रोग शांति के लिये विशिष्ट उपाय

रोग उपचार के निमित्त दुनिया भर में ही विभिन्न तरीके इस्तेमाल किया जाते रहे है। इनके एक तरीका अपनी निष्ठा अनुसार अपने इष्टदेव से प्रार्थना, पूजा-अनुष्ठान करने का भी रहा है। और अब आधुनिक परीक्षणों से भी यह बात बिलकुल स्पष्ट हो चुकी है कि ईश्वर से प्रार्थना करने पर तत्काल उनका आर्शीवाद प्राप्त होता है। ईसाई जगत में तो सामूहिक प्रार्थना का सर्वत्र प्रचलन रहा है।

हमारी सनातन प्रणाली में भी हजारों सालों से विभिन्न देवों से संबन्धित मंत्रजाप, पूजा-अर्चना, हवन-यज्ञ, अनुष्ठान आदि सम्पन्न कराने की परंपरा रही है। हिंदुओं में मुख्यतः सूर्य, गायत्री, ललिता, हनुमान शिव, विष्णु, गणेश, नृसिंह आदि देवों की पूजा-अर्चना करने की परंपरा है। यद्यपि इनके अतिरिक्त भी अन्य देवी-देवताओं के तंत्र आधारित विभिन्न अनुष्ठान भी होते है।

सूर्य उपासना

हमारे जीवन में ग्रहों का कितना महत्व रहता है और उनके क्या प्रभाव पडते है, इस तथ्य का पता इससे चलता है। कि प्राचीन समय से ही ‘नवग्रह पूजन’ की उपयोगिता सर्वत्र स्वींकार की गई है। हमारे सभी तरह के रीत-रिवाज, पूजा-अर्चनाएं, भवन निर्माण से लेकर मूर्ति स्थापना और यन्त्र आदि को बनाने व उन्हें प्रतिष्ठित करने तक, सभी जगह नवग्रहों को भगवान शिव, विष्णु और देवी की तरह ही स्थापित किया जाता है। सभी मांगलिक एंव शुभ अवसरों पर नवग्रह पूजा एक अनिवार्य अंग के रूप में सम्पन्न करने की परंपरा है, ताकि उन देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना, यज्ञ-हवन आदि का कार्य निर्विघ्न रूप में समाप्त हो सके।

हमारे जीवन में नवग्रह पूजा का इतना महत्व रहा है कि वैदिक पूजा पद्धति की समस्त क्रियाएं, यज्ञ-हवन से लेकर हमारे जीवन के साथ जोड़े गये सोलह संस्कारों तक को सम्पन्न करते समय भी नवग्रह पूजा को विशेष रूप से सम्मिलित किया जाता रहा है। इन संस्कारों को सम्पन्न करते समय सर्वप्रथम नवग्रहों की ही स्थापना एंव पूजा सम्पन्न की जाती है।

बच्चे के नामकरण संस्कार से लेकर उसके उपनयन संस्कार, उसके मुण्डन संस्कार, जनेऊ संस्कार, विवाह संस्कार तक सभी जगह नवग्रह पूजा, एक विशेष पूजा अंग बनी रही है।

यद्यपि अब यह प्राचीन परंपरा भूलती जा रही है, अन्यथा बच्चों को पाठशाला भेजने के प्रथम दिन ही, सरस्वती पूजा के साथ नवग्रह पूजा का कार्य भी एक अनिवार्य कर्म के रूप में सम्पन्न करने का विधान था। नवग्रह पूजा से समस्त कार्य निर्विघ्न समाप्त होते है।

नवग्रहों में ‘सूर्य’ तो आदि देव रहे हैं। यह आरोग्य के प्रदाता और जीवनदायिनी शक्तियों के स्वामी माने गये है।

प्रातःकाल सूर्योदय से एक या डेढ़ घंटे पहले उठकर उष्णकाल की ललिमा के सुहावने वातावरण में मंद गति से खुली हवा में भ्रमण करना, सूर्य रश्मियों को स्वयं में आत्मसात करना, उदित होते सूर्य का दर्शन करना तथा प्रातःकाल सूर्य को ताम्रपात्र से जल समर्पित करना आरोग्यप्रद माना गया है।

