मिथुन लग्न
1. तृतीयस्थौ रविबुध बुधचाये समागमे । बुधो योगप्रदस्सत्यं युग्मजातस्य भाग्यदः ॥१॥
भावार्थ – यदि मिथुन लग्न में जन्म हो और सूर्य और बुध तृतीय भाव में स्थित हों, तो बुध अपनी दशा भुक्ति में बहुत धनदायक आदि सिद्ध होता है।
व्याख्या – बुध के सम्बन्ध में मौलिक बात जो सदा ध्यान में रखने योग्य है, वह यह है कि बुध ने वैसा फल करना है जैसा कि उस ग्रह का है, जिसके साथ बुध बैठा है। सूर्य यहाँ नैसर्गिक पापी होकर निज राशि में तृतीय भाव में स्थित है । चन्द्र की भाँति सूर्य भी एक लग्न है । इसको भी तृतीयेश होने का दोष नहीं लगता, अतः लग्न रूप से सूर्य को बलवान् समझना चाहिए। ऐसे शुभ ग्रह के साथ बुध स्थित होकर शुभ फल ही को करेगा ।
2. भृगुभौमेन्दवः खेटा: धनस्थाने स्थिता यदि । शुक्रदाये धनप्राप्ति युग्मजातस्समश्नुते ॥ २ ॥
भावार्थ – यदि शुक्र, मंगल और चन्द्रमा द्वितीय भाव में कर्क राशि में स्थित हों, तो शुक्र अपनी दशा भुक्ति में अच्छे धन को प्राप्त करवाता है ।
व्याख्या – मिथुन लग्न वालों के लिए मंगल की मूल त्रकोण राशि लाभ भाव में पड़ती है, इसलिए मंगल धनप्रद ग्रह है। इसी प्रकार चन्द्रमा धनेश होने से धनप्रद है और शुक्र पंचमेश होने से । तीनों की धन भाव में स्थिति पुनः धनप्रद है । हाँ, इतना ध्यान रहे कि चन्द्रमा सूर्य के समीप होकर क्षीण नहीं होना चाहिए।
3. मिथुने जायमानस्य धरासूनुर्धने स्थितः । शनिचन्द्रावष्टमस्थौ शनेदये समागमे ॥ ३ ॥
शनिस्तु मिश्र फलद: कुजदाये समागमे । धनयोगो भवत्येव जातकस्य न संशयः ॥ ४ ॥
भावार्थ – यदि मंगल द्वितीय भाव में कर्क राशि में स्थित हो, शनि और चन्द्र अष्टम भाव में हों, तो शनि अपनी दशा में मिश्रित फल देगा। परन्तु मंगल अपनी दशा में अवश्य धनदायक सिद्ध होगा ।
व्याख्या – मंगल, शनि और चन्द्र क्रमशः एकादश, नवम और द्वितीय भाव के स्वामी होने के कारण धन के प्रतिनिधि हैं। नियमाध्याय नियम सं० ११ के अनुसार शनि ने मंगल चन्द्र का फल देना है जोकि शुभ होगा। परन्तु शनि के चन्द्र पर नैसर्गिक पाप प्रभाव के कारण तथा इसकी चन्द्रमा के साथ शत्रुता के कारण फल में थोड़ी कमी की संभावना है।

परन्तु मंगल जिसने शनि और चन्द्र का शुभ फल करना है, क्रूर होता हुआ भी चन्द्र का मित्र है, इसलिए इसका फल शनि को अपेक्षा शुभकर रहेगा।
अपनी राशियों से स्थिति के विचार से भी शनि की अपेक्षा मंगल शुभ होगा, क्योंकि वह मेष और वृश्चिक दोनों से शुभ स्थान में है जबकि शनि अपनी मूल त्रिकोण राशि से द्वादश है ।
5. मिथुने जायमानस्य कुजमन्दौ द्वितीयगो । अष्टमस्थौ भवेदिन्दु शनिभौम दशागमे ॥ ५ ॥
तत्काले धनहीनस्यात्पूर्वभाग्यं विनश्यति । किञ्चिद्धनयुतो जातो भवेदेवं न संशयः ॥ ६ ॥
भावार्थ – यदि शनि और मंगल द्वितीय भाव में कर्क राशि में स्थित हों और चन्द्रमा अष्टम भाव में हो, तो शनि और मंगल की दशा में जातक को धन की हानि होती है। फिर भी वह कुछ धन अवश्य पाता है ।
व्याख्या – भाव यह है कि जब मंगल की दशा में शनि की भुक्ति होगी या शनि की दशा में मंगल की भुक्ति होगी, तो मंगल और शनि अपना सम्मिलित पाप प्रभाव द्वितीय भाव, उसके स्वामी और चन्द्र पर डालेंगे जिसके फलस्वरूप संचित धन को हानि होगी, तो भी चन्द्रमा चूँकि धनेश होकर धन को देखता है, बली होगा । अतः कुछ शुभ भी होगा ।
