चन्द्र सम्बंधित अंग और रोग
जन्मकुंडली में 4, 6, 8 अथवा 12 वें भाव में चन्द्रमा हो, तो निश्चित ही रोग कारक बनते है। चन्द्रमा के पापी अथवा पीडित होने की स्थिति में जातक को खांसी, जुकाम, फेंफड़ों के रोग, प्लूरसी, मूर्च्छा, मन्दाग्नि, स्त्रियों में मासिक धर्म की अनियमितता, दमा, लकवा, पीलिया, गर्भ अथवा गर्भपात, गुप्त रोग, त्वचा रोग, पेट के रोग, रक्त विकार तथा मानसिक रोग का सामना करना पडता है।
प्रत्येक राशिस्थ चन्द्रकृत रोग
मेष राशि में – इस राशि में चन्द्रमा से मानसिक कष्ट, वीर्य विकार एंव नेत्रों से संबन्धित रोग अधिक परेशान करते है। यदि केतु की युति भी हो तो सिर में चोट लगने की संभावना रहती है। इसके कारण व्यक्ति को जीवनपर्यन्त पीडा बनी रहती है। राहू की युति होने पर व्यक्ति मद्यपान के कारण कष्ट उठाता रहता है।
वृष राशि में – इस राशि में चन्द्र होने से मुख रोग, गले के विकार, घाव, आधाशीशी का दर्द जैसे रोग सताते हैं। बुध भी यदि पीडित अथवा पापी स्थिति में हो तो जातक को वाणी विकार भी हो सकता है।
मिथुन राशि में – मिथुन राशि में चन्द्र के रहने पर फेफड़ों के रोग, स्त्रियों में वक्ष कैंसर, दमा, टी. बी. एंव वात विकार जैसे रोग उत्पन्न होते है। इस योग के साथ यदि द्वितीय भाव में कोई पापी ग्रह हो, तो पडोसी से सदैव मानसिक कष्ट उठाना पडता है।
कर्क राशि में – इस राशि में चन्द्र हृदय संबंधी रोग, लीवर कैंसर अथवा हैपेटाइटिस वीर्य विकार जैसे रोग देता है। यदि सूर्य भी कर्क राशि में हो तो जातक दुबले-पतले शरीर और सदैव रोग ग्रस्त ही बना रहता है। जातक को क्षय जैसे असाध्य रोग का भी सामना करना पड़ सकता है।
कन्या राशि में – इस राशि में चन्द्र के होने पर कोष्ठबद्धता, वीर्य विकार, आंतों का कैंसर अथवा प्लीहा रोग होता है। यदि बुध भी पीडित हो तो जातक शीघ्रपतन, गुप्त रोग अथवा नपुंसक (इन्पोटेंसी) तक का सामना करता है।
तुला राशि में – इस राशि का चन्द्र त्वचा रोग के साथ मूत्र संस्थान के रोग भी देता है अथवा जातक को मूत्राशय कष्ट से परेशान रखता है। यदि शुक भी पीडित अथवा पाप पीडित हो तो मूत्र के साथ वीर्य रोग भी रहता है।
वृश्चिक राशि – इस राशि में चन्द्र गुदा रोग, मल-मूत्र निष्कासन संबंधी कष्ट, भगन्दर, क्षय एंव स्नायु विकार जैसे रोग देता है।
धनु राशि में – इस राशि में चन्द्र के रहने से वक्षस्थल के रोग, रक्त विकार, कमर से निचले हिस्से में सदैव पीडा बनी रहती है। यदि इसके साथ शनि भी पीडित हो तो लकवा तक हो सकता है।
मकर राशि में – इस राशि का चन्द्र जातक को अस्थि रोग अवश्य देता है, विशेषकर अस्थि जोडों के रोगा साथ में सूर्य के पीडित होने पर कुष्ठ रोग तथा जल्दी-जल्दी अस्थि भंग का खतरा बना रहता है।
कुंभ राशि में – कुंभ का चन्द्र जातक को स्नायु विकार, सांस में अवरोध, घाव का देर से भरना और रक्त विकार देता है। इस चंद्र पर मंगल की क्रूर दृष्टि होने पर कान की शल्य क्रिया का योग बनता है, विशेषकर बायें कान का ऑपरेशन कराना पड सकता है।