सूर्य को इस प्रकार जलांजलि देनी चाहिए, ताकि जल बहकर पावों में न आवे। साथ ही अर्घ्य देते समय जल धाराओं में से मंडल का दर्शन भी करना चाहिए, साथ ही ‘ॐ मित्राय नमः ॐ रवये नमः, ॐ सूर्याय नमः, ॐ भानवे नमः, ॐ खगाय नमः, ॐ पूष्णे नमः, ॐ हिरण्यगर्भायनमः, ॐ मरीचये नमः, ॐ अदित्याय नमः ॐ सवित्रे नमः, ॐ अर्काय नमः, ऊँ भास्काराय नमः इन बारह आदित्य मंत्रों के साथ सूर्य नमस्कार अति उत्तम रहता है। अर्घ्य जल में लाल चंदन, अक्षत तथा जपाकुसुम के पुष्प (गुडहल के पुष्प अथवा उनके अभाव में रक्त पुष्प) डालकर दें।

रविवार का व्रत करें। व्रत वाले दिन लवण रहित भोजन करें। साथ ही महर्षि वाल्मीक प्रणीत आदित्य हृदय स्तोत्र अथवा याज्ञवल्क्य रचित सूर्यकवच का पाठ करें। सूर्य उपासना के साथ सूर्य को बल प्रदान करने के लिए स्वर्ण अंगूठी में सूर्य रत्न जडवा कर भी धारण करें।

इस प्रकार सूर्य उपासना से आत्मबल में वृद्धि होती है और अनेक रोगों से सहज रूप में मुक्ति मिल जाती है।

गायत्री उपासना

मां गायत्री समस्त वेदों की माता, ब्रह्मा और सूर्य की शक्ति तथा समस्त कामनायें प्रदान करने वाली है। सात्विक आहार-विहार पूर्वक श्रद्धा के साथ स्वयं रोगी को स्नान, संध्या पूजन के पश्चात् अथवा रोगी के असमर्थ होने पर उसके परिवारजन, शुभेच्छु द्वारा एक निर्धारित समय पर निश्चित संख्या में गायत्री मंत्र का जप करना चाहिए। जप करते समय मुंह से आवाज न निकले, न होठ हिलें। यह जप रोगी द्वारा लेटे-लेटे भी किये जा सकते है। गायत्री मंत्र है- ‘ॐ भुर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्।’

इसका मंत्र का शुद्ध उच्चारण किसी विद्वान से सीख लेना चाहिए।

जप करते समय हृदय, मस्तिष्क तथा नेत्रों पर हाथ फेरते रहना चाहिए। जप के पश्चात् ताम्र पात्र में भरे हुए शुद्ध जल में तुलसी पत्र तथा काली मिर्च घोंटकर रोगी को पिलाना चाहिए।

रोगी की रक्षार्थ उसे गायत्री कवच धारण करना लाभदायक तथा आकस्मिक हृदयाघात, मस्तिष्कीय आघात एंव दुर्घटनाओं से सुरक्षित रखता है।

कवच बनाने के लिए किसी रविपुष्य, गुरुपुष्य, अक्षय तृतीया, अक्षय नवमी इत्यादि शुभ तिथि को जब रोगी के गोचर में चंद्रमा चौथे, आठवें एंव बारहवें भाव में न हो, किसी विद्वान कर्मकांडी ब्राह्मण आचार्य अथवा स्वंय रोगी के हितेच्छु परिजन द्वारा प्रातःकाल स्नान, पूजन, जप के पश्चात् केशर, जायफल, जावित्री, गोरोचन तथा कस्तूरी आदि को एक साथ घोंटकर इनकी मिश्रित स्याही एंव अनार की कलम से रजत पत्र अथवा भोज पत्र पर ‘पाँच ॐ तथा गायत्री मंत्र अंकित करना चाहिए। बाद में इसे चांदी के तावीज में भरकर केशरिया या लाल रंग के डोरे में डालकर रोगी को धारण करवा देना चाहिए। यह कवच रोगी की प्राण रक्षा करते है। यद्यपि इस प्रकार के कवच को धारण करके शमशन, शवयात्रा आदि में शमिल नहीं होना चाहिए।

