कालसर्प योग किसे कहते हैं?

सामान्यतः जन्मकुण्डली के सारे ग्रह जब राहु और केतु के बीच में कैद हो जाते हैं, तो उस ग्रह स्थिति को ‘कालसर्प योग’ कहते हैं। राहु सर्प का मुख माना गया है और केतु इस सर्प की पूंछ। काल का अर्थ ‘मृत्यु’ है। यदि अन्य ग्रहयोग बलवान न हों तो कालसर्प योग में जन्मे जातक की मृत्यु शीघ्र हो जाती है। यदि जीवित रहता है तो मृत्यु-तुल्य कष्ट भोगता है। ज्योतिष शास्त्र में इस योग के प्रति मान्यता प्रायः अशुभ फलसूचक ही है।

सर्प का इस योग से सम्बन्ध

सर्प का भारतीय संस्कृति से अनन्य सम्बन्ध है। भारतीय वाङ्मय में विषधर सर्पों की पूजा होती है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार सर्प को मारना उचित नहीं समझा जाता तथा यत्र-तत्र उनके मन्दिर बनाए जाते हैं।

ज्योतिष शास्त्रानुसार नागपंचमी, भाद्रकृष्ण अष्टमी तथा भाद्रशुक्ल नवमी को सर्पों की विशेष पूजा का प्रावधान है। पुराणों में शेषनाग का वर्णन है जिस पर विष्णु भगवान शयन करते हैं। वह भी एक सर्प हैं। सर्पों को देव योनि का प्राणी माना जाता है।

बहुचर्चित कालसर्प योग मूलत: कहाँ से आया? फलित ज्योतिष में इसकी शुरुआत कहां से हुई? इसके प्रवर्तक, प्राचार्य कौन थे? कालसर्प योग का प्रभाव होता भी है या नहीं ? जातक की कुण्डली देखते समय हमें इस योग पर विचार करना चाहिए या नहीं? ये सभी प्रश्न एक ज्योतिष प्रेमी जिज्ञासु के सामने उपस्थित होते हैं जिसका समाधान आज के वैज्ञानिक युग में नितान्त अनिवार्य है। आइए, हम सब लोग मिलकर इस पर विचार करें।

राहु-केतु का सर्पयोग से सम्बन्ध

पौराणिक मत के अनुसार ‘राहु’ नामक राक्षस का मस्तक कट कर गिर जाने पर भी वह जीवित है एवं केतु उसी राक्षस का धड़ है। राहु और केतु एक ही शरीर के दो अंग हैं। चुगली खाने के कारण सूर्य-चन्द्र को ग्रहण कर ग्रसित कर, सृष्टि में भय फैलाते हैं। ज्योतिष में राहु को ‘सर्प’ कहा गया है और केतु उसी सर्प की पूंछ है।

विक्रम की 16वीं शताब्दी में मानसागर नामक एक विद्वान हुए जिन्होंने फलित ज्योतिष के पूर्वाचार्यों के श्लोकों को संकलित कर ‘मानसागरी’ नामक सुन्दर ग्रन्थ की रचना की। उन्होंने अरिष्टयोगों पर चर्चा करते हुए अध्याय 4, श्लोक 10 में लिखा-

लग्नाच्च सप्तमस्थाने शनि राहु संयुतौ। सर्पेण बाधा तस्योक्ता शय्यायां स्वपतोपि च ॥

अर्थात् सातवें स्थान में यदि शनि सूर्य व राहु की युति होती है तो पलंग (शय्या) पर सोते हुए व्यक्ति को भी सांप काट जाता है।

फलित ज्योतिष पर निरन्तर अध्ययन अनुसंधान करने वाले आचार्यों ने जब देखा कि सर्प के मुखपुच्छ अर्थात् राहु-केतु के मध्य सारे ग्रह अवस्थित हों तो जातक का जीवन ज्यादा कष्टमय रहता है, तो इसे ‘कालसर्प योग’ की संज्ञा दे दी होगी। वस्तुतः कालसर्प योग ‘सर्पयोग’ का ही परिष्कृत स्वरूप है।

कालसर्प योग की प्राचीनता

महर्षि पराशर ने फलित ज्योतिष में ‘सर्पयोग’ की चर्चा करते हुए कहा कि सूर्य, शनि व मंगल – ये तीनों पापग्रह यदि तीन केन्द्र स्थानों में 1/4/7/10 में हों और शुभग्रह केन्द्र से भिन्न स्थानों में हो तो ‘सर्पयोग’ की सृष्टि होती है।

बृहत्पाराशर के अनुसार ‘सर्पयोग’ में जन्म लेने वाला व्यक्ति कुटिल, क्रूर, निर्धन, दुःखी, दीन एवं पराए अन्न पर निर्भर रहने वाला जातक होता है।

