मेष लग्न
1. मेषलग्ने तु जातस्य राजयोगीऽपि लभ्यते । चतुर्थ पञ्चमाधीश संबन्धेन न संशयः ॥ १ ॥
भावार्थ – मेष लग्न में जन्म लेने वालों की जन्म कुण्डली में यदि चतुर्थ और पंचम भाव के स्वामियों का परस्पर (दृष्टि योग आदि) संबंध हो, तो जातक को निश्चय ही राजयोग की प्राप्ति होती है ।
व्याख्या – राजयोग से तात्पर्य धनी होना और दूसरों पर अधिकार की प्राप्ति है । पाराशरीय नियमों के अनुसार केन्द्र और त्रिकोण के स्वामियों का पारस्परिक संबंध राजयोग देता है। यहाँ चन्द्र केंद्रेश और सूर्य त्रिकोणेश होने से उनका पारस्परिक सम्बन्ध राजयोग उत्पन्न करेगा ।
हाँ, इतना अवश्य है कि चन्द्र अपनी दशा भुक्ति में उतना अच्छा फल नहीं देगा, जितना कि सूर्य । कारण यह कि सूर्य के सान्निध्य से ग्रहों का बल क्षीण हो जाता है ।
2. मेषलग्ने तु जातस्य धनसप्तमनायकः । शुक्रः करोति निधनमिति ज्योतिषकाविदुः ॥ २ ॥
भावार्थ – इस लग्न वालों के लिये शुक्र (अपनी दशा भुक्ति में) मृत्यु लाता है, क्योंकि वह द्वितीयेश और सप्तमेश है ।
व्याख्या – अष्टम और अष्टम से अष्टम अर्थात् तृतीय दो भाव आयु के हैं । इनसे बारहवें अर्थात् दूसरा और सातवाँ ‘मारक भाव कहलाता है, इसलिए द्वितीयेश और सप्तमेश शुक्र अपनी दशा भुक्ति मे मारक सिद्ध होता है, परन्तु यह कोई आवश्यकं नहीं कि प्रत्येक द्वितीयेश तथा सप्तमेश मारक सिद्ध हो।
3. मेषलग्ने तु जातस्य भाग्यान्त्यस्थान नायकः । देवेन्द्रपूज्यो राज्यस्थ सभवेन्मारकः स्मृतः ॥ ३ ॥
भावार्थ – नवमेश और द्वादशेश होकर गुरु यदि दशम भाव में स्थित हो, तो मृत्यु का खण्ड आने पर गुरु मारक सिद्ध हो सकता है ।
व्याख्या – गुरु ने मुख्यतया नवम भाव का फल करना है, अतः साधारणतया गुरु मारक सिद्ध न होगा । हाँ, यदि मृत्यु का खण्ड आ जाये, तो फिर द्वादशेश होकर नीच होने के कारण मारक सिद्ध हो सकता है ।
4. मेष लग्ने तु जातस्य राजयोगो न लभ्यते । भाग्यराज्येश संबंध मात्रेण हि न संशयः ॥ ४ ॥
भावार्थ – मेष लग्न वालों के गुरु नवमेश और शनि दशमेश में यदि पारस्परिक दृष्टि आदि सम्बन्ध हो, तो इस सम्बन्ध मात्र से राजयोग की प्राप्ति नहीं होती ।
व्याख्या – महर्षि पाराशर ने अपने होरा शास्त्र में यह स्पष्ट किया हुआ है कि त्रिकोणेश से केन्द्रेश का संबंध तभी योगदायक होता है जबकि केन्द्रेश पापी न हो।
यहाँ शनि एक नैसर्गिक पापी ग्रह होता हुआ केन्द्रेश है, इसलिए अपने नैसर्गिक पापत्व को खो देता है, परन्तु चूँकि पुनः वह एकादशेश भी है, इसलिए वह अन्तिम परिणाम में पापी रहता है और इसी कारण से उसका गुरु से सम्बन्ध योगप्रद सिद्ध नहीं होता । पाराशर ने एकादशेश को पापी ग्रह माना ही है ।
