गुरू सम्बंधित अंग और रोग
गुरू आकाश तत्वीय ग्रह है। गुरु का हमारे शरीर में चरबी, उदर, यकृत, त्रिदोष, विशेषकर कफ तथा रक्त वाहिनियों पर अधिकार रहता है। ज्योतिष शास्त्र में गुरू को संतान कारक ग्रह माना गया है।
जिन जातकों की जन्मकंडुली में गुरू शुभ भावस्थ रहते है, वह जातक सदैव इन रोगों से दूर रहते है। वह अच्छे विचार वाला, शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट तथा मानसिक रूप से बहुत बली रहते हैं।
जन्म कुंडली में गुरू यदि पापी अथवा किसी पाप ग्रह से पीडित होकर स्थित हो, तो जातक इन रोगों के अतिरिक्त कर्ण व दांत रोग, अस्थि मज्जा में विकार, वायु विकार, अचानक मूर्च्छा, ज्वर, आंत की शल्य किया, रक्त विकार साथ मानसिक कष्ट उठाता है। उसे ऊँचे स्थान से गिरने का भय भी रहता है। आमतौर पर गुरू प्रदत्त इन रोगों में गुरू के 4, 6, 8 अथवा 12 वें भाव में रहने अथवा गुरू के गोचर वश इन भावों में आने पर ही अधिक संभावना रहती है।
जन्मकुंडली में विभिन्न राशि एंव भावों में स्थित होकर गुरू अनेक रोग प्रदान करते है।
मेष राशि में – गुरू के होने पर जातक को शिरोरोग अधिक सताते है। यदि इस योग में गुरू पर मंगल अथवा केतु की दृष्टि भी हो, तो किसी दुर्घटना के दौरान सिर में गंभीर चोट लगने का भय भी रहता है।
वृष राशि में – वृष राशि में गुरू के प्रभाव से जातक को मुख, कण्ठ, श्वसन संस्थान तथा आहार नली में विकार का भय रहता है। यदि वृष राशि के गुरू लग्न में हो तो व्यक्ति के जीवनसाथी को मूत्र संस्थान के रोग तथा स्वयं को उदर विकार की संभावना रहती है। गुरू के पीडित अवस्था में ही यह रोग होते है। यद्यपि मेरे अनुभव में गुरू पीडित हो अथवा नहीं, फिर भी यह राशि वाणी विकार के साथ मुख रोग अवश्य देती है।
मिथुन राशि में – मिथुन राशि के गुरू व्यक्ति के कंधों एंव बांहों पर अधिक कष्ट देता है। यदि बुध भी पीडित हो तो त्वचा विकार के साथ रक्त विकार का योग भी बनता है। यदि गुरू अथवा बुध पर किसी पाप ग्रह का प्रभाव हो, तो जातक के 32 वें वर्ष में किसी दुर्घटना के दौरान अपना हाथ कटवाने का योग बनता है। यहां पर गुरू का बहुत अधिक पीडित रहने तथा बुध का लग्नेश न होने पर ही यह योग घटित होता है।
कर्क राशि में – कर्क राशि के गुरू होने पर जातक को फेफडों के रोग, छाती तथा पाचन क्रिया पर असर पड़ता है। मैंने अपने अनुभव में देखा है कि यदि गुरू अत्यधिक पीडित हो तथा चन्द्रमा के साथ चतुर्थ भाव एंव उसका स्वामी भी पीडित हो, तो जातक कम आयु में ही उच्च रक्तचाप का रोगी तथा हृदयाघात का शिकार बनता है। यदि लग्न भी कर्क है तो जातक बहुत मानसिक कष्ट पाता है। उसे खाने-पीने के मामले में पर्याप्त सावधानी रखनी चाहिए। अगर केवल चन्द्र व गुरू ही पीडित हो तो जातक को गर्मी के मौसम में शरीर में पानी की कमी के कारण अस्पताल में भर्ती होना पडता है। इसलिए ऐसे जातकों को गर्मी के मौसम में पानी का सेवन अधिक करना चाहिए। अन्यथा गर्मी के कारण उसे अचानक मूर्च्छा आ सकती हैं।
