भावार्थ रत्नाकर | अध्याय 3 | भ्रातृ-भाव

1. भ्रातृस्थानेश्वरस्यापि भ्रातृणां कारकेण वै। कूजेन सह संबन्धे भ्रातृ द्विस्वीरिता ॥ १ ॥

भावार्थ – यदि तृतीय भाव का स्वामी भ्रातृकारक मंगल के साथ युति अथवा दृष्टि से सम्बन्धित हो, तो भाइयों की संख्या आदि की वृद्धि का सूचक है।

व्याख्या – तृतीयेश और तृतीय कारक की युति मात्र से भाइयों की वृद्धि नहीं होती, उनका बलवान् होना भी आवश्यक है ।

2. विक्रमे विक्रमाधीश रविभूमिसुतास्थिताः । भवेद्यदि हि जातस्तु साहसी धीर उच्यते ॥ २ ॥

भावार्थ – यदि तृतीय स्थान में तृतीयेश सूर्य और मंगल हो, तो जातक धैर्यवान् और साहसी होता है।

व्याख्या – बाहु स्थान होने से तृतीय स्थान पराक्रम का भी स्थान है। सूर्य और मंगल पराक्रमी ग्रह हैं । तृतीय भाव और उसके स्वामी से सूर्य और मंगल की युति जातक को साहसी और धीर बनाती है ।

3. राहुकेतु तृतीयस्थौ जातस्साहसिको भवेत् । तत्रैव स्यात्सोमसुतो धैर्यहीनो भवेन्नरः ॥ ३ ॥

भावार्थ – यदि केवल राहु अथवा केतु तृतीय स्थान में हों, तो जातक साहसयुक्त होता है । यदि वहाँ पर बुध भी हो, तो जातक धैर्यहीन होता है।

व्याख्या – पापी ग्रह यदि तृतीय स्थान में बलवान् होकर पड़े हों तो जातक को धैर्यवान् बनाते हैं। परन्तु राहु और बुध वहाँ पर हों तो व्यक्ति धैर्यहीन होता है, कारण कि बुध नपुंसक ग्रह है ।

4. बलहीने भ्रातृभावे संबन्धो गुरुभौमयोः । अस्तिचेत्भ्रातृ बहुलं वक्तव्यं विदुषोत्तमः ॥ ४ ॥

भावार्थ – यदि तृतीय भाव बलहीन् हो परन्तु गुरु और मंगल में युति दृष्टि आदि द्वारा सम्बन्ध हो, तो भाइयों की संख्या अधिक कहनी चाहिए।

व्याख्या – भाइयों की संख्या न केवल तृतीय भाव और उसके स्वामी की प्रबलता आदि पर निर्भर करती है वल्कि भ्रातृकारक मंगल पर भी । यदि मंगल पर गुरु का (पुरुष द्योतक) प्रभाव हो, तो भी भाई अधिक होंगे।

5. लाभस्यो यदि देवेभ्यः ज्येष्ठ भ्रातुस्तु दुःखदः । लाभे च संस्थितो भौमः शनिना वीक्षितो यदि ॥

भ्रातॄणां ज्येष्ठसंज्ञानां ह्यभावः प्रोच्यते बुधैः । वष्ठाष्टमे भ्रात्रषीशः भ्रात्रारिष्टं तु कम्यते ॥ ५, ६ ॥

भावार्थ – यदि गुरु एकादश भाव में हो, तो बड़े भाई को दुःखी करता है। यदि मंगल एकादश में हो और शनि से दृष्ट हो, तो बड़े भाइयों का अभाव कहना चाहिए। यदि तृतीय भाव का स्वामी छठे अथवा आठवें भाव में हो तो भाइयों को जीवन का भय समझना चाहिए ।

व्याख्या – गुरु यदि एकादश भाव में हो, तो प्रायः बड़े भाई को दुःख होता है। कारण यह कि थोड़ा-बहुत पाप प्रभाव तो प्रायः एकादश भाव पर रहेगा ही। जिसके कारण एकादश भाव और उसका कारक गुरु दोनों पीड़ित होंगे और फल बड़े भाई के लिए दुःख होगा । परन्तु जब गुरु की एकादश स्थिति के अतिरिक्त उस भाव पर मंगल और शनि का पाप प्रभाव भी हो, तो निश्चय से बड़े भाई का अभाव कहना चाहिए।

