कुंडली से रोगों का निर्णय
जैसा कि हम अध्ययन कर चुके हैं कि कुंडली का समग्र अवलोकन ही उचित निर्णय दे सकता है। किसी एक योग के आधार पर घोषणा करना उचित नहीं है। रोगों के मामले में मेरी इस धारणा को गंभीरता से लेना चाहिए, क्योंकि प्रायः रोगों को उत्पन्न करने वाले सामान्य योग रहने पर भी जातक स्वस्थ रहता है। इसके पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं। कुछ जन्मांग सामान्य सुदृढ़ दृष्टिगोचर होते हैं, लेकिन धारक जातक अनेक रोगों से त्रस्त रहता है। यही सब कारण है कि मैंने कुंडली के समग्र अध्ययन-मनन की अनुशंसा की है। पाठकों के लिए ऐसा करना लाभदायक होगा।
जब स्वास्थ्य की दृष्टि से किसी जन्मांग को देख रहे हों, तो लग्न, लग्नेश, षष्ठ, षष्ठेश, चंद्रमा की स्थिति और अष्टम भाव महत्त्वपूर्ण हैं । ये सभी भावादि स्वस्थ या रोगग्रस्त काया के संकेत देते हैं।
लग्न और लग्नेश
लग्न में जब षष्ठेश या अष्टमेश पड़ा हो, तो 18 वर्ष से पूर्व स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
प्रायः देखने में आता है कि नैसर्गिक पाप ग्रह, चाहे जिस किसी भावगत में हों, रोगों को उत्पन्न करने में इनकी कोई भूमिका नहीं होती है। जबकि षष्ठेश बृहस्पति हो या मंगल, यदि वह लग्न में बैठता है तो निश्चित ही रोग उत्पन्न करेगा। परिणाम के रूप में ग्रहण करना चाहिए कि तात्कालिक अशुभ ग्रह ही रोगकारक होते हैं, उनका नैसर्गिक शुभाशुभ होना महत्त्वहीन है।
लग्नेश का षष्ठ, अष्टम या कुछ हद तक द्वादश में होना, रोगकारक अन्य योगों में सहयोगी सिद्ध होता है। उपरोक्त भावगत निर्बलता के साथ कुछ दूसरी स्थितियां भी हैं, जो कि लग्न या किसी भी भावेश के दुर्बल होने का कारण हो सकती हैं। कुछ कारण निम्न हैं, जो लग्न की स्थिति को समझने में पाठकों के लिए सहायक सिद्ध हो सकते हैं ।
लग्नेश का अस्त होना
जैसा कि पाठक पूर्व के लेखों में पढ़ चुके हैं, सूर्य से एक निश्चित दूरी तक निकट रहने पर ग्रह को अस्त माना जाता है। यह अंशात्मक अंतर भिन्न-भिन्न ग्रहों के लिए पृथक् है । यह प्राचीन मत है, लेकिन आधुनिक मत से जब कोई ग्रह सूर्य से 3 अंश या इससे न्यून अंशों पर हो, तो उसे अस्त मानना चाहिए। लग्नेश जब अस्त हो, तो रोगकारक ग्रहों का फल शीघ्रता से और अधिक मात्रा में मिलता है।
लग्न और लग्नेश पर पाप ग्रहों की दृष्टि
शनि, मंगल और राहु में से एक या अधिक ग्रह जब लग्न और लग्नेश पर संयुक्त दृष्टिपात करें, तो वे लग्न अर्थात् शरीर को क्षति पहुंचाते हैं । लग्न के अलावा भी जिस किसी भाव पर यह योग बने, तो उस भाव के शुभ फलों में बाधाओं का सामना करना होता है। शनि की संयुक्त दृष्टि को मैंने विशेष अनिष्टकारी पाया है। अशुभ भावों से राशि परिवर्तन योग
जब दो ग्रह परस्पर एक दूसरे की राशि में संस्थित हों, तो इसे राशि परिवर्तन योग कहा जाता है। लग्नेश जब द्वितीयेश, षष्ठेश, सप्तमेश या अष्टमेश से राशि परिवर्तन करे, तो यह स्वास्थ्य के लिए सामान्य बुरी स्थिति है । उपरोक्त भावों के स्वामियों से राशि परिवर्तन योग का नकारात्मक फलों को देने का हेतु यह है कि रोगकारक भाव लग्न अर्थात् शरीर पर हावी हो जाते हैं।
लग्नेश का रोग (षष्ठ) में स्थित होना तो रोगकारक है ही, साथ ही रोग (षष्ठेश) का लग्न में होना, शरीर और रोग के बंधन को स्थायित्व देता है । यही सिद्धांत द्वितीय, सप्तम या अष्टम के संबंध में है ।
रोग, ऋण और शत्रु का भाव है- षष्ठ भाव