सिंह राशि में – सिंह राशि के गुरू जातक को उदर विकार के साथ हृदयाघात का भय देते है। गर्मी के दौरान ऐसे जातक को भी उपरोक्त समस्या आ सकती है।
कन्या राशि में – गुरु के कन्या राशि में होने पर व्यक्ति आंतों की व्याधि तथा पेट में तीव्र जलन से अधिक परेशान रहता है। यदि मंगल की दृष्टि भी पड जाए तो जातक को आंतों की शल्य क्रिया अथवा एपिन्डेक्स का ऑपरेशन तक कराना पडता है।
यदि गुरू के साथ शुक्र भी विराजमान हो तो जातक को नपुंसकता अथवा शीघ्रपतन का भय सताने लगता है। यदि शनि की दृष्टि भी हो तो यह रोग निश्चित मानना चाहिए।
तुला राशि में – तुला राशि में गुरू मूत्र विकार, जननांग संबंधी रोग, गुर्दा रोग तथा कमर के दर्द से परेशान रखता है। जातक को शीघ्रपतन का रोग परेशान कर सकता है। मेरा स्वयं का अनुभव है कि इस राशि में गुरू यह रोग अवश्य देता है। यद्यपि अधिक बली होने की स्थिति में यह रोग कम होते है। अगर लग्न भी तुला है तो फिर गुरू जितना कम बली हो, तो जातक को किसी के कहने पर गुरू रत्न धारण नहीं करना चाहिए, अन्यथा इन योगों को तो बल मिलेगा साथ ही अस्थि भंग का भी योग निर्मित हो जाएगा।
यद्यपि इस स्थिति में गुरू संबंधी पूजा-पाठ से गुरू की अशुभता को शांत करना उचित रहता है। क्योंकि इस योग में लग्न में गुरू जितना अधिक कमजोर होगा, जातक को उतना ही अधिक शुभ प्रभाव देगा।
वृश्चिक राशि – वृश्चिक राशि में गुरू के होने पर व्यक्ति का पाचन संस्थान खराब बना रहता है, मुख्यतः उसे कब्ज अधिक परेशान करती है। जातक को खट्टी डकार, आहार नली में जलन रहती है। उसे गुदा रोग भी अधिक सताते है। गुदारोग भी जीर्ण कब्ज के ही कारण होते है। यदि मंगल की दृटि भी हो तो फिर गुदा की दो बार शल्य क्रिया निश्चित समझें।
धनु राशि में – धनु राशि का गुरू कमर के निचले हिस्से में अधिक समस्याएं देता है। इसमें दर्द, स्नायु विकार अथवा संधिवात जैसे रोग मुख्य है। इस राशि में गुरू यदि लग्न भाव में हो तो यह समस्याएं और भी अधिक गंभीर बन जाती है। हालांकि गुरू यहां लग्नेश होते हैं, फिर भी यह स्थान गुरू के लिए अशुभ माना गया है। ऐसे दुःस्थान में जातक बहुत अधिक शारीरिक कष्ट उठाता है। ऐसे जातकों को अपना खानपान सादा तथा कम ही रखना चाहिए ।
मकर राशि में – मकर राशि में गुरू जातक को कमर तथा पैरों के दर्द से जीवन भर परेशान रखते है। गुरू उसे ऐसे दीर्घकालीन रोग देते है। ऐसे व्यक्ति के घुटने आमतौर पर 30 वर्ष की आयु से ही खराब होने लगते है। स्नायु विकार का योग भी इन्हें परेशान रखता है। यदि शनि की यहां दृष्टि हो तो यह रोग कम होते है, लेकिन पीडा तो झेलनी ही पड़ती है। कुंभ राशि में – कुंभ राशि शनि की राशि है। गुरू के इस राशि में होने पर जातक को कमर से नीचे का हिस्सा बहुत ही कमजोर रहता है। उसे उदर रोग, वायु विकार के साथ स्नायु विकार सताते है।
