धनु लग्न
1. धनुर्लग्ने तु जातस्य पञ्चमस्थ शनेर्दशा । शुभप्रदायोगदेति वदन्ति विभुदोत्तमाः ॥ १ ॥
भावार्थ – पंचम भाव में मेष राशि में स्थित शनि की दशा में धनादि प्राप्ति का शुभ फल होता है ।
व्याख्या – शनि की मूल त्रिकोण राशि तृतीय भाव में पड़ती है। शनि ने इसलिए मुख्यतया तृतीय भाव का फल करना है। तृतीय पापी भाव है । इस भाव का स्वामी होकर और इस से तृतीय में स्थित होकर शनि निर्बल है । शनि इसलिये भी निर्बल है कि वह अपनी नीच राशि मेष में है और फिर पंचम भाव में भी ।

तृतीयेश का इस प्रकार अतीव निर्बल होना तृतीय भाव की निर्धनता आदि दुर्गुणों का नाश करके बहुत धन प्राप्ति का कारण होगा। इसके अतिरिक्त शनि धन स्थान में पड़ी अपनी राशि मकर को देखेगा जिसके फलस्वरूप धन भाव बलवान् होकर जातक को धनी बनावेगा ।
2. धनुर्लग्ने तु जातस्य लाभस्थो योगदशनिः । इतरक्षे तु जातस्य लाभमन्दो न योगदः ॥ २ ॥
भावार्थ – धनु लग्न हो, तो एकादस्थ शनि बहुत धनादि का देने वाला होता है और कोई लग्न हो, तो एकादशस्थ शनि बहुत धनादि नहीं देता ।
व्याख्या – धनु लग्न वालों का शनि धनेश होकर लाभ भाव में उच्च होता है। धन और लाभ से सम्बन्ध और शनि की उच्चता शुभ फल देगी ही अन्य किसी लग्न में शनि का धन और लाभ से इतना सुन्दर सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता।
यदि मकर लग्न भी हो तो भी यद्यपि शनि द्वितीयेश होकर एकादश में स्थित होकर धन और लाभ का सम्बन्ध बनाता है, परन्तु एकादश भाव में शनि शत्रु राशि (वृश्चिक) में होने से धनादि की प्राप्ति के बाहुल्य में बहुत कमी करता है ।
3. धनुर्जस्य भृगु रवि भाग्ये मन्दस्तृतीयगः । शनिदये तु भवतो भाग्ययोग धनागमौ ॥ ३ ॥
भावार्थ – सूर्य और शुक्र सिंह राशि में नवम भाव में हों और शनि तृतीय भाव में हो, तो शनि की दशा में जातक को भाग्य और धन दोनों की प्राप्ति होती है ।

व्याख्या – यहाँ भी सादृश्य का सिद्धान्त काम करता है । सूर्य भाग्येश होने से भाग्य और धन का दाता है। शुक्र की मूल त्रिकोण राशि लाभ भाव में पड़ती है, इसलिये वह भी लाभ और धन का दाता है। उधर तृतीय भाव में शनि भी धनेश होकर आया है, अतः उसमें भी धन का गुण सूर्य और शुक्र के साथ साझा है, अतः शनि धनदायक सूर्य और शुक्र के प्रभाव में आकर अपनी दशा में धन देगा ।
4. कुंभे भौम रवि राहु सिंहगो बदि तद्धशा । काले सरितनम् धनुर्जातस्समश्नुते ॥ ४॥
भावार्थ – धनु लग्न हो, रवि और मंगल कुंभ में हों और राहु नवम भाव में हो, तो राहु की दशा में जातक पुण्य तीर्थों में स्नान करता है ।
व्याख्या – अकेला राहु ही अपनी धर्म भाव में स्थिति के कारण पुण्य स्नान दे सकता है। यहाँ तो उस पर ‘आत्म’ रूप आध्यात्मिक सूर्य का प्रभाव भी है जोकि नवमेश होकर और भी धार्मिक है ।
