संतान और संतान सुख

विवाह की सार्थक परिणति संतान है। अधिकतम मामलों में ऐसा होता भी है। मगर कुछ दंपती संतान का सुख नहीं भोग पाते हैं। चिकित्सकीय भाषा में कहना चाहिए कि ये लोग शारीरिक दृष्टि से संतान प्राप्ति के योग्य नहीं होते । बिना किसी आधुनिक जांच के ज्योतिष द्वारा बताया जा सकता है कि व्यक्ति के जीवन में संतान प्राप्ति के योग हैं या नहीं ?

जिन लोगों को चिकित्सकों ने शारीरिक स्थिति के प्रतिकूल होने के कारण संतान न होने की घोषणा की है, उन्हें एक बार अपने जन्मांगों और हथेली की रेखाओं को अच्छे दैवज्ञ को अवश्य दिखाना चाहिए। इस प्रकार आप यह जान सकेंगे कि आपके जन्मांग में संतान प्राप्ति में बाधक योग कौन-सा है। कुछ मामलों में ज्योतिषीय उपायों का अच्छा लाभ मिलता है ।

संतान और संतान सुख

मेरी दृष्टि में संतान का न होना और संतान सुख न होना दोनों समान स्थितियां हैं। जिन दंपतियों के संतान नहीं हैं, वे उन दंपतियों के समान ही जीवन व्यतीत करते हैं, जिनको संतान सुख नहीं है। हालांकि वे कई-कई संतानों के माता-पिता हैं। तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए, तो वे लोग ज्यादा सुखी हैं, जिनको संतान नहीं है।

आपने भी प्रत्यक्ष देखा होगा कि कुछ लोग संतान होने के बावजूद वृद्धावस्था में नारकीय जीवन जीते हैं, क्योंकि वे अयोग्य संतान के अभिभावक हैं। बड़े शहरों में अनाथालयों की तर्ज पर वृद्धाश्रमों का होना अपने आप में संतान सुख न होने का ही प्रमाण है ।

इतना सब कुछ वर्णन करने का तात्पर्य यही है कि संतान होना या न होना संतान सुख से संबंध नहीं रखता है। संतान होने के बावजूद भी आप निःसंतानों से भी बदतर जीवन जीने को विवश हो सकते हैं। यहां तक स्थिति आ सकती है कि निःसंतानों से आप ईर्ष्या करने लगें। आप इतना समझ लें कि संतान होने का अर्थ संतान सुख नहीं है।

फलित ज्योतिष ने इस स्थिति को भली-भांति समझा है । यही कारण है कि ज्योतिष में संतान सुख होने या न होने के अनेक योग मिलते हैं ।

संतान से संबंधित भाव

पंचम भाव को संतान का भाव कहा गया है और पंचम से पंचम होने के कारण नवम भी संतान का ही भाव कहलाता है। यही कारण है कि संतान का विचार करने के दौरान नवम पर विचार करने के निर्देश शास्त्रों में मिलते हैं। सर्वप्रथम पंचम भाव पर ही विचार करना चाहिए। पंचम के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी है कि आचार्यों ने पंचम को संतान के भाव के स्थान पर पुत्र भाव का नाम दिया है। इस तथ्य को समझना बहुत आवश्यक है। इससे संतान के लिंग के संबंध में सहायता मिलती है।

जैसा कि पाठक जानते हैं कि ग्रहों और भावों की दो श्रेणियां हैं। जैसे शुक्र, चंद्रमा, बृहस्पति और बुध शुभ ग्रह हैं और शेष पाप ग्रह । इसी प्रकार लग्न, पंचम, नवम और एकादश भाव शुभ हैं और दूसरे भाव अपेक्षाकृत अशुभ । पाप ग्रह हमेशा भाव को हानि पहुंचाते हैं। यही सिद्धांत पंचम भाव पर भी लागू होते हैं।

यदि पंचम पर पाप प्रभाव हो, तो या तो संतान की प्राप्ति नहीं होती है या फिर संतान का सुख नहीं मिलता है। दोनों लगभग समान स्थितियां हैं। संतान के न होने और संतान सुख न होने के मध्य में अंतर करने वाली रेखा बहुत सूक्ष्म है। दीर्घ अनुभव के उपरांत ही इस पर अधिकार प्राप्त कर पाना संभव है। यहां जो बताया जा रहा है, उसे पाठकों को संतान सुख में बाधक योगों के रूप में ग्रहण करना चाहिए ।

संतान सुख में बाधक योग

नीचे कुछ योग दिए जा रहे हैं। इनके आधार पर पाठक सामान्यतया संतान के संबंध में मोटा आकलन कर सकेंगे। निम्न योगों को संतान प्रतिबंधक योग समझना चाहिए। अर्थात् इन योगों के जन्मांग में उपस्थित रहने पर संतान नहीं होती है, विलंब से होती है, बाधा के साथ होती है या संतान होने पर भी संतान सुख नहीं मिलता है-