षष्ठ भाव को रोग, ऋण और शत्रु का भाव कहा गया है। इसमें पाप ग्रह बली होते हैं। यदि षष्ठस्थ पाप ग्रह निर्बल हों, तो अपनी प्रकृति के अनुसार रोग का सृजन करते हैं। ग्रहों से संबंधित रोगों की सारणी से यह जाना जा सकता है कि कौन-सा ग्रह क्या रोग देगा ।
- जब कोई ग्रह षष्ठ में शत्रु राशि में या नीचगत हो, तो उसे निर्बल मानना चाहिए।
- स्वक्षेत्री, उच्चस्थ या मित्र की राशि में पाप ग्रह यदि षष्ठ में हो, तो बली होता है। ऐसा जातक स्वस्थ और शत्रुहंता होता है।
अर्थात् षष्ठगत पाप ग्रह शुभ फल देते हैं और सौम्य ग्रह रोगकारक होते हैं। यद्यपि षष्ठ में पाप ग्रह शुभ होते हैं, लेकिन इनको बली होना चाहिए। यदि षष्ठगत पाप या क्रूर ग्रह निर्बल हों, तो प्रायः शुभ नहीं होते ।
मान्यता है कि जब षष्ठेश लग्न में हो, तो जातक स्वस्थ रहता है, लेकिन प्रायः यह अनुभव में सिद्ध नहीं होता है। जिन लोगों के जन्मांग में षष्ठेश लग्नगत हो, वे प्रायः किसी-न-किसी रोग से ग्रस्त रहते हैं ।
रोग की गंभीरता का विचार लग्न की स्थिति से करना चाहिए। यदि लग्नेश निर्बल होने के साथ ही रोगकारक भावों और ग्रहों से युति करता है, तो शरीर में रोगों की मात्रा बढ़ी चढ़ी रहेगी। एक आयु खंड के बाद जातक शारीरिक व्याधियों के कारण आर्थिक और सामाजिक क्षतियां भी उठा सकता है। लग्न और षष्ठेश का राशि परिवर्तन योग भी दुर्बल शारीरिक स्थिति का प्रमाण है।
आचार्यों ने षष्ठ को रोग का भाव कहा है । अतः रोग के होने न होने में षष्ठ की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अन्य सभी पक्षों का विचार कर चुकने के बाद षष्ठ पर विचार करने से निर्णय क्षमता में वृद्धि होती है ।
सारांश के तौर पर ग्रहण करना चाहिए कि षष्ठ और षष्ठेश का बली होना रोग, ऋण और शत्रु का नाश करता है । निर्बल होने पर स्थिति ठीक इसके विपरीत होती है ।
चंद्रमा की स्थिति
स्वास्थ्य के संबंध में चंद्रमा की स्थिति दूसरे सभी ग्रह योगों की तुलना में महत्त्वपूर्ण है। चंद्रमा यदि पाप ग्रस्त हो, तो इसकी रोग निरोधक क्षमता का ह्रास होता है। पापी होने का दोष चंद्रमा को सर्वाधिक लगता है, फिर पापी ग्रह चाहे कारक ही क्यों न हो।
यह एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है कि चंद्रमा पर पाप प्रभाव को देखते हुए हमेशा नैसर्गिक पाप ग्रहों का विचार करना चाहिए; जैसे- सूर्य, मंगल, शनि, राहु और केतु नैसर्गिक पाप ग्रह हैं। जन्मांग में शनि और मंगल यदि केंद्रों और त्रिकोणों के स्वामी होंगे, तो भी चंद्रमा के लिए पापी ही माने जाएंगे।
उपरोक्त के अलावा भी कुछ स्थितियां हैं, जो कि चंद्रमा को दोषयुक्त बनाती हैं। मैं यहां कुछ प्रधान ग्रह योगों का वर्णन कर रहा हूं, जो कि चंद्रमा को निर्बल बनाने में सहायक हैं ।
- चंद्रमा जब चतुर्थ, अष्टम या द्वादश हो, तो निर्बल होता है।
- चतुर्थ चंद्रमा माता के लिए और अष्टमस्थ चंद्रमा स्वयं के लिए अशुभ है।
चंद्रमा से पाप ग्रहों की युति का अर्थ एक ही राशि में चंद्रमा के साथ पाप ग्रहों का होना है, लेकिन चंद्रमा से द्वितीय और द्वादश पाप ग्रह होना भी बालारिष्ठ करता है। यह स्थिति अर्थ के साथ स्वास्थ्य की भी हानि करती है ।
सूर्य और चंद्रमा को एक-एक राशि का स्वामी माना गया है। चंद्रमा कर्क राशि का प्रतिनिधित्व करता है। कर्क राशि में पाप ग्रह हो, तो चंद्रमा स्वयं पापी हो जाता है। खासकर राहु का कर्क में स्थित होना चंद्रमा के बल को नष्ट करता है। इस स्थिति में चंद्रमा जिस भाव में स्थित होगा, उसकी हानि करेगा ।