7. क्षत्रियाणां जातकेतु राज्येशे विक्रमे यदि । राजयोगस्य न्यूनं हि भवत्येव न संशयः ॥ ७ ॥

भावार्थ – यदि राजा आदि राजनैतिक सत्ताधारियों का दशमेश तृतीय भाव में हो, तो उनके अधिकारों में बहुत न्यूनता आ जाती है ।

व्याख्या – छठा भाव उस भाव के लिए सदा अभाव तथा कमी का सूचक है जिससे कि वह छठा है। इस प्रकार कुण्डली का तृतीय भाव दशम के लिए कमी और अभाव का घर होगा, अतः राज्य द्योतक दशमेश का अपने से छठे तृतीय भाव में जाना राज्य की न्यूनता का द्योतक होगा।

8. घनादिपतिना भ्रातृनायकस्य सहस्थितिः । औदार्यतस्य वक्तव्यं जातकस्य बुधोत्तमः ॥ ८ ॥

भावार्थ – यदि तृतीयेश धनेश से युक्त हो, तो जातक उदार (दानी) होता है।

व्याख्या – तृतीय भाव बाहु भाव है, अतः यह भाव निज का तथा सोच-समझ कर अथवा जानबूझ कर किए निज कार्यो का द्योतक है । इस भाव के स्वामी का धनेश से जुड़ना धन का स्वतन्त्रता से अपनी इच्छा से होने की दशा में यह दान व्यय करना है, अतः शुभ व्यय का रूप ले लेगा। वैसे भी तृतीय भाव दूसरे से दूसरा होने के कारण धन भाव की भाँति कार्य कर सकता है ।

9. घन भ्रातृपतिभ्यां वा संबन्धस्सूर्यजस्यहि । बहुलौभ्यं हि वक्तव्यं जातकस्य सदा बुधैः ॥

भावार्थ – यदि शनि का युति अथवा दृष्टि सम्बन्ध धनेश और तृतीयेश दोनों से हो, तो जातक बहुत लोभी होता है ।

व्याख्या – शनि एक स्वार्थपरक लोभी ग्रह है । स्पष्ट है कि इसका धन द्योतक भावों पर प्रभाव व्यक्ति को धन के विषय में लोभी बनावेगा । यहाँ दूसरा और दूसरे से दूसरा अर्थात् तीसरा भाव दोनों धन द्योतक होने से शनि के प्रभाव में आकर व्यक्ति को लोभी बनावेंगे ।

10. षष्ठाष्टमव्यये भ्रातृनायको यदि संस्थितः । तत्रैव शुभसंयुक्ते ह्यरिष्टंतु चिरात्भवेत् ॥ १० ॥

भावार्थ – यदि तृतीय भाव का स्वामी छठे, आठवें अथवा बारहवें भाव में हो परन्तु शुभ ग्रह से युक्त हो, तो भाई को जीवन का भय होता है परन्तु देर से ।

व्याख्या – तृतीयेश की दुष्ट स्थिति से उत्पन्न होने वाला जीवन को भय शुभ ग्रह के योग से हट नहीं जाता । परन्तु केवल पीछे अर्थात् देर से भोगना पड़ता है । यही ग्रन्थकार का अभिप्राय प्रतीत होता है ।

भावार्थ रत्नाकर | भ्रातृ-भाव | वाहन तथा भाग्य | शत्रु-रोग

भावार्थ रत्नाकर | अध्याय 4 | वाहन तथा भाग्य

1. भाग्येशो वाहनेशश्च तावुभौ लग्नगौ यदि । भाग्यवाहन योगोऽयमित्याहुर्गण कोत्तमाः ॥ १ ॥

भावार्थ – यदि चतुर्थेश और नवमेश मिलकर लग्न में स्थित हों, तो जातक को वाहन और भाग्य की प्राप्ति होती है ।