मीन राशि में – इस राशि में चन्द्र रक्त विकार अधिक देता है, चाहे वह धमनी की समस्या हो अथवा अन्य यदि द्वादश भाव भी दूषित हो तो जातक अनिद्रा रोग से पीडित रहता है।
चन्द्रमा संबंधी विशेष रोग
ज्योतिष शास्त्र में ‘चन्द्रमा को मन का कारक कहा गया है। अतः यह स्वयं ही मानसिक रोग देता है। यद्यपि अन्य ग्रह की युति हो तो अन्य रोग भी प्रदान करता है। यदि जातक की जन्मकुंडली में चन्द्रमा पापी अथवा पीडित बन कर किसी अशुभ भाव में स्थित हो तो निम्न रोग दे सकता है:-
- जन्मकुंडली में चन्द्र और सूर्य दोनों के पीडित होने की स्थिति में दोनों नेत्र जबकि केवल चन्द्रमा के पीडित होने पर एक नेत्र में कष्ट होता है।
- कमजोर चन्द्र के साथ द्वादश भाव में बुध अथवा शनि हो तो बायें नेत्र में कष्ट रहता है। यदि इस योग को मंगल देख रहा हो तो नेत्र का ऑपरेशन तक कराना पडता है।
- द्वितीय भाव में चन्द्र और शुक्र के साथ कोई पापी ग्रह बैठा हो तो भी जातक अंधा हो सकता है।
- जन्मकुंडली के किसी भी भाव अथवा राशि में चन्द्रमा के साथ सूर्य की युति बनी हो तो क्षय जैसे जीर्ण रोग की संभावना रहती है।
- चन्द्र व सूर्य में राशि परिवर्तन योग बना हो तो रक्त अथवा पित्त विकार के साथ क्षय रोग हो सकता है।
- पीडित लग्नेश के साथ चन्द्रमा छठवे भाव में स्थित हो तो भी क्षय जैसे असाध्य रोग एंव हृदय रोग की संभावना रहती है।
- जब प्रथम भाव में चन्द्र के साथ पाप ग्रह स्थित रहे तो ‘सफेद कुष्ठ” की संभावना रहती है।
- जब मेष अथवा वृष राशि में शनि एंव मंगल चन्द्रमा के साथ बैठे, तो भी श्वेत कुष्ठ रोग की संभावना रहती है।
- जब जन्मकुंडली में बलहीन चन्द्रमा के साथ राहू की युति बनी हो तो ‘मिरगी’ जैसे रोग की आशंका रहती है।
- मेष राशि, लग्न व लग्नेश के पीडित होने पर भी मिरगी जैसे रोग की संभावना रहती है।
- प्रथम भाव में शुक तथा छठवे भाव में चन्द्र के स्थित रहने पर भी मिरगी हो सकती है।
- शुक्र व चन्द्रमा केन्द्र में तथा अन्य पापी ग्रह आठवें भाव में हों तो भी मिरगी की संभावना रहती है।
- चन्द्रमा के पापी ग्रह की राशि में रहने अथवा युति बनाने से मानसिक रोगों की संभावना बनी रहती है।
चन्द्र महादशा के फल
चन्द्र महादशा के फल देखने से पहले जन्मकुंडली का भली प्रकार से अध्ययन करना चाहिए। चन्द्रमा के साथ किसी ग्रह की युति अथवा दृष्टि से निश्चित बदलाव आते है। शुभ ग्रह, लग्नेश अथवा कारक ग्रह की युति अथवा दृष्टि से चन्द्रमा के अशुभ फल में कमी आती है।
यदि जन्मकुंडली में चन्दमा पापी, अकारक अथवा पीडित होकर बैठे हो तो उसकी दशाऽन्तर्दशा में अग्रांकित फल प्राप्त होते है। चन्द्र छठवें सातवें, आठवें तथा बारहवें भाव में विशेष अशुभ फल प्रदान करते है। यद्यपि चन्द्रमा पूर्ण पापी अथवा पीडित होने पर दशाऽन्तर्दशा के दौरान निम्न फल प्रदान करते है:-
- लग्नस्थ चन्द्रमा अनेक प्रकर के कष्ट देता है।