चंद्रमा की राशि कर्क और चंद्रमा पर जब एक से अधिक पाप ग्रहों की संयुक्त दृष्टि हो, तो चंद्रमा के बल का नाश होता है। उल्लेखनीय है कि चंद्रमा को दूसरे लग्न की संज्ञा दी गई है। यदि चंद्रमा निर्बल है, तो निश्चित रूप से शरीर को व्याधि देता है। कर्क पर जितना अधिक पाप प्रभाव होगा, उसी अनुपात में निर्बलता आएगी।
राशियों की दृष्टि से मंगल और शनि की राशियां चंद्रमा के लिए अशुभ हैं। पाप राशि और पाप भाव का प्रभाव संयुक्त होना चंद्रमा के लिए नकारात्मक स्थिति है। स्वच्छ और निर्मल चंद्रमा वही है, जो पाप ग्रहों से पूर्णतः मुक्त हो और सूर्य से न्यूनतम दो भाव पृथक् हो । ऐसा चंद्रमा दूसरे ग्रहों की स्थितियों से बनने वाले रोग कारक योगों को नष्ट करता है।
हालांकि स्पष्ट कर दिया गया है कि चंद्रमा को सूर्य से न्यूनतम 70 अंश दूर होना चाहिए। रोगों के संदर्भ में इस योग का बहुत महत्त्व है, इसलिए यहां दोहरा रहा हूं। चंद्रमा मन का कारक है। यदि मानसिक क्षमता अच्छी होगी, तो हम रोगों से संघर्ष कर पाने में सक्षम होंगे।
यह केवल किताबी तथ्य नहीं है। यदि आप उन जन्मांगों की एक सूची बना लें, जिनके कि चंद्रमा पक्षबली हो (सूर्य से पर्याप्त दूर हो), तो आप पाएंगे कि इन लोगों में अद्भुत जिजीविषा होती है। यदि दूसरे योगों के कारण ये रोगग्रस्त हों, तो भी इनकी जीवन शैली से आप आश्चर्यचकित रह जाएंगे। यह चमत्कार पक्षबली चंद्रमा का है ।
संक्षेप में यह स्मरण रखें कि सूर्य और चंद्रमा के मध्य जितनी अधिक दूरी होगी, उतनी ही शुभ होगी। खास बात यह है कि यह पृथकता स्वास्थ्य के साथ आर्थिक सबलता भी प्रदान करती है।
आयु का भाव है- अष्टम भाव
अष्टम भाव को मृत्यु या आयु का भाव कहा गया है। यह स्वास्थ्य का प्रत्यक्ष द्योतक नहीं है। आयु और स्वास्थ्य एक दूसरे के पूरक हैं, अतः अष्टम के ग्रह योगों से स्वास्थ्य के संदर्भ में कुछ संकेत प्राप्त हो सकते हैं। अष्टम मृत्यु का संकेत तो देता ही है, साथ ही मृत्यु के कारणों पर भी अष्टम का ही अधिकार है।
सरल भाषा में कहा जाए तो कहना चाहिए कि अष्टम और इससे संबंधित ग्रह की प्रकृति के अनुसार ही रोग का निर्धारण करना चाहिए। यहां रोग के निर्धारण से अर्थ उन दो श्रेणियों से है, जिनका कि मैं यहां उल्लेख कर रहा हूं । पहले तो आप यह समझ लें कि किसी एक भाव या ग्रह के आधार पर पूरे शरीर से संबंधित व्याधियों का आकलन कर पाना संभव नहीं है।
इसका कारण यह है कि शरीर के विभिन्न अंग विशेषों का प्रतिनिधित्व भिन्न भाव करते हैं। उदाहरण के लिए यदि जन्मांग में द्वितीय और द्वादश दूषित हों, तो आंखों और वाणी की शुद्धता को प्रभावित करता है । इसी प्रकार सप्तम भाव से कमर का विचार किया जाता है। आगे के पृष्ठों में प्रत्येक भाव के अनुसार रोग विचार दिया गया है। इसको स्मरण रखने भर से और जन्मांग में पाप ग्रहों की स्थिति को देखने मात्र से जातक का कौन-सा अंग रोगग्रस्त है, बताया जा सकता है।
अष्टम भाव से स्वास्थ्य का सीधा संबंध नहीं है, लेकिन मृत्यु का सीधा संबंध है । मृत्यु के कारणों की दो श्रेणियां हैं – एक है स्वाभाविक मृत्यु और दूसरी है अस्वाभाविक । स्वाभाविक मृत्यु वह है, जो कि उन रोगों के कारण होती है, जो आमतौर पर होते हैं । स्वाभाविक मृत्यु की श्रेष्ठ परिणति है वृद्धावस्था के कारण मृत्यु का होना ।