5. मेषलग्ने तु जातस्य स्फोट शस्त्रव्रणादिनम् । भयमस्ति च जगुः प्रायशो गणिकोत्तमाः ॥ ५ ॥
भावार्थ – उत्तम ज्योतिषियों का कहना है कि मेष लग्न में उत्पन्न होने वालों का शस्त्र, चोट, फोड़े आदि से पीड़ित होने का भय रहता है ।
व्याख्या – मंगल चोट आदि का कारक है । उसका लग्न से सम्बन्ध चोट आदि दे सकता है, बल्कि मंगल लग्नेश और अष्टमेश दोनों होने से मृत्यु का कारण भी बन सकता है। विशेषतया जबकि केतु का प्रभाव भी लग्न तथा अष्टम पर हो।
6. षष्ठभाष्टमनाथेन युतो भूमिसुतो यदि । तद्दशान्तर्दशाकाले निधनम् मूनि कृन्तनम् ॥ ६॥
भावार्थ – यदि मंगल षष्ठेश से युक्त हो, तो षष्ठेश की दशा अथवा भुक्ति में सिर पर चोट आने से मृत्यु हो ।
व्याख्या – हम समझते हैं कि पाठ में षष्टभाष्टम नाथेन के स्थान पर ‘ षष्ट भावस्य नाथेन’ पाठ होना चाहिए, क्योंकि मंगल का अष्टमेश से युति का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । वह स्वयम् अष्टमेश है । षष्ठेश की दशा मुक्ति का अर्थ होगा कि रोग और चोट स्थान का स्वामी लग्नेश और अष्टमेश मंगल को पीड़ित करेगा ।
लग्नेश और अष्टमेश का पीड़ित होना मृत्युदायक होता ही है । कष्ट सिर में होगा, क्योंकि पीड़ित ग्रह मंगल की मूल त्रिकोण राशि लग्न (सिर) में स्थित है ।
7. मेषे जातस्य धनपो व्ययस्थोऽपि कविश्शुभः । इतर तु जातस्य व्ययस्थ घनपोऽशुभः ॥ ७ ॥
भावार्थ – मेष लग्न वालों के लिए द्वितीयेश शुक्र द्वादश स्थान में स्थित शुभ फल करता है, परंतु अन्य किसी लग्न का द्वितीयेश द्वादश में अशुभ फल देता है।
व्याख्या – ग्रन्थकार ने अध्याय १२ के श्लोक ४ में यह साधारण नियम स्वीकार किया है कि शुक्र की द्वादश भाव में स्थिति धन सम्बन्धित शुभ फलप्रद है, अतः उपरोक्त श्लोक में कन्या लग्न के द्वितीयेश शुक्र को भी सम्मिलित कर लेना चाहिए। वह भी द्वादश में शुभ फल करेगा । हाँ, साधारण नियम यही है कि जिस भाव का स्वामी द्वादश भाव में स्थित होगा, उसको हानि पहुँचेगी ।
8. मेषे जातस्य भौमस्तु शुक्रेण सहितो यदि । योगदो भविता भूयो मारकोऽपि भवेदसौ ॥ ८ ॥
भावार्थ – यदि मेष लग्न हो और मंगल शुक्र की युति हो, तो मंगल योग कारक और मारक दोनों रूप से फल करता है ।
व्याख्या – नियम है कि कोई भी ग्रह मारकेश के साथ यदि स्थित होगा, तो मारक रूप से कार्य करेगा । यहाँ मंगल मारकेश शुक्र के साथ है, इसलिए उसने अपनी दशा भुक्ति में शुक्र को मारकत्व का फल देना है, चूँकि शुक्र और मंगल की युति केन्द्रेश और कोणेश की युति है, यह युति शुभ फल भी देगी।
