ज्योतिष शास्त्र में त्वचा संबंधी रोग

‘त्वचा’ यानी स्किन हमारे शरीर का सबसे बाहरी आवरण है। यह हमें एक विशेष व्यक्तित्व आकर्षण एंव चुम्बकीय आभा प्रदान करने के साथ-साथ विभिन्न रोग कारक जीवाणुओं, विषाणुओं, फंगस, मक्खी, मच्छर जैसे कीट-पंगतों से भी सुरक्षा प्रदान करती है।

ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि में त्वचा का कारकत्व बुध ग्रह को दिया गया है। इसलिए जब तक बुध शुभ स्थिति में बने रहते है, तब तक व्यक्ति की त्वचा भी अत्यंत स्निग्ध और आभा युक्त बनी रहती है। उसे किसी रोग आदि का सामना भी नहीं करना पड़ता।

लेकिन जब यही बुध पाप युक्त या पाप दृष्ट हो जाता है और त्रिक भावों में स्थित रहता है तो अचानक ही उस व्यक्ति की त्वचा की आभा को नष्ट करने लगता है। इसके साथ ही त्वचा में नाना प्रकार के रोग, दाग-धब्बे से उभरने लगते है। इसके बाद ही कई तरह के त्वचा संबंधी गंभीर रोग भी सामने आने लगते है।

त्वचा संबंधी ऐसे रोगों के लिए बुध के अतिरिक्त शनि, राहू जैसे पापी ग्रहों की भी विशेष भूमिका रहती है। त्वचा रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों की जन्मकुंडलियों में शनि, राहू, मंगल या क्षीण चंद्रमा की विशेष भूमिका रहती है।

चूँकि सारे शरीर के ऊपर ही त्वचा का एक आवरण सा चढा रहता है, इसलिए त्वचा संबंधी रोगों में किसी एक भाव की जगह सभी भावों की भूमिका रहती है। अर्थात् भाव के कारकत्व के अनुसार ही अलग-अलग अंगों पर त्वचा संबंधी रोग पैदा होते देखे जाते है। यद्यपि इनमें लग्न भाव और रोग भाव की सबसे अहम भूमिका रहती है।

शारीरिक सुख स्वास्थ्य के लिए सर्वप्रथम लग्न भाव का अध्ययन, विश्लेषण ही किया जाता है। लग्न एंव लग्नेश के बली होने पर व्यक्ति रोगों से पूर्णतः मुक्ति प्राप्त कर लेता है, तो बुध के पाप ग्रहों से पीडित रहने पर व्यक्ति को त्वचा रोग सताते है। यद्यपि लग्न और लग्नेश के शुभ प्रभाव में रहने पर वह रोग शीघ्र ही ठीक भी हो जाते है।

षष्ठ भाव को तो रोग भाव ही माना गया है। बुध का षष्ठ भाव और षष्ठेश के साथ अन्य पापी ग्रहों के साथ स्थित रहने पर जटिल रोगों की संभावना बनी रहती है।

ज्योतिष शास्त्र में जन्मकुंडली के द्वादश भाव विभिन्न अंगों का प्रतिनिधित्व करते है। अतः जन्मकुंडली में बुध पाप ग्रहों से पीडित होकर जिस भाव में स्थित रहता है, उसी भाव से संबन्धित अंग की त्वचा पर रोग का कारण बनता है।

अतः त्वचा संबंधी रोगों को जानने के लिए अन्य संबन्धित भावों के साथ-साथ लग्न, षष्ठ भाव को भी प्रमुखता देनी चाहिए एंव ग्रहों में बुध एंव शनि के अतिरिक्त राहू, मंगल पर भी विचार करना चाहिए। इनके अलावा अशुभ सूर्य के साथ क्षीण या पापी चंद्रमा की स्थिति को भी ध्यान में रखना चाहिए।

जन्मकुंडली विवेचन

फुलबहरी यानी ल्यूकोडर्मा नामक त्वचा रोग से ग्रस्त एक व्यक्ति की जन्म कुंडली है।

इस जन्मकुंडली के तीन केन्द्र भावों में पाप ग्रह स्थित है तथा व्ययस्थ मंगल राहू से दृष्ट होकर शनि को देख रहा है। केन्द्र स्थान में चार ग्रहों का, पापत्व अशुभ व अनिष्ट का संकेत दे रहा है। लग्नेश बुध की चंद्रमा से युति तथा षष्ठेश मंगल की दृष्टि त्वचा संबंधी रोग देती है। षष्ठेश मंगल की अष्टमेश शनि पर दृष्टि मंगल को अधिक पापी बना देती है। यहां तो लग्नेश पर मंगल तथा केतु की दृष्टि फुलबहरी का निश्चित कारण बन रहा है।

चंद्रकुंडली में भी चंद्रमा पर षष्ठेश मंगल की दृष्टि तथा अष्टमेश एकादशेश व राहू नियंत्रक बुध की युति है। षष्ठेश मंगल पर राहू की दृष्टि तथा षष्ठ भाव पर सूर्य, सिंह राशि पर मंगल की दृष्टि, गुरू, धनु व मीन शनि केतु की स्थित से पीडित तथा व्ययेश शुक्र की दृष्टि, व्यय भाव में होना पुनः त्वचा रोग की पुष्टि होती है।

ज्योतिष शास्त्र में मुँहासे

ज्योतिषीय आधार पर मेष अथवा वृश्चिक राशि वाले जातकों को यह रोग अधिक परेशान करता है। क्योंकि यह दोनों राशियां मंगल प्रधान राशियां मानी गई है और मंगल का सीधा संबन्ध फोडे-फुन्सियों के साथ रहता है जब कभी मेष, तुला अथवा मकर राशि में शुक और केतु परस्पर युति बनाकर बैठते है और उनके ऊपर शत्रु ग्रहों की दृष्टि पड़ती है, तो प्रतिकूल ग्रहों की दशाऽन्तर्दशा अथवा गोचर के दौरान इन लोगों के चेहरे पर अनायास ही कुरूपता जन्य मुंहासे निकलने लगते है।

मुँहासों से पीडित इन लोगों को चाँदी की अंगूठी में मूंगा, मोती जडवाकर मध्यमा उंगुली में तथा शनि रत्न ‘लेपिस लजूली’ कनिष्ठा उंगुली में धारण करके रखना चाहिए, तो शीघ्र उनके चेहरे पर निखार आने लगता है एंव उनके मुँहासे अदृश्य होने लगते है।


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