नव ग्रहों के कारकत्व
किसी विषय का भावों के अनुसार आकलन कर चुकने के पश्चात्, उस विषय के कारक ग्रह की शुभाशुभ स्थिति का विचार भी कर लेना चाहिए। फलित के सामान्य नियमों के अनुसार भाव और भावेश को प्रधानता दी जाती है ।
दूसरा स्थान कारक ग्रह का है। मैंने बहुत से जन्मांगों में अनुभव किया है कि कारक ग्रह की शुभ स्थिति संबंधित विषय या जीवन के पहलू को अधिक सरस और सकारात्मक बनाती है।
इसे आप इस प्रकार समझें कि शुक्र सप्तमेश हो या न हो, यदि वह जन्मांग में सशक्त और शुभ स्थिति में है, तो उसका हमेशा प्रयास रहेगा कि वह जीवन साथी के संबंधों में मधुरता और सामंजस्य बनाए रखे। यह शुक्र का प्राकृतिक या ज्योतिष की भाषा में नैसर्गिक गुण है ।
इसे ही कारकत्व कहा जाता है। कारकत्व ठीक वैसा ही है, जैसे कि एक साधारण मनुष्य अपनी आदतों या गुणों को अपने व्यवहार में प्रकट करने से बच नहीं सकता है।
सूर्य : सूर्य महत्त्वाकांक्षा और सत्ता का प्रतीक है। इसलिए विद्वानों की राय है कि जो व्यक्ति असामान्य रूप से समृद्ध और शक्तिशाली है, उसके सूर्य लग्न को देखना चाहिए।
सूर्य से प्रधानतः स्वर्ण, शस्त्र, औषधि, लकड़ी, सुख, यश, प्रताप, शूरता, तेजस्विता, आत्मा, राज- सहायता, पिता, रोजगार, सिर के रोग, पूर्व दिशा, तांबा, हवनकार्य, शत्रुता, आरोग्यता, धन, अपचन, अतिसार, नेत्ररोग, आरोहण, यात्रा और उष्णता का विचार करना चाहिए ।
चंद्र : चंद्रमा मन का कारक है। यह स्त्री ग्रह है । मूलतः चंद्रमा से मानसिक शक्ति का विचार करना चाहिए। स्त्री रोग, सर्दी के रोग, खांसी, जलीय-रोग, फेफड़ों के रोग, शंकाएं, श्वेत रंग, चांदी, जलीय-पदार्थ, चेहरे की चमक, देवी पूजा, वायव्य-दिशा, बुद्धि, माता, कल्पना-शक्ति, कविता, वस्त्राभूषण, घी, निद्रा, कल्याण, मोती, चीनी, दूध और इससे बने पदार्थ, समुद्रपारीय यात्राएं, स्फटिक, श्वेत वस्त्र, मधु, नमक, मुहूर्त और रूप लावण्य का विचार भी चंद्रमा से करना चाहिए ।
मंगल : मंगल को उन कार्यों या वस्तुओं का कारक मानना चाहिए, जिनमें शारीरिक बल की प्रधानता हो । मंगल रक्त का भी प्रतिनिधित्व करता है। यही कारण है कि मंगल जब गोचर में प्रतिकूल हो, तो शरीर से रक्तस्राव होता है। ऑपरेशन की संभावना भी बन सकती है । चिकित्सा विज्ञान की चीर-फाड़ शाखा (Surgery) का विचार मंगल से करना चाहिए ।
उपरोक्त के अलावा तर्क-वितर्क, शस्त्र, राज, चोरी, शत्रुता, क्रोध, अग्नि, दंगा-फसाद, अंगों का कटना-फटना, मांसाहार, पराक्रम, सेना, पुलिस, सुरक्षा-संस्थाएं, दक्षिण-दिशा, मानसिक-स्थिरता, क्रूरता, मिथ्या भाषण, सहोदर, स्वतंत्रता, दंडाधिकार, लाल रंग के फल और दूसरी वस्तुएं, सोना, तांबा, भूमि, रोग, जाति, पतन, राजा, पित्त प्रकृति और पापादि बातों का विचार भी मंगल से करना चाहिए ।