व्याख्या – लग्न अपने आपका घर अथवा भाव है । उसमें वाहन भाव के स्वामी और भाग्य भाव के स्वामियों का आना अपने आप (Self) को वाहन और भाग्य की प्राप्ति का सूचक होगा ।

2. सुखस्थानं गतो वापि पश्यन्नपि गुरुमंदि । बहुसख्यमवाप्नोति जातस्तत्र न संशयः ॥ २ ॥

भावार्थ – यदि गुरु चतुर्थ भाव को देखे अथवा उसमें स्थित हो, तो जातक को बहुत सुख की प्राप्ति होती है ।

3. चतुर्थेश गुरु यत्र केन्द्रकोणेषु संगतौ । स्थितौ चेत्सुखमाप्नोति जातस्तत्र न संशयः ॥ ३ ॥

भावार्थ – यदि चतुर्थ भाव का स्वामी और गुरु किसी केन्द्र अथवा त्रिकोण स्थान में इकट्ठे हों, तो जातक सुखी जीवन पाता है ।

4. वाहनेशेन संयुक्तः कारको वाहनस्य तु । एकौ स्थियौ वाहनेचेतु स्वल्पवाहन मुच्यते ॥ ४ ॥

भावार्थ –  यदि वाहन कारक शुक्र चतुर्थ भाव के स्वामी के साथ चतुर्थ भाव में स्थित हो, तो थोड़े वाहन की प्राप्ति कहनी चाहिए ।

व्याख्या – हम समझते हैं कि इतनी बात और है कि वाहन की प्राप्ति में कमी तब होगी यदि उक्त युति पर पाप प्रभाव हो ।

5. वाहनाधिप शुक्रौ तु लाभे वा भाग्यभेऽपिवा । राज्ये वा संस्थितौ वाऽपि वाहन प्रबलप्रदो ॥ ५ ॥

भावार्थ – यदि चतुर्थ भाव का स्वामी और शुक्र दोनों एकादश, नवम अथवा दशम भाव में स्थित हों, तो विशेष रूप से वाहन की प्राप्ति होती है ।

व्याख्या – यहाँ भी भाव के स्वामी और उसी भाव के कारक के वलवान् होने के कारण उस भाव सम्वन्धित फल को शुभ कहा गया है।

6. वाहनाधिपतेर्यस्तु संबन्धो विधुना यदि । अश्ववाहन योगोऽयमित्युक्तो गणिकोत्तमैः ॥ ६॥

भावार्थ – यदि चतुर्थ भाव के स्वामी का युति अथवा दृष्टि आदि द्वारा से चन्द्रमा सम्बन्ध हो तो टांगा आदि ऐसे वाहन की प्राप्ति होती है जिसमें अश्व का उपयोग होता है ।

7. बुधशुक्रौ चतुर्थेतु कक जातस्य संस्थितौ । बुधदाये भृगोरन्तर्दशायां वाहनं भवेत् ॥ ७ ॥

भावार्थ – कर्क लग्न हो और बुध शुक्र चतुर्थ भाव में स्थित हो, तो बुध की दशा में और शुक्र की भुक्ति में वाहन की प्राप्ति कहनी चाहिए ।

व्याख्या – यहाँ चूँकि दशा और भुक्ति दोनों का सम्बन्ध चतुर्थ भाव से है, इसलिए चतुर्थ भाव सम्बन्धित घटना हुई । बुध वाहन कारक शुक्र के प्रभाव में है, अतः वाहन सम्बन्धित घटना हुई ।

8. अश्ववाहन कर्तास्याच्चतुर्थ स्थो गुरुर्भवेत् । सप्तमस्थे भवेच्छुक्रः अतिकामुक उच्यते ॥ ८ ॥

भावार्थ – चतुर्थ भाव में स्थित गुरु घोड़े की सवारी को प्राप्ति करवाता है । शुक्र यदि सप्तम स्थान में स्थित हो, तो जातक बहुत कामातुर होता है।

व्याख्या – गुरु की मूल त्रिकोण राशि की बनावट में ही अश्व है, अत: धनु के स्वामी गुरु का ‘घोड़ा’ से कारक रूप में सम्बन्ध है, इसीलिए वाहन स्थान में गुरु की स्थिति से घोड़े के वाहन की प्राप्ति कही है। शुक्र और सप्तम भाव दोनों ‘काम’ हैं। दोनों की युति कामप्रद है ।