अस्वाभाविक मृत्यु वह है, जो कि किसी दुर्घटना, हथियार के प्रहार से या किसी घृणित रोग से हो । जब अष्टम में पाप ग्रह हों, तो अस्वाभाविक मृत्यु होती है । इसी प्रकार सौम्य और शुभ ग्रहों के होने से स्वाभाविक मृत्यु होती है। इस प्रकार आप अष्टम पर विचार से रोग की मूल प्रकृति के संबंध में कुछ संकेत प्राप्त कर सकते हैं।
निष्कर्ष के लिए समग्र अध्ययन करें
जैसा कि फलित सूत्रों में लिखा जा चुका है कि जीवन के किसी भी पक्षका अवलोकन करने के लिए कुंडली का समग्र अध्ययन आवश्यक है। केवल एक योग के आधार पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना संभव नहीं है । यही सिद्धांत स्वास्थ्य के संदर्भ में भी है।
लग्न, षष्ठ, चंद्रमा और अष्टम के साथ ही दूसरे योगों पर भी पर्याप्त ध्यान देना चाहिए। निष्कर्ष प्राप्त करने से पूर्व गोचर, विंशोत्तरी दशा का अवलोकन भी करना होगा। यह सब फलित पर आपके अधिकार को बढ़ाएगा और आपके आत्मविश्वास में वृद्धि होगी।
संभावित रोग और ज्योतिष
मनुष्य ने जिस प्रकार भौतिक उन्नति की है, उसी प्रकार रोगों में भी वृद्धि हुई है । हालांकि औसत आयु बढ़ी है, लेकिन रोगों के प्रकार भी बढ़े हैं। सैकड़ों नए रोगों की खोजें हुई हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में कुछेक रोगों का ही उल्लेख है। इसलिए प्राचीन ग्रंथों के आधार पर रोगों की प्रकृति के संबंध में निर्णय करना कठिन है। इन सब के बावजूद भारतीय आचार्यों ने जो सिद्धांत विकसित किए थे, वे कमोवेश आज भी प्रासंगिक हैं । यह अलग तथ्य है कि इन संकेतों को हमें वर्तमान युग के अनुसार परिवर्तित करना होता है। इन सबको समझने के लिए आधुनिक रोगों की एक विस्तृत सूची बनाने की आवश्यकता है। यदि हम ऐसा कर पाते हैं, तो निश्चय ही प्राचीन ज्योतिष का उपयोग वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कर पाएंगे। मैं जिस पद्धति का उल्लेख कर रहा हूं, वह प्राचीन सिद्धांतों पर आधारित होकर भी मौलिक और नवीन है । पाठकों को इससे बहुत लाभ होगा ।
यदि आप आधुनिक रोगों की प्रकृति के अनुसार एक सूची बनाते हैं, तो स्पष्ट हो जाता है कि आधुनिक समय के अधिकतम रोग अंग विशेष पर आधारित हैं । आयुर्वेद की तरह वात, पित्त और कफ जैसी क्लिष्ट अवधारणाएं नहीं हैं, जो रोग अंगों पर आधारित नहीं हैं । वे रक्त और त्वचा जैसे आंतरिक और बाहरी अवयवों पर निर्भर करते हैं । इस श्रेणी के रोगों को भी राशियों और ग्रहों के आधार पर आसानी से तय किया जा सकता है। आगे के पृष्ठों पर रोगों और ग्रहों से संबंधित सारणी दी जा रही है, लेकिन इससे पूर्व यह जान लेना श्रेयस्कर है कि यह पद्धति किस प्रकार कार्य करती है।
यहां जिस पद्धति का उल्लेख किया जा रहा है, वह राशि, ग्रह और भावों का सम्मिलित रूप है। इस पद्धति का मूलाधार यही है कि कोई भी राशि या ग्रह अपनी प्रकृति से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं हो पाता है ।
जैसे किसी स्त्री के जन्मांग में मंगल पंचमस्थ है, तो वह संतान संबंधी किसी-न-किसी समस्या को उत्पन्न अवश्य करेगा । पहली संतान की उत्पत्ति में बाधा या गर्भपात बढ़ाएगा। इस स्थिति में दूसरे सकारात्मक प्रबल योग भी मुश्किल से ही लाभ दे पाते हैं ।