बुध : सूर्य के मंत्रिमंडल में बुध को राजकुमार की पदवी प्राप्त है । यही कारण है कि कुमार अवस्था का विचार बुध से किया जाता है। बुध को विद्या का भी कारक माना जाता है। विद्या प्राप्ति के योग में द्वितीय, चतुर्थ और पंचम के साथ बुध विचार भी किया जाता है ।
कोष, वाणी, उत्तर दिशा, उद्यान, व्याकरण, व्यवसाय, व्यावहारिकता, गणित, विद्वता, कला- बुद्धि, मित्र, मामा, युवराज, बंधु, आमोद-प्रमोद, श्याम-वर्ण, ज्योतिष, हरे रंग के वस्त्र और दूसरी वस्तुएं, लेखन, वाणिज्य, खाते लिखने का कार्य, वाक्पटुता, व्याख्यान देना, कांसी, पशु-पक्षी, शिल्प, दिल्लगी, जीभ, तालु, वातरोग, कुष्ठरोग, नपुंसकता, त्वचा रोग, आलस्य, प्रशिक्षण, मंदिर, पूजा-कार्य, विवेक और वचन का विचार बुध से करना चाहिए ।
बृहस्पति : बृहस्पति को देवों के गुरु की संज्ञा प्राप्त है । यह विवेकशीलता, महत्त्वाकांक्षा और नेतृत्व क्षमता का कारक है । बृहस्पति की शुभता के कारण इसे मुहूर्त ज्योतिष में गणना के योग्य माना गया है। उल्लेखनीय है कि मुहूर्त ज्योतिष में सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति को ही महत्त्व दिया जाता है ।
उपरोक्त के साथ शिक्षण, धन, यश, प्रसिद्धि, गुरुजन, पति, ज्येष्ठ भ्राता, दादा, संतान (विशेषतः पुत्र), मित्र, ईशान दिशा (उत्तर-पूर्व), वेदांत, सरकारी-प्राप्तियां, गोलाकार वस्तुएं, पीले धान्य या अनाज, पारिवारिक सुख, काव्य, राजनीति, यज्ञ, सात्विकता, स्वर्णाभूषण, आयु, धर्म, व्यवसाय, पुखराज, पुरुष जाति, गृह, बौद्धिक शक्ति, ज्ञान, उन्नति, आचरण, ब्राह्मण सेवा, दया दान, सम्मान, प्रारंभिक शिक्षा, प्रौढ़-शिक्षा, गर्भ, रत्नादि, गौरव, न्याय और विचारशीलता, कफ प्रकृति एवं सूजन का कारक भी बृहस्पति ही है ।
शुक्र : शुक्र मूलतः सौंदर्य और स्त्री का कारक है। कल्पना शक्ति के व्यावहारिक उपयोग का विचार शुक्र से करना चाहिए ।
वाहन, वस्त्राभूषण, भवन, सुख, गोरा रंग, श्वेत वस्त्र और दूसरी वस्तुएं, शारीरिक गठन, आकर्षण, नृत्य, चित्रकला, संस्कृति, मनोरंजक कार्यक्रम, अभिनय, सौंदर्य प्रसाधन, दांपत्य सुख, रस, भोग, कोमलता, देवी, लक्ष्मी, ऐश्वर्य, मृदुलता, प्रेम, यौन सुख, स्त्री जाति, नेत्र, कफ, यौन रोग, वीर्य, एलर्जी, विवाह, चांदी, हीरा, स्वर्ण, ज्योतिष विद्या, शयन, कलाएं, प्रारब्ध, खान-पान, आग्नेय दिशा (दक्षिण-पूर्व), राज ठाट-बाट, सुगंध, ससुराल, नमकीन वस्तुएं, सजावट, विपरीत योनि के प्रति आकर्षण और यौन अंगों का विचार भी शुक्र से करना चाहिए ।
शनि : शनि प्रधानतः मोक्ष, गंभीरता और निरंतरता का प्रतीक है। वे सभी क्रिया-कलाप, जिनमें उपरोक्त तत्त्वों की प्रधानता हो, शनि के कारकत्व के अधीन हैं। ग्रह मंत्रिमंडल में शनि को दास की संज्ञा प्राप्त है। शायद यही कारण है कि निम्न श्रेणी के पुरुषों या वे लोग जो नौकरी आदि से धनार्जन करते हैं, का विचार शनि से किया जाता है। शनि प्रधान लोग रहस्यमयी विद्याओं के ज्ञाता होते हैं तथा सिद्धियों के प्रति उनकी विशेष रुचि होती है।