9. चतुर्थस्याद्यदि शनिः परदेशेन वसत्यसौ । छिद्रग्रहेषु वसति काठिन्यहृदयो भवेत् ॥ ९ ॥

भावार्थ – शनि यदि चतुर्थ भाव में स्थित हो, तो जातक अपने जन्म-स्थान में न रहकर परदेश में बसता है । फिर वह ऐसे मकान में रहता है जो टूटा-फूटा और पुराना होता है। ऐसा व्यक्ति कठोर हृदय का भी होता है ।

व्याख्या – शनि एक पृथकताजनक ग्रह है । यह जिस भावादि को प्रभावित करता है उससे जातक को पृथक् अथवा दूर कर देता है । निवास स्थान पर यहाँ शनि का प्रभाव है, इसलिए जातक जन्म-स्थान में न रहकर अन्यत्र रहेगा ।

घर का आकार – प्रकार उस पर पड़ने वाले शनि के रूप के अनुरूप होगा। शनि चूंकि पुराना और दरिद्री ग्रह है, इसलिए मकान पुराना और टूटा-फूटा है।

10. वाहनाधिपतिर्भाग्ये भाग्येशो वाहने यदि । भाग्यवाहन योगोऽयमिति तज्ञा वदन्ति हि ।। १० ॥

भावार्थ – यदि चतुर्थेश नवम स्थान में और नवमेश चतुर्थ स्थान में हो, तो भाग्यवाहन योग होता है ऐसा ज्योतिष शास्त्र के मर्मज्ञों ने कहा है ।

11. वाहनाधिपतिर्लाभ लाभेशो वाहने यदि । भाग्यवाहन योगोऽयमिति तज्ञा वदन्ति हि ॥ ११ ॥

भावार्थ – यदि चतुर्थेश लाभ स्थान में और लाभेश चतुर्थ स्थान में हो, तो भी भाग्यवाहन योग होता है ऐसा विद्वानों का मत है ।

12. वाहनेशः पञ्चमस्थः पञ्चमे वाहनाधिपः । भाग्यवाहन योगोऽयमिति तज्ञा वदन्ति हि ॥ १२ ॥

भावार्थ – यदि चतुर्थेश पञ्चम स्थान में हो तथा पञ्चमेश वाहन स्थान में हो, तो भी भाग्यवाहन योग होता है ऐसा आचार्यों ने कहा है ।

13. वाहनाधिपतिलंग्ने लग्नेशो वाहने यदि । भाग्यवाहन योगोऽयमित्यूचुगंणकोत्तमाः ॥ १३ ॥

भावार्थ – यदि चतुर्थ भाव का स्वामी लग्न में हो और लग्न का स्वामी चतुर्थ भाव में हो, तो जातक को वाहन की प्राप्ति होती है और वह भाग्यशाली होता है ।

व्याख्या – चूंकि लग्न मनुष्य का अपना आप (Self) होता है उसका उक्त व्यत्यय (Exchange) द्वारा वाहन देना युक्त ही है। जातक भाग्यशाली इसलिये कि केन्द्र और कोण के परस्पर सम्बन्ध से वह धनी भी होगा ।

14. पञ्चमाधिपतिर्भाग्ये भाग्येशः पञ्चमे यदि । भाग्यवाहन योगोऽयमिति तज्ञा वदन्ति हि ॥ १४ ॥

भावार्थ – पंचम और नवम भाव के स्वामियों का परिवर्तन भाग्य और वाहन की प्राप्ति का सूचक है ।

व्याख्या – नवम से नवम होने के कारण, भावात् भावम् के सिद्धान्तानुसार पंचम भाव भी नवम की भाँति भाग्य के भाव के रूप में काम करता है, अतः पंचम और नवम भावों के स्वामियों का स्थान परिवर्तन ‘सादृश्य’ सिद्धांत के अनुसार ‘भाग्य’ की वृद्धि करेगा। जहाँ बहुत अच्छा भाग्य हो, वाहन की प्राप्ति तो प्रायः होती ही है।

