्थिक दृष्टि से शुभ हैं । चन्द्र लग्नेश है, मंगल राजयोग कारक है और गुरु धनकारक ।

16. गंगास्नानं किंजस्य गुरुसौम्यो तु लाभगौ । शनिराहू पंचमस्थौ राहुदाये तु सिध्यति ॥ १६ ॥

भावार्थ – यदि गुरु और बुध एकादश स्थान में हों और शनि तथा राहु पंचम भाव में (वृश्चिक राशि में) हों, तो राहु की दशा में गंगा स्नान होता है ।

व्याख्या – राहु चूँकि एक छाया ग्रह है, यह उन्हीं ग्रहों का फल करेगा, जिनके प्रभाव में यह है । गुरु चूँकि नवम भाव का स्वामी भी है और धर्म का कारक भी, गुरु के राहु पर प्रभाव (सप्तम दृष्टि) के कारण धार्मिक कृत्यों में राहु प्रवृत्त करायेगा ।

बुध स्वतन्त्र रूप से भी यज्ञीय ग्रह है और यहाँ तो उसने गुरु का फल करना है, क्योंकि गुरु के साथ बैठा है; अतः यह गुरु के यज्ञीय और धार्मिक प्रभाव को और भी बढ़ावेगा । शनि सप्तमेश है अर्थात् दशम से दशम भाव का स्वामी, इसीलिये यह भी दशम की भाँति यज्ञीय होकर कार्य करेगा ।

इस प्रकार तीन यज्ञीय ग्रहों गुरु, बुध और शनि के प्रभाव के कारण छाया ग्रह राहु अपनी दशा में यज्ञीय कृत्य गंगा स्नान आदि में लगावेगा।

भावार्थ रत्नाकर | कर्क लग्न | सिंह लग्न

सिंह लग्न

1. सिंहलग्ने तु जातस्य रविसौम्यकुजा यदि । परस्परेण संयुक्ता धनबाहुल्यमादिशेत् ॥ १ ॥

भावार्थ – यदि सिंह लग्न में जन्म हो और सूर्य, बुध और मंगल (दृष्टि अथवा युति) द्वारा परस्पर संबन्धित हों, तो ऐसे जातक के पास बहुत धन होता है।

व्याख्या – सूर्य तो लग्नेश होने के कारण धन का प्रतिनिधि हुआ। बुध धन भाव का स्वामी होने से धन का प्रतिनिधि हुआ और मंगल तो केन्द्र और कोण का स्वामी होने से विशेष धनदायक राज योगकारी ग्रह हुआ, इसलिए धन द्योतक ग्रहों का पारस्परिक संबन्ध धन की प्रचुरता को उत्पन्न करेगा ।

2. सिंहलग्ने तु जातस्य रविजीवबुधा यदि । परस्परेण संयुक्ता धनबाहुल्यमादिशेत् ॥ २ ॥

भावार्थ – यदि सूर्य, गुरु और बुध किसी सिंह लग्न वाले जातक के परस्पर संयुक्त हों, तो जातक बहुत धनी होता है ।

व्याख्या – यहाँ भी योग में भाग लेने वाले सभी ग्रह धन के द्योतक हैं, अतः उनकी युति बहुत धनदायक सिद्ध होगी। सूर्य लग्नेश होकर, गुरु पंचमेश होकर और बुध धनेश होकर धन द्योतक ग्रह हैं ।

3. सिंहलग्ने तु जातस्य रविसोमसुता यदि । अन्योन्यसंयुतौ स्यातां स्वल्प भाग्यमुदीरितम् ॥ ३ ॥

भावार्थ – सिंह लग्न हो और सूर्य तथा बुध का परस्पर युति द्वारा संबन्ध हो, तो थोड़े धन की प्राप्ति होती है ।

व्याख्या – ग्रन्थकार ने किस विचार से इस योग को थोड़ा धन देने वाला योग बताया, स्पष्ट नहीं है। सूर्य ने लग्नेश होने के नाते, शुभ करना ही है और बुध भी दो धन द्योतक घरोंलाभ और धन का स्वामी होकर सूर्य से युति करता हुआ धन की वृद्धि ही करेगा ।

हाँ, यह अवश्य है कि बुध चूंकि स्वतंत्र रूप से फल नहीं करता, इसलिए यह सूर्य के फल को उतना नहीं बढ़ा सकता, जितना कोई और ग्रह जैसे मंगल अथवा गुरु ।

4. सिंहलग्ने तु जातस्य गुरुशुक्रौ न योगदौ । योगभंगकरौ किंतु विदुर्ज्योतिषकोत्तमाः ॥ ४॥

भावार्थ – सिंह लग्न वालों के लिए गुरु और शुक्र की युति योगदायक नहीं होती, बल्कि उल्टा योग को भंग करने वाली होती है।

व्याख्या – सिंह लग्न वालों का गुरु पंचम त्रिकोण का स्वामी होता है और शुक्र दशम केन्द्र का, इसलिए साधारण विद्यार्थी यह विचार कर सकता है कि केन्द्र और त्रिकोण के स्वामियों की युति शुभ फलदायक होगी, परन्तु ऐसा नहीं है।

