दशाफल

भारतीय फलित ज्योतिष में अनेक प्रकार की दशाओं का उल्लेख है, लेकिन विंशोत्तरी, अष्टोत्तरी और योगिनी प्रमुख दशा पद्धतियां मानी गई हैं। दक्षिण भारत में अष्टोत्तरी दशा का अधिक प्रचलन है, किंतु समूचे उत्तर भारत में विंशोत्तरी दशा का ही उपयोग प्रमुखता से होता है। यहां हम विंशोत्तरी दशा का ही अध्ययन करेंगे।

विंशोत्तरी दशा चंद्रमा के अंशों पर आधारित है। जैसा कि बताया जा चुका है कि एक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। एक नक्षत्र का मान 13 अंश 20 कला है । जन्म के समय चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है, उस नक्षत्र के स्वामी की दशा में जातक का जन्म माना जाता है।

उदाहरण के लिए यदि किसी बालक का जन्म पुष्य नक्षत्र में होता है, तो उसकी महादशाओं का आरंभ शनि से होगा। क्योंकि शनि इस नक्षत्र का स्वामी है।

दशाए एक निश्चित क्रम से चलती हैं। यदि बृहस्पति की दशा में जन्म होता है, तो बृहस्पति के बाद क्रमशः शनि, बुध, केतु, शुक्र, सूर्य, चंद्रमा, मंगल और राहु की दशा होगी। यही क्रम निरंतर चलता है। यह चक्र 120 वर्षों में पूर्ण होता है। प्राचीन आचार्यों ने मनुष्य की आयु 120 वर्ष आंकी है।

प्रत्येक महादशा में अंतरदशाएं होती हैं। एक महादशा में सभी ग्रहों की अंतरदशाएं होंगी। पहली अंतरदशा दशानाथ की स्वयं की होगी। बाद में निम्न क्रम पुनः दोहराया जाएगा; जैसे- बुध की महादशा में पहला अंतर बुध का ही होगा । बाद में क्रमशः केतु, शुक्र, सूर्य, चंद्र, मंगल, राहु, बृहस्पति और शनि के अंतर होंगे ।

दशाफल

यद्यपि घटनाओं के समय निर्धारण के लिए दशाएं एक बहुत अच्छा माध्यम हैं, लेकिन यह विधि जितनी सरल दृष्टिगोचर होती है, वास्तव में यह इतनी सरल नहीं है । दशाओं से फल जानने का मोटा सिद्धांत यह है कि शुभ ग्रहों की दशाएं हमेशा शुभ फल देंगी और अशुभ ग्रहों की दशाएं संकटकारी सिद्ध होंगी। पढ़ने में यह बहुत आसान है, लेकिन प्रायः ऐसा नहीं होता है।

पहली समस्या तो यही है कि किस ग्रह को शुभ फलदायी मानें और किसको नहीं। इस संबंध में पर्याप्त मतभेद है यद्यपि फलित पर अधिकार होने पर आसानी से निर्णय लिया जा सकता है, लेकिन आरंभ में यह विषय कुछ जटिल है। हालांकि मैं यहां बहुत सहज और सरल विधि का वर्णन करूंगा, किंतु तब भी अनुभव प्रधान है।

नैसर्गिक शुभाशुभ ग्रह

ग्रहों की दो श्रेणियां हैं। बृहस्पति, बुध, शुक्र और पक्षबली चंद्रमा शुभ ग्रह हैं और सूर्य, पक्षबल से हीन चंद्रमा, मंगल शनि, राहु और केतु अशुभ या पाप ग्रह हैं। चंद्रमा और सूर्य के मध्य जितना अधिक अंशात्मक अंतर होगा, चंद्रमा उतना ही शुभ ग्रह या पक्ष बली कहलाएगा।

साधारण भाषा में शुक्ल पक्ष की अष्टमी से कृष्ण पक्ष की सप्तमी तक चंद्रमा को शुभ ग्रह समझना चाहिए। इसी प्रकार कृष्ण पक्ष की अष्टमी से शुक्ल पक्ष की सप्तमी तक का चंद्रमा बलहीन या पाप ग्रह कहलाता है।

यह ग्रहों के नैसर्गिक (Natural) गुण हैं। यहां नैसर्गिक गुणों या स्वभाव का तात्पर्य है कि ग्रहों के वे गुण, स्वभाव जो कि राशियों या भावों से प्रभावित न हुए हों ।