15. पञ्चमाधिपतिर्लाभ पञ्चमस्थोहि लाभपः । भाग्यवाहन योगोऽयमिति तज्ञा वदन्ति हि ॥ १५ ॥

भावार्थ – पांचवें और ग्यारहवें भाव के स्वामियों का स्थान परिवर्तन भाग्य और वाहन दोनों की प्राप्ति करवाता है ।

व्याख्या – यहाँ भी पंचम और एकादश दोनों भाव आय के द्योतक हैं। आय के उत्तम होने से जहाँ भाग्य की प्राप्ति है, वहाँ वाहन की प्राय: स्वतः ही है ।

16. वाहनेशो वाहनस्थः पञ्चमे पञ्चमेश्वरः । भाग्यवाहन योगोऽयमिति तज्ञा वदन्ति हि ॥ १६ ॥

भावार्थ – चतुर्थ भाव का स्वामी यदि चतुर्थ में हो और पाँचवें का स्वामी पांचवें में, तो भी यह योग वाहन की प्राप्ति का सूचक है।

व्याख्या – सुखेश की स्वक्षेत्री स्थिति सुख को और पंचमेश की स्वक्षेत्री स्थिति भाग्य को देगी जिसके फलस्वरूप वाहनादि की प्राप्ति हो ही जावेगी ।

17. भाग्याषिपो भाग्येस्यात् लग्नेशो लग्नगो यदि । भाग्यवाहन योगोऽयमिति तज्ञा वदन्ति हि ॥ १७ ॥

भावार्थ – यदि भाग्य और लग्न के स्वामी भाग्य और लग्न भाव में स्वक्षेत्री हों, तो भी भाग्य और वाहन की प्राप्ति होती है ।

18. पञ्चमाधिपतिर्भाग्ये राज्ये वा भाग्यनायकः । भाग्यवाहन योगोऽयमिति तज्ञा वदन्ति हि ॥ १८ ॥

भावार्थ – यदि पाँचवें भाव का स्वामी नवम भाव में हो और नवम भाव का स्वामी दशम में हो, तो यह भी भाग्य और वाहन की प्राप्ति का योग है ।

व्याख्या – उक्त योग द्वारा पंचमेश और नवमेश दोनों बलवान् हो जावेंगे जिसका स्पष्ट अर्थ उत्तम भाग्य की प्राप्ति है । उत्तम भाग्य वाहन देता ही है।

19. पञ्चमस्याधिपतिना संबंधो यदि विद्यते । पुत्रकारक जीवस्य पुत्रप्राबल्यमादिशेत् ॥ १९ ॥

भावार्थ – यदि पुत्रकारक गुरु का पंचमेश के साथ सम्बन्ध हो, तो पुत्र प्राप्ति का प्रबल योग कहना चाहिए ।

20. पुत्रकारक पुत्रेश लग्नेशाः केन्द्रकोणगाः । पुत्रसौख्यमवाप्नोति जातस्तत्र न संशयः ॥ २० ॥

भावार्थ – यदि पुत्रकारक, पंचमेश एवं लग्नेश ये सब केन्द्र एवं त्रिकोण स्थानों में हों तो इस योग उत्पन्न व्यक्ति पुत्र सुख प्राप्त करता है ।

भावार्थ रत्नाकर | अध्याय 5 | शत्रु और रोग

1. अष्टमाधिपतौ लग्ने रोगदेहो भवेन्नरः । षष्ठेशे लग्नगे वाऽपि ज्ञाति रोगैश्च बाध्यते ॥ १ ॥

भावार्थ – यदि आठवें भाव का स्वामी लग्न में हो, तो जातक देह से रोगी होता है । उसी प्रकार छठे भाव का स्वामी यदि लग्न में हो तो मातृ पक्ष के मामा आदि द्वारा तथा रोगों से जातक पीड़ित होता है ।

व्याख्या – छठा और आठवाँ स्थान रोग का है, इसलिए लग्न के साथ इनका सम्बन्ध रोग को लग्न (Self) में लावेगा ।

