राजयोग कैसे बनते हैं ?

मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं के अध्ययन क्रम में राजयोग यद्यपि अनिवार्य नहीं है, लेकिन इसमें एक आकर्षण अवश्य है । सामान्यतया सभी पुस्तकों में राजयोग का उल्लेख रहता है। यह इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि स्वतंत्रता के बाद भारत में भी अब आम आदमी के लिए इसे प्राप्त करना संभव हो गया है। सामान्य जन के दृष्टिकोण में राजयोग का अर्थ सरकार में भागीदारी है।

यह भागीदारी प्रशासन या राजनीतिक कहीं भी हो सकती है। सरकार के कार्यालयों में चपरासी का कार्य करने वाले से लेकर, मंत्रालयों के सचिवों तक और वार्ड पार्षदों से लेकर प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्षों तक लगभग एक ही राजयोग की श्रेणी में आते हैं।

यह अलग तथ्य है कि जन्मांग जितना ज्यादा शक्तिशाली होगा, उसे उसी अनुपात में राजयोग की प्राप्ति होगी। साधारण राजयोग तब बनता है, जब कि नवमेश और दशमेश का जन्मांग में कोई परस्पर संपर्क बन रहा हो। इस ग्रह स्थिति को साधारण राजयोग कह सकते हैं । व्यक्ति को इस राजयोग का क्या और कितना लाभ मिलेगा, यह जन्मांग की क्षमता पर निर्भर करता है। जैसा कि पिछले लेखों में स्पष्ट किया जा चुका है कि जन्मकुंडली का समग्र अध्ययन और मनन ही किसी सटीक निर्णय पर पहुंचने में सहायक हो सकता है। एकाध योग से किसी निर्णय पर पहुंचना तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता।

राजयोग अर्थ और सीमांकन

ज्योतिष के सदंर्भ में राजयोग की परिभाषा कुछ विस्तृत या कहना चाहिए कि अधिक परिपक्व है। यहां राजयोग का अर्थ सरकार में भागीदारी ही नहीं है, बल्कि इसका दायरा इससे बाहर भी फैला हुआ है। ज्योतिष में राजयोग का अर्थ धन और यश की प्रचुर प्राप्ति है। इस लेख में जिन राजयोगों को वर्णित किया गया है, उन सभी का आशय व्यक्ति का समाज में प्रतिष्ठित और धनी होना है। ऐसा व्यक्ति शीघ्र ही सफलता प्राप्त करके सभी नैतिक और अनैतिक सुख भोगता

है। यद्यपि इन योगों का अर्थ सरकार में भागीदारी से भी लेना चाहिए, तथापि यह आवश्यक नहीं है।

राजयोग कैसे बनते हैं

  • राजयोग के बनने का पहला पाठ नवम और दशम से आरंभ होता है । जब नवमेश दशम में हो या दशमेश नवम में हो या दोनों में राशि परिवर्तन योग हो, तो सामान्य राजयोग कहलाता है ।
  • इसके अलावा नवमेश स्वगृही हो, तो भी राजयोग होता है। लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि दशमेश की दृष्टि आदि द्वारा नवम से संबंध हो रहा हो ।

राजयोग को भली-भांति समझने के लिए पारंपरिक ग्रंथों की सम्मतियां आवश्यक हैं। प्राचीन ग्रंथों में ढेरों राजयोगों का वर्णन है, लेकिन इन सबको याद रखना संभव नहीं है। इसके लिए आवश्यक है कि हम उन प्रमुख राजयोगों को समझ लें, जो कि प्रायः अनुभव में सिद्ध होते हैं ।

