राहू सम्बंधित अंग और रोग
राहू पूर्णतः शनि की तरह फल देने वाला है। इसका प्रभाव जातक के प्रत्येक क्षेत्र पर पडता है। जब जन्मकुंडली में राहू के प्रभाव का कोई रोग होता है, तो वह बहुत मन्द गति से ही ठीक होता है अर्थात् जातक को स्वस्थ्य होने में बहुत समय लगता है। चूंकि राहू एक छाया ग्रह है, इसलिए किसी भी रोग में राहू की प्रत्यक्ष भूमिका तो नहीं रहती, फिर भी राहू रोग देने में अपनी भूमिका निभाता है। जन्मकुंडली में यह जिस किसी ग्रह को प्रभावित करता है अथवा अपना पाप प्रभव जिस पर डालता है, उसी ग्रह के कारक रोग को जन्म देता है।
राहु मुख्यतः जातक को उन्माद, फोडे-फुन्सी, त्वचा संबंधी रोग, मस्तिष्क विकार, हिस्टीरिया, भूत-प्रेत बाधा, मन में भय, अचानक बेहोश, अपस्मार, रक्त विकार आदि रोगों की संभावना जगाता है। इनके अतिरिक्त व्यक्ति को जो भी अचानक रोग होते है जैसे पक्षघात अथवा हृदयाघात, उनमें भी राहू का अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप रहता है।
जन्मकुंडली में राहू यदि लग्नेश के साथ हो तो अचानक होने वाले रोगों में वृद्धि हो जाती है। अष्टमेश अथवा रोग भाव के स्वामी के साथ हो तो शरीर अथवा मुख पर कोई निशान अवश्य रहता है।
मैंने अपने अनुभव में देखा है कि राहू अपनी महादशा, भुक्ति अथवा गोचर में छठवे भाव को प्रभावित करके अधिक रोग देता है। यहां हम जन्मकुंडली में राहू के किस राशि में होने पर किस रोग की संभावना रहती है, इसकी चर्चा करेंगे।
मेष राशि में राहू – राहू मेष राशि में आकर जातक को शिरोरोग, अचानक मूर्च्छा, चेहरे अथवा सिर पर कोई निशान एंव लकवा जैसे रोगों की संभावना देता है।
वृष राशि में राहू – राहू के वृष राशि में होने पर जातक को गले के रोग, बारबार गला बैठना जैसे अनेक रोगों का सामना करना पडता है।
मिथुन राशि में राहू – राहू के मिथुन राशि में होने पर जातक को हाथों की अस्थि भंग, त्वचा फटना एंव निमोनिया जैसे घातक रोग का सामना करना पडता है।
कर्क राशि में राहू – राहू कर्क राशि में हो तो फेफड़ों से संबन्धित रोग अथवा हृदयाघात जैसे रोग ज्यादा परेशान करते हैं।
सिंह राशि में राहू – राहू सिंह राशि में हो तो जातक की अस्थि भंग, मन में भय, अकेले में घबराहट, संधिवात रोग की संभावना अधिक बनी रहती है।
कन्या राशि में राहू – राहू कन्या राशि में हो तो जातक का दाम्पत्य जीवन सुखहीन, उदासीनता से भरा रहता है। ऐसे जातक दाम्पत्य सुख के लिए सदैव ललायित रहते हैं। यह सदैव आलस्य में डूबे रहते हैं।
तुला राशि में राहू – राहू तुला राशि में आकर जातक को मूत्र रोग, शीघ्रपतन एंव गुप्त रोगों से पीडित रखते है।
वृश्चिक राशि में राहू – राहू के वृश्चिक राशि में होने पर गृह कलह, विष भय, गुदा रोग की पीडा बनी रहती है।
धनु राशि में राहू – राहू के धनु राशि में रहने पर जातक को मानसिक रोग, मलेरिया, प्रेत बाधा एंव सन्धिवात जैसे रोग अधिक परेशान करते है।
मकर राशि में राहू – राहू के मकर राशि में होने पर जातक कमर से निचले हिस्से में निरंतर पीडा का कष्ट भोगता रहता है।