इसी प्रकार चूँकि मंगल की मूल त्रिकोण राशि पंचम भाव में पड़ती है जोकि ‘भावात् भावम्’ के सिद्धान्तानुसार नवम से नवम होने के कारण नवम की भाँति ही धर्म के भाव के रूप में कार्य करेगा, इसलिये राहु पर मंगल का प्रभाव भी पुण्य करवाने वाला होगा ।
मीन लग्न
1. मीने कुम्भे च जातस्य व्ययशुक्रो न योगदः । इतरे जायमानस्य व्ययशुक्र शुभप्रदः ॥ १ ॥
भावार्थ – कुम्भ अथवा मीन लग्न वालों के द्वादश स्थान में स्थित शुक्र योगप्रद नहीं होता, परन्तु दूसरी लग्नों के द्वादश स्थान में स्थित शुक्र योगप्रद होता है ।
व्याख्या – शुक्र एक भोग और विलास का ग्रह है और उधर द्वादश भाव भी भोग-विलास का भाव है, इसलिये साधारणतया शुक्र जब भी द्वादश स्थान में स्थित होता है, भोग-विलास अर्थात् धनादि देता है ।
परन्तु ग्रन्थकार की सम्मति में यह शुक्र की द्वादश स्थिति का शुभ फल मीन और कुम्भ लग्न वालों को नहीं मिलता । कारण यही है कि इन दो लग्नों के द्वादश स्थान में शनि की राशि पड़ती है, चूंकि शनि अभाव और निर्धनता का ग्रह है । उसका स्वभाव शुक्र से भोग आदि के विषय में विरुद्ध है, अतः शुक्र शनि की राशि में द्वादशस्य अच्छा फल नहीं करता । दूसरी राशियों में द्वादशस्य शुक्र शुभ फल करता है ।
2. मीनलग्ने तु जातस्य व्ययमन्दो हि योगदः । लग्नात् व्यये स्थितश्चन्द्रो धनहीनो भवेन्नरः ॥ २ ॥
भावार्थ – मीन लग्न हो, तो द्वादश भाव में स्थित शनि शुभ फल करता है और द्वादश भाव में स्थित चन्द्र से जातक निर्धन होता है ।
व्याख्या – मीन लग्न हो, तो शनि एकादश और द्वादश भावों का स्वामी होता है । पाराशरीय नियमों के अनुसार शनि द्वादशेतर राशि का फल करता है अर्थात् एकादश का फल करेगा, इसलिये एकादशेशे एकादश से द्वितीय में स्थित होकर एकादश भाव के लिये शुभ फल करेगा।
परन्तु यदि चन्द्र द्वादश हो, इसका अर्थ हुआ पंचमेश द्वादश में है। पंचमेश का पंचम भाव से अष्टम में जाना और फिर लग्न से व्यय भाव में होना और फिर शत्रु राशि में होना, ये सब बातें चन्द्र की शुभता को दूर कर उसे अशुभ बनाती हैं, अतः धन और लग्न रूपचन्द्र अपनी निर्बलता से धनहीन करता है, विशेषतया जबकि वह पक्ष बल में भी निर्बल हो ।
3. मीनलग्ने तु जातस्य गुरोर्दाये समागमे । चन्द्रान्तर्भुक्तिकालस्तु पूर्वयोगस्वहुसृदः ॥ ३ ॥
भावार्थ – गत श्लोक में उल्लिखित अशुभ फल न होगा यदि गुरु की दशा में चन्द्र की भुक्ति हो ।