नैसर्गिक शुभ ग्रहों की दशाएं शुभ फल देंगी और नैसर्गिक पाप ग्रहों की दशाएं अशुभ फल देंगी। इसके पीछे यह सोच कार्य करती है कि ग्रह अपने मौलिक और प्राकृतिक स्वभाव से विमुख नहीं होता है। हालांकि अनुभव में यह धारणा मिथ्या सिद्ध होती है। केतु के अलावा दूसरे सभी नैसर्गिक पाप ग्रह शुभ फलों को भी देते हैं, बशर्ते वे शुभ भावों में हों, शुभ राशि में हों, बली हों और शुभ स्थानों के स्वामी हों

तात्कालिक शुभाशुभ ग्रह

तत्कालीन शुभाशुभ ग्रह राशियां और भावों से निर्धारित होते हैं। उदाहरण के लिए यदि तुला लग्न है, तो निश्चय ही शनि शुभ ग्रह होगा । यद्यपि यह नैसर्गिक पाप ग्रह है। इसी प्रकार यदि कन्या या मिथुन लग्न है, तो बृहस्पति अशुभ ग्रह होगा, क्योंकि वह दो केंद्रों का स्वामी होने से अपकारक हो जाता है।

सामान्यतया अशुभ भावों के स्वामी अशुभ होते हैं और इनकी दशाएं नकारात्मक सिद्ध होती हैं; जैसे- षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश की दशाएं अशुभ फल ही देंगी। इसके बावजूद हमें याद रखना चाहिए कि ज्योतिष की फलित शाखा के सिद्धांत कठोर और अंतिम नहीं हैं ।

अष्टमेश की बहुत सी स्थितियां हैं, जो उसे शुभ फलदायी बनाती हैं। भाव के स्वामियों की स्थिति के अनुसार भी फल में भारी अंतर आ सकता है और अष्टमेश, द्वादशेश की दशाएं भी शुभ फलदायी हो सकती हैं। ऐसा क्यों होता है, इसका वर्णन आगे विस्तार से किया जाएगा।

लग्नों के अनुसार शुभाशुभ ग्रहों का चयन

पाप ग्रहों की दशाएं हमेशा अनिष्टकारी और शुभ ग्रहों की दशाएं शुभ फलदायी होती हैं। ऊपर मैंने ग्रहों को जिन दो पाप और शुभ ग्रहों की श्रेणियों में विभक्त किया है, यह विभाजन दरअसल बहुत सूक्ष्म अंतर से बना है। लग्न के अनुसार जो ग्रह शुभ है, वह इस विभाजन में पाप ग्रह हो सकता है, लेकिन जैसा कि मैं बता चुका हूं, लग्न के आधार पर तय किए गए गुणादि को ही अंतिम समझना चाहिए

इस स्थिति में यह आवश्यक है कि पाठकों को प्रत्येक लग्न के अनुसार शुभ या अशुभ ग्रहों की जानकारी हो। यहां प्रत्येक लग्न के अनुसार सात ग्रहों के शुभाशुभ का वर्णन किया जा रहा है। यह अत्यंत उपयोगी और सटीक विधि है । यदि ग्रहों की स्थिति पर भी गौर कर लिया जाए, तो कोई कारण नहीं है कि फल मिथ्या सिद्ध हो।

राहु और केतु को किसी भी राशि का स्वामित्व प्राप्त नहीं है। इसके कारण इन ग्रहों की स्थितियां अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । राहु और केतु हमेशा उस ग्रह का फल देते हैं, जिसकी कि राशि में इनकी स्थिति हो । यदि वह ग्रह लग्न के अनुसार शुभ है, तो इनकी दशाएं भी उन्नतिकारक होंगी ।

मेष लग्न

सूर्य : पंचमेश होने से शुभ ग्रह हो जाता है। इसकी दशा में नवीन कार्यों का आरंभ होता है।

चंद्र : चतुर्थेश होकर निर्बल हो जाता है। यदि पक्ष बली हो, तो दशा भी श्रेष्ठ होगी अन्यथा इस दशा में भवन की हानि और राजभय की संभावना रहती है। निर्बल चंद्रमा होने पर जनता से विरोध प्राप्त होता है ।

मंगल : लग्नेश होने से शुभ और अष्टमेश होने से अशुभ होता है । लग्नेश होने के बावजूद मंगल की स्थिति शुभ नहीं कही जा सकती है। यदि मंगल दशम भाव में हो, तो शुभ होता है।