कुंभ राशि में राहू – कुंभ राशि में राहू हो तो जातक का मन शंकालु ही बना रहता है। जातक के मन में सदैव कोई न कोई शंका बनी ही रहती हैं।
मीन राशि में राहू – मीन राशि में राहू हो तो जातक को सर्प दंश का भय भोजन में विष मिलाने का भय विषैले जीव के डंक का खतरा सदैव बना रहता है।
राहू जन्य विशेष रोग
1. लग्न भाव में राहू अचानक सिर में चोट देता है। मंगल भी प्रभाव में हो तो इस चोट की गंभीरता अधिक रहती है। प्रथम भाव में राहू चन्द्र से मिलकर ग्रहण योग बनाये, तो जातक को शिरोरोग होता है। यदि इस योग के साथ किसी अन्य त्रिकोण अर्थात् पंचम या नवम् में शनि हो तो प्रेत-पिशाच बाधा भी हो सकती है। यदि शनि के स्थान पर मंगल हो तो जातक पिशाच बाधा में अपने सिर पर स्वंय चोट कर लेता है अथवा दुर्घटना आदि में चोट लग सकती है। इस भाव में राहू के साथ शनि हो तो भी प्रेत बाधा का भय रहता है।
2. द्वितीय भाव में राहू दुर्घटना में वाणी जाने का भय देता है अथवा जातक अपनी वाणी के प्रभाव का गलत उपयोग करता है। राहू के साथ शनि हो तो प्रेत बाधा हो सकती है। द्वितीय भाव में राहू आर्थिक हानि प्रदान करता है।
3. तृतीय भाव का राहू पराक्रम वृद्धि, परंतु चोरी अथवा अग्नि से भय देता है।
4. सुख भाव का राहू मानसिक कष्ट, कारावास, भय, वाहन चोरी का भय आदि देता है। सुख भाव में राहू तथा दशम् भाव में किसी अशुभ भाव का स्वामी हो, तो जातक को राजदण्ड अवश्य मिलता है। इस कारण वह मानसिक रोगी बन सकता है।
5. पंचम भाव में रोग भाव के स्वामी के साथ राहू के रहने पर जातक की संतान को प्रेत बाधा का भय रहता है। जातक स्वयं भी मानसिक रोग से पीडित रह सकता है। पंचम भाव का राहू प्रमेह, एपेन्डिक्स की शल्य चिकित्सा, त्वचा रोग, फेफड़ों के रोग आदि दे सकता है।
6. छठवे भाव में राहू शत्रु कष्ट दूर करता है।
7. सप्तम् भाव में राहू जातक अथवा उसके जीवनसाथी को प्रेत-पिशाच बाधा देता है। सप्तम् भाव में राहू सर्प भय, जीवनसाथी को कष्ट, अग्नि भय, राजदण्ड, नेत्र रोग अथवा बडी हानि का भय देता है।
8. अष्टम् अथवा द्वादश भाव में राहू के साथ क्षीण चन्द्र हो तथा इनके साथ शनि अथवा मंगल भी हो, तो जातक की प्रेत अथवा पिशाच बाधा से मृत्यु तक संभव है। अष्टम् भाव में राहू के साथ क्षीण चन्द्र हो, द्वितीय भाव में भी कोई अन्य पाप ग्रह हो, तो भी प्रेत-पिशाच बाथ मृत्यु संभव है।
अष्टम् भाव का राहू जो कष्ट दे वह कम होते हैं। इससे नौकरी छूटना अथवा रिश्वत लेते पकड़े जाना या किसी पुराने केस का अचानक खुलना, मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य अन्य प्रकार के कष्ट, घर में निरंतर क्लेश, मानसिक रोग अथवा कष्ट या किसी द्वारा विष दिया जाना मुख्य रहते है।
9. नवम् भाव का राहू कष्ट, भाग्य हानि, धर्म से विमुख एंव आर्थिक हानि दे सकता है।
10. दशम् भाव के राहू में पिता को कष्ट, कर्म क्षेत्र में पीडा, अग्नि पीडा व परिवार कष्ट दे सकता है।