व्याख्या – ग्रन्थकार का आशय यह प्रतीत होता है कि यद्यपि कुम्भ राशि में द्वादश भाव में स्थित चन्द्रमा अशुभ फल करता है, परन्तु यह अशुभ फल गुरु लग्नेश की दशा में नहीं होता । लग्नेश की दशा में चन्द्र की भुक्ति एक लग्नेश की दशा में दुसरे लग्न की भुक्ति होगी, इसलिये क्या यह भुक्ति शुभ न रहेगी ? विषय कुछ अस्पष्ट है, क्योंकि पाठ अस्पष्ट है । कुछ भी हो, हम समझते हैं कि चन्द्र की भुक्ति का फल किसी भी दशा में अशुभ न होगा यदि चन्द्रमा सूर्य से दूर हो और शुभ प्रभाव में हो ।
4. मीनलग्ने तु जातस्य पञ्चमस्थो गुरुर्यदि । स्त्रीसन्तति समृद्धिस्यात् कुत्रचित्पुत्र सन्ततिः ॥ ४॥
भावार्थ – यदि गुरु पंचम भाव में कर्क राशि में स्थित हो, तो जातक को कई पुत्रियों की प्राप्ति होती है, परन्तु कभी कहीं एक पुत्र की प्राप्ति संभव होती है ।
व्याख्या – प्रायः ऐसा होगा कि पंचम भाव पर पाप प्रभाव भी होगा। इस पाप प्रभाव फलस्वरूप पंचम भाव तथा गुरु जो कि पुत्रकारक है, दोनों को हानि पहुँचेगी, जिससे पुत्र का अभाव हो जावेगा ।
यदि शुभ दृष्टि हुई, तो वह दृष्टि शुक्र, चन्द्र अथवा बुध में से एक अथवा अधिक ग्रहों ही की संभव है और ये सारे ग्रह स्त्री संज्ञक हैं, इसलिए इस दशा में एक स्त्री राशि (कर्क) में स्थित हुआ गुरु और स्त्री ग्रहों से दृष्ट स्त्री प्रजा का बाहुल्य करेगा ।
5. मीनलग्ने तु जातस्य द्वितीये यदि चन्द्रमाः । पञ्चमस्यो यदि कुजश्चन्द्रदाये धनागमः ॥ ५ ॥
भावार्थ – द्वितीय भाव में मेष राशि में यदि चन्द्र हो और पंचम भाव में मंगल, तो चन्द्रमा की दशा में धन की प्राप्ति होती है ।
व्याख्या – चन्द्रमा नैसर्गिक रूप से शुभ ग्रह है और यदि यह सूर्य के बहुत समीप न हो, तो शुभ फल ही करता है। ऐसा शुभ चन्द्रमा पंचम त्रिकोण का स्वामी होकर और भी अधिक शुभ होगा ।
और फिर यदि मंगल पंचम भाव में हुआ, तो यह मंगल अधिष्ठित राशि का स्वामी होने के कारण मंगल (द्वितीयेश और भाग्येश) का शुभ फल भी करेगा। ऐसा शुभ चन्द्रमा धन भाव में सादृश्य के सिद्धान्तानुसार और भी अधिक शुभ फल आर्थिक क्षेत्र में करेगा ।
6. मीने तु जायमानस्य गुरुषष्ठेऽटमे भृगुः । भाग्ये शनिश्चन्द्रकुजौ लाभेचोत्कृष्टभाग्यवान् ॥ ६ ॥
भावार्थ – मीन लग्न हो, गुरु छठे, शुक्र आठवें, शनि नवम हो और मंगल और चन्द्रमा एकादश भाव में हों, तो जातक बहुत भाग्यशाली होता है ।
व्याख्या – धन भाव का अपने हो स्वामी मंगल द्वारा तथा दो शुभ ग्रहों शुक्र और गुरु द्वारा दृष्ट होना धन की विशेष वृद्धि करने वाला योग है । फिर गुरु और शुक्र लग्न से क्रमशः छठे और आठवें होकर लग्न पर ‘अधि’ योग बनावेंगे जिसका फल भी धन की प्राप्ति होगा।

इसके अतिरिक्त गुरु की अपना ही राशि धनु पर शुभ दृष्टि दशम और लग्न दोनों भावों की वृद्धि द्वारा भी धनप्रद होगी।लाभेश शनि और भाग्येश मंगल का व्यत्यय भी भाग्य प्राप्ति का सुन्दर योग होगा।