7. मिथुने जायमानस्य धननाथस्तु चन्द्रमाः । मारको न भवत्येव मानवस्य न संशयः ॥ ७ ॥
भावार्थ – द्वितीयेश चन्द्र मारक सिद्ध नहीं होता ।
व्याख्या – यद्यपि आयु भाव तृतीय से द्वादश भाव का स्वामी होने से चन्द्रमा मारकेश कहा जा सकता है, तो भी वह मारक का कार्य नहीं करता । इसका कारण चन्द्र का लग्न रूप होना प्रतीत होता है, परन्तु हम समझते हैं कि ऐसा तभी होगा जब चन्द्रमा पक्ष बल में बलवान् हो ।
8. मिथुने जायमानस्य कुजचन्द्रौ तु लाभगो । भाग्यस्थो यदि वा मन्दो विशेष धनयोगदः ॥ ८ ॥
भावार्थ – चन्द्रमा और मंगल यदि एकादश भाव में हों और शनि नवम भाव में (कुंभ राशि में), तो विशेष धन प्राप्ति का योग बनता है ।
व्याख्या – जैसा कि हम देख चुके हैं, चन्द्र और मंगल धनेश और लाभेश होने के कारण धन द्योतक ग्रह हैं, अतः उनकी धन द्योतक भाव (एकादश) में स्थिति भी धनदायक सिद्ध होगी ।

यहाँ शनि भी नवम का फल करने के कारण (शनि की मूल त्रिकोण राशि नवम मे होगी) धन द्योतक होगा, इसलिए इसकी चन्द्र मंगल पर दृष्टि भी धन में कमी न करेगी, जिसके फलस्वरूप विशेष धन की प्राप्ति होगी ।
9. युग्मजातस्य भाग्यस्थौ गुरुमन्दी तयोर्दशा । काले भवति गंगायांस्नानं भवति निश्चयः ॥ ९ ॥
भावार्थ – यदि गुरु और शनि नवम भाव में (कुंभ राशि में) हों, तो जातक को इन ग्रहों की दशा भुक्ति में गंगा स्नान की प्राप्ति होगी।
व्याख्या – गुरु और शनि की युति दशमेश और नवमेश की युति होगी और वह भी धर्म स्थान में। नवम भाव की भाँति दशम भाव भी धर्म-कर्म का भाव है । अतः पारस्परिक धार्मिक प्रभाव के कारण शुभ यज्ञीय फल होगा, जो गंगा स्नान आदि धार्मिक कृत्य देगा ।
10. मिथुने जायमानस्य बुधो लाभस्थितो यदि । ज्येष्ठभ्रातृ विरोधस्तु जातकस्य भवेध्रुवम् ॥ १० ॥
भावार्थ – यदि बुध एकादश भाव में (मेष में) हो, तो जातक का निश्चय ही अपने बड़े भाई से विरोध होगा ।
व्याख्या – मंगल बुध को अपना शत्रु समझता है, इसलिए लग्नेश बुध जब जातक के निज (Self) का प्रतिनिधि होता हुआ मेष राशि में स्थित होगा, तो वह एकादश स्थान में पीड़ित होगा । एकादश स्थान चूंकि बड़े भाई का है, यह शत्रु स्थिति बड़े भाई से विरोध उत्पन्न करेगी।
स्मरण रहे कि यह विरोध बड़े भाई की ओर से होगा, क्योंकि बुध तो एकादश में जाकर एकादश (बड़े भाई) की सेवा में अथवा उसके अधीन है। पहल (Initiative) तो मंगल (एकादशेश) बड़े भाई की ही होगी ।

कन्या लग्न
1. कन्यालग्ने तु जातस्य भृगोश्चन्द्रस्य वा यदि । संबन्धो यदि विद्येत रवेदार्ये धनागमः ॥ १ ॥
भावार्थ – यदि कन्या लग्न में जन्म हो और सूर्य तथा शुक्र का अथवा सूर्य तथा चन्द्र का युति आदि द्वारा संबंध हो, तो सूर्य अपनी दशा में धनी बनाता है ।
व्याख्या – पाराशरीय नियमों के अनुसार द्वादश भाव का स्वामी उस ग्रह का फल करेगा, जिसके साथ वह स्थित होगा, अतः यहाँ सूर्य द्वादशेश होकर जव शुक्र से संबन्ध बनावेगा, तो द्वितीय भाव का शुभ आर्थिक फल देगा और जब चन्द्र से संबंधित होगा, तो भी लाभेश चन्द्र का शुभ धनप्रद फल करेगा ।
2. शुक्रदाये च संप्राप्ते धनहीनो भवेन्नरः । चन्द्रदाये च संप्राप्ते मिश्रायोगं समश्नुते ॥ २ ॥
भावार्थ – गत श्लोक ही के संबन्ध में कहते हैं कि जब सूर्य युक्त शुक्र की दशा होगी, तो जातक के धन की हानि होगी और सूर्य युक्त चन्द्र की दशा में मिश्रित फल होगा ।