- दूसरे भाव में यह राजदण्ड का भय प्रदान करते है।
- पांचवे भाव में भी राजदण्ड के साथ अग्नि भय या कोई बडी चोरी का संताप दे सकते है।
- छठवे भाव में आग से कष्ट, जल से मृत्यु तुल्य कष्ट तथा मूत्र संस्थान के रोग से पीडित रखते है।
- सातवें भाव में चन्द्रमा से एपिन्डेक्स का ऑपरेशन कराना पड़ सकता है। अथवा जीवनसाथी के कारण मानसिक संताप बना रहता है।
- आठवें भाव के चन्द्रमा से जो कष्ट मिलें वही कम रहते है।
चन्द्र महादशा अन्तर्गत अन्य ग्रहों के अन्तर्दशा संबंधी फल
चन्द्र महादशा के उपरोक्त फल महादशा काल में कभी भी घटित हो सकते है, परंतु अन्य ग्रह की अन्तर्दशा में निम्न फल प्राप्त होते है।
चन्द्र में चन्द्र अन्तर्दशा फल – इस दशाकाल में चन्द्रमा यदि उच्च अथवा स्वक्षेत्री अथवा 1,5,9 अथवा 11 वें भाव अथवा भाग्येश के साथ हो तो वह जातक को सभी प्रकार का सुख, मान-सम्मान, आर्थिक लाभ, कन्या संतान की प्राप्ति अथवा वैवाहिक सुख की प्राप्ति कराते हैं।
यद्यपि चन्द्र के पापयुक्त, नीच अथवा शत्रु क्षेत्री रहने या 6 अथवा 8 वें भाव में रहने पर जातक को कई तरह की हानि उठानी पडती है। इसके अतिरिक्त राजदण्ड के साथ कारावास का भय, धन हानि, स्थान परिवर्तन, मानसिक संताप अथवा जीवन साथी से विछोह का सामना करना पड सकता है।
चन्द्र में मंगल अन्तर्दशा फल – जातक की जन्मकुंडली में यदि मंगल 1, 4, 5, 7, 9 या 10 वें भाव में हो तो इस समय जातक को राज्य से सम्मान, सौभाग्यादि में वृद्धि, अपने क्षेत्र में सफलता, शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है। यदि मंगल व चन्द्र दोनों ही उच्च अथवा स्वक्षेत्री हो तो और भी अधिक शुभ फल प्राप्त होते है।
यद्यपि मंगल अथवा चन्द्र के 6, 8 अथवा 12वें भाव में बैठने से विपरीत फल मिलते है। इससे चन्द्र की अशुभता बढती है। इसके साथ ही भाइयों से विरोध अथवा विछोह रक्त विकार, अग्नि एंव पित्त भय, शत्रु कष्ट व चोरी से हानि उठानी पड़ सकती है। इस काल में धन के साथ मान-सम्मान की हानि भी उठानी पड़ती है।
चन्द्र में राहू अन्तर्दशा फल – लग्न से राहू 1, 4, 5, 7, 9 अथवा 10 वें भाव में होने पर सभी प्रकार का भय, शत्रु पीडा, भाइयों व मित्रों से विरोध, आर्थिक क्षेत्र में हानि एंव अपमान तथा अन्य तरह के दुःख मिलते हैं। यद्यपि राहू के 3, 6,10 अथवा 11 वें भाव में होने अथवा शुभ दृष्टि रहने पर शुभ फलों में वृद्धि होती है।
राहू यदि चन्द्र से 6, 8 अथवा 12 वें स्थान पर बैठे हों तो अत्यधिक अशुभ फल मिलते है, जिसमें संतान से कष्ट, जीवनसाथी को कष्ट, स्थान परिवर्तन, किसी भी प्रकार की अचानक हानि अथवा बीमारी, भोजन विषाक्तता आदि शामिल है। चन्द्र से राहू के केन्द्र में होने पर शुभ फल ही प्राप्त होते है।
चन्द्र में गुरु अन्तर्दशा फल – लग्न से गुरू 1,4,5,7,9 अथवा 10 वें भाव में हों अथवा उच्च, स्वराशि में स्थिति हो, तो निश्चित ही राज्य मान-सम्मान, आर्थिक लाभ, संतान प्राप्ति के साथ अन्य प्रकार के सुख प्राप्त होते है। जातक का स्वभाव धार्मिक एंव दान-धर्म की ओर लगा रहता है।