  1. जब पंचमेश अस्त, नीचगत, अष्टमस्थ या चतुर्थस्थ हो ।
  2. पंचम और नवम में पाप ग्रह हों ।
  3. एकादश में शुभ ग्रहों का अभाव हो ।
  4. पंचम और पंचमेश पर शनि का प्रभाव हो ।
  5. पंचम में दो से अधिक पाप ग्रह हों, जो कि स्वग्रही न हों।
  6. दोनों लग्न (उदय और चन्द्र) और बृहस्पति से पंचम में पाप ग्रह होने पर संतान प्राप्ति कठिनाई से होती है।
  7. संतान कारक बृहस्पति के पाप प्रभावित रहने, शत्रुगत या अष्टमस्थ होने से भी संतान बाधा के दूसरे अशुभ योग अधिक तीव्रता से अपना प्रभाव डालते हैं।
  8. यदि मंगल पंचमस्थ हो, तो निश्चित रूप से अनिष्ट करता है। फिर चाहे मंगल मेष, वृश्चिक या अपनी उच्च राशि मकर में ही क्यों न स्थित हो । मंगल के पंचमस्थ होने के बाद साधारण संतान बाधक योग भी अपना पूर्ण फल देते हैं।

यद्यपि पंचमस्थ मंगल अनिष्टकारी होता है, लेकिन केवल मंगल के आधार पर ही किसी निर्णय पर नहीं पहुंचना चाहिए। अनुभव में आता है कि मंगल के पंचम में होने पर कई बार गर्भपात होता है, लेकिन यदि बृहस्पति और पंचमेश बलवान हो, तो अकेला मंगल कुछ गर्भपातों के बाद संतान देता है।

संतान और संतान सुख
कुंड्ली संख्या-1

कुंड्ली संख्या-1 देखें। यह एक स्त्री का जन्मांग है, जो निःसंतान रही। पंचमेश मंगल है, जो मृत्यु के स्थान अष्टम में है। पंचमेश पंचम से चतुर्थ है। पंचम से पंचम का स्वामी भी अपने भाव से चतुर्थ और लग्न से द्वादश है। चंद्रमा से पंचमेश भी द्वादश है।

आरंभ के अध्याय में बताया गया है कि शनि जब भाव और भावेश दोनों को प्रभावित करे, तो निश्चित ही भाव को क्षति पहुंचती है। एकादशस्थ शनि की पंचम और पंचमेश मंगल पर संयुक्त दृष्टि है। किसी भी शुभ ग्रह की पंचम पर दृष्टि नहीं है। यद्यपि कुछ सूक्ष्म कारण भी हैं, जो कि जातिका को निःसंतान बना रहे हैं, लेकिन सामान्य फलित के लिए उपरोक्त कारण पर्याप्त है। पिछले अध्यायों में मैं सहज फलित करने के जो सूत्र बता चुका हूं, वे अक्षरशः इस प्रमाण में सिद्ध हो रहे हैं ।

पाठक पुनः स्मरण कर लें कि जिस भाव का स्वामी शुभ भावगत न हो, भाव पर शुभ ग्रहों की दृष्टि न हो और भाव पर पाप प्रभाव हो, तो भाव के शुभ फल नष्ट हो जाते हैं या शुभ फलों की प्राप्ति में विलंब होता है । जैसा कि कुंड्ली संख्या-1 में स्पष्ट है ।

जैसा कि पाठक जानते हैं, ग्रहों की पाप और शुभ दो श्रेणियां हैं। सूर्य, पक्षबल से हीन चंद्रमा, मंगल, शनि और राहु ये पाप ग्रह हैं । इनके अलावा शेष शुभ ग्रह हैं। उपरोक्त नैसर्गिक शुभाशुभ स्थिति है । तत्कालीन आधार पर भावों के अनुसार ग्रहों के पाप-शुभ का निर्णय किया जाता है। कुछ विद्वान मानते हैं कि नैसर्गिक शुभ या पाप ग्रहों की अपेक्षा तत्कालीन शुभ या पाप ग्रह अधिक प्रभावी होते हैं । इसके बावजूद सभी एकमत हैं कि ग्रह अपने नैसर्गिक शुभ या पाप प्रभाव को पूर्णतः छोड़ नहीं पाता है। नैसर्गिक पाप ग्रह कितना सटीक फल करते हैं, इसको कुंड्ली संख्या-2 में देखें।

कुंड्ली संख्या-2

अंशात्मक बल से हीन कर्क लग्न के इस जन्मांग में पंचमस्थ वृश्चिक राशि है। राशियों में वृश्चिक को विध्वंसक (विनाशकारी) राशि माना गया है। यदि इस राशि पर शुभ प्रभाव न हो, जैसा कि उदाहरण कुंडली में स्पष्ट है, तो यह जिस किसी भाव में स्थिति हो, उसके शुभ फलों को नष्ट कर देती है या शुभ फल न्यूनतम ही प्राप्त होते हैं।