बृहस्पति : मेष लग्न में बृहस्पति की स्थिति कमोवेश मंगल सदृश्य है। नवम जैसे अत्यंत शुभ भाव के स्वामी होने से बृहस्पति की स्वयं के अंतर के अलावा शेष दशा शुभ होती है।

शनि : राज और लाभ का स्वामी होने से शनि की दशा शुभ फल देगी। शनि यदि अस्त, नीचगत, शत्रुक्षेत्री या अष्टमस्थ न हो, तो शुभ फल मिलते हैं। स्थायी और अचल संपत्तियों की प्राप्ति होती है । व्यवसाय में लाभ होता है।

बुध : इस समय रचनात्मक कार्यों में गतिविधियां बढ़ती हैं। बुध की दशा का उत्तरार्ध रोगग्रस्त और ऋणी बनाता है ।

शुक्र : द्वितीयेश और सप्तमेश होने से प्रबल मारकेश है। इस दशा में क्लेश, मृत्युभय, स्त्री को कष्ट और रोगों में वृद्धि होती है।

वृष लग्न

सूर्य : पाप ग्रह जब केंद्रों के स्वामी हों, तो शुभ फल देते हैं। सूर्य वृष लग्न में चतुर्थेश होकर योग कारक बन गया है। इसकी दशा में भूमि और भवन से लाभ, सुख की प्राप्ति, रोगों और ऋणों से मुक्ति मिलती है।

चंद्रमा : वृष लग्न में चंद्रमा की दशा साधारणतया उन लोगों को नए अवसर प्रदान करती है, जो कि किसी प्रकार के सृजन कार्यों में रत हों । वृष लग्न के लिए चंद्रमा की दशा नए संबंधों को बनाती है।

मंगल : सप्तमेश और द्वादशेश होने से मंगल सर्वदा अपकारक है।

बृहस्पति : अष्टमेश और एकादशेश होने से बृहस्पति की महादशा का पूर्वार्ध अनिष्टकारी होता है। यद्यपि बृहस्पति की मूल त्रिकोण राशि एकादश भाव में होती है, जिसके कारण बृहस्पति की महादशा का परिणाम श्रेष्ठ होता है।

शनि : वृष लग्न के लिए यह श्रेष्ठ दशा है, क्योंकि शनि नवमेश और दशमेश होकर केंद्र त्रिकोण का स्वामी हो गया है ।

बुध : बुध द्वितीय और पंचम भाव का स्वामी होने से प्रायः शुभ फल ही देता है हालांकि इसकी स्थिति बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि बुध द्वितीयेश होने से साधारण मारकेश बन जाता है ।

शुक्र : लग्नेश होने से शुक्र की शुभता में कोई संशय नहीं है, लेकिन अकसर देखा जाता है कि यदि शुक्र की महादशा जीवन की प्रौढ़ावस्था के बाद आती है, तो शुभ फल न्यूनतम मिलते हैं। वैसे भी वृष लग्न में शुक्र षष्ठेश भी है, जो कि रोग, शत्रु और ऋणों में वृद्धि का संकेत देता है ।

मिथुन लग्न

सूर्य : पराक्रमेश सूर्य की महादशा तभी लाभदायक सिद्ध होती है, जबकि सूर्य वर्गोत्तमी, उच्चस्थ या स्वग्रही हो ।

चंद्रमा : मारक होने से सर्वदा अपकारक है।

मंगल : षष्ट और एकादश का स्वामी है । मंगल की अंतरदशाएं हमेशा संकटकारी होती हैं।

बृहस्पति : सप्तम और दशम का स्वामी होकर बृहस्पति केंद्राधिपति होने का दोषी है । मिथुन लग्न में बृहस्पति की दशा जीवन में स्थान परिवर्तित करवाती है । प्रायः अशुभ फल देती है।

शनि : शनि अष्टम और दशम का स्वामी होकर अत्यंत विषम परिस्थितियों का निर्माण करता है । महर्षि पराशर ने लिखा है कि जब कोई ग्रह अष्टमेश और नवमेश संयुक्त रूप से हो, तो राजयोग को नष्ट करता है। शनि की दशा का निर्णय इसकी स्थिति के अनुसार करना चाहिए।

बुध : मिथुन लग्न में बुध लग्नेश और चतुर्थेश होकर कारक बन गया है। बुध की महादशा में शारीरिक सुख, संपदा और वैभव की प्राप्ति होती है ।