  • अकसर केंद्र (प्रथम, चतुर्थ, सप्तम और दशम) और त्रिकोण (पंचम और नवम ) का संबंध राजयोग का सृजन करता है। त्रिकोण को लक्ष्मी (धन की देवी) की संज्ञा प्राप्त है और केंद्र को विष्णु (जीवन को भोग और गति देने वाले देव) कहा गया है। इनका किसी भी तरह से संबंध बनना राजयोग की उत्पत्ति करता है।
  • पंचम स्थान मंत्री पद है और एकादशेश मंत्री होता है। यदि इनका संबंध बन रहा हो, तो जातक अवश्य ही राजमान्य, धनी और महा यशस्वी होता है।
  • जन्मांग में दूसरे, छठे, आठवें और बारहवें भावगत सभी ग्रह हों, तो जातक चल-अचल संपत्ति का स्वामी होकर तेजस्वी, ऐश्वर्यवान और सत्ता में दखलअंदाजी रखने वाला होता है ।
  • लग्नेश, चंद्रमा और नवम भाव के बली होने से राजयोग होता है । जन्मांग में किसी एक योग के होने या न होने से ज्यादा अंतर नहीं पड़ता है। मूलतः कुंडली शक्तिशाली होनी चाहिए।

उच्चादि और वर्गोत्तमी ग्रहों से राजयोग

  • जब जन्मांग में दो या अधिक ग्रह उच्चस्थ या स्वगृही हों, तो जातक मुंह में चांदी के चम्मच के साथ पैदा होता है। उसे युवावस्था से ही सफलताएं मिलती हैं और कमोवेश सभी कार्य आशाओं के अनुसार सुसंपन्न होते हैं। जातक परोपकारी, उद्योगों में सफलताएं प्राप्त करने वाला, विद्वान और दीर्घायु होता है ।

राजयोग बनाने वाली सामान्य ग्रह-स्थितियां

पाठकों की सुविधा के लिए यहां प्रसिद्ध और अनुभवसिद्ध योगों का उल्लेख किया जा रहा है । प्रायः इनमें से एक या अधिक योगों के जन्मांग में उपलब्ध रहने से राजयोग होता है, लेकिन अंतिम निर्णय जन्मांग के विस्तृत अध्ययन के उपरांत ही करना चाहिए।

  • तीन या अधिक ग्रह उच्चस्थ या स्वगृही हों ।
  • दो या अधिक ग्रह वर्गोत्तमी हों ।
  • क्रूर एवं पाप ग्रह सूर्य, मंगल, शनि और राहु अपनी उच्च या स्वराशियों में या अपनी मूल त्रिकोण राशियों में हों ।
  • उच्चस्थ चंद्रमा का बृहस्पति से युति या दृष्टि संबंध हो ।
  • अधिकतम नैसर्गिक पाप ग्रह तृतीय, षष्ठ या एकादश में स्थित हों ।
  • नवमेश और दशमेश का लग्नेश से शक्तिशाली संबंध बन रहा हो ।
  • जब नीच ग्रह वक्री हो, लेकिन केंद्र या त्रिकोण में पड़ा हो ।
  • दशम में स्वगृही, उच्चस्थ या मित्रक्षेत्री मंगल हो और चंद्रमा वृष राशिगत हो ।
  • केंद्रों के स्वामी पाप ग्रह हों, लेकिन केंद्रों में शुभ ग्रहों की उपस्थिति हो ।
  • पाप और शुभ सभी ग्रह लग्न, चतुर्थ, सप्तम और दशम में स्थित हों ।
  • सूर्यादि सभी ग्रहों की स्थिति शीर्षोदयी राशियों में हो ।

कुंडली में उपरोक्त स्थितियों के होने पर जातक को राजयोग का सुख प्राप्त होता है। किंतु जैसा कि हम पहले स्पष्ट कर चुके हैं कि किसी योग के होने मात्र से जातक राजसुख का अधिकारी नहीं हो जाता। इसके लिए अन्य ग्रहों के आपसी संबंध, दृष्टि, मैत्री तथा राजयोग को खंडित करने वाले अन्य योगों का भी बड़ी बारीकी से अध्ययन करके ही निर्णय पर पहुंचना चाहिए ।


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