इसी प्रकार प्रमुख उपचय स्थान में धनेश, पंचमेश, नवमेश की स्थिति भी धनदायक होगी, अतः इस योग को उत्कृष्ट भाग्य देने वाला योग कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है ।
7. मीने तु जायमानस्य चन्द्रसौम्यकुजा यदि । मकरस्था यदि भवन् धन वाहन योगदाः ॥ ७ ॥
भावार्थ – यदि चन्द्र बुध और मंगल एकादश स्थान में मकर राशि में स्थित हों, तो धन और वाहन की प्राप्ति का योग बनाते हैं।
व्याख्या – गत श्लोक की व्याख्या में हम देख चुके हैं कि किस प्रकार चन्द्र और मंगल की एकादश भाव में स्थिति धनप्रद है । जब बुध चतुर्मेश की युति उन ग्रहों के साथ लाभ स्थान में होगी, तो धन के साथ-साथ वाहन की की प्राप्ति भी होगी । ध्यान रहे कि चतुर्थेश मंगल की चन्द्र लग्न से युति भी वाहन प्राप्ति का योग बनावेगी ।
8. मीने जातस्य लग्नस्थो शनिचन्द्रौ च लाभगः । कुजष्वष्ठे कविश्शुक्रदाये भाग्य मुदीरितम् ॥ ८ ॥
भावार्थ – यदि मीन लग्न में शनि और चन्द्र हों, मंगल एकादश और शुक्र छठे भाव में हो, तो शुक्र की दशा में बहुत धन की प्राप्ति होती है।
व्याख्या – शुक्र की मूल त्रिकोण राशि अष्टम स्थान में पड़ती है, अतः मीन लग्न वालों को शुक्र अष्टम भाव का फल करता है । एक अत्यन्त बुरे भाव का स्वामी होकर शुक्र जब एक दूसरे बुरे भाव अर्थात् छठे में स्थित होगा, तो अष्टम भाव की हानि होगी।

चूँकि छठे भाव में शुक्र शत्रु राशि (सिंह) में होगा, यह शत्रु राशि में स्थिति अष्टम अष्टमेश के लिये और भी हानिकारक सिद्ध होगी और फिर पापी मंगल की शुक्र पर दृष्टि उसे और भी हानि पहुँचावेगी ।
इस प्रकार दरिद्रता सूचक अष्टमेश के प्रबल रूप से पीड़ित होने के कारण दरिद्रता का सर्वथा नाश होकर प्रचुर धन की, विपरीत राजयोग द्वारा प्राप्ति होगी ।
9. मीने तु जायमानस्य सोम्यजीवेन्दु भूमिजाः । चतुर्थस्था यदि भवन् शुक्रेण रहिता यदि ॥ ९ ॥
तद्दशान्तर्दशाकाले कीर्तिमाप्नोति शाश्वतम् । सिंहासनस्थो भवति राजराजो भवेन्नरः ॥ १० ॥
भावार्थ – मीन लग्न हो और बुध, गुरु, चन्द्र और मंगल चतुर्थ भाव में हों, शुक्र उनके साथ न हो, तो उनकी दशा चिरकाल तक कीर्ति देने वाली और राज्य की प्राप्ति करवाने वाली होगी।
व्याख्या – पहली बात तो यह है कि गुरु मंगल और चन्द्र लग्न के सभी मित्र हैं। फिर गुरु की दृष्टि द्वारा दशम और लग्न को जहाँ गुरु की अपनी राशि है, विशेष लाभ पहुँचेगा ।
इसी प्रकार यह लाभ चन्द्र से दशम भाव को भी पहुँचेगा। इस प्रकार लग्न चन्द्र लग्न और उनसे दशम भावों की वृद्धि कीर्ति देगी, क्योंकि कीर्ति की प्राप्ति लग्न दशम और सूर्य की प्रबलता से कही है।
फिर दशम भावों का बलवान् होना राज्यदायक भी रहेगा, क्योंकि दशम भाव राज्य का भी भाव है। शुक्र अष्टमेश है और गुरु मंगल चन्द्र सभी का शत्रु, अतः इसका प्रभाव धन की प्राप्ति में बाधक होगा ।
