सूर्य सम्बंधित अंग और रोग
जन्मकुंडली में सूर्यदेव का स्थान सर्वोपरि माना गया है। इसलिए शारीरिक रूप स्वस्थ्य रहने के लिए लग्नेश के साथ-साथ पुरुष के लिए सूर्यदेव का और स्त्री के लिए चन्द्रदेव का शुभ एंव बली बनकर बैठना अत्यंत आवश्यक माना गया है।
प्रत्येक राशिस्थ सूर्यकृत रोग
मेष राशि – सूर्य मेष राशि में उच्चस्थ होते हैं सूर्य व मेष राशि दोनों ही अग्नि तत्व प्रधान है, इसलिए इस स्थिति में व्यक्ति में रोगों से लड़ने की विशेष शक्ति रहती है। जातक अच्छे डीलडौल वाला होता है। यद्यपि किसी भी कारण से इस स्थिति में सूर्य पीडित हो जाए अथवा यह योग 2 6, 8 अथवा 12 वें भाव में निर्मित हो, तो व्यक्ति को नेत्र रोग हो सकता है या उसकी नेत्र ज्योति मंद पड़ सकती है। उसके लिए चश्मे का प्रयोग आवश्यक बन जाता है। यह योग कम आयु से ही प्रभावी रहता है अर्थात् कम आयु में ही नेत्र ज्योति कम होने लगती है। इस योग में यदि केतू की युति हो तो ‘मोतियाबिंद होता है। यद्यपि इस योग पर शुभ चन्द्र अथवा लग्नेश की दृष्टि हो तो यह फल अधिक आयु में घटित होता है।
वृष राशि में – इस राशि का सूर्य भी मजबूत शरीर प्रदान करता है। यद्यपि पीडित अथवा पापी प्रभाव में होने पर जातक को मिरगी, मूर्च्छा, हिस्टीरिया अथवा हृदय रोग की संभावना देता है।
मिथुन राशि में – जन्मकुंडली में सूर्य मिथुन राशि या त्रिक भाव (6,8,12) में स्थित हो अथवा पीडित होकर गोचर वश इन भावों में आये, तो जातक को रक्त विकार, फेंफड़ों के रोग-प्लूसी अथवा स्नायु विकार दे सकता है।
कर्क राशि में – सूर्य के लिये यह बहुत ही कमजोर राशि हैं। ऐसे जातक का शरीर अत्यंत दुबला-पतला रहता है। उसकी पाचन किया भी ठीक नहीं रहती । यदि यहां चंद्रदेव भी स्थित हो तो क्षय (टीबी) जैसा असाध्य रोग भी दे सकते है। जबकि शनि की दृष्टि हो तो जोड दर्द, स्नायु रोग एंव वात विकार जैसी बीमारियां होती है। ऐसे रोग जल्दी ठीक नहीं होते। काफी उपचार के बाद भी यह रोग नियंत्रण भी नहीं आते।
सिंह राशि में – यह सूर्य की अपनी राशि है। ऐसे जातक मोटे व स्वस्थ शरीर के होते है। इसलिए सूर्य पर शनि की दृष्टि अथवा युति हो एंव चतुर्थ भाव व उसका स्वामी भी पीडित हो, तब हृदय रोग जल्दी सताता है। अतः ऐसे जातकों को श्रमसाध्य कार्य एंव पैदल चलने-फिरने पर अधिक जोर देना चाहिए। यद्यपि ऐसे जातकों को कम ही रोग सताते है। यदि रोग हो भी जाएं तो वह शीघ्र ठीक हो जाते है। ऐसे लोगों को आयुर्वेद उपचार एंव औषधियों से बहुत लाभ मिलता है। इसलिए इन्हें आयुर्वेदिक उपचार ही लेना चाहिए।
कन्या राशि में – इस राशि का सूर्य जातक को चिडचिडा स्वभाव प्रदान करता है। उसका पाचन संस्थान बिगड़ा रहता है। नेत्र रोग तो होते ही है।
तुला राशि में – यह सूर्य की नीच राशि है। इस राशि में आकर अथवा पीडित व पापी सूर्य मूत्र संस्थान के रोग जैसे मूत्र में जलन, किडनी खराब, डायबिटीज एंव कमर में दर्द आदि देता है।
वृश्चिक राशि में – इस राशि का सूर्य पापी होने पर स्नायु विकार, फेंफड़ों के रोग और बड़ी एंव भयंकर दुर्घटनाएं या चोट देता है। इसमें भी यदि यह अष्टम् भाव में हो तो और भी गंभीर रोगों की संभावना रहती है। मकर राशि में – इस राशि का स्वामी शनि है जो सूर्य के स्वाभाविक शत्रु माने गये है, अधिक कमजोर रहता है। शरीर में रोगों से लडने की क्षमता भी कम होती है। रोग जैसे पैर व जोड़ों में दर्द, मानसिक रोग, मन की उदासी जैसे भाव होते हैं।