शुभ फल का एक कारण यह भी है कि यह युति लग्नेश और धनेश की युति होगी, जोकि नियमाध्याय के नियम १० अनुसार शुभ फलप्रद है ।
9. मेषे जातस्य भौमस्तु गुरुशुक्रसमन्वितः । द्वितीये यदि विद्येत योगदो भवति ध्रुवम् ॥
भावार्थ – यदि द्वितीय स्थान में वृषभ राशि में मंगल, गुरु, शुक्र स्थित हों, तो यह योग शुभ धनादिदायक होता है ।

व्याख्या – मंगल लग्नेश रूप से, गुरु भाग्येश रूप से, शुक्र धनेश रूप से धन के प्रतिनिधि हैं, इसलिए उन सबका एकत्र होना और वह भी धन स्थान में, धनदायक सिद्ध होगा ही ।
10. मेषे जातस्य भौमस्तु गुरुशुक्रसमन्वितः । तृतीयस्थो यदि भवेन्नैव योगप्रदो भवेत् ॥ १० ॥
भावार्थ – यदि मंगल, गुरु और शुक्र के साथ तृतीय भाव में मिथुन राशि में स्थित हो, तो वह योगप्रद नहीं होता ।
व्याख्या – मंगल अपनी मेष राशि से तृतीय और वृश्चिक से अष्टम होगा । तृतीय और अष्टम दोनों स्थितियाँ अशुभ हैं, अतः मंगल अशुभ फलदाता होगा। परन्तु चूँकि गुरु और शुक्र से युक्त है, कुछ शुभ फल करेगा। जो भी हो, योगप्रद न हो पावेगा ।
11. मेषे जातस्य भौमस्तु गुरुणा च समन्वितः । चतुर्थस्थो यदि भवेद्योगदो भवति ध्रुवम् ॥ ११ ॥
भावार्थ – मगंल चतुर्थ भाव में कर्क राशि में गुरु युक्त हो, तो बहुत शुभ फल करता है ।
व्याख्या – कर्क का मगंल मेष से चतुर्थ और वृश्चिक से नवम होता है । चतुर्थ और नवम दोनों स्थितियाँ शुभ हैं, अतः मंगल नोच राशि में होता हुआ भी बहुत अच्छा फल करेगा । अपने मित्र और अच्छे शुभ भाग्येश के साथ होकर और भी शुभ फलप्रद होगा ।
12. मेषे जातस्य हि कुजः पञ्चमस्थो भवेद्यदि । कुजदाये च संप्राप्ते योगवश्च भवेध्रुवम् ॥ १२॥
भावार्थ – यदि मंगल पंचम भाव में सिंह राशि में हो, तो अपनी दशा भुक्ति में योगफल अर्थात् धनादि देता है ।
व्याख्या – इस स्थिति में मंगल दो कारणों से शुभ फलदायक होता है । एक तो इसलिये कि वह मेष से पंचम और वृश्चिक से दशम दो शुभ स्थानों में स्थित होता है; दूसरे चूँकि इसकी दृष्टि अपनी राशि वृश्चिक पर पड़ती है इस दृष्टि से अष्टम और लग्न (धन-बल, आदि, दोनों को बल मिलता है, जिससे शुभ फल की प्राप्ति होती है ।
13. मेषे जातस्य हि गुरुर्लाभस्थान स्थिवे भवेत् । गुरार्द्दशायाम् संप्राप्ताववयोगो भवेध्रुवम् ॥ १३ ॥
भावार्थ – कुम्भ राशि का लाभ स्थान में स्थित गुरु अपनी दशा में बुरा फल करता है ।
व्याख्या – यहाँ गुरु इसलिए अशुभ फल दे रहा है कि यह अपनी धनु राशि से तृतीय और मीन से द्वादश अर्थात् दोनों बुरे स्थानों में स्थित है।
इस प्रकार आप देखेंगे कि अपनी राशियों से अच्छी अथवा बुरी स्थिति का फल कितना दूसरे फलों को हटाकर अपना फल करता है ।
