ज्योतिष शास्त्र में मस्तिष्क, मानसिक शक्ति, मनोविकार, बुद्धि, विद्या, ज्ञान आदि के लिए अगल-अलग कारकों का अध्ययन किया जाता है।

जब बुद्धि तथा मन के द्योतक सभी अंगों पर पापी ग्रहों का प्रभाव पाया जाये तो उन्माद योग की सृष्टि होती है।

बुद्धि के द्योतक अंग हैं :- (i) लग्न (ii) लग्नाधिपति (iii) बुध (iv) पंचम भाव (v) पंचमेश।

और मन (Emotions) के द्योतक अंग हैं :- (i) चतुर्थ भाव (ii) चतुर्थ भाव का स्वामी (iii) चन्द्र।

इस प्रकार बुद्धि तथा मन के आठ प्रतिनिधि हुए। जब इन आठो के आठों अंगो पर पापी ग्रहों का प्रभाव पाया जावे तो मनुष्य उन्मादी (पागल) हो जाता है।

कुंडली में मनोरोग देखने के सूत्र

1. यदि लग्न में चंद्रमा और बुध, शनि, राहु व केतु से युत या दृष्ट हो, तो जातक मानसिक रोगी होता है। ऐसे व्यक्ति को पागलपन का दौरा भी पड़ सकता है। यदि जन्म अमावस के आसपास का हो, तो फल और भी बुरा हो सकता है।

2. चंद्रमा और बुध के दोनों ओर के घरों में शनि, राहु व केतु हों तो व्यक्ति सनकी एवं मानसिक रोगी होता है। चंद्र का मन से तथा बुध का बुद्धि से संबंध है। जब दोनों अशुभ प्रभाव में होंगे, तो मानसिक रोग होना स्वाभाविक ही है एवं लग्न तथा लग्नेश पर भी पाप प्रभाव होना आवश्यक है क्योंकि लग्न से ही दिमाग के बारे में विचार किया जाता है।

4. बुध पाप ग्रहों से पीड़ित होकर अष्टम में हो, षष्ठ भाव पर भी पाप ग्रह की दृष्टि हो, तो पागलपन के दौरे पड़ सकते हैं।

5. अगर किसी जन्मकुंडली में चन्द्रमा चतुर्येश होकर त्रिक् भाव अर्थात् छटवें, आठवें या बारहवें भाव में बैठ जाए, वह पाप प्रभाव से पीडित हो, तो चन्द्रमा की इस स्थिति न केवल उस व्यक्ति के मन में भय एंव संशय के भाव रहते है, अपितु उसकी मानसिक संवेदना एंव स्मृति भी विकृति होती जाती हैं। वह मिगरी या हिस्टीरिया जैसे भयानक रोगों से भी पीडित हो जाता है। चन्द्रमा राहू, केतू जैसे छाया ग्रहों से भयभीत रहता है।

6. यदि द्वादश भाव में क्षीण चन्द्र तथा शनि की युति बनी हो ।

7. लग्न में शनि राहू ग्रस्त होकर बैठा हो तथा नवम् अथवा पंचम भाव में पाप ग्रह मंगल हो।

चंद्र, शनि और मंगल की परस्पर युति हो अथवा दृष्टि संबंध स्थापित हो रहे हों, अथवा षष्ठ भाव में चंद्र-मंगल की युति बनी हो, तो जातक निश्चित ही मनोविक्षिप्त, उन्माद, पागल अथवा चित्तभ्रम का शिकार बनता है।

गंभीर मनोरोगों से पीडित पाए गये अनेक लोगों की जन्मकुंडली के अध्ययनों से ये तथ्य काफी हद तक स्पष्ट होता है। ऐसी कुछ जन्मकुंडलियां निम्न प्रकर हैं:-

उदाहरण 1. यह एक मंदबुद्धीनता से ग्रस्त रहे बालक की जन्मकुंडली है। यह बालक जन्मजात रूप से ही मंदबुद्धि लेकर पैदा हुआ। यह बालक पंद्रह वर्ष की उम्र तक भी अपने निजी कार्य तक नहीं कर पाता था। बाद में इसे ज्योतिष संबंधी उपायों से काफी आराम मिला।