11. मीनजातस्य पुंसस्तु लग्नराज्याधिपो गुरुः । राज्ये स्थितो यदि भवेद्योगदश्च भवे ध्रुवम् ॥११॥
भावार्थ – मीन लग्न वालों के लिए लग्न और दशम भाव का स्वामी गुरु राज्य भाव में (दशम में) यदि स्थित हो, तो बहुत धन की प्राप्ति होती है।
व्याख्या – धनकारक गुरु राज्यकृपा कारक भी है। ऐसे गुरु का लग्नेश होकर प्रमुख केन्द्र में स्वक्षेत्री होकर बलवान् होना धनीमानी बनाता ही है।
12. मीनजातस्य वृषभे चेन्दुस्सहे रविर्यदि । कन्यायां सोमपुत्रस्तु घटे शुक्रो धनुर्गुरुः ॥ १२ ॥
कुम्भे शनिः कुजोलाभे बहुभाग्यमुदीरितम् । एकद्विखचराभ्यां वा होनोपूर्वर्क्ष संगमः ॥ १३ ॥
भाग्यवान् गुणवानश्चैव महतीं कीर्तिमश्नुते । बृहज्जातकयोगोऽयम् विद्वद्भिः परिकीर्तितः ॥ १४॥
भावार्थ – मीन लग्न हो और चन्द्रमा तीसरे, सूर्य छठे, बुध सातवें, शुक्र आठवें, गुरु दसवें, एकादश में मंगल और द्वादश भाव शनि हो तो वृहद जातक में इस योग का फल भाग्य गुण और कीर्ति लिखा है ।
व्याख्या – सूर्य के छठे होने से तृतीयस्थ चन्द्रमा पक्ष बल में निर्बल न होगा, अतः बली चन्द्र उच्च राशि में स्थित होकर जहाँ पंचम भाव की उत्कृष्टता द्वारा धनदायक होगा वहाँ वह अपनी उत्कृष्टता द्वारा भी धनी बनावेगा । उसकी नवम भाव पर दृष्टि भाग्यशाली बनावेगी।

मंगल दो शुभ भावों अर्थात् द्वितीय और नवम का स्वामी होता हुआ प्रमुख उपचेय में उच्च राशि में स्थित होकर धन और भाग्य की उत्कृष्टता का दायक होगा।
गुरु की उत्कृष्ट फल देने की शक्ति का उल्लेख पिछले श्लोकों में हो चुका है । ऐसे शुभ गुरु की दशम भाव पर प्रभाव का फल यज्ञीय कर्मों की प्राप्ति होगा । स्वक्षेत्री बुध की लग्न पर दृष्टि व्यक्तित्व में बुध के यज्ञीय गुणों का समावेश करेगी।
एकादश भाव का फल देता हुआ शनि द्वादश भाव में वक्री होकर बहुत बलवान् होगा और बहुत लाभ देगा । वक्री ग्रह बलवान् होता है और इसीलिये अपने कारकत्व आदि के संबन्ध में शुभ फल करता है ।
भावार्थ रत्नाकर
- मेष लग्न | वृश्चिक लग्न
- वृषभ लग्न | तुला लग्न
- मिथुन लग्न | कन्या लग्न
- कर्क लग्न | सिंह लग्न
- धनु लग्न | मीन लग्न
- मकर लग्न | कुंभ लग्न
- अध्याय 2 | धन योग | विद्या | खान-पान
- अध्याय 3 भ्रातृ-भाव |अध्याय 4 वाहन तथा भाग्य | अध्याय 5 शत्रु और रोग
- अध्याय 6 स्त्री और काम | अध्याय 7 आयु और स्वास्थ्य
- अध्याय 8 भाग्य योग | अध्याय 9 राज योग
- अध्याय 10 तीर्थ स्नान | अध्याय 11 मृत्यु योग
- अध्याय 12 दशा के परिणाम
- अध्याय 13 साधारण योग | अध्याय 14 ग्रहमालिका योग | अध्याय 15 ग्रहों का आधिपत्य आदि
- नियम अध्याय
0 Comments