भारतीय पौराणिक ग्रंथों में ‘दत्तात्रेय वज्र कवच या वरद दत्त रक्षा स्तोत्र, महागणपति कवच, श्री नृसिंह कवच, त्रैलोक्य मंगल कवच, नारायण कवच, देवी कवच, हनुमान कवच, अमोध शिव कवच, संकट मोचक हनुमाष्टक कवच आदि अनेक दिव्य रक्षा कवच स्तोत्र एंव मंत्र का वर्णन आया है। इनमें से अपनी सुविधानुसार किसी का चुनाव करके विधिवत् पूजा-अर्चना एंव ईष्ट प्रार्थना के बाद बीज मंत्र सहित पाठ करने से अत्यंत लाभ मिलेत देखा गया है।

महामृत्युंजय जप अनुष्ठान

भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए, ओढरदानी शिव का आर्शीवाद प्राप्त करने, शिव को प्रसन्न करने के उद्देश्य एंव अनिष्टकारी ग्रहों के दुष्प्रभावों को दूर करने के लिए अति प्राचीन काल से ही शिव पूजा-अर्चना, शिव आराधना और शिव अर्चना से संबन्धित रूद्राष्टक स्तोत्र, रुद्राभिषेक, महामृत्युंजय मंत्र अनुष्ठान आदि की विशेष मान्यता चली आ रही है। मेरे निजी अनुभव में भी यह प्रयोग एंव पूजा-पाठ, अनुष्ठान आदि अत्यन्त प्रभावपूर्ण सिद्ध हुए हैं।

शिव के महामृत्युंजय अनुष्ठान का प्रयोजन तो सहस्त्रों कार्यों के निमित्त किया जाता है। इसे ही शास्त्रों में ‘मृत संजीवनी विद्या’ का नाम दिया गया है। अनेक अवसरों पर इस अनुष्ठान द्वारा लोगों को अकाल मृत्यु के बाहु पाश से वापिस लौटते, असाध्य रोगों के चक्रव्यूह से बाहर आते, आर्थिक एंव अन्य तरह की मृत्यु तुल्य कठिनाइयों से निकलते देखा गया है।

यहाँ तक कि जिन जन्मकुंडलियों में कालसर्प दोष की रचना बन जाती है या जिन लोगों को पितृदोष का संताप भोगना पड़ रहा है, अगर उन्हें भी महामृत्युंजय अनुष्ठान विधिवत् सम्पन्न करवा दिया जाए अथवा गुरू या विद्वान पिरोहित या अचार्य के सानिध्य में सम्पन्न कर लिया जाए तो अत्यन्त अनुपम लाभ मिलते है।

महामृत्युंजय अनुष्ठान को मुख्यतः निम्न प्रयोजनों के निमित्त सम्पन्न किया जाता है:-

  • कोई व्यक्ति लाइलाज बीमारी की चपेट में आ गया हो। निरंतर इलाज से भी बीमारी नियंत्रण में न आ रही हो।
  • नगर, बस्ती में किसी भयानक संक्रामक रोग ने दस्तक दे रखी हो।
  • ज्योतिषी ने अकाल मृत्यु का फलकथन किया हो।
  • किसी कारण वश पारिवारिक सदस्यों ( पति-पत्नी) के मध्य कलह, क्लेश एंव अविश्वास का भाव बनने लगा हो।
  • बंधु-बांधवों के मध्य वियोग की आशंका उत्पन्न होने लगी हो।
  • व्यक्ति अनायास किसी दुर्घटना का शिकार बन गया हो या उसका जीवन एकाएक खतरे में आ गया हो।
  • राजसत्ता, मंत्री पद प्राप्ति में बाधाएं खड़ी हो रही हो, पदोन्नति की जगह पद अवनति, नौकरी से सस्पेंड होने की नौबत बन गई हो।
  • सरकारी केस या मुकद्मा बन गया हो। पुलिस आदि का मामला बन हो गया हो। अपने ऊपर कोई झूठा दोषारोपण लगा हो।