शुक्र: मिथुन लग्न में शुक्र की दशा सर्वश्रेष्ठ और सही अर्थों में जीवन का स्वर्णकाल होता है। यद्यपि शुक्र पंचमेश के साथ द्वादशेश जैसे अशुभ भाव का भी स्वामी है, लेकिन शास्त्रों में लिखा है कि शुक्र द्वादशेश होने के दोष से मुक्त है।

कर्क लग्न

सूर्य : द्वितीयेश सूर्य यद्यपि मारकेश है, लेकिन इसकी दशा में मृत्यु की संभावना नहीं होती है। सूर्य की दशा अनिष्ट फल करती है ।

चंद्रमा : लग्नेश होकर शुभ और मंगलकारी फल देता है।

मंगल : पंचमेश और दशमेश होने से मंगल की महादशा मनोवांछित फलों को देती है।

बृहस्पति : बृहस्पति भाग्येश और शत्रु का स्वामी होकर शुभ फल करता है ।

शनि : सप्तम और अष्टम जैसे दो मारक स्थान का स्वामी होकर शनि अपनी दशा में रोग, ऋण, भय, दांपत्य में क्लेश और मातृपक्ष की हानि करता है ।

बुध : पराक्रमेश और व्ययेश होकर बुध अशुभ होता है। बुध की शुभ ग्रहों से युति और दृष्टि ही कुछ राहत दे सकती है।

शुक्र : सुखेश और लाभेश होकर शुक्र साधारणतया मिश्रित फलों को देता है। हालांकि जब केंद्रों के स्वामी शुभ ग्रह हों, तो वे अशुभ होते हैं।

सिंह लग्न

सूर्य : लग्नेश के प्रतिरूप में सूर्य सर्वदा कारक और शुभ ग्रह है । यह जितना बली होगा, उसी अनुपात में फल देगा ।

चंद्रमा : द्वादशेश चंद्रमा अपकारक है।

मंगल : सूर्य के बाद मंगल सर्वाधिक कारक ग्रह है। इसकी दशा में सम्मान और अचल संपत्तियों की उपलब्धि होती है ।

बृहस्पति : अष्टमेश होकर बृहस्पति जहां शारीरिक कष्टप्रद सिद्ध होता है, वहीं पंचमेश होने से नए कार्यों का आरंभ भी करवाता है ।

शनि : षष्ठेश होने से शनि रोग और ऋण का कर्ता है, साथ ही सप्तमेश होकर मारकेश भी बन जाता है। शनि की महादशा प्रतिकूल ही रहेगी।

बुध : द्वितीयेश होकर बुध मारकेश बन जाता है। बुध की दशा नकारात्मक और शरीर के लिए भय उत्पन्न करने वाली होती है।

शुक्र : जैसा कि मैं लिख चुका हूं, केंद्र के स्वामी जब शुभ ग्रह हों, तो वे अशुभ फल करते हैं। शुक्र दशम और तृतीय का स्वामी होकर अपकारक बन जाता है।

कन्या लग्न

सूर्य : द्वादशेश सूर्य की महादशा में व्ययों की अधिकता रहती है।

चंद्रमा : लाभेश चंद्रमा पक्षबली होने पर शुभ फल करता है।

मंगल : तृतीयेश और अष्टमेश होकर मंगल अनिष्ट फल करता है। मंगल की दशा में पर्याप्त सावधान रहना चाहिए। रक्त का दान मंगल को शांत करता है । बृहस्पति : मिथुन लग्न की तरह यहां भी बृहस्पति दो केंद्रों का संयुक्त स्वामी है । बृहस्पति और शुक्र को केंद्राधिपति होने पर दोष लगता है । बृहस्पति की महादशा अच्छी नहीं होती है ।

शनि : पंचमेश होकर शनि जितना शुभ है, षष्ठेश होकर उतना अशुभ भी है। उच्चस्थ या मकर का शनि ही शुभ फल करता है ।

बुध : लग्नेश और दशमेश बुध शुभ और सकारात्मक फलदायी है।

शुक्र : भाग्येश और धनेश शुक्र की महादशा जीवन का स्वर्णकाल हो सकती है, बशर्ते शुक्र अस्त, नीचगत, शत्रुक्षेत्री न हो ।

तुला लग्न

सूर्य : एकादशेश सूर्य शुभ और मंगलकारी है। सूर्य की दशा में व्यवसाय और संबंधित आजीविका में लाभ की स्थिति बनती है।