साधारण नियमों के अनुसार किसी भी ग्रह का एकादश स्थान में स्थित होना उसके लिए बलप्रद होता है, परन्तु जब वह अपनी राशियों से अनिष्ट स्थानों में हो, तो उसकी एकादश भाव में स्थिति तक का फल जाता रहता है।
14. मेषे जातस्य षष्ठे तु बुधभौमौ स्थितौ यदि । तयोर्दशायां संप्राप्तौ व्रणस्फोटादि रोगदौ ॥ १४ ॥
भावार्थ – यदि मंगल और बुध कन्या राशि में छठे भाव में हों, तो अपनी-अपनी दशा भुक्ति में फोड़े, फुंसी आदि रोगों को जन्म देते हैं ।
व्याख्या – यहाँ भी सादृश्य का सिद्धान्त काम करता है। मंगल घाव आदि का द्योतक है, छठा भाव और षष्टेश भी घाव आदि के द्योतक हैं; इसलिए षष्टेश का मंगल सहित लग्न से छठे भाव में बैठना छठे भाव प्रदर्शित घाव आदि की सृष्टि करेगा, जिसका फल बुध और मंगल दोनों एक जैसा करेंगे ।
15. मेषे जातस्य भौमोऽपि सप्तमे संस्थितः कविः । स्वाजितं भाग्यमाप्नोति किंचिद्धनमुदीरितम् ॥ १५ ॥
भावार्थ – यदि मंगल और शुक्र तुला राशि में सप्तम भाव में स्थित हों, तो जातक अपने पुरुषार्थ से धन कमाता है और कुछ धनी भी होता है ।
व्याख्या – नियमाध्याय के नियम संख्या १० अनुसार मंगल जो एक महान् राजसिक और क्रियाशील ग्रह है, उत्साह और वीर्य (सप्तम) स्थान में पड़कर वीर्य कारक शुक्र से युक्त है, इसलिए यहाँ वीर्य और उत्साह के साँझे गुण की सृष्टि हो रही है। इसके अतिरिक्त मंगल चूँकि निज राशि मेष को देखेगा वह लग्न के धन, यश आदि शुभ गुणों की वृद्धि करेगा ।
16. मेषे जातस्य भौमस्तु अष्टमस्थो न योगदः । रविशुक्र समायुक्तः स्वल्पदश्च भविष्यति ॥ १६ ॥
भावार्थ – मेष लग्न वालों का लग्नेश मंगल यदि अष्टम स्थान में हो, तो अच्छा फल नहीं देता । हाँ, यदि सूर्य और शुक्र से युक्त होकर अष्टम स्थान में स्थित हो, तो थोड़ा अच्छा फल करता है ।
व्याख्या – नियमाध्याय के नियम संख्या १३ के अनुसार मंगल की मूल त्रिकोण राशि लग्न में पड़ती है, इसलिए मंगल ने लग्न का फल करना है। अब चूँकि मंगल निज स्थान (लग्न) से अष्टम में है, यह लग्न के फल को नाश करने वाला होगा।
सूर्य और शुक्र की युति द्वारा मंगल अष्टम में रहता हुआ भी कुछ शुभ फल दे देगा, क्योंकि सूर्य पंचमेश होकर शुभ है और शुक्र धनेश होकर शुभ है ।
17. भाग्यस्थौ रविभौमौ च गुरुशुक्रौ तथैव च । सप्तमस्यो यदि शनिः भौमो योगविशेषदः ॥ १७ ॥
भावार्थ – यदि नवम स्थान में धनु राशि में सूर्य, मंगल, गुरु और शुक्र स्थित हो और शनि सप्तम में हो, तो मंगल विशेष रूप से शुभ फल देने वाला होता है।