उपरोक्त समस्त स्थितियों में महामृत्युंजय मंत्र के अलग-अलग तरह के अनुष्ठान सम्पन्न कराने से बहुत चमत्कारिक परिणाम मिलते है।

विश्व के समस्त प्राणरक्षक उपासनाओं का सिरमौर महामृत्यंजय भगवान आशुतोष मृत्युंजय शिव की आराधना की विस्तृत विधि है। ये आदिदेव, अज, अविनाशी, भूतनाथ, मृत्युजय, चन्द्रशेखर तथा पशुपति नाथ कहे गये है। ब्रह्माण्ड की रक्षार्थ अमृत मंथन से उद्भुत कालकूट विष को पीकर कंठ में ही रोककर नीलकंठ कहलाये। उनमें पूर्ण श्रद्धा, विश्वास, भक्ति रखते हुए आस्थापूर्वक महामृत्युजंय जप का पुरश्चरण, रुद्राभिषेक तथा दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण किया जाता है।

महामृत्युजंय का पुरश्चरण साढे तीन लाख मंत्र का माना गया है। इसे यदि स्वंय रोगी न करे सके तो उसे प्राणधिक चाहने वाला परिजन, पुत्र, पिता, भ्राता, मित्र अथवा पवित्र जीवनयापन करने वाला ब्राह्मण आचार्य द्वारा भी सम्पन्न करवाया जा सकता है।

पुरश्चरण रोगी का ज्योतिषीय दृष्टि से चंद्रवर्ण आदि देखकर प्रदोष, सोमवार, मंगलवार, शनिवार या किसी भी शुभ दिन प्रारम्भ किया जा सकता है। यद्यपि पुरश्चरण काल में सात्विक आहार-विहार, ब्रह्मचर्य पालन, भूमि शयन, नापित से क्षार कर्म न करवाना, कुत्सित इच्छाओं का दमन, निश्चित समय पर जप करना व ईश्वर के ऊपर दृढ आस्था एंव विश्वास रखना अति आवश्यक है। साथ ही पथ्य आदि का पालन भी करना चाहिए।

यदि साढे तीन लाख मंत्र जप संभव न हो पाए, तो छोटा पुरश्चरण किया जा सकता है। छोटा पुरश्चरण सवा लाख मंत्र जाप का रहता है। यह जप शिवालय, घर के पूजा स्थान, शिवमूर्ति, लिंग अथवा नर्मदेश्वर के सानिध्य में बैठकर किया जाना चाहिए। यथा संभव धवल वर्ण का नर्मदेश्वर ही स्थापित करना चाहिए अथवा नित्य काली या पीली चिकनी मिट्टी से बनाये गये पार्थिव शिवलिंग की प्रतिष्ठा व स्थापना करके जप करना चाहिए।

जप पूर्व शिवालय में सबसे पहले सफाई व पवित्र जल से प्रक्षालन कर या कच्चा आंगन हो तो गोमूत्र गंगोदक से लीप पोत कर स्वच्छ करना चाहिए। स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहन कर सर्वप्रथम पूर्वाभिमुख बैठकर गायत्री मंत्र की कम से कम एक माला करनी चाहिए। जप के बाद तीन आचमन, प्राणायाम, शान्तिपाठ प्रार्थना तदोपरांत महामृत्युंजय मंत्र का संकल्प लेना चाहिए। संकल्प के बाद मंत्र जप करना ही ठीक रहता है।

महामृत्युंजय मंत्र निम्न प्रकार है:-

ॐ त्रयम्बकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुनीयमामृतात्

जप करने से पूर्व अपने मस्तक पर भस्म से त्रिपुण्ड धारण करना चाहिए। रुद्राक्ष धारण करना चाहिए रूद्राक्ष की माला से ही मौन रहकर मन ही मन जप करना चाहिए। मंत्र के साथ प्रारम्भ में तथा अन्त में बीज मंत्र को संयुक्त करने पर अन्य महामृत्युजंय मंत्र की रचना होती है। यह मंत्र निम्नानुसार बनेगा:-