कारण यह है कि शुक्र का तृतीय भाव का आधिपत्य उसे एक पापी ग्रह बना देता है जिसके कारण उसकी गुरु से युति उल्टा गुरु प्रभाव को भी नष्ट कर देती है, इसलिए केन्द्रेश को शुभ फलदायक होना चाहिये । कम-से-कम वह पापी नहीं होना चाहिये, तभी उसकी त्रिकोणेश के साथ युति योगप्रद सिद्ध हो सकती है।

5. सिंहलग्ने तुजातस्य तृतीयस्थो भृगुश्शुभः । राज्यस्थः शुक्र पापस्यान्नयोगं लभते नरः ॥ ५ ॥

भावार्थ – सिंह लग्न वालों का तृतीयस्थ शुक्र शुभ फलदायक होता है और दशमस्थ शुक्र कोई योगफल नहीं देता ।

व्याख्या – सिंह लग्न वालों के लिये शुक्र दशम और तृतीय स्थान का स्वामी होता है । दशम केन्द्र का स्वामी होने से इसकी शुभता जाती रहती है और तृतीयेश होने से यह एक अशुभ ग्रह हो जाता है ।

यह ग्रह यदि तृतीय भाव में होगा, तब भी स्वक्षेत्री होगा और यदि दशम में हुआ, तो भी स्वक्षेत्री रहेगा, इसलिये उसका स्वक्षेत्र में होना हमको उसकी शुभता अथवा अशुभता के संबन्ध में किसी निर्णय पर पहुँचने में कोई सहायता नहीं करता । यदि शुक्र एक पापी ग्रह होकर स्वक्षेत्र स्थिति द्वारा शुभ बनता हो, तब कुछ बात बनती है ।

ऐसी स्थिति में शुक्र चतुर्थ भाव अधिक समीप होकर तृतीय भाव में दिक् वल अधिक प्राप्त करेगा और इसलिए दशमस्थ स्वक्षेत्री शुक्र की अपेक्षा अधिक शुभ हो जायेगा, क्योंकि दशमस्थ शुक्र दिक् बल से शून्य होगा ।

6. सिंहलग्ने तु जातस्य रविसौम्यकुजास्थिताः । लग्ने बुधदशाकालः धनभाग्यबहुप्रद्रः ॥ ६ ॥

भावार्थ – यदि सिंह लग्न में सूर्य बुध और मंगल स्थित हों, तो बुध की दशा में जातक को धन और भाग्य की प्राप्ति होती है ।

व्याख्या – बुध जैसा कि इसका नियम है, यहाँ सूर्य और मंगल का फल करेगा क्योंकि इनके साथ यह स्थित है । अब चूँकि सूर्य लग्नेश होकर और मंगल राजयोग कारक होकर शुभ है, बुध जातक को बहुत शुभ फल आर्थिक क्षेत्र में देगा। मंगल के भाग्येश होने के कारण बुध भाग्य में भी खूब वृद्धि करेगा।

7. कुजमन्दौ व्ययस्थौ चेच्छनिदाये समागमे । शनिर्योग प्रदस्सत्यं सिंहजातस्यवं ध्रुवम् ॥ ७ ॥

भावार्थ – यदि मंगल और शनि द्वादश भाव में कर्क राशि में स्थित हों, तो शनि अपनी दशा में निश्चय ही योग का शुभ फल देता है ।

व्याख्या – शनि की मूल त्रिकोण राशि सप्तम भाव में पड़ती है, अत: शनि सप्तमेश रूप से कार्य करेगा। एक नैसर्गिक पापी ग्रह केन्द्रेश होकर अशुभ न रहेगा और फिर जब उसके साथ मंगल जैसा राजयोग कारक ग्रह और वह भी अपनी दोनों राशियों मेष और वृश्चिक से शुभ स्थानों में हो, तो शनि और भी अधिक शुभ फलकारी हो जावेगा ।

भावार्थ रत्नाकर

  1.   मेष लग्न | वृश्चिक लग्न
  2.  वृषभ लग्न | तुला लग्न
  3.   मिथुन लग्न | कन्या लग्न
  4.  कर्क लग्न | सिंह लग्न
  5.  धनु लग्न | मीन लग्न
  6.  मकर लग्न | कुंभ लग्न
  7.   अध्याय 2 | धन योग | विद्या | खान-पान
  8.  अध्याय 3 भ्रातृ-भाव |अध्याय 4 वाहन तथा भाग्य | अध्याय 5 शत्रु और रोग
  9.   अध्याय 6 स्त्री और काम | अध्याय 7 आयु और स्वास्थ्य
  10.  अध्याय 8 भाग्य योग | अध्याय 9 राज योग
  11.  अध्याय 10 तीर्थ स्नान | अध्याय 11 मृत्यु योग
  12.  अध्याय 12 दशा के परिणाम
  13.  अध्याय 13 साधारण योग | अध्याय 14 ग्रहमालिका योग | अध्याय 15 ग्रहों का आधिपत्य आदि
  14.  नियम अध्याय

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