इस योग को वराहमिहिर द्वारा भी अपने ग्रन्थों को उद्धृत किया गया। काल ने करवट ली। ईसा की आठवीं शताब्दी में आचार्य कल्याणवर्मा ने सर्पयोग की परिभाषा में संशोधन किया। उन्होंने अपने दिव्यग्रंथ ‘सारावली’ में स्पष्ट किया (अध्याय 11, पृष्ठ 154) कि प्रायः सर्प की स्थिति पूर्ण वृत न होकर वक्र की रहती है। अतः तीन केन्द्रों तक में ही सीमित सर्पयोग की व्याख्या उचित प्रतीत नहीं होती। उनका मानना था कि चारों केन्द्र, या केन्द्र व त्रिकोणों से वेष्ठित पापग्रह की उपस्थिति भी ‘सर्पयोग’ की सृष्टि करती है।

जांतकतत्त्वम् जातकदीपक, ज्योतिष रत्नाकर, जैन ज्योतिष के अनेक प्राचीन ग्रंथों में कालसर्प योग के दृष्टान्त मिलते हैं।

शापित जन्म कुण्डलियाँ

फलित क्षेत्र में काम करने वाले ज्योतिषियों के पास कई बार ऐसी जन्म कुण्डलियां आती हैं जिनकी ग्रह स्थिति तो बहुत ही उत्तम है। योगायोग भी श्रेष्ठ हैं पर उसके अनुपात में जातक की उन्नति कुछ भी नहीं। आप ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे ये कुण्डलियां प्राय: शापित होती हैं।

बृहत्पाराशर में 14 प्रकार के शाप बताए हैं। उनमें से पितृशाप, प्रेमशाप, ब्राह्मणशाप, मातुलशाप, पत्नीशाप, सहोदरशाप, सर्वशाप प्रमुख हैं। इन शापों के कारण व्यक्ति की उन्नति नहीं होती, उसे पुरुषार्थ का फल नहीं मिलता। उसकी सन्तान जीवित नहीं रहती। महर्षि भृगु ‘भृगुसूत्र’ के आठवें अध्याय, श्लोक 1-12 में लिखते हैं कि यदि लग्न से पंचम भाव में राहु हो तो व्यक्ति को सर्प के शाप से पुत्र का अभाव रहता है तथा नाग की प्रतिष्ठा करने से पुत्र की प्राप्ति होती है।

शापित जन्मकुण्डलियों में त्रिशूलयोग के आधार पर कालसर्प योग का प्रचलन बढ़ा क्योंकि शापित जन्मपत्रिकाएं और कालसर्प योग की जन्मपत्रिकाओं में बहुत सा साम्य मिलता है।

सर्पशाप से ग्रसित कुण्डलियां

प्रसंगवश कालसर्प योग की भांति ही सर्पशाप से ग्रसित कुण्डलियों का विवेचन करना आवश्यक समझता हूँ। वैसे तो 14 प्रकार से श्रापित कुण्डलियों की शान्ति कालसर्प योग विधि से हो जाती है। केवल संकल्प के समय उच्चारण में पाठान्तर होता है परन्तु सर्पशाप से ग्रसित जन्मपत्रिकाओं की निवृत्ति भी कालसर्प योग विधि से ही होती है।

योगायोग

1. पंचम भाव में राहु हो, मंगल उसे देखता हो।

2. पंचम स्थान में शनि हो, पंचमेश राहु से युत हो तथा चन्द्रमा उसे देखता हो।

3. पंचमेश मंगल (कर्क या धनु लग्न) हो, पंचम भाव में राहु शुभग्रहों से दृष्ट न हो।

4. पंचमेश मंगल (कर्क या धनु लग्न) हो, मंगल अपने ही नवमांश में हो या पंचमभाव में हो, पंचमस्थ राहु या अन्य पापग्रह हो ।

5. गुरु मंगल से युत हो, लग्नेश राहु से युत या लग्न में राहु हो, पंचमेश त्रिकस्थानों (6, 8, 12) में हो।

6. पुत्रकारक गुरु राहु से युक्त हो तथा पंचमभाव शनि से दृष्ट हो।

7. कर्क या धनु लग्न में पंचमस्थ राहु बुध से युत या दृष्ट हो।

8. पंचमस्थान में सूर्य, मंगल, शनि अथवा राहु हो तथा पंचमेश और लग्नेश दोनों बलहीन हों।

9. लग्नेश राहु से युत, पंचमेश मंगल से युत तथा गुरु राहु से दृष्ट हो।

10. अनुभव में ऐसा आया है कि राहु गुरु की युति जन्मपत्रिका में कहीं भी हो तो सर्प के शाप से सन्तति जीवित नहीं रहती चन्द्रमा से राहु केतु आठवें स्थान में हो तो वह पत्रिका पूर्व जन्मकृत शाप की समझनी चाहिए। ऐसे में जातक को कालसर्प योग की शान्ति से बड़ा लाभ मिलता है।


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