‘ॐ हौं ॐ जूं सः भुर्भुवः स्वः ॐ त्रयम्बकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात् । भुर्भुवः स्वरों जूं सः ह्रीं ॐ।’

जब पुरश्चरण पूर्ण हो जाए तो मंत्र जप का दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण और तर्पण का दशांश मार्जन करना चाहिए।

अतः जब साडे तीन लाख मंत्र का महापुरश्चरण किया जाए, तो 35000 तथा और जब सवा लाख का लघु पुरश्चरण किया गया हो तो 12500 आहुति डालते हुए हवन सम्पन्न करना आवश्यक है। अगर केवल जप का ही संकल्प लिया हो रुद्राभिषेक का नहीं तो अभिषेक करना आवश्य नहीं, पर दशांश आहुति अथवा असमर्थता होने पर दशांश अतिरिक्त जप किया जाना अनिवार्य है।

रोग निवृत्ति हेतु जप के पश्चात् गुडूची, खण्ड, गौदुग्ध तथा गौघृत की आहूति दी जानी चाहिए। हवन के पश्चात् दशांश (1250) तर्पण, तर्पण का दशांश ( 125 ) मार्जन तथा यथाशक्ति दान-पुण्य, ब्राह्मण भोजन कराना चहिए।

इस महामृत्युंजय मंत्र के अलावा छोटा जप व पुरश्चरण त्रयक्षर मंत्र का भी होता है। जो इसी प्रकार साढ़े तीन लाख या सवा लाख संख्या में करना चाहिए। जप, पूजा, न्यास सबकी विधिवत् पूर्ति आवश्यक है। पूजा में लाल व श्वेत चंदन, स्नानार्थ दूध, शुद्ध जल या गंगाजल, अक्षत, संभव हो बिल्व पत्र, धूप, घृत दीप तथा नैवेद्य के सहित श्वेत पुष्प समर्पण करने चाहिए।

मिट्टी को स्वच्छ एंव शुद्ध जल में भिगोकर शिवमूर्ति (जलहरी) या योनिपीठ में स्थापित शिवलिंग रोजाना बनाना पड़ता है। इस पूजा में सर्वप्रथम ‘भगवत्यै उमायै नमः’ कहकर यानी पीठ पर रक्त चंदन लगना चाहिए। हररायनमः कहकर मूत्तिका शिवलिंग बनाने हेतु ग्रहण करें। ‘महेश्वराय नमः’ कहकर शिवलिंग बनावें। ‘शूल पाणये नमः कहकर योनिपीठ पर शिवलिंग की स्थापना करें। सर्वप्रथम भगवत्य उमाय नमः’ कहकर योनिपीठ पर रक्त चंदन लगावें। ‘पिनाक ध्वज नमः’ कहकर पार्थिव शरीर लिंग में शिव का आवाहन करें। ‘शिवाय नमः’ कहकर पहले कच्चे गौदुग्ध से पुनः स्वच्छ पवित्र जल से स्नान करावें । ‘पशुपतये नमः’ मंत्र से क्रमशः लाल चंदन, श्वेत चंदन, अक्षत, पुष्प, बिल्वपत्र, थप तथा घृत दीप समर्पित करें। नैवेद्य समर्पण कर शिव का किसी ‘ध्यायेत्यि महेशं रजत गिरि निभं चारू चन्द्रावतंस’ अथवा ‘चन्द्रार्काग्नि बिलोचनं स्थित मुख पद्माद्वयान्नः स्थितम्’ आदि मंत्र से ध्यान करें। जप के पश्चात् ‘ॐ चण्डेश्वराय नमः’ मंत्र से अक्षत फल पुष्पांजलि समर्पण कर, ‘ॐ महादेवाय नमः’ मंत्र से शिवमूर्ति का किसी तीर्थ स्थल नदी, कूप, बावडी, सरोवर जो पवित्र हो, में विसर्जन कर दें। ऐसे अनुष्ठान के लिए सबसे पहले सर्वतोभद्र घट स्थापना, नवग्रह स्थापना व पूजा, गणपति स्थापना व पूजा, शिव लिंग की स्थापना व अभिषेक, पूजा-अर्चना का क्रम सम्पन्न करना चाहिए। ऐसे अनुष्ठान के लिए पारद, रजत या स्फटिक के बने शिवलिंग की स्थापना कर उसकी पूजा करने का विधान भी है।

