कुंडली से जीवनसाथी का चुनाव
भारतीय समाज में विवाह को एक प्रमुख संस्कार माना गया है। इसके बिना जीवन को अपूर्ण समझा जाता है। अब से कुछ वर्षों पहले तक एक निश्चित आयु में अभिभावक अपनी संतान के विवाह को संपन्न करने के प्रयास में लग जाते थे। अधिसंख्य विवाह एक आयु विशेष में संपन्न हो जाते । गांवों और छोटे कस्बों में अब भी यह परिपाटी है कि लड़का और लड़की की पहली मुलाकात शादी के मंडप पर होती है। इसके बावजूद भारत में विवाहों की सफलता दूसरे सभी देशों की तुलना में सर्वोच्च है। इसका एक कारण मुहूर्त ज्योतिष में छिपा है।
जनमानस में ये मुहूर्त इतने लोकप्रिय हैं कि कुछ शहरों में एक ही शुभ दिन में सैकड़ों विवाह संपन्न होते हैं। मुझे आश्चर्य होता है विवाह की सजावट आदि की व्यवस्था करने वाले लोग या संस्थाएं एक दिन के लिए काम की मारा-मारी में रहते हैं और दूसरे दिन सभी निठल्ले हो जाते हैं। यह सब भारतीय ज्योतिष का चमत्कार है।
वैवाहिक जीवन के कारक ग्रह एवं भाव
शास्त्रों में निर्देश है कि जीवन साथी को लग्न से सप्तम भाव से देखना चाहिए। इसे स्त्री भाव भी कहा जाता है । भाव और भावेश की स्थिति के अनुसार जीवन साथी का निर्णय किया जाता है। विवाह के कारक ग्रहों में शुक्र सर्वोपरि है और सहायक ग्रहों में बृहस्पति और मंगल है।
जैसा कि पाठक जानते हैं कि भाव की स्थिति के अनुसार भाव के फलों की प्राप्ति होती है। सप्तमेश यदि उच्चस्थ मित्र राशिगत या स्वराशि में हो, तो भाव के शुभ फलों की प्राप्ति होती है। जातक को सुसंस्कृत और स्वस्थ जीवन साथी की प्राप्ति होती है। दांपत्य जीवन में मधुरता बनी रहती है।
सप्तमेश यदि षष्ठ, अष्टम या द्वादशस्थ हो, तो विवाह में विलंब होता है या समय पर विवाह के बाद दांपत्य जीवन में कटुता रहती है। दूसरे योग भी विपरीत हों, तो अलगाव की स्थिति भी आ सकती है।
भावेश की स्थिति के आधार पर निर्णय करने पर एक चरण समाप्त हो जाता है। यदि भावेश प्रतिकूलता व्यक्त कर रहा हो, तो सप्तम पर पाप प्रभाव को देखना चाहिए। शनि, मंगल, सूर्य, राहु और केतु पाप ग्रह हैं । सप्तम और सप्तमेश पर इन ग्रहों का जितना प्रभाव होगा, दांपत्य में क्लेश और वैमनस्य की संभावनाएं उतनी ही बलवती होंगी।
कुछ जन्मांगों में सप्तम भाव पर पाप प्रभाव कम होता है, लेकिन सप्तमेश पाप और क्रूर ग्रहों से प्रभावित रहता है। इस स्थिति में भी कमोवेश उपरोक्त फलों की ही प्राप्ति होती है । पाप ग्रह मूलतः पृथकतावादी ग्रह होते हैं। सप्तम भाव परिवार और संगठन का प्रतिनिधित्व करता है । अतः पाप ग्रह इस संगठन में बाधा डालते हैं और इसमें विघटन करवा देते हैं ।
मंगलीक का हौवा
मान्यता है कि लग्न से लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादश में से किसी एक भाव में यदि मंगल पड़ा हो, तो वह कुंडली मंगलीक कुंडली कहलाती है। इसका फल है कि जातक का वैवाहिक जीवन तनावग्रस्त रह सकता है, अलगाव हो सकता है। या जीवन साथी की मृत्यु भी संभव है। इसका श्रेष्ठ निवारण है कि यदि किसी पुरुष जन्मांग में मंगल इन भावों में हो, तो उस लड़की के जन्मांग में भी इन्हीं किसी भावों से एक भाव में मंगल होना अनिवार्य है । अर्थात् मंगलीक वर के लिए मंगलीक कन्या का ही चुनाव किया जाता है।
ज्योतिष में परिहारों की भरमार है। मंगलीक दोष एक है, लेकिन इसके परिहार दर्जनों हैं । मेरा जहां तक अनुभव है, दरअसल मंगल का उपरोक्त भावों में होना ही दांपत्य जीवन में क्लेश या अलगाव की स्थिति को प्रकट करने के लिए सक्षम नहीं है ।