चंद्रमा : लग्नेश चंद्रमा यदि पक्षबल से हीन हो, तो शुभ फल देगा, अन्यथा अशुभ है ।

मंगल : द्वितीयेश और सप्तमेश होकर मंगल प्रबल मारकेश हो जाता है । यदि एक आयु खंड पूर्ण होता हो और लग्नेश और अष्टमेश निर्बल हो, तो मृत्यु या मृत्युतुल्य कष्ट की आशंका रहती है । मंगल की महादशा शारीरिक और मानसिक समस्याओं का कारण होगी।

बृहस्पति : तुला लग्न में बृहस्पति तृतीयेश और षष्ठेश होकर अपकारक होता है । इसकी दशा बाधाकारक होगी। इसकी दशा में व्यक्ति अपना बहुत-सा समय आमोद-प्रमोद और अपने नित नए शौकों को पूरा करने में खर्च करेगा ।

शनि : केंद्र (चतुर्थ) और त्रिकोण (पंचम) का स्वामी होकर शनि तुला लग्न के लिए बेहद समृद्धि और सफलता का पर्याय होता है। विशेषकर शनि में शनि और शनि में शुक्र का अंतर मनोकामना पूर्ण करने वाला होना चाहिए।

बुध : नवमेश होने से बुध हालांकि भाग्यवृद्धि करता है, लेकिन द्वादशेश होकर व्याधिक्य देता है। बुध की दशा में यद्यपि आय के कई-कई स्रोतों का सृजन संभव है, लेकिन व्ययों की तुलना में स्थिति को सकारात्मक नहीं कहना चाहिए। अच्छी दशा के लिए बुध का उदय रहना आवश्यक है।

शुक्र : लग्नेश शुक्र की दशा बल-वीर्य में वृद्धि करती है। अष्टमेश होने के कारण सामान्य बाधाएं आनी भी संभावित हैं, लेकिन यदि चंद्रमा मकर या कुंभ में हो, तो शुक्र की महादशा में विचारे गए कार्यों का क्रियान्वयन हो जाता है।

वृश्चिक लग्न

सूर्य : दशमेश सूर्य यदि षष्ठ या दशम भावस्थ हो, तो शुभ होता है। दूसरे भावों में सूर्य की स्थिति को सामान्य फलदायी समझना चाहिए।

चंद्रमा : भाग्येश चंद्रमा जैसी भी शुभाशुभ स्थिति में होगा, फल देगा । प्रायः अनुभव में आता है कि यदि चंद्रमा पक्ष बली हो, तो इसकी दशा लाभप्रद रहती है, अन्यथा सामान्य अच्छी। चंद्रमा एक अत्यंत संवेदनशील ग्रह है, इसलिए पूर्णतः निर्दोष होने पर ही शुभ फल दे सकता है ।

मंगल : लग्नेश होने से मंगल यद्यपि शुभ ग्रह है, लेकिन यह अपनी दशा में रोग और ऋणों के प्रति चिंता का सृजन भी करता है । कन्यागत मंगल शारीरिक बल वीर्य में वृद्धि करता है ।

बृहस्पति : पंचमेश होने से बृहस्पति अपनी दशा में नवीन कार्यों का आरंभ और द्वितीयेश होने से यह धन की प्राप्ति करवाता है। मारकेश होने पर भी अपनी दशा में मृत्यु नहीं देता है। यह लग्नेश का परम मित्र ग्रह है ।

शनि : आचार्यों ने कहा है कि जब पाप ग्रह केंद्रों के स्वामी हों, तो शुभ फल देते हैं। हालांकि मंगल की शनि से नैसर्गिक शत्रुता है और तृतीयेश की दशा भी प्रायः अच्छा फल नहीं देती है, लेकिन वृश्चिक लग्न में शनि की दशा अपेक्षाकृत शुभ फल ही देती है।

बुध : अष्टमेश और एकादशेश बुध की दशा, किसी भी दृष्टिकोण से भाग्यवृद्धि में सहायक नहीं होती है। केवल वर्गोत्तमी बुध ही तटस्थ फल दे सकता है, अन्यथा की दशा में स्वास्थ्य हानि होती है ।

शुक्र : सप्तमेश और द्वादशेश होने के साथ ही शुक्र मंगल का नैसर्गिक शत्रु ग्रह भी है। हालांकि शुक्र को द्वादशेश होने के दोष से मुक्त रखा गया है, लेकिन यह सप्तमेश होकर मारकेश बन जाता है। यदि यह दूसरे मारक ग्रह की राशि में स्थित हो तो अपनी दशा में स्वास्थ्य हानि करता है ।