व्याख्या – सूर्य पंचमेश होकर, मंगल लग्नेश होकर, गुरु शुभ भाग्येश होकर और शुक्र धनेश होकर सभी ग्रह धनदायक हैं, अतः मंगल जो स्वयं भी लग्न से तथा वृश्चिक राशि से स्थिति में होगा । इन धनदायक ग्रहों से युक्त होकर इनका भी शुभ फल करेगा जिसके फलस्वरूप विशेष शुभ फल की प्राप्ति होगी ।

शनि की मंगल पर दृष्टि भी शुभ ही सिद्ध होगी, क्योंकि शनि ने लाभ भाव का धनप्रद फल करना है, कारण कि उसकी मूल त्रिकोण राशि एकादश (लाभ) भाव में पड़ती है ।
18. मेषलग्ने तु जातस्य लग्ने रविभृगू यदि । गुरुणा वीक्षितौ नोचेत्छुको योगप्रदो भवेत् ॥ १८ ॥
भावार्थ – यदि मेष लग्न में सूर्य और शुक्र हों और गुरु की दृष्टि उन पर न हो, तो शुक्र अपनी दशा भुक्ति में शुभ फल देता है ।
व्याख्या – यदि शुक्र इसलिए शुभ फलदायक है कि वह केन्द्राधिपत्य दोष से दूषित होकर पापी बनकर पाप ग्रह सूर्य द्वारा पीड़ित है और इसलिए विपरीत राजयोगकारी बनता हैं तब तो गुरु का शुक्र को न देखना ही अच्छा है, क्योंकि गुरु की दृष्टि से शुक्र शुभता की ओर जावेगा और इसलिए विपरीत राजयोग भंग हो जावेगा और यदि शुक्र इसलिए शुभ फल करता है कि सूर्य भी पंचमेश होकर धन द्योतक है और शुक्र भी धनेश होकर धन द्योतक है, तो फिर गुरु की दृष्टि का न होना असंगत होगा, क्योंकि गुरु धनकारक है और भाग्येश है, अतः बहुत शुभ है और हम नहीं चाहते कि शुभ दृष्टि से पापी शुक्र को बल मिले ।
19. गुरुणा वीक्षितश्शुको योगदो न भवेध्रुवम् । गुरुणा वीक्षितस्सूर्यो योगदो भवति ध्रुवम् ॥
गत १८ सं० श्लोक की स्थिति में गुरु को दृष्टि यदि सूर्य और शुक्र दोनों पर हो, तो शुक्र अपनी दशा भुक्ति में शुभ फल न देगा, परन्तु सूर्य अपनी दशा भुक्ति में शुभ फल देगा। (गत श्लोक पर व्याख्या देखिये) ।
सूर्य पंचमेश शुभ है और भाग्येश धनेश से प्रभावित होकर और भी शुभ हो जावेगा ।
20. मेषलग्ने तु जातस्य रविसौम्य सितास्तथा । लाभस्था यदि तेषां च दशाभाग्यप्रदा स्मृता ॥ २० ॥
भावार्थ – यदि एकादश भाव में कुंभ राशि में सूर्य बुध और शुक्र हों, तो ये ग्रह अपनी-अपनी दशा भुक्ति में धनादि के सम्बन्ध में शुभ फल करने वाले होंगे ।

व्याख्या – सूर्य पंचम त्रिकोण का स्वामी होकर शुभ धनप्रद ग्रह है और शुक्र धनेश होकर धनप्रद है । दोनों धनप्रद ग्रहों का एक धनप्रद भाव (एकादश) में बैठना और भी अधिक धनप्रद सिद्ध होगा। रह गई बात बुध की, सो उसकी तो प्रकृति ही ऐसी है कि वह जैसे ग्रहों के साथ होता है वैसा ही फल करता है। इसलिए धनप्रद सूर्य और शुक्र के साथ बैठकर बुध भी धनप्रद ही सिद्ध होगा ।
21. मेषे जातस्य लग्नस्थो भानु कर्कटके यदि । चन्द्रो यदि भवेज्जातः राजयोगम् समश्नुते ॥ २१ ॥