मेरा अपना अनुभव है कि ऐसे जातक घुटने की समस्या से अधिक पीडित रहते है। यदि यह योग अष्टम् भाव में शनि से दृष्ट हो, तो जातक को 35 वर्ष की आयु में ही बायें घुटने की विकलांगता आ जाती है।
मीन राशि में – मीन राशि के अधिपति तो स्वयं गुरू है। इसलिए इस राशि में गुरू के होने पर जातक के शरीर में रोग प्रतिकारक क्षमता काफी कम हो जाती है। अतः वह मामूली रोग में भी अधिक बीमार बना रहता है। ऐसे जातक को उदर रोग, पाचन रस व जठरान्त्र संबंधी रोग के साथ कंठ एंव छाती में जलन जैसी समस्याएं अधिक परेशान रखती है। इसलिए ऐसे जातकों को भोजन चबा चबा कर कराना चाहिए। यद्यपि गुरू के लग्न भाव में होने पर यह रोग कम होते है।
गुरु महादशा का फल
जन्मकुंडली में गुरु पीडित, अकारक, अस्त, पापी अथवा केन्द्राधिपति दोष से दूषित है, तो इसकी दशाऽन्तर्दशा में अग्रांकित फल प्राप्त होते है। यद्यपि गुरू पर शुभ ग्रह, लग्नेश या योगकारक ग्रह की युति अथवा दृष्टि से उसके अशुभ फलों में निश्चित कमी आती है अथवा उसके शुभ फलों में वृद्धि होती है।
जन्मकुंडली में जब गुरू वृष, मिथुन अथवा कन्या राशि में हो अथवा किसी नीच ग्रह के प्रभाव में पड़े हो अथवा गुरू की किसी राशि में कोई नीच या पापी ग्रह बैठा हो अथवा गुरू स्वंय ही नीचत्व को प्राप्त होकर बैठे हो, तो जातक को दुर्घटना, अग्नि भय, मानसिक कष्ट, राजदण्ड, आकस्मिक पीडा अथवा किसी बडी चोरी से हानि का भय रहता है।
इनके अतिरिक्त गुरु किसी त्रिक भाव अथवा त्रिक भाव के स्वामी के साथ हो, तो भी जातक को अत्यंत कष्ट प्राप्त होते हैं। इसमें भी यदि इन भावों में कोई पापी ग्रह बैठा हो, तो फिर अशुभ फल की कोई सीमा नहीं रहती।
यहां मैं एक बात और स्पष्ट कर रहा हूँ कि गुरू महादशा में गुरू का अन्तर शुभ फल नहीं देता, यदि-
- गुरु द्वितीय भाव में स्थित हो। द्वितीय भाव में गुरू निश्चित ही राजकीय दण्ड अथवा आर्थिक हानि देते है।
- गुरू तृतीय अथवा एकादश भाव में अकेले बैठे हो तो जातक को पश्चिम दिशा की यात्रा अथवा अन्य कष्ट होते हैं।
- गुरू किसी केन्द्र भाव में हो, तो जातक को राजदण्ड अथवा उच्चाधिकारी के कोप के साथ शारीरिक कष्ट सहना पडता है। इस दौरान मान-सम्मान में भी कमी अथवा संतान पक्ष से पीड़ा होती है।
- गुरू किसी त्रिकोण में हो तो व्यक्ति को स्त्री वर्ग से कष्ट, राजकीय प्रताडना अथवा कार्यों में अवरोध के साथ अग्नि या दुर्घटना भय रहता है। गुरू किसी त्रिक भाव अर्थात् 6, 8 अथवा 12 वें भाव में हो, तो व्यक्ति को मानसिक कष्ट के साथ अन्य कष्ट भी प्राप्त होते है।
- गुरू यदि तृतीय अथवा एकादश भाव में शनि के साथ बैठे तो अवश्य ही शुभ फल प्राप्त होते है। इसमें भी यदि शनि लग्नेश हो तो फिर शुभ फल की कोई सामी नहीं रहती ।