11. एकादश भाव का राहू आर्थिक लाभ के साथ चोरी एंव अग्नि का भय व दायें कान में कष्ट देता है।
12. द्वादश भाव का राहू भी बहुत कष्ट देता है। इससे शैय्या सुख में कमी, नींद का न आना एंव अन्य कष्ट मिल सकते है।
राहू महादशा का फल
जन्मकुंडली में राहू किसी अन्य पापी ग्रह से पीडित अथवा दूषित हो तो इसकी दशा में विभिन्न फल प्राप्त होते हैं। शुभ ग्रह, लग्नेश या योगकारक ग्रह की युति अथवा दृष्ट से राहू के अशुभ फल में कमी आती है। राहू जन्मकुंडली में यदि त्रिषडाय भाव में हो तो शुभ फल भी अवश्य देते है।
ज्योतिष शास्त्र में राहू को सर्प का मुख कहा गया है। फिर कैसे आशा कर सकते है कि सांप के पास जायें और सांप आपको नुकसान न पहुंचाये? राहू नागदेव के प्रतिनिधित्व करते है। इसलिए इन्हें नाग का मुख कहा गया है। नाग वंश के लिये कहा गया है कि नाग केवल तीन कारणों से डसता है, प्रथम- पूर्वजन्म के प्रभाव से, द्वितीय ईश्वरीय आदेश से और तृतीय उसको छेडने से।
ज्योतिष शास्त्र भी यही कहता है कि राहू की जन्मकुंडली में स्थिति जातक के पूर्वजन्म से प्रभावित रहती है। मैंने अपने अनुभव में देखा है कि राहू की महादशा में ईश्वर स्मरण एंव नागदेव की सेवा से निश्चित ही अन्तर आता है।
राहू राजनीति का कारक है। नेता जितनी तीव्र गति से उच्च पद प्राप्त करते है, उससे अधिक गति से उनका पतन भी होता है। जन्मकुंडली में राहू यदि अपनी उच्च राशि स्वराशि, मित्रराशि, मूलत्रिकोण, स्वनवांश या उच्चांश या तृतीय अथवा एकादश भाव में हो तो जातक को राजनीति प्रवेश, राज्य सम्मान, सुख, वैभव, वाहन आदि समस्त प्रकार का सुख, कीर्ति प्रदान करते हैं। राहू अपनी दशा के आरंभ शारीरिक कष्ट, आर्थिक हानि तथा मानसिक कष्ट अवश्य देते है।
महर्षि पाराशर के अनुसार राहू यदि स्वराशि अर्थात् कन्या राशि में हो तो अपना दशा के दौरान अनेक सुख, धन एंव सम्पत्ति का लाभ प्रदान करते है। मित्र राशि अथवा ग्रह से युत हो तो वाहन प्राप्ति के साथ विदेश यात्रा का योग बनते है। राहू यदि शुभ ग्रह से दृष्ट अथवा युत हो या किसी अशुभ भाव में हो तो राज्य लाभ, नीच राजा या अधिकारी से कार्य सिद्धि होती है। अष्टम् अथवा द्वादश भाव में होने पर समस्त प्रकार के कष्ट प्राप्त होते है।
राहू यदि पाप ग्रह से युत, दृष्ट या प्रभाव में हो अथवा नीच राशि अथवा मारकेश ग्रह के प्रभाव में हो, तो निश्चित ही मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट, स्थान च्युत एंव मानसिक रूप से भ्रष्ट, जीवनसाथी अथवा पुत्र सुख की हानि तथा खराब भोजन मिलता है।
राहू महादशा में अन्य ग्रहों की अन्तर्दशा का फल
राहू में राहू अन्तर्दशा फल – राहू की दशा अधिकतर बहुत ही अशुभ रहती है। यदि राहू कर्क, वृष, वृश्चिक अथवा धनु राशि में हो अथवा त्रिषडाय भाव अर्थात् 3, 6 अथवा 11 वें भाव में राहू उच्च मूल त्रिकोण, शुभ ग्रह से युत अथवा दृष्ट हो, तो जातक को राज्य से लाभ व मान-सम्मान, व्यापारिक लाभ, उच्च पद की प्राप्ति होती है। मन में उत्साह भरा रहता है तथा वह निरंतर उन्नति करता है।