आश्चर्य तो यह भी है कि कुछ प्राचीन ग्रंथों में मंगल दोष का उल्लेख भी नहीं है । यद्यपि इस तथ्य का लगभग सभी ग्रंथ समर्थन करते हैं कि पाप ग्रह सप्तम को दूषित करते हैं। मंगल भी एक पाप ग्रह है, अतः वह भी दांपत्य के सुखों में बाधा पैदा करे, तो कोई आश्चर्य नहीं है । क्योंकि यह इसका स्वभाव है।
इन तथ्यों से निष्कर्ष निकलता है कि केवल मंगल ही जीवन साथी से संबंधों को बिगाड़ने में एकमात्र पाप ग्रह नहीं है, जैसा कि मंगलीक दोष के अंतर्गत आता है । मंगल सहित दूसरे सभी पाप ग्रह भी यदि सप्तम और सप्तमेश को प्रभावित करें, तो भी मंगलीक सरीखा फल ही मिलता है।
दांपत्य जीवन के कारक ग्रह
पत्नी भाव का कारक शुक्र है । जीवन साथी के विचार के समय शुक्र जिस राशि में होता है, उसे द्वितीय लग्न की मान्यता प्राप्त है । यह ठीक वैसे ही है, जैसे कि चंद्रमा अधिष्ठ राशि को चंद्र लग्न कहा जाता है ।
वैवाहिक जीवन पर विचार करते समय शुक्र पर अवश्य विचार कर लेना चाहिए। शुक्र यदि सबल हो, तो सप्तमेश के दोष का परिहार करता है। शुक्र के दुःस्थानों में होने से विपरीत फलों की प्राप्ति होती है।
बृहस्पति की भूमिका
अर्वाचीनकाल में बृहस्पति की भूमिका शुक्र के समकक्ष ही है। हालांकि इस प्रकार का कोई आदेश शास्त्रों से नहीं मिलता है, लेकिन वर्तमान जीवन शैली को देखते हुए अनुभव में आता है कि यदि जन्मांग में बृहस्पति सुंदर न पड़ा हो, तो दांपत्य जीवन में कुछ कड़वाहट पैदा हो सकती है। इस पर यदि सप्तम, सप्तमेश और शुक्र भी विपरीत स्थिति के संकेत दे रहे हों, तो वैवाहिक जीवन की विफलता को रोकना मुश्किल है।
बृहस्पति विवेक का प्रधान कारक है । जिन लोगों की हथेलियों में बृहस्पति पर्वत विकसित नहीं हो, वे मूर्ख या स्थूल बुद्धि के स्वामी होते हैं । इनका जीवन जानवरों के समकक्ष होता है। लगभग यही स्थिति जन्म कुंडली में भी है।
जन्मांग में प्रबल बृहस्पति दूसरी सौ नकारात्मक स्थितियों पर हावी होकर जीवन को सफल बना देता है। यदि शुक्र के साथ बृहस्पति को भी देखें, तो फलित करने की हमारी क्षमता में वृद्धि होगी और निष्कर्ष अधिक सटीक होंगे।
जीवन साथी का रूप लावण्य
सम राशियां सुंदरता का प्रतिनिधित्व करती हैं । शुक्र, चंद्रमा और मंगल सुंदरता देने वाले ग्रह हैं। जिस पुरुष के जन्मांग के सप्तम भाव में सम राशिगत शुभ ग्रह हों, सम राशि यदि जलीय भी हो, सप्तम में शुक्र, चंद्रमा जैसे ग्रह हों या इन ग्रहों से सप्तम या सप्तमेश प्रभावित हो, तो रूप-लावण्य से भरपूर और अतीव सुंदर स्त्री की प्राप्ति होती है। शुक्र का समराशि में होना भी पत्नी या जीवन साथी की सुंदरता का प्रतीक है।
जब सप्तम में जलीय राशि और जलीय ग्रह हों, सप्तम पर शनि, राहु जैसे ग्रहों. का प्रभाव न हो और न ही सप्तम में अग्नि तत्त्व की राशि हो, तो भरे-पूरे अंगों वाली गोल-मटोल स्त्री जीवन संगिनी के रूप में प्राप्त होती है ।
सफलता-असफलता का आकलन
भाव, भावेश और कारक ग्रहों के सम्मिलित आकलन से वैवाहिक जीवन की सफलता या विफलता को आंकना चाहिए। मात्र मंगलीक दोष या सप्तम के पाप प्रभावित होने से ही किसी निर्णय पर नहीं पहुंचना चाहिए।
प्रस्तुत जन्मांग के
- सप्तम भाव में धनु राशि है, जिसका स्वामी बृहस्पति लग्न से द्वादश और सप्तम से षष्ठ पड़ा है और