छठा स्थान चतुर्थ से तृतीय होने के कारण माता के छोटे भाइयों का भाव है । इस भाव का स्वामी जब अपने भाव (छठे) से अष्टम होकर लग्न में स्थित होगा, तो छठे भाव को पीड़ित करेगा और सिद्धांत यह है कि पीड़ित ग्रह प्रदर्शित संबन्धी से लाभ नहीं होता, इसलिये मामा के सम्बन्ध में भी अशुभ फल कहा ।

2. लग्नषष्ठाधिपाभ्यान्तु सूर्यचन्द्रमसौ युतौ । भानुना ज्वरगण्डस्याच्चन्द्रेण जलगण्डकम् ॥ २ ॥

भावार्थ – यदि लग्न और छठे भाव का स्वाभी सूर्य से भुक्त हो तो ज्वर आदि गर्मी से उत्पन्न होने वाले रोग होते हैं। इसी प्रकार यदि लग्नेश और षष्टेश की युति चन्द्र से हो, तो जल सम्बन्धित कष्ट होता है ।

व्याख्या – लग्नेश का षष्टेश से सम्बन्ध करना रोग का द्योतक होता है । परन्तु रोग किस प्रकार का है, इस बात का निर्णय वह ग्रह करता है जिसका प्रभाव लग्नेश-षष्टेश दोनों पर ऐसी स्थिति में पड़ता है ।

3. कुजेन व्रणशस्त्रादि ग्रन्थि रोगभयं भवेत् । बुधेन संगतौस्यातां पित्तरोगी भवेन्नरः ॥ ३ ॥

भावार्थ – यदि उक्त इकट्ठे हुए षष्ठेश और लग्नेश पर मंगल का युति द्वारा प्रभाव हो, तो जातक को घाव, शस्त्र तथा ग्रन्थि आदि अन्य पट्टों (Muscle ) के रोग होते हैं, क्योंकि इन सब का सम्बन्ध मंगल से है । यदि लग्नेश षष्ठेश से युति करने वाला ग्रह बुध हो, तो पित्त से उत्पन्न रोगों से पीड़ित होता है ।

व्याख्या – मंगल, चूँकि अग्नि, शस्त्र और घाव का कारक है, उसका प्रभाव लग्नेश और षष्ठेश पर पड़ने से इन कारणों से कष्ट का होना युक्तियुक्त ही है । परन्तु बुध का प्रभाव केवल पित्त द्वारा कष्ट दे, यह बात विचारणीय है । बुध तो वात, पित्त और कफ तीनों दोषों का प्रतिनिधि है । उसे तो तीनों दोषों द्वारा पीड़ा देनी चाहिए । परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि बुध लग्नेश और षष्ठेश के अनुरूप कार्य करता हुआ उनके साझे दोष का फल करता है ।

लग्न पित्त द्योतक है और षष्ठ पृथ्वी तत्व का द्योतक है, अतः वायु दोष का तो प्रश्न नहीं उठता और अग्नि और पृथ्वी तत्व से जलीय (कफ) रोग की उत्पत्ति की संभावना भो नहीं, इसलिए पित्त से कष्ट कहा ।

4. देवेन्द्रपूज्य संयोगे रोगाभाव उदीरितः । शनिना यदि योगोऽयं चोराचाण्डालजं भयं ॥ ४ ॥

भावार्थ – यदि उक्त इकट्ठे हुए लग्नेश और पष्ठेश के साथ गुरु हो, तो रोग का अभाव कहना चाहिए और यदि उनसे शनि योग करता हो, तो जातक को चाण्डालों और चोरों से भय कहा है ।

व्याख्या – ऐसा प्रतीत होता है कि छठा भाव यद्यपि रोग नाम से प्रसिद्ध है यह भाव वस्तुतः स्वास्थ्य का भाव है, तभी तो गुरु के इसके साथ मिलाने पर रोग की वृद्धि न होकर स्वास्थ्य की वृद्धि हुई ।।

और बातों के अतिरिक्त छठा भाव चोरी और चोरों का भी भाव है, इसलिए जव लोभी शनि और निकृष्ट शनि से मिलकर पष्ठेश लग्नेश पर प्रभाव डालेगा तो लग्न अर्थात् जातक को चोरों तथा अन्य निम्न श्रेणी के लोगों से कष्ट होगा ही ।