यदि गुरू चन्द्र से 6, 8 अथवा 12 वें भाव में अथवा नीच, शत्रु क्षेत्री हो तो अशुभ फल अधिक मिलते है। संतान अथवा गुरू समान किसी बुजुर्ग की हानि स्थान परिवर्तन, दुःखा व नित्य नये क्लेश का सामना करना पडता है।
चन्द्र में शनि अन्तर्दशा फल – इस दशाऽन्तर्दशा के फल में मतान्तर है। कुछ के अनुसार यह दशा कष्टकारी रहती है। इससे जातक को रोग बहुत सताता है। साथ ही संतान एंव जीवनसाथी के साथ मित्र भी कष्ट पाते है। कोई बहुत बडी विपत्ति का सामना करना पडता है। यदि शनि मारक प्रभाव रखते हो तो मृत्यु भी हो सकती है।
जबकि दूसरे मत के अनुसार शनि यदि 1, 4, 5, 7, 9, 10 अथवा 11 वें भाव, उच्च, स्वक्षेत्री अथवा शुभ ग्रह से युति अथवा दृष्ट होकर बैठे तो संतान व धन की प्राप्ति होती है। साथ ही नये मित्र बनते है व व्यापार में लाभ होता है।
यद्यपि शनि चन्द्र अथवा जन्मकुंडली में 2, 6, 8, 12 वें भाव में हो अथवा नीच, शत्रु क्षेत्री अथवा किसी अन्य पापी ग्रह से युत या दृष्ट होकर स्थित तो किसी हथियार से चोट अथवा अन्य कष्ट भोगने पडते है। किसी तीर्थ स्थल पर स्नान का योग भी बनता है। यह योग किसी शुभ अथवा अशुभ कारण से भी बन सकता है।
चन्द्र में बुध अन्तर्दशा फल – इस दशा में बुध के अशुभ स्थान पर होने से अशुभ फल ही प्राप्त होते है, वैसे शुभ फल भी प्राप्त हो सकते है। शुभ फलों में आर्थिक लाभ के साथ वाहन सुख प्राप्त होता है। इसके अलावा आभूषण प्राप्ति, अन्य से सुख प्राप्ति अथवा व्यक्ति का ध्यान ज्ञान प्राप्ति व धर्म कार्य में लगता है।
यदि बुध 1, 4, 5, 7, 9, 10 अथवा 11 वें भाव में हो तो राज्य से सम्मान, ज्ञान वृद्धि, संतान प्राप्ति, व्यवसाय में अत्यधिक लाभ, वैवाहिक कार्य सम्पन्न होता है।
यद्यपि चन्द्रमा से बुध 2 अथवा 11 वें स्थान में हो, तो अविवाहित रहने पर निश्चित ही विवाह की संभावना बनती है। शरीर पूर्णतः निरोगी बना रहता है। किसी सभा की सदस्यता भी मिल सकती है।
बुध यदि चन्द्र से 6, 8 अथवा 12 वें भाव अथवा नीच अथवा शत्रु क्षेत्री हो तो स्वयं के परिवार के सदस्य कष्ट में रहते है। भवन अथवा भूमि की हानि उठानी पड़ती है। कारावास का योग भी निर्मित हो सकता है। बुध यदि मारकेश भी हो अथवा द्वितीय या सप्तम् भाव के स्वामी हो तो मृत्यु अथवा मृत्यु तुल्य कष्ट उठाना पडते है।
चन्द में केतु अन्तर्दशा फल – इस दशा पर भी विभिन्न मत् प्राप्त होते है। प्रथम मत के अनुसार यह काल जातक के लिए कष्टकारी रहता है। इससे जातक को अचानक रोग प्राप्त होते है। उसके जीवन में समस्याएं आती है। जातक को जलाघात का भी भय रहता है। भाइयों को भी कष्ट अथवा मतभेद उभर सकते है। व्यक्ति को उसके नौकर भारी हानि दे सकते है।