व्याख्या – शुक्र एक पापी और शत्रु सूर्य द्वारा पीड़ित होने के कारण धन की हानि करेगा (द्वितीयेश होने से), परन्तु चन्द्र अपनी दशा में मिश्रित फल करेगा, क्योंकि यद्यपि सूर्य चन्द्र को भी पीड़ित करेगा, परन्तु उसका मित्र होने के कारण शुभ फल भी करेगा ।
3. चन्द्रशुक्रौ सप्तमस्थौ लाभस्थो यदि वा गुरु । मेषे रविर्गुरोर्दाये शुक्रदाये समागमे ॥
चतुश्रः पञ्चमा जीवकळत्राणि न संशयः । कन्यायां जायमानस्य राजतुल्यस्य कामिनः ॥ ३,४ ॥
भावार्थ – कन्या लग्न में जन्म हो, चन्द्र और शुक्र सप्तम भाव में हो, गुरु एकादश में हो और सूर्य अष्टम में, तो जातक को गुरु तथा शुक्र की दशा में चार अथवा पाँच जीवित पत्नियों की प्राप्ति होगी । ऐसा व्यक्ति उच्च-स्तरीय स्त्रियों से संबन्धित होगा।
व्याख्या – सप्तम स्थान में सम (Even) राशि में (जोकि स्त्री राशि है) दो स्त्री ग्रह शुक्र और चन्द्र स्थित हैं, इसलिए सप्तमेश स्त्री बाहुल्य का प्रतिनिधि होने के नाते ही स्त्री बन गया और फिर प्राप्ति (एकादश) स्थान में उसकी स्त्री राशि स्थिति उन स्त्रियों की संख्या में वृद्धि करती है । पुनश्च गुरु उसी सप्तम भाव को देखते हुए उस पर वही स्त्री प्रभाव डालता है ।

इस प्रकार बहुत स्त्री ग्रहों का सप्तम और लाभ भाव से संबन्ध होने के कारण एक ही समय में बहुत स्त्रियों की प्राप्ति युक्तियुक्त है । लाभेश और सप्तमेश का व्यत्ययः (Exchange) भी स्त्री बाहुल्य एक कारण है । गुरु इसलिये भी स्त्री है कि वह दो स्त्री भावों अर्थात् चतुर्थ (माता) और सप्तम (जाया) का स्वामी है।
5. कन्यायां जायमानस्य गुरुशुक्रौ चतुर्थगौ । गुरुशुक्रदशाकाले योगदो भवति ध्रुवम् ॥ ५ ॥
भावार्थ – यदि गुरु और शुक्र धनु राशि में चतुर्थ भाव में स्थित हों, तो गुरु और शुक्र अपनी दशा काल में शुभ फल करते हैं ।
व्याख्या – शुक्र कन्या लग्न के लिये शुभ भी है और त्रिकोण का स्वामी भी । इसकी केन्द्रेश गुरु से युति राजयोग उत्पन्न करेगी।
6. कन्यायां जायमानस्य शनिर्लाभस्थितो यदि । शनेदये च संप्राप्ते योगयुक्तो भनेन्नरः ॥ ६ ॥
भावार्थ – यदि शनि कर्क राशि में एकादश भाव में स्थित हो, तो अपनी दशा में धनादि शुभ फल देता है ।
व्याख्या – शनि की मूल त्रिकोण राशि कुंभ छठे भाव में पड़ती है, अतः शनि बुरे भाव का स्वामी हुआ। वह चूँकि छठे से छठे भाव में स्थित है और शत्रु राशि में भी इसलिए वह छठे भाव के लिए बुरा फल करेगा। जिसका अर्थ है विपरीत राजयोग की प्राप्ति अर्थात् शुभ फल की प्राप्ति, क्योंकि बुरों का पीड़ित होना सुखप्रद होता है ।
भावार्थ रत्नाकर
- मेष लग्न | वृश्चिक लग्न
- वृषभ लग्न | तुला लग्न
- मिथुन लग्न | कन्या लग्न
- कर्क लग्न | सिंह लग्न
- धनु लग्न | मीन लग्न
- मकर लग्न | कुंभ लग्न
- अध्याय 2 | धन योग | विद्या | खान-पान
- अध्याय 3 भ्रातृ-भाव |अध्याय 4 वाहन तथा भाग्य | अध्याय 5 शत्रु और रोग
- अध्याय 6 स्त्री और काम | अध्याय 7 आयु और स्वास्थ्य
- अध्याय 8 भाग्य योग | अध्याय 9 राज योग
- अध्याय 10 तीर्थ स्नान | अध्याय 11 मृत्यु योग
- अध्याय 12 दशा के परिणाम
- अध्याय 13 साधारण योग | अध्याय 14 ग्रहमालिका योग | अध्याय 15 ग्रहों का आधिपत्य आदि
- नियम अध्याय
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