धनु लग्न

सूर्य : नवमेश सूर्य भाग्यवर्धक है। सूर्य की दशा के वर्ष यद्यपि कम हैं, लेकिन इन वर्षों में योजनाओं का क्रियान्वयन होता है। भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति होती है ।

चंद्रमा : अष्टमेश चंद्रमा यदि पक्षबल से हीन हो, तो शुभ है अन्यथा रोग और परेशानियों को बढ़ाता है।

मंगल : धनु लग्न में मंगल की दोहरी भूमिका है। पंचमेश होने से पर्याप्त कारक भी है, तो द्वादशेश होकर अनिष्टकारी भी है। मंगल का पूर्वार्ध बेहतर हो सकता है, जिसमें किसी नवीन कार्य की योजना बन सकती है।

बृहस्पति : बृहस्पति हालांकि दो केंद्रों का स्वामी होकर अपकारक है, लेकिन मान्यता है कि लग्नेश का केंद्राधिपति होने पर दोष नहीं लगता है । अर्थात् लग्नेश दो केंद्रों का स्वामी होकर भी अपकारक नहीं है, जैसा कि धनु लग्न में बुध है ।

शनि : द्वितीयेश और पराक्रमेश शनि किसी भी दृष्टि से मंगलकारी नहीं है। मारक प्रभाव से युक्त शनि, जीवन में विपदा और रोगों में वृद्धि करता है। शनि की महादशा में लोहे का दान देना शुभ होता है ।

बुध : सप्तमेश और दशमेश बुध की दशा प्रतिकूल ही होगी। दो केंद्रों का स्वामी होने से बुध केंद्राधिपति दोष से दूषित है। यदि बुध दुःस्थानों (षष्ठ, अष्टम और द्वादश) में कहीं हो, तो शुभ हो सकता है।

शुक्र : तृतीयेश और एकादशेश शुक्र की महादशा में विपरीत फलों की प्राप्ति होती है । व्यक्ति ऋणों से ग्रस्त रहता है ।

मकर लग्न

सूर्य : अष्टमेश सूर्य हालांकि मृत्यु नहीं देता है, लेकिन मृत्युतुल्य कष्ट अवश्य देगा । मकर लग्न हो और अष्टम में पाप ग्रह हो, तो किसी हथियार से मृत्यु संभावित है ।

चंद्रमा : मारकेश चंद्रमा अपकारक और अशुभ है ।

मंगल : सुख और लाभ भाव का स्वामी होकर मंगल यदि अंशों में सशक्त हो, तो सामान्य शुभ हो सकता है । प्रायः मंगल की महादशा प्रतिकूल फलों को देती है ।

बृहस्पति : तृतीयेश और द्वादशेश बृहस्पति की दशा में स्थान परिवर्तन संभव है । बृहस्पति में बृहस्पति का अंतर लगभग संकटकारी होता है ।

शनि : लग्नेश और धनेश का स्वामी है, लेकिन अपनी दशा में मृत्यु नहीं देता है । चंद्रमा यदि वृष या तुलागत हो, तो शनि कारक और शुभ होता है।

बुध : षष्ठेश और नवमेश बुध उन्नतिकारक है । इसकी दशा में भाग्यवृद्धि होती है । नीच या शत्रु राशि में बुध होने से रोग और ऋणों में वृद्धि होती है, लेकिन दशा का उत्तरार्ध शुभ होता है।

शुक्र : लग्न में शनि की राशि होने से शुक्र हमेशा शुभ फलदायी होता है। पंचमेश और दशमेश होकर शुक्र केंद्र और त्रिकोण का संयुक्त स्वामी है। इसकी दशा में स्वास्थ्य लाभ के साथ भौतिक दृष्टि से उपयोगी नवीन कार्यों का श्रीगणेश होता है।

कुंभ लग्न

सूर्य : सप्तमेश सूर्य मारक प्रभाव लिए होता है, लेकिन अपनी दशा में मृत्यु नहीं. देता है। सूर्य की दशा में स्वास्थ्य हानि के साथ दैनिक रोजगार में वृद्धि होती है सूर्य शनि तृतीय भावगत हो, तो शुभ होता है।