इस जन्मकुंडली में षष्ठेश की लग्न भाव में स्थिति तथा लग्नेश बृहस्पति का अष्टम् भाव में स्थित रहना गंभीर रोग का स्पष्ट संकेत दे रहा है। लग्नेश बृहस्पति के ऊपर शनि के अतिरिक्त राहू का अशुभ प्रभाव भी है। यह योग भी जातक के विवेकहीन एंव मेधा शक्तिहीन बने रहने का संकेत दे रहा है।

इस जन्मकुंडली में भी शनि राहू अनियंत्रक राशि तथा व्ययेश का होकर, अष्टमेश शुक्र के साथ द्वितीय भाव में बाधापति बुध की युति में बैठा है। अतः शनि अत्यंत पापी बनकर स्थित है। बुध की शनि से युति तथा बुध की मिथुन राशि एव चतुर्थ भाव पर शनि व राहू की पापी दृष्टि, बुध को हीनबली बना रही है। इससे फलस्वरूप जातक की बुद्धि विकसित नहीं हो पायी। इस जन्मकुंडली में लग्नेश बृहस्पति अष्टम् भाव में स्थित रहने से हीनबली है।

अतः जातक के गुरू को बली करने के लिए सबसे पहले पुखराज ही पहनाया गया। यद्यपि अंगूठी सोने की जगह चांदी की बनवाई गई। क्योंकि स्वर्ण को सूर्य से संबन्धित धातु माना गया है, जबकि जन्मकुंडली में सूर्य स्वयं ही रोगेश बनकर बैठे है। शनि व राहू दोनों ही गुरू पर पाप प्रभाव डाल कर उसे बलहीन बना रहे है। राहू व्यय भाव में स्थित रहने से विशेष पापी है तथा शनि की राशि में स्थित है। अतः राहू की शान्ति कराने से शनि के अशुभ प्रभाव पर प्रभाव पडेगा । जातक को राहू की अशुभता दूर करने के लिए विशेष पूजा सम्पन्न करायी गयी।

मिरगी संबंधी ग्रह योग

ज्योतिष में मिरगी रोग से संबन्धित निम्न ग्रह स्थितियां देखी जाती है:-

  • जब षष्ठ अथवा अष्टम् भाव में शनि-मंगल की युति बने तो मिरगी की संभावना रहती है।
  • अष्टम भाव में चन्द्र-राहू की युति से भी मिरगी की संभावना पता चलती है।
  • किसी भी भाव में शनि-चंद्र की युति तथा उसके ऊपर मंगल की पापी दृष्टि से भी मिरगी की संभावना रहती है।

उदाहरण 2. यह एक ऐसे युवक की जन्मकुंडली है जो आठ वर्ष की उम्र से मिरगी रोग से पीडित है।

षष्ठ भाव तथा षष्ठेश बुध पर राहू की दृष्टि स्नायुविक दुर्बलता या अचेतनता का रोग दे सकती है। चतुर्थ भाव मन राहू अक्ष में तथा पाप मध्य में होने से हीन बली हो जायगा है। चतुर्थेश एंव नैसर्गिक कारक चंद्रमा व्यय भाव में मंगल, शनि तथा केतु से दृष्ट है। यही सब योग मिरगी यानी अपस्मार का मुख्य कारण बने है।

इस जातक को प्रथम बार मिरगी का दौरा बुध महादशा अन्तर्गत चंद्र अन्तर्दशा के दौरान पड़ा। जन्मकुंडली में बुध रोग भाव के कारक बनकर द्वितीय भाव में और चंद्रमा द्वादश भाव में जाकर स्थित है।

इस जातक को बीस वर्ष की उम्र के समय ज्योतिष संबंधी कुछ उपाय सम्पन्न कराये गये थे, जिनमें मुख्यतः उसे ‘हरी तुरमली’ और ‘किडनी स्टोन’ के साथ चंद्र रत्न को चांदी की अंगूठी में जडवाकर धारण करने के लिए और राहू-शनि की अशुभता की शान्ति के लिए विशेष हवन सम्पन्न करवाया गया था। तब से यह जातक काफी हद तक स्वस्थ्य है।


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