- गुरू के मारकेश होने अर्थात् द्वितीय अथवा सप्तम् भाव का स्वामी होने पर जातक को स्वंय मृत्यु तुल्य कष्ट अथवा उसके जीवनसाथी को कष्ट प्राप्त होते है।
गुरु महादशा में अन्य ग्रहों का अन्तर्दशा फल
गुरू की महादशा के उपरोक्त फल गुरू महादशा में प्राप्त हो सकते है, परंतु अन्य ग्रह की अन्तर्दशा में निम्न फलों की प्राप्ति होती है। इन फलों का निर्धारण गुरू के साथ जिस ग्रह की अन्तर्दशा चल रही है, उसके बलाबल एंव अन्य ग्रह की युति या दृष्टि प्रभाव देखकर करना चाहिए।
गुरू में गुरु अन्तर्दशा फल – मेरे अनुभव में गुरू की इस दशा में प्रायः शुभ फल ही प्राप्त होते है। इसमें भी यदि गुरू किसी उच्च, मूलत्रिकोण, लग्नेश अथवा शुभ ग्रह से दृष्ट या युत हो, तो शुभ फलों में वृद्धि होती है। समाज में पद-प्रतिष्ठा मिलती है, परिवार में मांगलिक कार्य, सर्व सुविधायुक्त निवास की प्राप्ति, वाहन व आभूषण की प्राप्ति, प्रत्येक क्षेत्र में मान-सम्मान मिलता है। जातक के आन्तरिक गुणों की वृद्धि होती है। आचार्यों में मेल-मिलाप रहता है। मन की इच्छाएं पूर्ण होती है। इसमें गुरू यदि कर्मेश अथवा भाग्येश या सुखेश के प्रभाव में है, तो जातक को संतान सुख के साथ आर्थिक लाभ भी प्राप्त होते हैं।
गुरू यदि नीच अथवा किसी दुःस्थान में बैठे हो तो निश्चित ही जातक को संतान अथा जीवनसाथी की हानि, मान-सम्मान में कमी, सभी क्षेत्रों में दुःख एंव कष्ट तथा व्यापार अथवा कर्म क्षेत्र में हानि उठानी पडती है।
गुरू में शनि अन्तर्दशा फल – इस दशा में कोई ग्रह यदि उच्च मूलत्रिकोण अथवा शुभ ग्रह के प्रभाव में है, तो व्यक्ति को कर्म क्षेत्र में उन्नति, भूमि-भवन, वाहन आदि का लाभ, पश्चिम दिशा की यात्रा तथा अपने से उच्च स्तर के लोगों के साथ मेल मिलाप बनता है।
यद्यपि इसके विपरीत अगर कोई ग्रह नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री अथवा किसी त्रिक भाव में है, तो जातक में अवगुणों की वृद्धि होती है। उनमें लिंग अनुसार अवगुण आते जैसे अगर जातक पुरूष है तो वह शराब का सेवन आरम्भ कर सकता है। वह वेश्यागमन करने लगता है। यदि जातक स्त्री है तो वह परिवार में अलगाव, बुजुर्गों का अपमान जैसे कार्य करने लगती है। इसके अतिरिक्त जातक को आर्थिक हानि, मानसिक कष्ट, जीवनसाथी को कष्ट, परिवार में किसी को पीडा, पशुओं की हानि, व्ययों में वृद्धि, नेत्र रोग अथवा संतान कष्ट के साथ अन्य सभी प्रकार के कष्ट भोगने पडते है।
गुरू में बुध अन्तर्दशा फल – इस दशा में देवज्ञों के विचारों में भिन्नता है। एक वर्ग इस दशा काल को पूर्णतः शुभप्रद मानता है, तो दूसरा वर्ग इस दशा काल को बहुत अशुभ मानता है। यहां पर मैं अपने अनुभव के आधार पर यही कहूंगा कि किसी भी ग्रह के उच्च, मूलत्रिकोण, मित्र क्षेत्री अथवा एक-दूसरे से नव पंचम् अथवा केन्द्र योग निर्मित करने पर व्यक्ति को चुनाव के माध्यम से किसी सभा की सदस्यता मिलती है। उसे आर्थिक लाभ प्राप्त होता है। संतान अथवा उच्च विद्या की प्राप्ति, व्यक्ति का देव पूजन के साथ धर्म कर्म मन लगता है। वह कर्म क्षेत्र में सफलताएं प्राप्त करता है।