मेरे मत से शनि का प्रधान गुण है-स्थायित्व । शनि यद्यपि विलंब से फल देता है, लेकिन शनि से जो भी प्राप्तियां होंगी, वे स्थायी और दीर्घ होंगी।
उपरोक्त के साथ दुःख, कष्ट, मृत्यु, दासत्व, विकलांगता, नपुंसकता, वृद्धावस्था, आलस्य, आयु, मृत्यु का कारण, अपवित्रता, अपमान, जेल-यात्रा, पाप, दरिद्रता, बीमारी, वात प्रकृति, शरीर का सांवला रंग, मूर्खता, दीक्षा, लोहा, काला रंग और काली वस्तुएं, जीवन-यापन के स्रोत, पश्चिम दिशा, तेल, तामसिक गुण, तंत्र-मंत्र, यंत्र, विषपान, भैंस, कुत्ता, विपदा, नौकरादि, पुरातत्त्व, उदारता, अंग्रेजी भाषा, कार्य में विलंब, कृषि, भ्रमण, भय, बाधाएं और दुर्घटनाओं का कारक भी शनि ही है ।
राहु : राहु को आकस्मिक ग्रह कहा जाता है। अचानक होने वाली घटनाएं, अशुभ फ़ल और पाप कर्मों का विचार राहु से किया जाता है।
उपरोक्त के साथ, भाग्य के आधार पर फलीभूत होने वाले व्यवसाय; जैसे- जुआ, लाटरी, शेयर आदि, दूसरे देशों की यात्राएं, नैर्ऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) दिशा, रेंगने वाले जीव, राजनीतिक सफलता, विलंब, अप्राकृतिक मैथुन, कृष्णवर्ण, बाधाएं, कफ, घृणित रोग, मृत्यु का समय, खांसी, पापाचार, संध्याकाल, माता के पिता, पारिवारिक क्लेश और दांपत्य की विघटनता का विचार भी राहु से किया जाता है।
केतु : केतु को अशुभ ग्रह कहा गया है, किंतु कुछ आचार्य इसे बृहस्पति से भी अधिक शुभ ग्रह मानते हैं । मेरे अनुभव में भी यह तथ्य नहीं आया है कि हम केतु को नैसर्गिक पाप ग्रह सिद्ध कर सकें । यद्यपि इसकी विंशोत्तरी दशा का आरंभ कुछ परेशानियां उत्पन्न करता है। केतु यदि शुभ भावों में स्थित होकर शुभ ग्रहों से युति करता है, तो इसके कारकत्व में शुभता की प्रधानता होती है।
क्षय रोग, तपस्या, आंखें, कमर, ज्वर, घावों में पीड़ा, गर्मीजनित रोग, शत्रुजनित पीड़ा, संन्यास, ध्वजा, एकाग्रता, उपवास, विश्वास, मोक्ष, पालतू पशु, देवपूजा, मंत्र साधना और तीर्थयात्रा का विचार भी केतु से किया जाता है।
भावों के कारक ग्रह
- लग्न का कारक सूर्य है ।
- द्वितीय भाव का कारक बृहस्पति,
- तृतीय भाव का कारक मंगल है।
- चतुर्थ भाव का कारक चंद्रमा और बुध है।
- पंचम भाव का कारक बृहस्पति है ।
- षष्ठ भाव के कारक शनि और मंगल हैं ।
- सप्तम भाव का कारक शुक्र है।
- अष्टम भाव का कारक शनि,
- नवम भाव के सूर्य और बृहस्पति,
- दशम भाव के सूर्य, बुध, गुरु और शनि हैं ।
- एकादश भाव का कारक बृहस्पति है और
- शनि द्वादश भाव का कारक है ।
यद्यपि कारक ग्रह बली हो, तो यह भाव के शुभ फलों में वृद्धि करता है, लेकिन कारक ग्रह उन भावों में स्थित नहीं होने चाहिए, जिनके कि ये कारक हों। जैसे चंद्रमा को चतुर्थ भाव में अशुभ माना जाएगा, क्योंकि बुध के साथ चंद्रमा भी चतुर्थ भाव का कारक है।
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