इसी प्रकार जब शुक्र सप्तमस्थ हो, तो निश्चित रूप से कमर संबंधी रोग होंगे। शास्त्रों में लिखा है कि जो भाव दूषित या पाप प्रभावित होता है, उस भाव, उसमें स्थित राशि और उस भाव में पड़े ग्रहों से संबंधित अंगों में रोगों के होने की संभावना अधिक होती है। जैसा कि आप जानते हैं, आधुनिक रोग अंग विशेष पर आधारित हैं । अतः इस आधार पर रोग की प्रकृति के संबंध में आसानी से जाना जा सकता है।
आगे राशि, भाव और ग्रहों के अनुसार रोगों का वर्गीकरण किया जा रहा है। इसका लाभ यह है कि किसी रोग विशेष के संबंध में यह पता लगाया जाना आसान होगा कि इस रोग का प्रतिनिधित्व कौन-सी राशि, भाव या ग्रह कर रहा है।
राशियों के आधार पर रोगों का निर्णय
राशियां जहां अपने नक्षत्रों और स्वामी ग्रहों के अनुसार रोगों का सृजन करती हैं, वहीं अपनी प्रकृति के अनुसार शारीरिक अंगों का प्रतिनिधित्व भी करती हैं ।
मेष : पित्त प्रकृति की यह राशि पुरुष के शरीर में सिर, मुख और मस्तिष्क का प्रतिनिधित्व करती है। चेहरे, सिर और मस्तिष्क से संबंधित जो रोग हैं, उन सबका विचार मेष राशि से करना चाहिए। जुकाम या नजला, रुधिर धमनियां, व्यसनों का आदीपन, चेहरे या सिर पर चोट, मानसिक उन्माद, अनिर्णय या विवेकहीनता की स्थिति, शीतजनित रोग, लकवा, चेचक, मिरगी, होठ और दांतों संबंधी रोग मेष राशि के स्वामित्व में आते हैं।
वृष : यह राशि स्थूल मस्तिष्क और स्थूल शरीर की है। होठों से नीचे से गले तक के रोगों का विचार वृष राशि से किया जाता है। उपरोक्त के साथ टांसिल, गरदन के पीछे का भाग, श्रवणेंद्रिय आदि का विचार भी वृष राशि से करना चाहिए ।
मिथुन : यह राशि आंखों पर सकारात्मक प्रभाव डालती है। इसका शरीर संतुलित है। कंधे से नीचे और वक्षस्थल तक का स्थान मिथुन राशि के अंतर्गत है । शरीर के इन भागों में रोग मिथुन की स्थिति के अनुसार होते हैं। बालारिष्ट, त्वचा रोग, ज्वर, कंधों की हड्डियां, कोढ़ और पाचन शक्ति का विचार भी मिथुन राशि से करना चाहिए।
कर्क : यह एक जलीय राशि है। कर्क राशि के प्रभाव से शरीर स्थूल होता है । मानसिक और जलीय रोगों पर कर्क का अधिकार है। क्षय रोग, श्वसन प्रणाली की दुर्बलता, फेफड़ों से संबंधित दूसरे रोग, स्तन, आंतें, भोजन नलिका, वमन, हिचकी, खांसी, गैस्ट्रिक, गुप्तरोग और शीतजनित रोगों का विचार भी कर्क राशि से करना चाहिए।
सिंह : पेट (उदर) में होने वाले रोगों का विचार सिंह राशि से किया जाता है। इसकी प्रकृति पित्त है। आयुर्वेद में जो पित्त तत्त्व के रोग हैं, उनका विचार भी सिंह राशि से किया जाता है। यद्यपि सिंह राशि का उदर पर अधिकार माना गया है, लेकिन आधुनिक मत से हृदय रोग का भी विचार भी इसी राशि से किया जाता है । उपरोक्त के अलावा नसों का खिंचाव, पेट के घाव, गैस्ट्रिक, पीठ का दर्द, गुर्दों की शिकायत, यकृत (लीवर) के रोग, अल्सर, गर्भपात और स्त्रियों के मासिक धर्म में अनियमितता का विचार भी सिंह राशि से करना चाहिए ।
कन्या : हालांकि यौन रोगों का विचार वृश्चिक राशि से किया जाता है, लेकिन जब कन्या राशि पाप प्रभावित हो, तो जातक लंपट हो सकता है, जिसके कारण एक उम्र के बाद यौन रोगों की संभावनाएं बढ़ सकती हैं । प्रायः स्वजनित यौन रोगों का कारण कन्या राशि हो सकती है। वायु विकार, आंतों के रोग, वमन, लीवर, हार्निया, नसों का कड़ापन, टाइफाइड, हाजमें की अनियमितता, त्वचा रोग और कमर के रोगों पर भी कन्या राशि से विचार करना चाहिए।