यद्यपि किसी ग्रह के नीच, अस्त, शत्रु क्षेत्री अथवा षडाष्टक योग निर्मित करने पर व्यक्ति को निश्चित ही आर्थिक संकट के दौरान मद्यपान में रूचि, वेश्यागमन की आदत, जीवनसाथी का मरण एंव कई प्रकार के रोग, समाज में मान-सम्मान की कमी झेलनी पड़ती है। जहाँ तक कि किसी ग्रह के मारकेश होने पर मृत्यु तुल्य कष्ट अथवा मरण तक देखना पडता है। ऐसे जातक ग्रहों के अशुभ होने पर गन्दी भाषा का प्रयोग करने लगते है या अपशब्दों का इस्तेमाल करते है।
गुरू में केतु अन्तर्दशा फल – इस दशा में जातक को प्रायः मिश्रित फलों की प्राप्ति होती है। गुरू अथवा केतु के शुभ, उच्च, मूत्रत्रिकोण अथवा मित्र क्षेत्री होने पर जातक में धर्म के प्रति अत्यधिक रूचि, मन में शुभ विचार तथा अच्छे कार्यों से समाज में आदर मान मिलता है।
यद्यपि किसी ग्रह के त्रिक भावस्थ होने, नीच, अस्त, शत्रु क्षेत्री अथवा ग्रह की अन्य राशि में किसी पापी ग्रह का प्रभाव होने पर जातक के शरीर पर दुर्घटना अथवा शल्य क्रिया से कोई चिन्ह लगता है। उसे कारावास भय, आर्थिक हानि, पारिवारिक सदस्यों का कष्ट, किसी गुरु समान व्यक्ति अथवा वृद्धजन से विछोह देखना पडता है।
लग्न भाव में गुरू व केतु के नवम भाव में होने पर जातक का मन सन्यास की ओर अग्रसर होता है। गुरू से केतु के केन्द्र अथवा त्रिकोण में होने पर जातक को आर्थिक लाभ एंव व्यवसाय में उन्नति मिलती है। किंतु मारकेश होने पर मृत्यु की भी संभावना रहती है।
गुरू में शुक्र अन्तर्दशा फल – इस दशा में भी मिश्रित फलों की प्राप्ति होती है, क्योंकि यह दोनों ही ग्रह शत्रु है। इस दशा में दोनों में से कोई भी ग्रह उच्च मूलत्रिकोण अथवा शुभ भाव में हो, तो जातक को पारिवारिक सुख की प्राप्ति, आर्थिक लाभ, भौतिक सुख की प्राप्ति होती है। जातक तालाब, कुंआ आदि का निर्माण करवाता है। इसमें भी यदि कोई ग्रह किसी शुभ केन्द्रेश से युत हो तो जातक को और अधिक शुभ फल मिलते हैं। जातक को उच्च वाहन, आभूषण एंव रत्नों की प्राप्ति होती है। जातक सात्विक जीवन व्ययतीत करता है।
यद्यपि किसी ग्रह के नीच, अस्त, शत्रु क्षेत्री, पाप प्रभाव, दुःस्थान अथवा षडाष्टक योग में होने पर उसे आर्थिक हानि, शारीरिक कष्ट, किसी भी प्रकार का बन्धन भय, भौतिक वस्तुओं की हानि, वैवाहिक जीवन से मन का उच्चाटन जैसी स्थिति का सामना करना पडता है। यदि कोई ग्रह मारकेश हो तथा दशाकाल भी मारक की चले तो जातक की मृत्यु भी संभव है।