प्रस्तुत जन्मांग में वृश्चिक राशि पंचमस्थ है और किसी भी शुभ ग्रह की इस पर दृष्टि नहीं है। पंचम में तीन नैसर्गिक पाप ग्रह राहु, मंगल और शनि पड़े हैं। जब तीन पाप ग्रह एक ही भावगत हों, तो निश्चित रूप से स्थान हानि करते हैं।

पाठकों को स्मरण होगा कि शनि जब भाव और भावेश दोनों को संयुक्त रूप से प्रभावित करें, तो फलों में विलंब होता है। यहां शनि ने पंचमेश मंगल और पंचम भाव दोनों को अपने पापत्व में ले रखा है। पंचम से पंचम के स्वामी बृहस्पति पर भी शनि की पूर्ण दसवीं दृष्टि है। इस प्रकार पंचम भाव तो नष्ट हो ही गया है, साथ ही वीर्य का कारक शुक्र अष्टम में है और संतान का कारक बृहस्पति सूर्य की राशि और केतु के नक्षत्र में है । बृहस्पति के लिए सिंह राशि अच्छी नहीं मानी गई है। इन सब योगों का प्रभाव रहा कि जातक को संतान प्राप्ति नहीं हुई ।

संतान के संबंध में निर्णय के लिए पंचम, पंचम से पंचम, बृहस्पति और शुक्र के बलाबल का संयुक्त आकलन करना चाहिए ।

संतान का लिंग निर्धारण

संतान के संबंध में यह लोकप्रिय प्रश्न है कि संतान लड़के होंगे या लड़कियां? ज्योतिष के माध्यम से इसका निर्णय आसानी से किया जा सकता है। पंचम भाव में स्त्री ग्रह और स्त्री राशि का आधिक्य होने पर लड़कियां अधिक होती हैं। इसके विपरीत पुरुष ग्रह और राशि होने पर नर संतान अधिक होगी। ग्रहों और राशियों का लिंग निर्धारण निम्न प्रकार से है :

पुरुष ग्रह : सूर्य, मंगल और बृहस्पति

स्त्री ग्रह : चंद्रमा, शुक्र और राहु

नपुंसक ग्रह : बुध, शनि और केतु

पुरुष राशियां : मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु और कुंभ

स्त्री राशियां : वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर और मीन

ग्रहों और राशियों की प्रकृति के अनुसार निर्णय करना चाहिए। इसके बाद पंचमेश के बलाबल को देखना चाहिए। प्रायः बृहस्पति पुरुष नवांश में हो, तो नर संतान होती है। पंचमेश यदि पुरुष नवांश में और बली हो, तो भी नर संतान का ही आधिक्य रहता है।

कुंड्ली संख्या-3

कुंड्ली संख्या-3 की कुंडली के जातक को लगातार तीन संतानें लड़कियां हुईं। कुंडली में इसके स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं।

पंचमेश शनि स्वयं स्त्री ग्रह है और पंचम पर पूर्ण स्त्री ग्रह शुक्र और चंद्रमा की पूर्ण दृष्टि है। चंद्रमा से पंचमस्थ भी शनि है। पंचमेश शनि पर किसी भी शुभ और पुरुष ग्रह की दृष्टि नहीं है। इन सबके बावजूद द्वितीय भाव में बृहस्पति की उपस्थिति के कारण चौथी संतान के रूप में पुत्र प्राप्त हुआ। पंचमेश शनि भी बृहस्पति की राशि धनु में है। ये लोग विलंब से पुरुष संतान होना व्यक्त करते हैं ।

संतान कब होगी

संतान का निर्णय करने से पूर्व इच्छुक व्यक्ति के विवाह के संदर्भ में जानकारी कर लेनी चाहिए। एक सामान्य दृष्टि से मानना चाहिए कि विवाह के दो से तीन वर्षों के मध्य पहली संतान होती है । यह तरीका व्यावहारिक ज्योतिष का एक अंग है । यदि संतान की भविष्यवाणी करने से पूर्व जातक के विवाह के बारे में जानकारी प्राप्त नहीं करते हैं, तो संभव है कि हम किसी कुंवारे के संबंध में संतान होने की घोषणा कर बैठें। संतान के होने के संबंध में हम जो भी योग देख रहे हैं, उनमें विवाह के बाद के योगों को प्रबल समझना चाहिए । निम्नांकित कुछ योगों को ध्यान में रखना चाहिए।

  • पंचमेश जब लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ या द्वादश में हो, तो विवाह के बाद जल्दी संतान होती है।
  • मंगल और शनि का पंचम पर प्रभाव विलंब से संतान देता है ।
  • पंचमेश की दशा या अंतर्दशा में संतान प्राप्ति होती है।
  • पंचमेश जिस राशि के नवांश में हो, उसमें जब बृहस्पति गोचरस्थ हो, तब संतान प्राप्ति होती है ।

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