तुला : तुला राशि से मूलतः पेडू (मानव शरीर में नाभि के नीचे तथा मूत्रेंद्रिय से ऊपर का स्थान) का विचार किया जाता है। इसके साथ ही मूत्राशय से संबंधित रोग, मूत्राशय की पथरी, हार्निया, मधुमेह, तनाव से उत्पन्न मानसिक विकार, हिस्टीरिया, मूत्र की कार्यप्रणाली का अवरोध या अनियमितताएं, यौन रोग, कुष्ठ और बेहोशी का विचार भी तुला राशि से करना चाहिए ।
वृश्चिक : मूत्र मार्ग (जननेंद्रिय जैसे-नरों में लिंग और मादाओं में योनि के ऊपर का स्थान) पर वृश्चिक राशि का अधिकार है। जब वृश्चिक राशि, शुक्र और अष्टम भाव पाप दूषित हो, तो निश्चित रूप से लिंग और गुदा स्थान में रोग होता है। उपरोक्त स्थिति में स्त्रियों का मासिक धर्म अनियमित या कष्टपूर्ण हो सकता है।
मूत्राशय के रोग, कब्ज, बवासीर (गुदेंद्रिय में मस्से निकलने का रोग, पाइल्स), मलाशय के बाहर या कूल्हों पर घाव या फोड़े, गुर्दे की पथरी, लिकोरिया, कब्ज और रक्त संबंधी रोगों पर भी वृश्चिक राशि से विचार करना चाहिए ।
धनु : दोनों जंघाओं के रोगों पर धनु राशि से विचार करना चाहिए। चलने में कठिनाई या उठते समय कमर के नीचे दर्द, नितंब (शरीर में कमर के नीचे एवं जांघ के ऊपर का पिछला अर्द्ध गोलाकार मांसल भाग) पर घाव या फोड़े, गठिया, रक्त की नाड़ियां और नाभि के नीचे के अंगों में सन्निपात का विचार धनु राशि से करना चाहिए।
मकर : दोनों घुटनों की स्थिति के लिए मकर राशि प्रधान है। घुटनों में दर्द होना, उठने-बैठने में कठिनाई, जोड़ों के दर्द, पाचन शक्ति की निर्बलता, लकवे के कारण पैदा हुआ लंगड़ापन और घुटनों की अस्थियों पर भी मकर राशि से विचार करना चाहिए
कुंभ : पिंडलियों पर कुंभ राशि का अधिकार है। पिंडलियों के रोग, पैरों की हड्डियों का टूटना (फ्रेक्चर), कुछ विद्वानों के अनुसार हृदय की गति, कार्यों के प्रति शिथिलता (आलस्य), पैरों का सूजना और घुटनों के पिछले भागों का भी विचार कुंभ राशि से करना चाहिए ।
मीन : दोनों पैरों में मीन राशि की स्थिति मानी गई है, अतः पैरों के पंजों या टखनों के रोग मीन राशि से देखने चाहिए। उपरोक्त के अलावा पैरों में पसीना आना, पोलियो उत्पन्न पाद-विकृति, चलने के दौरान की थकावट, बिवाइयां, पैरों के आइटन (पैरों के सूखे घाव जिनके कारण चलते समय दर्द होता है, इनकी जड़ें गहरी होती हैं और इनको प्रायः साधारण शल्य-चिकित्सा द्वारा दूर किया जाता है), पैरों की सुन्नता, और कुछ मामलों में आंतों में क्षय का विचार भी मीन राशि से किया जाता है।
जब कुंडली शरीर में रोग के संकेत करती है, तो रोग की प्रकृति को जानना शेष रहता है । इसी संदर्भ में मैंने राशियों के आधार पर रोगों का निर्णय करने के लिए उपरोक्त वर्णन किया है। इस आधार पर पाठक जान सकेंगे कि जातक के जन्मांग में कौन-सी राशि सर्वाधिक पाप प्रभावित है। यहां रोग की प्रकृति के आकलन का एक चरण पूरा हो जाता है।
मैं प्रयास कर रहा हूं कि पाठकों को रोगों के संबंध में सरलता से ज्ञान हो सके। यही कारण है कि मैंने सभी उपयोगी पक्षों का स्पष्टीकरण कर दिया है। इस प्रकार समझने में आसानी होगी ।
ग्रहों के आधार पर रोगों का निर्णय
मनुष्य के शरीर में होने वाली बीमारियों को कुछ वर्गों में विभक्त करके इनको नवग्रहों के अधिकार क्षेत्र में रखा गया है। जैसे हड्डियों के रोगों का कारक ग्रह सूर्य माना गया है। इस प्रकार अन्य ग्रह भी रोगों को अपनी प्रकृति के अनुसार प्रभावित करते हैं। आगे ग्रहों से संबंधित रोगों का वर्णन किया जा रहा है। जन्मांग में जो ग्रह पाप प्रभावित या अन्य कारणों से दुर्बल होगा, वह अपनी प्रकृति के अनुसार रोगों को उत्पन्न करेगा। अंतिम निर्णय से पूर्व दूसरे योगायोगों का आकलन कर लेना चाहिए।