5. राहुणा केतुना वापि संयोगो यदि विद्यते । जातस्य सर्पव्याघ्रादि भयं चाहुर्मनीषिणः ॥ ५ ॥

भावार्थ – यदि इकट्ठे हुए लग्नेश पष्ठेश के साथ राहु अथवा केतु हों तो साँप और चीते आदि से जातक को भय कहा है।

6. शुक्रेण सहसंयोगे कलत्रविपदं भवेत् । विक्रमेश युते भौमे युद्धाग्निधनमुच्यते ॥ ६ ॥

भावार्थ – यदि लग्न और छठे भाव का स्वामी शुक्र के साथ हो तो स्त्री से कष्ट होता है । यदि लग्नेश तथा छठे भाव का स्वामी तृतीयेश और मंगल से युक्त हो, तो जातक की मृत्यु युद्ध में होती है ।

7. लग्नेश्वरे हीनबले सुखस्थे नीचेर्कयुक्ते यदि वा । सपाये जलग्रहेणापि युते सुखेशे बलेन होने जलराशिः मग्नः रोगाधिपे व्ययस्थे तु नीचादिग्रहसंयुते । लग्नेशे बलसंयुक्ते रोगनाशं वदेत्बुधः ॥ ७ ॥

भावार्थ – यदि छठे भाव का स्वामी द्वादश भाव में स्थित हो और नीचादि ग्रह से युक्त हो और उधर लग्न का स्वामी बलवान् हो, तो रोग का नाश कहा है ।

व्याख्या – यदि छठे स्थान को रोग का प्रतिनिधि समझ लिया जावे, तो उसका एक बुरे (वारहवें) स्थान में जाकर नीच और पापी ग्रहों के साथ स्थित होना स्पष्टतया रोग के नाश का कारण होगा ।

परन्तु हमारा निवेदन यह है कि ऐसी स्थिति में रोग की अधिक उत्पत्ति होगी, क्योंकि छठा स्थान जैसा कि हम श्लोक सं० ४ की व्याख्या में कह चुके हैं, स्वास्थ्य का है न कि रोग का प्रतिनिधित्व करता है ।

8. बलहीने लग्नाथाच्छत्रुस्थानाधिपे यदि । शुभग्रहैश्च संबन्धे शत्रुमंत्रं समा दिशेत् ॥ ८ ॥

भावार्थ – यदि छठे भाव का स्वामी लग्नेश से निर्बल होता हुआ शुभ ग्रहों से युति अथवा दृष्टि द्वारा सम्बन्ध स्थापित करना हो, तो शत्रुओं से मेल-मिलाप हो जाता है ।

व्याख्या – शुभ ग्रहों का छठे भाव पर अथवा छठे भाव के स्वामी पर प्रभाव का होना शत्रुओं से मैत्री का सूचक है। यह मैत्री उस अवस्था में और भी आसान हो जावेगी जबकि शत्रु निर्बल हो और लग्नेश अर्थात् जानक वलवान् हो ।

भावार्थ रत्नाकर

  1.   मेष लग्न | वृश्चिक लग्न
  2.  वृषभ लग्न | तुला लग्न
  3.   मिथुन लग्न | कन्या लग्न
  4.  कर्क लग्न | सिंह लग्न
  5.  धनु लग्न | मीन लग्न
  6.  मकर लग्न | कुंभ लग्न
  7.   अध्याय 2 | धन योग | विद्या | खान-पान
  8.  अध्याय 3 भ्रातृ-भाव |अध्याय 4 वाहन तथा भाग्य | अध्याय 5 शत्रु और रोग
  9.   अध्याय 6 स्त्री और काम | अध्याय 7 आयु और स्वास्थ्य
  10.  अध्याय 8 भाग्य योग | अध्याय 9 राज योग
  11.  अध्याय 10 तीर्थ स्नान | अध्याय 11 मृत्यु योग
  12.  अध्याय 12 दशा के परिणाम
  13.  अध्याय 13 साधारण योग | अध्याय 14 ग्रहमालिका योग | अध्याय 15 ग्रहों का आधिपत्य आदि
  14.  नियम अध्याय

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