चंद्रमा : रोगेश चंद्रमा अपनी दशा में रोग और ऋणों से ग्रस्त रखता है। आय की तुलना में व्यय की अधिकता रहती है। कुंभ लग्न के जातक प्रायः चंद्रमा की दशा में ऋण लेते हैं, जो इनके पतन का कारण बनता है।

मंगल : पराक्रमेश और भाग्येश मंगल की दशा को सर्वदा शुभ नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि पाप ग्रह तभी शुभ फल करते हैं, जबकि वे केंद्रों के स्वामी हों। जैसे कर्क लग्न में मंगल दशम का स्वामी होने से प्रबल कारक हो जाता है। जबकि भाग्येश होने के बावजूद कुंभ लग्न में यह स्थिति नहीं देखी जाती है। मंगल नितांत शुभ फल ही दे । कुंभ लग्न में मंगल के भाव और राशिगत स्थिति के अनुसार निर्णय करना चाहिए।

बृहस्पति : द्वितीयेश और लाभेश बृहस्पति की दशा में मूलतः अशुभ फलों की प्राप्ति होती है। बृहस्पति की दशा प्रतिकूल समय का संकेत करती है। बृहस्पति में बृहस्पति के अंतर के बाद किंचित सुधार आता है ।

शनि : हालांकि शनि लग्न का स्वामी है, लेकिन साथ ही द्वादशेश भी है। शनि की दशा एक तरफ जहां स्वास्थ्य लाभ देती है, वहीं सामाजिक व्ययों में अनावश्यक खर्च होता है। शनि यदि सबल हो, तो प्रायः समय अच्छा निकलता है ।

बुध: कुंभ लग्न में बुध की स्थिति बहुत ही जटिलतापूर्ण है। पंचमेश होने से शुभ और मंगलकारी है, वहीं अष्टमेश होकर सर्वदा अशुभ और मृत्युदाता है। बुध की दशा का विचार करने से पूर्व यह देख लेना श्रेयस्कर है कि बुध चंद्र लग्न से किन भावों का प्रतिनिधित्व करता है । यदि चंद्र लग्न से भी बुध अशुभ हो, तो वह अशुभ ही होता है।

शुक्र : कुंभ लग्न में शुक्र एकमात्र ग्रह है, जिसके शुभ होने के संबंध में आचार्यों में किसी प्रकार का कोई मतभेद नहीं है । सुखेश और भाग्येश शुक्र अपने बलाबल के अनुसार क्रमशः शुभ से अधिकतम शुभ फल देगा।

मीन लग्न

सूर्य: षष्ठेश सूर्य अपनी दशा में स्वास्थ्य हानि करता है । यदि सूर्य अष्टम भावगत हो, तो सूर्य की दशा राजयोगकारक भी हो सकती है।

चंद्रमा : पंचमेश चंद्रमा की दशा नई योजनाओं का सृजन करती है। अनुकूल समय की अनुभूति से मनुष्य प्रफुल्लित रहता है। संतान का सुख प्राप्त होता है।

मंगल : द्वितीयेश और नवमेश मंगल शुभ और समृद्धिदायक है। इसकी दशा में भाग्योदय होता है । मंगल अपने बल के सदृश्य शुभ फल देगा, यद्यपि द्वितीयेश होने से मारकेश है।

बृहस्पति : लग्नेश और दशमेश बृहस्पति मंगलकारी है । लग्नेश होने से दो केंद्रों के स्वामी होने के दोष से मुक्त है। बृहस्पति की दशा में स्वास्थ्य लाभ के साथ मान-सम्मान और सरकारी धन और कारोबार में लाभ होता है। बृहस्पति में मंगल का अंतर सफलता प्रदान करता है । व्यक्ति की योजनाओं के क्रियान्वयन का यह सबसे अच्छा समय होगा। बृहस्पति और मंगल यदि सशक्त हों, तो यह जीवन का स्वर्णकाल हो सकता है ।

शनि : लाभेश और व्ययेश शनि सर्वदा अपकारक और विपत्तिदाता है। यदि गोचर में भी शनि प्रतिकूल संकेत दे रहा हो, तो स्थिति भयावह रूप ले सकती है और यह अब तक का सबसे बुरा समय हो सकता है।

बुध : चतुर्थेश और सप्तमेश बुध दो केंद्रों का स्वामी होकर अशुभ है। निर्बल बुध ही शुभ फल दे सकता है ।