सूर्य : सूर्य अग्नि तत्त्व का ग्रह माना गया है। सूर्य से हड्डियां, हृदय, सिर, चेहरा, रक्त धमनियां, आंखें, अल्सर, ज्वर, गर्मी जनित रोग, मिर्गी और पेट संबंधी कुछ रोगों पर सूर्य का अधिकार है ।
चंद्रमा : चंद्रमा एक जलीय ग्रह है। छाती के रोग, खांसी, जुकाम, पेट, आंखें, नजला, सर्दी जनित रोग, भोजन की अरुचि, जलोदर, फेफड़े, स्मरण शक्ति, निद्रा का अभाव, दस्त, शरीर पर श्वेत चकत्ते, रक्त, मानसिक अशांति और उन्माद रोग आदि का विचार चंद्रमा से करना चाहिए।
मंगल : अग्नि तत्त्व का ग्रह मंगल प्रधानतः उन रोगों की उत्पत्ति करता है, जिनका उपचार प्रायः शल्य क्रिया (ऑपरेशन) द्वारा ही संभव हो सके । किन्हीं दुर्घटनाओं या दूसरे कारणों से अंगों का कटना फटना या रक्तस्राव मंगल के प्रधान रोग हैं । उपरोक्त के अलावा सिर, मस्तिष्क, नाक, अंडकोष, मज्जा, गले का सूखना, पित्त, विषपान, फोड़ा, कुष्ठ और शस्त्र से हुई अंगहानि का विचार भी मंगल से ही करना चाहिए।
बुध : पृथ्वी तत्त्व के ग्रह बुध का त्वचा पर विशेष अधिकार है। इसके अलावा बांहें, ज्वर, पीलिया, खुजली, वाणी संबंधी दोष, श्वसन नलिका, गले की खराश, आंतें, सफेद दाग और नपुंसकता संबंधी दोषों आदि का कारकत्व भी बुध को ही प्राप्त है।
बृहस्पति : आकाश तत्त्व की प्रधानता से युक्त बृहस्पति, जांघ, कूल्हे, बेहोशी, अंगों का सुन्न होना और दाएं कान पर अधिकार रखता है । उपरोक्त के अलावा लकवा, मोटापा, पैर, पक्षाघात, लीवर, देव दोष से उत्पन्न विकार और कफ का विचार भी बृहस्पति से करना चाहिए ।
शुक्र : जलीय ग्रह शुक्र प्रधानतः वीर्य का कारक माना गया है । वीर्य की न्यूनता या नपुंसकता, दूसरे सभी जनन अंगों के रोग, संभोग की विफलता, स्वप्न में वीर्य स्खलन, काम पीड़ा और वेश्या गमन से उत्पन्न सभी दोषों का विचार भी शुक्र से करना चाहिए। इसके अलावा ठोड़ी, गला, वात रोग, मूत्रदोष, मधुमेह, गाल और नेत्रों का विचार भी शुक्र से करना चाहिए ।
शनि : वायु तत्त्व की प्रधानता का ग्रह शनि मूलतः गुदा संबंधी रोग, बायां कान, मानसिक अशांति और घुटनों का कारक है। इन सभी रोगों का विचार शनि की स्थिति के अनुसार करना चाहिए। उपरोक्त के अलावा वायु विकार, पेट के रोग, दुर्भाग्य से उत्पन्न मानसिक अशांति, अधिक श्रम के कारण होने वाले रोग, विष, वाणी की कठोरता, पैर, मद्यपान या दूसरे व्यसनों से उत्पन्न रोग और दुर्घटना से होने वाली शरीर हानि का विचार भी शनि से ही करना चाहिए ।
राहु : वायु तत्त्व की प्रधानता वाले ग्रह राहु से मुख्यतः विष या काटने से होने वाले रोग और प्रेत बाधा का विचार राहु से किया जाता है। उपरोक्त के अलावा विचलता, हृदय रोग और कोढ़ का विचार भी राहु से ही करना चाहिए ।
केतु : अग्नि तत्त्व का ग्रह केतु शत्रु भय, श्राप से उत्पन्न रोग और स्वप्नों में भय पैदा करता है।
भावों के आधार पर रोगों का निर्णय
राशि और ग्रह के अनुसार रोग निर्धारण के क्रम में भावों के अनुसार भी रोगों का निर्णय करना चाहिए। फलित ज्योतिष में जीवन की किसी भी घटना को देखने के लिए भाव, भावेश और उसके कारक ग्रह की शुभाशुभ स्थिति का आकलन किया जाता है।