गुरू में सूर्य अन्तर्दशा फल – इस दशाकाल में जातक को शुभ फल अधिक प्राप्त होते है। ग्रह के उच्च, मूलत्रिकोण, मित्र क्षेत्री अथवा शुभ भाव में होने पर जातक को उच्च पद प्राप्ति, समाज में सम्मान वृद्धि, अचानक लाभ, वाहन प्राप्ति, सरकारी नौकरी मिलना, पुत्र प्राप्ति, किसी महानगर में सर्वसुविधा सम्पन्न निवास प्राप्त होना, जातक की इच्छानुसार कार्य सम्पन्न होना और शत्रु परास्त होते है।
यद्यपि किसी ग्रह के नीच, अशुभ भावस्थ, अधिक पापी प्रभाव अथवा षडाष्टक योग में बैठने पर जातक का प्रत्येक क्षेत्र में अपमान, शिरोरोग, पाप कर्मों में लीन, आत्मसम्मान की कमी, मन में घबराहट का भाव तथा शारीरिक स्वास्थ्य में गिरावट का सामना करना पड़ता है। किसी ग्रह के मारकेश होने पर मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट की भी संभावना रहती हैं।
गुरू में चन्द्र अन्तर्दशा फल – यह दशा जातक की अच्छी व्ययतीत होती है। यदि कोई ग्रह उच्च मूलत्रिकोण, मित्र क्षेत्री अथवा शुभ भाव या शुभ ग्रह के प्रभाव में हो अथवा दोनों के केन्द्र स्थान में होने पर जातक सत्य कार्य में लीन, आर्थिक लाभ, यश में वृद्धि, शत्रु हानि, परिवार में वृद्धि अथवा कारोबार में लाभ एंव उन्नति मिलती है।
यद्यपि किसी ग्रह के अशुभ प्रभाव में पडने अथवा नीच, अस्त, शत्रु क्षेत्री, किसी अशुभ भाव अथवा पाप प्रभाव अथवा षडाष्टक योग में होने पर जातक के मन में उदासीनता, अपमान, स्थान परिवर्तन, माता की मृत्यु अथवा अत्यधिक कष्ट का सामना करना पडता है।
गुरू में मंगल अन्तर्दशा फल – मेरे अनुभव में यह दशा भी जातक की अच्छी रहती है। यदि इनमें कोई ग्रह उच्च मूलत्रिकोण, एक-दूसरे से केन्द्र स्थान, शुभ भाव, शुभ ग्रह के प्रभाव में हो तो जातक को निश्चित ही भूमि भवन लाभ, तीर्थयात्रा, नये कार्यों से यश की प्राप्ति होती है।
यद्यपि इनमें से किसी ग्रह के नीच, अस्त, शत्रु क्षेत्री, त्रिक भाव अथवा अधिक पाप प्रभाव में पड़ने पर जातक को भाई से विरोध अथवा वियोग, किसी दुर्घटना अथवा शल्य क्रिया, रक्त विकार, अचानक झगडे, भूमि-भवन का नाश, नेत्र रोग, अचानक शल्य क्रिया का सामना करना पडता है। मंगल अथवा गुरू के मारकेश होने पर जातक को मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट का सामना भी करना पड सकता है।
गुरू में राहू अन्तर्दशा फल – इस दशाकाल में राहू यदि 3, 6, 11 अथवा 10 वें भाव में हो अथवा दोनों में से कोई भी ग्रह उच्च, शुभ प्रभाव में हो, तो जातक को राज्य सम्मान, अचानक धन लाभ, विदेश यात्रा, व्यापार में बढोत्तरी मिलती है।
यद्यपि इनमें से किसी ग्रह के नीच, शत्रु क्षेत्री, पाप प्रभव अथवा षडाष्टक योग में बैठने पर व्यक्ति को शिरोरोग अथवा सिर पीडा, सिर के रोग, शारीरिक कमजोरी का सामना करना पडता है। उसे अचानक हानि, जेल यात्रा, विद्युत भय, अग्नि भय, सम्मान में हानि अथवा पदमुक्ति का सामाना भी करना पड सकता है।
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