श्री महामृत्युंजय रक्षाकवच (यन्त्रम्)

ऐसे विशिष्ठ अनुष्ठान को विधिवत् सम्पन्न करते समय नवग्रह पूजन, गणपति स्थापना और शिवलिंग आदि की स्थापना के साथ शिव के कल्याणकारी अद्भुत महामृत्युंजय रक्षाकवच (यन्त्र) स्थापना का भी विधान है। शिव के ऐसे रक्षा कवच प्रायः चांदी पत्र या भोजपत्र के ऊपर बनाने चाहिए। शिव अनुष्ठान में लोहे या तांबे पर यन्त्र बनाकर प्रयुक्त नहीं करने चाहिए। ऐसे यन्त्र का प्रयोग निषेध माना गया है।

पूजा कार्य में स्थापित करने के लिए चांदी पर उत्कीर्ण किया गया यन्त्र ही प्रयोग करना चाहिए। ऐसे यन्त्रों को पहले से स्वंय खरीदी गई शुद्ध चांदी पर किसी शुभ मुहूर्त, किसी शुभ अवसर जैसे ग्रहण काल, सोमावती अमावस्या रवि-पुष्य, गुरु-पुष्य योग, विजयलक्ष्मी, श्रावण मास आदि के दौरान तैयार करवा कर विधिवत मंत्र चैतन्य कर लिया जाता है और तदोपरांत ही अनुष्ठान में प्रयुक्त किया जाता है।

ऐसे मंत्र चैतन्य देव यन्त्र को पूजा स्थान, अनुष्ठान में स्थापित करने से देव स्वयं उपस्थित रहते है। इससे स्थान विशेष के वातावरण में तो एक विशिष्टता आती ही है, अनुष्ठान में भी निश्चित सफलता प्राप्त होती है। यंत्र निर्माण के समय व्यक्ति का नाम, गोत्र, पिता का नाम पुत्र या पुत्री का नाम यथा स्थान लिखना चाहिए।

भोजपत्र आदि के ऊपर जो यन्त्र आदि तैयार किये जाते है, उन्हें रक्षा कवच की तरह स्वयं अपने शरीर पर धारण किये जा सकते है । ऐसे यन्त्र बीमार व्यक्तियों, जीर्ण व्याधियों से ग्रस्त लोगों, तांत्रोक्त प्रभावों से डरे-सहमे लोगों को, भूत-प्रेत, जंगली हिसंक जानवरों से भयग्रस्त लोगों, शत्रुओं से सताये लोगों, अकेले यात्रा पर जाने वाले, न्यायालय आदि में झूठे दोधारोपण के शिकार लोगों को पहनाये जाते है।

ऐसे यन्त्रों को सर्वप्रथम किसी शुभ काल में अष्टगन्ध की स्याही और अनार अथवा चमेली की कलम से तैयार करके एंव पूजन आदि से मंत्र चैतन्य करके, चांदी या सोने से बने ताबीज में रखकर शरीर पर धरण किया जाता है। ऐसे यन्त्रों को ताबीज सहित प्रत्येक दिन या प्रत्येक सोमवार के दिन स्वच्छ जल तथा गुग्गुल आदि की धूप देकर शरीर पर धारण करना चाहिए। ऐसे यन्त्रों को धारण करने से निश्चित ही शरीर की रक्षा होती है।

चांदी या सोने के ताबीज में रखकर पुरुष अपने दाहिने बांह पर और स्त्री अपने बायें हाथ में यंत्र बाँध सकते है।