- चंद्र लग्न से सप्तमेश शुक्र लग्न से अष्टमस्थ है, जिसे कि दांपत्य जीवन का कारकत्व भी प्राप्त है।
- सप्तमेश राहु के पाप प्रभाव में है।
- कुटुंब का स्वामी चंद्रमा केतु के साथ षष्ठ में है।
- सप्तम पर शुभ दृष्टि नहीं है। कोई भी ऐसा योग नहीं है, जो सप्तम को बल प्रदान करे।
- सप्तमेश बृहस्पति मृगशिरा नक्षत्र में है, जिसका कि स्वामी मंगल है।
- शुक्र श्रवण नक्षत्र में जो कि चंद्रमा का नक्षत्र है। ये दोनों ही नक्षत्र वैवाहिक जीवन के लिए शुभ नहीं हैं।
इसी कारण जातक को विवाह के तुरंत बाद अलगाव का सामना करना पड़ा ।
विवाह का समय
विवाह कब होगा? यह पूछे जाने वाले प्रश्नों में सर्वोपरि है। विवाह सामाजिक और शारीरिक दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । सभी चाहते हैं कि उनका विवाह एक निश्चित आयु में हो जाए, किंतु कुछ मामलों में ऐसा नहीं हो पाता है। यह कारण है कि विवाह में सामान्य विलंब के उपरांत ही व्यक्ति की विवाह के समय के प्रति उत्सुकता बढ़ जाती है। यह हमारा सौभाग्य है कि भारतीय फलित ज्योतिष में विवाह के वर्ष और माह की भविष्यवाणी की जानी संभव है, लेकिन इसके लिए पूर्ण दक्षता और अनुभव की आवश्यकता होती है।
अब तक की मान्यता है कि सप्तमेश की दशा या अंतरदशा में विवाह होता है, लेकिन अकसर ऐसा होता नहीं है। उन ग्रहों की दशाओं में भी विवाह होना संभव है, जो कि हमारी संभावनाओं के विपरीत हों। विंशोत्तरी दशा के आधार पर विवाह का समय निर्धारित करना हो, तो सर्वप्रथम यह भूल जाइए कि महादशा किस ग्रह की है। मात्र अंतरदशा की गणना कीजिए । सर्वदा प्रतिकूल ग्रह की दशा में भी विवाह होना संभव है, क्योंकि सूर्य, केतु और मंगल के अलावा सभी ग्रहों की महादशा के वर्ष दस या अधिक है। संभव है कि विवाह की सामाजिक आयु के समय ऐसे ग्रह की महादशा आरंभ हो चुकी हो, जो कि विवाह के संदर्भ में अनुकूल न हो, लेकिन जिसकी महादशा का समय इतना दीर्घ हो कि नए ग्रह की महादशा के आरंभ से पूर्व विवाह की आयु ही निकल जाए।
जैसे किसी जातक के शुक्र की महादशा 22 वर्ष की अवस्था में आरंभ होती है। यदि हम यह मानते हैं कि इस कुंडली में शुक्र की दशा में विवाह नहीं हो सकता है, तो हम यह मानकर चल रहे हैं कि जातक का विवाह 42 वर्ष की अवस्था तक नहीं होगा, क्योंकि शुक्र की महादशा का समय 20 वर्ष है। दरअसल यह ठीक नहीं है।
यदि हम यह जानते हैं कि इस जातक को शुक्र की दशा विवाह के लिए अनुकूल नहीं है, तो वास्तव में शुक्र की दशा से हमारा आशय शुक्र की अंतरदशा से होना चाहिए, जो कि 3 वर्ष और 4 मास है। इसके बाद हमें यह समझना चाहिए कि शुक्र की महादशा का शुभ या अशुभ फल समाप्त हो गया है। अंतरदशाओं से विवाह का विचार करना चाहिए। मैं जहां दशाओं का उल्लेख करूंगा, वहां मेरा आशय अंतरदशाओं से होगा।
ग्रहों में चंद्रमा, बृहस्पति और शुक्र है, जिनकी दशाओं में विवाह हो सकता है। उपरोक्त ग्रह यदि शुभ भावों के स्वामी होंगे, तो विवाह होने की संभावनाओं में वृद्धि होगी। जैसे शुक्र यदि लग्नेश, द्वितीयेश, चतुर्थेश, पंचमेश, सप्तमेश, नवमेश या एकादशेश हो और विवाह की अवस्था हो, तो शुक्र की दशा में निश्चित विवाह होता है। इसी प्रकार चंद्रमा और बृहस्पति का विचार करना चाहिए ।
लग्न, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम और एकादश की दशाओं में विवाह की प्रबल संभावनाएं होती हैं। सर्वप्रथम देश, काल और जाति के आधार पर विवाह की व्यावहारिक आयु तय करें और फिर उपरोक्त भावों के स्वामियों की दशाओं के अनुसार विवाह के वर्ष को निर्धारित करें।