रोग निर्धारण में भी इसी परिपाटी का अनुसरण करना चाहिए । रोग से संबंधित राशियां और उनके कारक ग्रहों के संबंध में पाठक जानकारी प्राप्त कर चुके हैं, लेकिन यह जानना भी आवश्यक है कि कौन-सा भाव किस अंग का प्रतिनिधित्व करता है। यह सब किसी रोग के सही-सही आकलन के लिए आवश्यक है। भाव और उनके प्रतिनिधित्व के अंतर्गत आने वाले अंग निम्नलिखित हैं ।
लग्न : जन्म से तुरंत बाद के कुछ माह तक उत्पन्न होने वाले सभी तरह के रोगों का विचार लग्न से करना चाहिए। इसके साथ ही चेहरे की कांति, मुख के आंतरिक रोग और सिर आदि का विचार भी लग्न से करना चाहिए।
द्वितीय : गला, दायां नेत्र और वाणी ।
तृतीय : दायां कान, फेफड़े और वक्षस्थल के ऊपर का भाग।
चतुर्थ : हृदय, वक्षस्थल, शांति और शारीरिक सुख आदि ।
पंचम : पेट, पीठ और गर्भ संबंधी रोग ।
षष्ठ : आंतें और कमर ।
सप्तम : काम वासना, पुरुषत्व, मूत्रेंद्रिय और वीर्य आदि ।
अष्टम : गुदा स्थान, कष्ट, अंडकोष, मानसिक चिंता और क्लेश ।
नवम : नितंब और जांघ ।
दशम : घुटने और निद्रा ।
एकादश : पिंडलियां, शारीरिक ऊंचाई और बायां कान ।
द्वादश : पैर, दुःख और शयन सुख ।
रोगो का वर्गीकरण
पिछले पृष्ठों में राशि, ग्रह और भावों के अनुसार रोग की प्रकृति के संबंध में वर्णन किया जा चुका है। इससे पूर्व यह बताया जा चुका है कि जन्मांग शरीर की स्थिति के संबंध में समग्र रूप से क्या संकेत देता है। मैंने पूरा प्रयास किया है कि पाठक आसानी से जन्मांग से रोगों के संकेतों को पकड़ सकें ।
वैसे तो क्षय रोग के रोगाणु शरीर के किसी भी अंग पर अपना प्रभाव डाल सकते हैं, लेकिन फेफड़ों के क्षय रोग के मामले अधिक संख्या में प्रकाश में आते हैं । प्रायः विद्वानों का मत है कि क्षय रोग का विचार कर्क राशि, चंद्रमा और चतुर्थ भाव से करना चाहिए। लेकिन कर्क राशि, चंद्रमा और चतुर्थ से केवल छाती के क्षय रोग का ही विचार करना चाहिए। दूसरे अंगों या हड्डियों में क्षय रोग हो, तो उपरोक्त कारकत्व बदल जाते हैं । जब जन्मांग में कर्क राशि, चंद्रमा और चतुर्थ भाव पाप प्रभावित हो, तो क्षयरोग की उत्पत्ति होती है ।
कुंड्ली संख्या-1 देखें। छाती के क्षय रोग का यह अच्छा उदाहरण है। इस उदाहरण में
- चतुर्थ भावगत राहु और चंद्रमा है ।
- जन्मांग में राहु की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यहां राहु क्षय रोग के भाव चतुर्थ, भावेश सूर्य और कारक ग्रह चंद्रमा तीनों को संयुक्त रूप से प्रभावित कर रहा है।
- चतुर्थेश सूर्य रोग स्थानाधिपति शुक्र से मृत्यु के स्थान अष्टम में युति करता है ।
- सूर्य धनु राशि के 11 अंश और 58 कला पर है। यह केतु के गंडमूल नक्षत्र ( सतइसा दोष लगने वाला नक्षत्र) में स्थित है, जो कि रोग को उत्पन्न करता है।
- लग्नेश शुक्र अष्टमस्थ होकर अस्त है, जो कि शरीर की रोग निरोधक क्षमता का नाश करता है।
जातक दीर्घ काल तक क्षय रोग से पीड़ित रहा।
कुंड्ली संख्या-2 देखें ।
- चतुर्थ भाव में राहु है और शनि की चतुर्थ पर पूर्ण दसवीं दृष्टि है। शनि यहां पुनः भाव और भावेश को प्रभावित कर रहा है।
- भावेश बुध की शनि से युति है।
- चंद्रमा केतु के नक्षत्र में है।
- फेफड़ों के क्षय रोग के लिए चंद्रमा और शुक्र का प्रभावित होना भी आवश्यक है। शुक्र रोग स्थान में शत्रु राशिगत है और मंगल से दृष्ट है।
- चतुर्थ पर किसी भी शुभ ग्रह की दृष्टि नहीं है।
इन सभी कारणों से जातक को फेफड़ों में क्षय रोग की उत्पत्ति हुई, लेकिन लग्नेश के सप्तमस्थ होने से जातक वर्तमान में पूर्ण स्वस्थ है।
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