लाल किताब में संतान सुख

लाल किताब में संतान बाधा हटाने या संतान को कुमार्ग से सुमार्ग पर लाने, परिवार की मान मर्यादा का अनुसरण कराने के लिए केतु संबन्धी उपायों की सहायता लेने के लिए कहा गया है। केतु की शुभता के लिए उन्हें कुत्तों की सेवा करनी चाहिए अथवा घर में कुत्ता पालना चाहिए।

दरअसल, लाल किताब में केतु को कुत्ता का कारक माना गया है। अतः कुत्तों की सेवा या घर में कुत्ते की पालना करने से केतु प्रसन्न होते है। लाल किताब ने साधु, फकीर, साला, जीजा, भांजा-भांजी को भी सांसारिक कुत्तों की संज्ञा दी गई है। यह सभी भी नित सेवा करने, नित्य मदद किए जाने से ही प्रसन्न रहते है। अतः इनकी सेवा से भी केतु की शुभ मदद मिलती है अथवा उन्हें दुःख देने, सताने से केतु अशुभ बनते है तथा संतान बाधाएं खड़ी करते रहते है। अतः ऐसे लोगों को इनकी सेवा मुहार से केतु का शुभ प्रभाव लेना चाहिए।

1. लाल किताब के अनुसार, संतान की दीर्घ आयु के लिए जिस दिन स्त्री को अपने गर्भवती होने का पता चले, उसी दिन उसके दायें बाजू पर लाल रंग का भाग बांध देना चाहिए। इस धागे से गर्भपात की आशंका नहीं रहती। बच्चे के जन्म के बाद मां के इस धागे को खोलकर बच्चे को बांध देना चाहिए, जबकि स्त्री की बाजू पर नया लाल रंग का धागा बांध देना चाहिए। इस लाल रंग के धागे को रक्षा कवच या रक्षा सूत्र कहा जाता है। बच्चे के डेढ साल का होने तक यह रक्षा सूत्र अवश्य बाँधकर रखना चाहिए। इससे गर्भपात की संभावना खत्म होने के साथ-साथ बच्चे की आयु बढती है। बच्चा स्वस्थ पैदा होता है।

अगर किसी कारण वश बीच में यह धागा टूट जाए, तो मां की बांह में बांधे हुए धागे को खोलकर बच्चे की बांह में बांध देना चाहिए और मां की बांह में दूसरा नया धागा बांध देना चाहिए।

2. जब किसी व्यक्ति के जीवन में संतान दुःख के साथ-साथ धन की कमी भी निरंतर बनी रहे, धन, मान सम्मान को क्षति पहुंचे, हर जगह अपमानित होना पड़े, तो उसे प्रतिमास गऊ ग्रास देना चाहिए। इसके अलावा कौवों को दही, या श्वेत मिष्ठान, कुत्ते को घी से चुपडी मीठी रोटी खिलानी चाहिए।

3. जिस व्यक्ति के बच्चे जीवित न रहते हो, उसे लाल किताब के अनुसार, अपने बच्चे के पैदा होने पर जन्म की खुशी में मिठाई या मीठी चीजें नहीं बांटनी चाहिए। मिठाई की जगह उन्हें अपने रिश्तदारों, मित्रों को नमकीन चीजें खिलानी चाहिए, बांटनी चाहिए।

4. जिस परिवार में बच्चों का जन्म न हो, उन्हें अपने घर में काली रंग की कुतिया का पालन करना चाहिए। यह कुतिया जब अकेले नर पिल्ले को जन्म दे तो उस पिल्ले की पालना ठीक से करनी चाहिए। इस उपाय से संतान बाधा का निवारण होता है। इस उपाय से निश्चित ही घर में बच्चे की किलकारियां सुनने को मिलती है।

5. कुत्तों को डबल रोटी, मीठी रोटी खिलाते रहने, घर में काला सफेद रंग का पिल्ला पालने से भी संतान बाधा का दोष मिटता है। लेकिन कुत्ते को घर की छत पर रखकर नहीं पालना चाहिए।

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