जबकि दूसरे मत् के अनुसार केतु के 1, 3, 4, 5, 7, 9, 10 व 11 भाव में रहने पर आर्थिक लाभ, सुख में वृद्धि तथा जीवनसाथी व संतान से सुख मिलता है। यद्यपि चन्द्र से केतु के 5, 9 अथवा 11 वें भाव में हो तो सुख की मात्रा कम रहती है, परंतु धन की प्राप्ति अवश्य है।
केतु यदि पाप ग्रह से युत अथवा दृष्ट होकर अथवा चन्द्र से त्रिक भाव में हो, तो परिवार में कलह बनी रह सकती है।
चन्द्र में शुक अन्तर्दशा फल – इस दशा में जातक को सभी सुख प्राप्त होते हैं। यदि शुक्र केन्द्र, त्रिकोण अथवा एकादश भाव में स्थित है या उच्च राशि अथवा स्वक्षेत्री है, तो व्यक्ति को बड़े से बड़े सुख की प्राप्ति होती है। व्यक्ति राज्य शासन में उच्च पद प्राप्त करने के साथ स्त्री वर्ग में भी लोकप्रिय रहता है। ऐसा जातक अधिकार सम्पन्न होता है। स्त्री व संतान सुख भी मिलते है। उसे नये निवास की प्राप्ति होती है। शरीर भी निरोगी बना रहता है।
इसमें भी यदि शुक्र के साथ चन्द्र की युति बनी हो तो सोने में सुहागा वाली बात चरितार्थ होती है। अर्थात् जातक को देह एंव मानसिक सुख के साथ शारीरिक सुखा भी प्राप्ति होते है। उसके सुख-सम्पत्ति में वृद्धि, जलयान के माध्यम से विदेश यात्रा, आभूषण प्राप्ति होती है। मंगल की दृष्टि होने पर भूमि से लाभ जबकि बुध की दृष्टि होने पर व्यापार में लाभ मिलता है। यद्यपि शुक अथवा चन्द्र के नीच, शत्रु क्षेत्री अथवा अस्तगत होकर स्थित रहने पर उपरोक्त फलों का विपरीत प्रभाव होता है।
मैंने अपने शोध के दौरान देखा है कि शुक्र अथवा चन्द्र के नीच, शत्रु क्षेत्री अथवा अस्तगत होकर स्थित रहने पर पूर्ण अशुभ फल नहीं मिलते, अपितु पूर्ण शुभ फल मिलने के स्थान पर 40% शुभ फल ही प्राप्त होते है, जबकि चन्द्र से शुक्र के 6, 8 अथवा 12 वें भाव में होने एंव किसी पापी ग्रह से दृष्ट रहने पर जातक के परदेश में रहने से कष्ट होता है। इस स्थिति में शुक्र यदि दूसरे अथवा सातवें भाव का स्वामी हो तो मृत्यु तुल्य कष्ट उठाने पड़ जाते है।
चन्द्र में सूर्य अन्तर्दशा फल – यह दशा व्यक्ति के लिए लाभकारी रहती है। इस दशा में जातक को राज्यपक्ष से सम्मान मिलता है। व्यक्ति प्रत्येक क्षेत्र में साहस से कार्य करता है। रोग मुक्ति मिलती है। शत्रु पराजित होते है । यद्यपि इस दौरान वात एंव पित्त जनित रोग अवश्य सताते हैं। सूर्य यदि उच्च, स्वक्षेत्री अथवा 1, 4, 5, 9 व 10 वें भाव में हो तो आर्थिक लाभ, पारिवारिक सुख, भूमि लाभ होता है। रूका हुआ सरकारी कार्य पूर्ण होता है। इस दशा में संतान की प्राप्ति अथवा संतान के किसी कार्य से सम्मान की प्राप्ति होती है।
लेकिन इसके विपरीत यदि चंद्र से 6, 8 अथवा 12 वें भाव में सूर्य हो तो नेत्र संबंधी कष्ट, परदेश में जाना पड़ सकता है और वहां कष्ट उठाना पडता है। इस समय राजदण्ड अथवा किसी चोरी का भी भय रहता है। जबकि सूर्य के दूसरे अथवा सातवें भाव का स्वामी बनने पर मृत्यु तो नहीं होती, परंतु निश्चित ही मृत्यु तुल्य कष्ट उठाने पडते है ।
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