कुंभ राशि में – यह भी शनि की राशि है। यहां सूर्य के होने पर शरीर बहुत शनि के कारकत्व वाले रोग सताते है। इस राशि के सूर्य हृदय रोग, नेत्र विकार, मानसिक रोग अथवा मानसिक कष्ट तथा रक्त संचार में बाधा संबंधी रोग देते है।
मीन राशि में – इस राशि का सूर्य शरीर को दुर्बल बनाता है, इसलिए ऐसे लोगों को कई तरह के संक्रामक रोग, रक्त विकार एंव पाचन संस्थान की समस्याएं परेशानी रखती है।
सूर्य संबंधी विशेष रोग
- सूर्य यदि लग्नेश के साथ त्रिक भाव में हो ताप रोग देता है।
- सूर्य यदि छठवें भाव के स्वामी के साथ लग्न अथवा आठवें भाव में हो तो शरीर पर चोट का अथवा जन्म से कोई चिन्ह देता है।
- कर्क राशि में सूर्य के साथ चन्द्र हो अथवा दोनों एक-दूसरे की राशि में बैठे हों तो टी. बी. जैसे रोग के साथ शारीरिक दुर्बलला प्रदान करते है।
- यदि दूसरे भाव में सूर्य षष्टेश के साथ हो अथवा कर्क या सिंह राशि में सूर्य के साथ राहू हो, तो जातक को पशु से चोट अथवा हानि का डर रहता है।
- लग्न में पापी सूर्य त्वचा अथवा रतौंधी रोग देते है।
- सूर्य मंगल के साथ होने पर मुख रोग होता है।
- यदि सूर्य लग्न, सप्तम्, अष्टम् भाव में मंगल की दृष्टि लेकर बैठे, तो अग्नि अथवा विस्फोट से खतरा रहता है। इसमें भी यदि केतु का भी प्रभाव रहे तो मृत्यु तक हो सकती है।
सूर्य महादशा का फल
प्रथम भाव के पापी व अकारक सूर्य की महादशा में नेत्र संबंधी रोग एंव जीवनसाथी को कष्ट होता है।
सूर्य यदि चतुर्थ स्थान में हो तो जातक को आग वाहन दुर्घटना अथवा विष का भय रहता है। इसमें भी अगर अशुभ मंगल अथवा केतु की दृष्टि या युति बने तो यह फल और अधिक कष्टप्रद बन जाते है।
छठवे भाव में सूर्य के पीडित अथवा पापी होने पर एपिन्डेक्स का ऑपरेशन, क्षय रोग, खूनी पेचिश अथवा दस्त जैसे रोग होते है। यह रोग कभी सामान्य रूप से होते है तो कभी गंभीर रूप लेकर आते है।
आठवें भाव के सूर्य सड़क दुर्घटना का भय, अति कामोत्तेजना, नेत्र विकार, ज्वर, पेचिश, अग्नि आदि का संताप देते है।
बारहवें भाव के सूर्य से शैव्या सुख में कमी, शरीर के निचले हिस्से में कष्ट, विशेषकर पैर और पिण्डलियों में, व्यापार में हानि अथवा धोखा, आर्थिक तंगी के साथ पशु से आघात मिलता है। केतु के अशुभ होने पर कुत्ते से काटने का भय भी रहता है।
शुभ ग्रह, लग्नेश अथवा योगकारक ग्रह की युति अथवा दृष्टि पडने पर सूर्य के अशुभ फलों में न्यूनता आती है।
सूर्य महादशा अन्तर्गत अन्य ग्रहों का अन्तर्दशा फल
सूर्य महादशा के उपरोक्त फल पूर्ण महादशा में कभी भी घटित हो सकते हैं, परंतु सूर्य महादशा के दौरान अन्य ग्रह की अन्तर्दशाओं में निम्न फल प्राप्त होते है। इन फलों का निर्धारण भी सूर्य के साथ जिस ग्रह की अन्तर्दशा चल रही है, उसके बलाबल एंव शुभाशुभ देखकर ही करना चाहिए।
सूर्य में सूर्य अन्तर्वशा फल – सूर्य अन्तर्गत सूर्य की अन्तर्दशा के दौरान जातक को राज्य लाभ, घर से दूर निवास, ज्वर जैसे रोग प्रभावित करते है। यद्यपि सूर्य के शुभ होने पर शुभ एंव अशुभ होने पर अशुभ फल अधिक प्राप्त है।