यदि राहू किसी अशुभ भाव अर्थात् 8 व 12 वें भाव में हो अथवा नीच, किसी पापी ग्रह के प्रभाव में या युत या दृष्ट हो तो ऐसा जातक कटु भाषा बोलने वाला, विष अथवा जल से हानि उठाने वाला, भाई-बन्धु से वियोग, किसी अन्य से संबंध बनें। व्यर्थ की चिन्ता के साथ झंझट हो तथा ऐसे योग में शत्रु भी कष्ट देते है।
राहू में गुरु अन्तर्दशा फल – यह दशा भी प्रायः शुभ ही रहती है। राहू अथवा लग्न से गुरू किसी केन्द्र या त्रिकोण में उच्च मूलत्रिकोण, मित्र क्षेत्री हो, तो जातक निरोगी रहता है। उसका मन धर्म कार्य में लगता है। उसे आर्थिक लाभ के साथ पुत्र प्राप्ति, वाहन सुख, शत्रु नाश एंव अन्य प्रकार के सुख मिलते हैं। वह किसी आकर्षक जातक के संपर्क में आता है तथा उसका अधिक समय धार्मिक विचार-विमर्श में व्यतीत होता है। यद्यपि कोई भी ग्रह किसी अशुभ भाव अथवा नीच, अस्त या शत्रु राशि में या पाप ग्रह के प्रभाव में हो, तो निश्चित ही आर्थिक हानि, पारिवारिक कष्ट, अचानक बाधाओं का कारण बनता है।
राहू में शनि अन्तर्दशा फल – राहू अथवा लग्न से शनि किसी केन्द्र या त्रिकोण या आय भाव या उच्च, मूलत्रिकोण, मित्र क्षेत्री या शुभ प्रभाव में हो, तो जातक के परिवार में कोई उत्सव होता है। उसे सम्मान की प्राप्ति के साथ बड़े जनहित कार्य अथवा किसी जलीय स्त्रोत जैसे तालाब आदि का निर्माण से यश मिलता है।
इसके विपरीत यदि कोई भी ग्रह किसी अशुभ भाव में अथवा नीच, अस्त या शत्रु राशि में अथवा पाप ग्रह के प्रभाव में हो, तो जातक के परिवार में झगडा अथवा जीवनसाथी अथवा पुत्र को मृत्युतुल्य कष्ट या मृत्यु का सामना करना पड़ता है। वह पद च्युत होकर नौकर से धोखा खाता है अथवा उसे और भी कष्ट उठाने पड़ते हैं। जातक को दुर्घटना अथवा किसी अन्य कारण से चोट लगती हैं अथवा वात-पित्त के रोग सताते है। शनि यदि मारकेश हो तथा जन्मकुंडली में भी मृत्यु योग हो, तो इस समय मृत्यु भी संभव है।
राहू में बुध अन्तर्दशा फल – लग्न में राहू अथवा राहू से बुध किसी केन्द्र या त्रिकोण या उच्च, मूलत्रिकोण, मित्र क्षेत्री या शुभ प्रभाव में बली हो, तो जातक को कर्म क्षेत्र से आर्थिक लाभ, विद्या प्राप्ति, परिवार में वैवाहिक कार्यक्रम, पुत्र प्राप्ति, मन में प्रसन्नता, वाक् चातुर्य से लाभ प्राप्त होते है ।
यद्यपि इनमें से कोई ग्रह किसी अशुभ भाव अर्थात् 6, 8 या 12 वें भाव में अथवा राहू से बुध 6, 8 या 12 वें भाव में अथवा नीच, अस्त या शत्रु राशि में या पाप ग्रह विशेषकर शनि के प्रभाव में अथवा शनि की राशि हो तो जातक को हानि, संकट, राज्यदण्ड अथवा संतान वियोग का सामना करना पड़ता है।
राहू में केतु अन्तर्दशा फल – इस दशाकाल में जातक को अधिकतर हानि ही उठानी पड़ती है। केतु यदि किसी शुभ ग्रह के प्रभाव में अथवा युत हो, तो थोडा आर्थिक लाभ, समाज में सम्मान एंव अन्य सुख के साथ भूमि लाभ मिलता है।
यदि केतु केन्द्र या त्रिकोण या अष्टम् या द्वादश भाव में हो, तो जातक को समस्त प्रकार से हानि एंव बहुत कष्ट उठाने पडते है। इसमें मुख्यतः शस्त्र, विष एंव अग्नि से हानि, शत्रुघात, शिरोरोग, मित्र वर्ग से धोखा तथा शरीर पर कोई निशान बनना आदि शामिल है।