शुक्र : शनि और बुध के बाद शुक्र मीन लग्न के लिए सर्वाधिक अनिष्टकारी ग्रह है। तृतीय और अष्टम दोनों ही भाव विपरीत फलों को देने वाले हैं। शुक्र यदि चंद्रमा से भी अपकारक हो या राहु अधिष्ठ राशि का स्वामी हो, तो इसकी दशा में मृत्युतुल्य कष्ट संभव है। स्वास्थ्य हानि के साथ आर्थिक कष्ट भी पर्याप्त मात्रा में भोगने पड़ सकते हैं।

विंशोत्तरी के संदर्भ में नवीन मत

मैंने जो लग्नों के आधार पर दशाओं के फलित का वर्णन किया है, उसमें अर्वाचीन और प्राचीन दोनों मतों का समावेश है। इन सबके बावजूद अनुभव महत्त्वपूर्ण है । कुंडली के फलित में दशाएं बहुत संवेदनशील विषय हैं। पहले तो यही क्या कम है कि महर्षि पराशर ने चालीस से अधिक प्रकार की दशाओं का वर्णन किया है, दूसरे यह कि बारह लग्नों के आधार पर नवग्रहों की दशाओं का शुभाशुभ ज्ञात करना चींटी की खाल खींचने के समान है। यहां कुछ तथ्यात्मक जानकारी दी जा रही है, जो पाठकों को दशाओं के संदर्भ में एक निर्णय पर पहुंचने में सहायक सिद्ध होगी ।

1. सूर्य, मंगल और केतु के अलावा बाकी ग्रहों की दशाएं दस वर्ष या इससे अधिक समय तक चलती हैं। इन महादशाओं में पहला अंतर महादशानाथ का होता है। जैसे शुक्र की दशा 20 वर्ष की है। शुक्र में शुक्र का अंतर 3 वर्ष और 4 मास तक है। इसके बाद सूर्य की अंतरदशा आरंभ हो जाती है । यहां विचारणीय है कि शुक्र की दशा चूंकि 20 वर्ष है, इसलिए शुक्र का शुभाशुभ फल भी 20 ही वर्ष होगा, लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है । मेरा अनुभव है कि शुक्रादि ग्रहों की महादशाओं में इनके अंतर के बीत जाने पर महादशानाथ को विस्मृत कर देना चाहिए। अंतरदशा का जो स्वामी है, उसकी प्रकृति और कुंडली में उसकी स्थिति के अनुसार ही हमें फल प्राप्त होगा।

2. दशाओं के फल को देखने से पूर्व, गोचर ग्रहों को अवश्य देख लेना चाहिए । गोचर और महादशाओं का तालमेल ही आपको सफलता दिलवा सकता है। यदि गोचर अनुकूल नहीं है, तो लग्नेश, पंचमेश या नवमेश की दशा भी न्यूनतम शुभ फल ही देगी।

3. एक ग्रह जो शुभ होने के साथ ही दो केंद्रों का स्वामी भी हो, ऐसे दो केंद्रों के स्वामी शुभ ग्रह की दशा प्रतिकूल सिद्ध होगी और स्थान परिवर्तन करवाएगी।

4. केतु की महादशा में केतु का अंतर कष्टप्रद होगा। इसमें केतु की कुंडली में स्थिति पर विचार नहीं किया जाता है।

5. हमेशा याद रखना चाहिए कि तुरंत होने वाले परिवर्तनों में महादशाओं की भूमिका न्यूनतम होती है । जो परिवर्तन धीरे-धीरे हों, वे दशा परिवर्तन से संभव हैं। गोचर ग्रह और कुंडली में पड़े ग्रहों का नैसर्गिक फलित समय अचानक बदलाव लाता है।

6. विवाह के संदर्भ में विंशोत्तरी दशा एक स्थूलतम फलदायी पद्धति है । इसके लिए गोचर श्रेष्ठ है । प्रायः अनुभव में आता है कि किसी भी ग्रह की दशा में विवाह संभव है। यहां तक कि अष्टमेश की अंतरदशा में भी विवाह हो सकता है।

7. जन्मांग में जो ग्रह राजयोगकारक हो, उसकी दशा हमेशा शुभ फल देती है ।

8. जन्म समय को लिखने में और गणित की कुछ त्रुटियों के कारण प्रायः विंशोत्तरी दशा का सटीक फल नहीं मिलता है। इसके लिए आवश्यक है कि जीवन की बीती घटनाओं को ध्यान में रखते हुए विंशोत्तरी दशा चक्र को सुव्यवस्थित किया जाए।


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