भावार्थ – यदि मेष लग्न वालों का सूर्य लग्न में और चन्द्र चतुर्थ भाव में स्थित हो, तो जातक को राजयोग की प्राप्ति होती है।
व्याख्या – सूर्य त्रिकोणेश होकर केन्द्र में उच्च राशि में स्थित होकर शुभ फल करेगा और चन्द्रमा निज राशि में चतुर्थ केन्द्र में स्थित होकर और पक्ष बल में भी कुछ बली होकर शुभ फल करेगा । परस्पर केन्द्र में होने के कारण और केन्द्रेश चन्द्र पर कोणेश सूर्य का केन्द्रीय प्रभाव होने के कारण भी सूर्य और चन्द्र शुभ फल करेंगे ।
22. मेषलग्ने तु जातस्य शुक्रेज्यार्यम्णो यदि । राज्यस्थास्तद्दशाकाले गंगास्नानम् भविष्यति ॥ २२ ॥
भावार्थ – शुक्र, सूर्य और गुरु यदि मकर राशि में दशम स्थान में स्थित हों, तो वे अपनी-अपनी दशा भुक्ति में गंगा स्नान देते हैं ।
व्याख्या – दशम स्थान धर्म-कर्म का स्थान है जिसमें गंगा आदि की तीर्थ यात्रा सम्मिलित हैं । सूर्य और गुरु भी सात्विक और धार्मिक ग्रह हैं, इसलिए इन ग्रहों की दशम भाव में स्थिति गंगा स्नान आदि धार्मिक कृत्य देती है।
उधर शुक्र की मूल त्रिकोण राशि सप्तम भाव में पड़ती है जो दशम से दशम होते. के कारण दशम की भाँति ही धर्मप्रद है, अतः सप्तमेश शुक्र भी अपनी दशम स्थिति द्वारा गंगा स्नान आदि की प्राप्ति में सहायक होगा ।

वृश्चिक लग्न
1. वृश्चिके जायमानस्य गुरुसौम्य परस्परम् । संबन्धिनो यदि भवेद्विशेष धनयोगदं ॥ १ ॥
भावार्थ – यदि वृश्चिक लग्न हो और गुरु और बुध परस्पर युति अथवा दृष्टि द्वारा संबन्धित हों, तो यह विशेष धनदायक योग बन जाता है ।
व्याख्या – गुरु धनकारक भी है और धनाधिपति भी और साथ ही पंचमेश भी, इसलिये आर्थिक दृष्टि से बहुत शुभ फल देने वाला है। बुध भी शुभ फलदायक है, क्योंकि यह लाभ स्थान (जहाँ इसकी मूल त्रिकोण राशि पड़ती है) का स्वामी है। दोनों का पारस्परिक संबन्ध उनके सांझे गुण अर्थात् ‘धन’ की विशेष वृद्धि करेगा ।
2. तृतीयस्थौ यदि गुरुरौदार्यमधिकं भवेत् । सप्तमस्थास्सूर्यसौम्य शुक्रौ यदि बुधस्य च ॥ २ ॥
दशाकाले तु संप्राप्ते वृश्चिकर्क्षे तु जातकः । राजयोगं समाप्नोति महतीं कीर्तिमश्नुते ॥ ३ ॥
भावार्थ – यदि तृतीय भाव में मकर में गुरु स्थित हो, तो जातक बहुत उदार होता है । यदि, बुध, सूर्य और शुक्र सप्तम भाव में हो, तो बुध की दशा में जातक बहुत यश और राजयोग को प्राप्त होता है ।
व्याख्या – मकर राशि में तृतीय भाव में गुरु जातक को इसलिए उदार करता है कि गुरु शुभ धार्मिक ग्रह होता हुआ धनाधिपति होकर धर्म भाव को भी देखता है जिससे धन का धर्म से संबन्ध स्थापित हो जाता है। इसी प्रकार गुरु का संबन्ध दोनों बाहुओं तृतीय और एकादश से होकर वाहु द्वारा शुभ व्यय होता है ।