सूर्य में चन्द्र अन्तर्दशा फल – इस दशा में जातक अपने शत्रुओं के लिये काल स्वरूप रहता है। पुराने कष्ट एंव समस्याओं से मुक्ति मिलती है। मकान सुख, धन लाभ व मित्रों के साथ अच्छा समय व्ययतीत होता है। यह सब सूर्य, चन्द्र की शुभ स्थिति में होता है। यदि चन्द्र पक्षबल में क्षीण, पापी या पीडित हो तो जलीय रोग, भय एंव अग्नि का डर बना रहता है।
सूर्य में मंगल अन्तर्दशा फल – इस स्थिति में व्यक्ति रोगी अथवा शल्य क्रिया के लिए मजबूर होता है। उसे अपने ही परिवार के लोगों का विरोध झेलना पड़ता है। धन के दुरूपयोग के साथ सरकारी कामकाज में हानि अथवा दण्ड भय बना रहता है। इस समय व्यक्ति को पुलिस के चक्करों से दूर रहना चाहिए। वाहन चालन में भी सावधानी रखनी चाहिए। साथ ही अग्नि एंव विस्फोट से दूर रहना चाहिए। शरीर पर चोट अथवा ऑपरेशन की संभावना रहती हैं। यह सब मंगल के अति अशुभ स्थिति में होने से होता है। यदि मंगल शुभ हो तो उसकी अशुभता में कमी आती है। यद्यपि मंगल के साथ केतु की स्थिति भी देखनी चाहिए। यदि केतु लग्नस्थ हो तो विशेष ध्यान रखने की जरूरत रहती है।
सूर्य में राहू अन्तर्दशा फल – सूर्य अन्तर्गत राहू के दौरान सिर में पीडा अथवा कष्ट, नये-नये शत्रु बनते है। जातक को चोरी अथवा अन्य रूप से धन नाश का खतरा रहता है। इस समय नेत्र रोग, अचानक दुर्घटना या अन्य कष्ट सताते है। जातक का मन जिम्मेदारी से हटकर सांसारिक भोग विलासता में अधिक लगता है।
सूर्य में गुरू अन्तर्वशा फल – जन्मकुंडली में गुरू के शुभ एंव कारक बनकर स्थित रहने से शत्रुनाश, अनेक प्रकार से धन लाभ, घर में निरंतर शुभ कार्य सम्पन्न होते हैं। जातक का मन ईश्वर आराधना में लगता है, परंतु कान में कष्ट एंव क्षय रोग का खतरा बना रहता है। गुरू के पीडित होने पर ऐसे अनेक कष्ट प्राप्त हो सकते हैं, जिसके विषय में व्यक्ति ने सपने में भी नहीं सोचा होता।
सूर्य में शनि अन्तर्दशा फल – सूर्य में शनि की अन्तर्दशा अत्यधिक खर्चीली रहती है, जिसकी पूर्ति के लिये कर्ज तक लेना पड़ता है। गुरू, पिता अथवा पिता तुल्य व्यक्ति की मृत्यु, पुत्र वियोग, घरेलू वस्तुओं का नाश एंव पूर्ण गन्दगी बनी रहती है। शारीरिक रूप से भी व्यक्ति गन्दा रहता है। जातक के जीवनसाथी को भी कष्ट सहना पडता है। उसे वात एंव पित्त संबंन्धित कष्ट सताते है।
सूर्य में बुध अन्तर्दशा फल – इस अवधि में व्यक्ति फोडे-फुन्सी, चर्म रोग, कुष्ठ रोग तथा पीलिया के साथ कमर दर्द, पेट व वात, पित्त तथा कफ से पीडित रहता है।
सूर्य में केतू अन्तर्दशाफल – व्यक्ति को मित्र वर्ग से धोखा अथवा विछोह या मित्र की मृत्यु का सामना करना पड़ सकता है। अपने लोगों से विशेषकर अपने परिवार के लोगों से विरोध अथवा झगडा बना रहता है। शत्रु हानि, धन का नाश, गुरू तुल्य व्यक्ति रोग ग्रस्त रहता है। जातक के सारे शरीर में कष्ट बना रहता है। इस समय अनेक प्रकार से हानि, अपमान एंव मानसिक कष्ट की संभावना बनी रहती है।
सूर्य में शुक अन्तर्दशा फल – जातक के लिए यह दशा भी शुभ नहीं रहती। इसमें जातक के शरीर में कष्ट, मकान व भोजन में कमी बनी रहती है। साथ ही जीवनसाथी भी कष्ट में रहता है। यहां आप सोच सकते है कि आर्थिक रूप से सम्पन्न व्यक्ति को भोजन की कमी कैसे हो सकती है? तो आप भोजन में कमी को इस रूप में समझ सकते है कि कोई सम्पन्न व्यक्ति अन्य कारण से समय पर भोजन नहीं कर पाता अथवा कोई रोग इसका कारण बन सकता है।
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