प्रायः अनुभव में आता है कि अष्टमेश की दशा में भी विवाह हो जाता है, जबकि द्वादश भावों में अष्टम को निकृष्ट भाव माना गया है। हर स्थिति के दो पहलू होते हैं, अतः अष्टम जहां मृत्यु और निराशा का परिचायक है, वहीं यह सप्तम से द्वितीय होकर कुटुंब अथवा परिवार का प्रतिनिधित्व भी करता है। एक कारण यह भी है कि दांपत्य सुख के लिए शास्त्रों में सप्तम के साथ अष्टम को भी विचार योग्य माना है।
इस तथ्य को आप इस आधार पर समझें कि जिन लोगों के जन्मांग में द्वितीय में पाप ग्रह हों, वे अपने परिवार से अलग हो जाते हैं। मोटे तौर पर यह विघटन का प्रतीक है। चूंकि विवाह पर विचार के समय हम सप्तम को द्वितीय लग्न मानते हैं, इसलिए सप्तम से द्वितीय परिवार या कुटुंब का प्रतिनिधित्व करने लगता है ।
यही कारण है कि लग्नेश और अष्टमेश की दशा में विवाह होने की संभावनाएं दूसरे भावों के स्वामियों की दशाओं की तुलना में अधिक हैं, जो कि स्वाभाविक भी है।
मेरे सभी निर्देशों के बावजूद पाठकों को तैयार रहना चाहिए कि किसी भी भाव के स्वामी की दशा में विवाह संभव है। विंशोत्तरी दशा के आधार पर विवाह के समय को निकालना एक स्थूल आकलन है । यह तब बहुत कठिन हो जाता है, जबकि सप्तम भाव में पाप ग्रह पड़े हों ।
विवाह का समय तय करते समय यह अवश्य देख लेना चाहिए कि जन्मांग में विवाह के विलंब के योग तो नहीं हैं। जब सप्तम में पाप ग्रह हों या सप्तमेश पाप ग्रहों से दृष्ट हो, तो विवाह में विलंब होता है। शनि की उपस्थिति या दृष्टि हमेशा विलंबकारी सिद्ध होती है। यदि सप्तम और सप्तमेश दोनों शनि से प्रभावित हों, तो विवाह निश्चित रूप से बाधा के साथ और सविलंब संपन्न होता है।
गोचर ग्रहों के आधार पर विवाह का समय
प्रत्येक ग्रह अपनी दैनिक गति के अनुसार गतिशील है । शनि, बृहस्पति, राहु और केतु तो मंदगति के ग्रह हैं और शेष ग्रह तीव्र गतिशील हैं। जीवन में किसी भी घटना के समय को देखने के लिए शनि, बृहस्पति, राहु और केतु क्रमशः अधिक-अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
हमेशा स्मरण रखें कि व्यक्ति के जीवन में अच्छा-बुरा जो कुछ भी घटित होता है, उसके पीछे शनि की भूमिका निर्विवाद रहती है। शनि के बाद गोचर में बृहस्पति महत्त्वपूर्ण है । तीसरा ग्रह राहु है, जो शनि और बृहस्पति के समकक्ष ही महत्त्व रखता है। विवाह तभी होता है, जबकि ये तीन प्रमुख ग्रह गोचर में अनुकूल पड़े हों।
किसी दूसरी पद्धति से भी विवाह के समय को निर्धारित करते समय यह आवश्यक है कि गोचर के इन ग्रहों की अनुकूलताएं प्राप्त कर ली जाएं।
शनि जब गोचर में तृतीय, षष्ठ, नवम या एकादश में हो, तो विवाह के लिए अनुकूल होता है। यदि सप्तम में शनि की राशि हो, तो शनि की सप्तम पर दृष्टि भी अनुकूल है, लेकिन सप्तम में शनि की राशि न होने पर शनि की दृष्टि को प्रतिकूल ही समझना चाहिए।
राहु तृतीय, षष्ठ या एकादशस्थ होने पर ही शुभ है। शेष भावों में तटस्थ या प्रतिकूल है।
बृहस्पति का गोचर राहु और शनि की तुलना में महत्त्वपूर्ण है। अकसर अनुभव में आता है कि गोचर में जब बृहस्पति लग्न, तृतीय, सप्तम या एकादश में स्थित हो, विवाह की अवस्था हो और सप्तम भाव पापमुक्त हो, तो अवश्य ही विवाह संपन्न होता है।
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