दूसरे योग में सप्तम भाव में सूर्य, शुक्र, बुध वृषभ राशि में हो, तो सूर्य राज्यद्योतक ग्रह स्वयं दशमेश बनकर और भी राज्य का प्रतिनिधित्व करेगा । शुक्र दशम से दशम का स्वामी भी राज्य ही का द्योतक होगा, इसलिये बुध इन दो ग्रहों सूर्य और शुक्र का फल करता हुआ राज्य-प्राप्ति देगा। इसी प्रकार सूर्य यशकारक है और दशम भाव भी, इसलिए दशमेश और दशम कारक का फल करता हुआ बुध यश तथा ख्याति दिलवायेगा ।
4. गुरुसौम्यौ पञ्चमस्यौ लाभे चन्द्रो भवेद्यदि । बहुभाग्य घनोपेतः कीटजन्मा न संशयः ॥ ४ ॥
भावार्थ – यदि गुरु और बुध पंचम में और चन्द्र एकादश भाव में हो, तो वृश्चिक लग्न में उत्पन्न होने वाला व्यक्ति धनी और भाग्यशाली होता है ।
व्याख्या – गुरु धनकारक और धनेश तथा पंचमेश होकर, बुध लाभेश होकर (लाभ में बुध की मूल त्रिकोण राशि है) और चन्द्र भाग्येश होकर धन का द्योतक है, अतः ये सारे ग्रह एक दूसरे की दशा भुक्ति में धन प्राप्ति का तथा भाग्यशाली होने का अच्छा योग बनाते हैं ।
5. कीटजातस्य जीवेंधु केतुनो भाग्यगा यदि । गुरोर्दशा योगदाही केतोर्दायोव योगदः ॥ ५ ॥
भावार्थ – गुरु, चन्द्र और केतु यदि कर्क राशि में नवम भाव में स्थित हों, तो गुरु की दशा में प्रचुर धनादि की प्राप्ति होती है, परन्तु केतु की दशा साधारण रहती है ।
व्याख्या – गुरु चूँकि लग्न, चन्द्रलग्न और चन्द्रलग्न के स्वामी सभी पर अपना शुभ और धनदायक प्रभाव डालेगा जिसका फल धन की प्रचुरता होगी। केतु भी एक छाया ग्रह के नाते यद्यपि गुरु और चन्द्र का सम्मिलित शुभ फल करेगा परन्तु स्वतन्त्र रूप से एक पापी ग्रह होने के कारण इसका इतने धनदायक ग्रहों को पीड़ित करना बहुत धन की प्राप्ति में बाधा भी उत्पन्न करेगा, विशेषतया केतु दशा केतु के ही अन्तर में ।
भावार्थ रत्नाकर
- मेष लग्न | वृश्चिक लग्न
- वृषभ लग्न | तुला लग्न
- मिथुन लग्न | कन्या लग्न
- कर्क लग्न | सिंह लग्न
- धनु लग्न | मीन लग्न
- मकर लग्न | कुंभ लग्न
- अध्याय 2 | धन योग | विद्या | खान-पान
- अध्याय 3 भ्रातृ-भाव |अध्याय 4 वाहन तथा भाग्य | अध्याय 5 शत्रु और रोग
- अध्याय 6 स्त्री और काम | अध्याय 7 आयु और स्वास्थ्य
- अध्याय 8 भाग्य योग | अध्याय 9 राज योग
- अध्याय 10 तीर्थ स्नान | अध्याय 11 मृत्यु योग
- अध्याय 12 दशा के परिणाम
- अध्याय 13 साधारण योग | अध्याय 14 ग्रहमालिका योग | अध्याय 15 ग्रहों का आधिपत्य आदि
- नियम अध्याय
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