राहू में शुक्र अन्तर्दशा फल – शुक्र किसी केन्द्र या त्रिकोण या आय भाव या उच्च मूल त्रिकोण, मित्र क्षेत्री या शुभ प्रभाव में हो, तो जातक के मान-सम्मान में वृद्धि, पुत्र प्राप्ति, वाहन प्राप्ति, वैभव एंव ऐश्वर्य प्राप्ति होती है। पुरुष जन्मकुंडली में इस योग में किसी अन्य सुन्दर स्त्री से शारीरिक संबंध बनते है।
लग्न अथवा राहू से शुक्र 6, 8 या 12 वें भाव में अथवा नीच, अस्त या शत्रु राशि में या पाप ग्रह, विशेषकर मंगल या शनि के प्रभाव में हो, तो जातक को अपने ही लोगों का विरोध सहना पड़ता है। वात पित्त-जनित रोग सताते है। भाई की किसी भी रूप में हानि, जीवनसाथी को कष्ट, शूलरोग, अचानक संकट आना, झूठा दोषारोपण जैसे फल प्राप्त होते है।
राहू में सूर्य अन्तर्दशा फल – जन्मकुंडली में सूर्य यदि स्वक्षेत्री, उच्च, त्रिकोण या आय भाव में हो, तो जातक को आर्थिक उन्नति, कीर्ति, विदेश यात्रा, राज्य लाभ एंव राज्य से आर्थिक लाभ जैसे फल प्राप्त होते है।
सूर्य यदि राहू से 6, 8 या 12 वें भाव में हो अथवा नीच का हो, तो अनेक प्रकार के कष्ट, शत्रु पीडा, अस्थि एंव नेत्र संबंधी रोग, राज पीडा या राजदण्ड, अग्नि या विष से हानि, मित्र वर्ग से धोखा मिल सकता है। जीवनसाथी अथवा पुत्र को कष्ट होता है। यह दशा अधिकतर अशुभ ही रहती है।
राहू में चन्द्र अन्तर्दशा फल – जन्मकुंडली में चन्द्र यदि बलवान होकर किसी केन्द्र या त्रिकोण या आय भाव में या उच्च, मूल त्रिकोण, मित्र क्षेत्री या शुभ प्रभाव में हो, तो जातक को मान-सम्मान, सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
लेकिन चन्द्र लग्न अथवा राहू से किसी 6, 8 या 12 वें भाव अथवा नीच, अस्त या शत्रु राशि में या पाप ग्रह, विशेषकर मंगल या शनि के प्रभाव में हो, तो जातक को जल से भय, अनेक प्रकार के कष्ट, कोई विवाद अथवा मुकद्मा आरम्भ हो सकता है या वह हार सकता है। उसे आर्थिक हानि, खेती, भूमि एंव पशु हानि के साथ मन में विचित्र प्रकार के भय समाये रहते है।
राहू में मंगल अन्तर्दशा फल – जन्मकुंडली में मंगल यदि किसी केन्द्र या त्रिकोण या आय भाव में या उच्च, मूल त्रिकोण, मित्र क्षेत्री या शुभ प्रभाव में हो, तो जातक को निश्चित ही भूमि, भवन में वृद्धि, शारीरिक कष्ट, किसी प्रकार की विपत्ति में अचानक फंसना, कार्य क्षेत्र या नौकरी या व्यवसाय में परिवर्तन होना, उच्च पद की प्राप्ति भी संभव है।
यद्यपि मंगल राहू अथवा लग्न से 6, 8 या 12 वें भाव में हो अथवा नीच अथवा पाप प्रभाव में हो, तो जातक को अनेक विपत्तियों, जीवनसाथी एंव संतान अथवा भाई को कष्ट, राज्य भय, अग्नि या शस्त्र या विध से हानि, शरीर में रोग विशेषकर हृदय अथवा नेत्र रोग होते है। जातक अपने कर्तव्य से डिग जाये अथवा हट जाये अथवा जातक का पद छिन जाये। जातक किसी भी कारण से शरीर में चोट लगा बैठता है।
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