कुंडली का सामान्य फलित

ज्योतिष एक लचीला विज्ञान है, इसका कोई भी सिद्धांत अंतिम सत्य नहीं है । आपकी फलित पर प्राथमिक जानकारी बढ़ने के साथ ही आप अपने को एक चौराहे पर खड़ा पाएंगे, जहां आपको अपने गंतव्य के चार मार्ग तो दिखाई देंगे, लेकिन यह आसानी से स्पष्ट नहीं हो सकेगा कि आपके लक्ष्य को कौन-सा मार्ग जाता है। सिद्धांतों के साथ अपवादों का पुलिंदा बंधा रहता है, लेकिन फलित पर पकड़ मजबूत होने और निरंतर अभ्यास से सभी रहस्य खुलने लगते हैं ।

सिद्धांत और अपवाद

कुंडली के फलित के संबंध में यह प्रसिद्ध है कि इसे सिखाया नहीं जा सकता है, बल्कि यह अनुभव से आसानी से सीखा जा सकता है। संभव है कि आपका प्रशिक्षक ऐसा दावा करे। लेकिन आपके प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाएगा, क्योंकि फलित ज्योतिष में अपवादों की भरमार है, जिन्हें अनुभव के द्वारा ही सीखा जा सकता है ।

उत्तरों में हमेशा प्रश्नों के उत्पन्न होने का खतरा बना रहेगा । इसलिए यह बेहतर है कि कुछ मूलभूत सिद्धांतों को समझने के बाद हम अधिकतम कुंडलियों का अध्ययन कर अपनी जानकारी में वृद्धि करें ।

भारतीय ज्योतिष का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू

फलित ज्योतिष में वैदिककाल से ही साहित्य का सृजन होता रहा है। आपको आश्चर्य होगा कि वर्तमान में हम जिन सिद्धांतों को काम में ले रहे हैं, वे उन ग्रंथों से संग्रह किए गए हैं, जो कि एक हजार वर्ष से भी पहले सृजित किए गए थे। जिस रावण संहिता की आजकल चर्चा है, उसका संकलनकर्ता आज से पांच हजार

वर्ष पूर्व हुआ था। यद्यपि आधुनिककाल में नवीनतम सिद्धांतों का उद्भव हुआ है, लेकिन ये सिद्धांत भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्राचीन सिद्धांतों पर निर्भर हैं । आप कह सकते हैं कि ऐसा सोच-समझकर किया गया है। इसलिए कि हम भारतीयों में ज्ञान और शोध को छिपाने की प्रवृत्ति रही है ।

हमारी इस परंपरा के कारण ज्योतिष और आयुर्वेद जैसे विषयों का बड़ा भारी नुकसान हुआ। अव्वल तो इन पर हुए शोध कार्य का परिणाम शोधकर्मी तक सीमित रहा, फिर यदि वह वितरित हुआ भी, तो बहुत ही गिने-चुने ऐसे लोगों में जिनकी रुचि अपने गुरुओं की नीतियों के पोषण में रही। हम लोग बार-बार एक ही विषय पर शोध कार्य करते रहे।

फलित ज्योतिष में विवाह, राजयोग, यौन संबंध और संतान जैसे ज्वलंत मानवीय पहलुओं पर आज से शताब्दियों वर्ष पूर्व ही निर्णायक कार्य हो चुका था। भारत में तब बहुत से ज्योतिर्विद् सटीक भविष्यवाणी किया करते थे, जो इस तथ्य को प्रमाणित करती थी कि इन लोगों ने अनुभव के आधार पर कुछ सूत्रों या सिद्धांतों की संरचना कर ली है, जो अकाट्य हैं। लेकिन दुर्भाग्य से वर्तमान में ये फलित सूत्र उपलब्ध नहीं हैं ।

प्राचीन आचार्यों ने जिन ग्रंथों की रचना की है, उनके सिद्धांत भी अपवादों से भरे हैं । इनकी भाषा भी वर्तमान परिप्रेक्ष्य से सामंजस्य नहीं बैठा पाती है। इन सब का सीधा अर्थ यह है कि हमारे प्राचीन ज्योतिष के रचयिता भी अपने ज्ञान का तुच्छ भाग ही अपने ग्रंथों में देते थे। इन लोगों की धारणा थी कि उन्होंने शोध निष्कर्ष प्राप्त किए हैं या अनुभव के आधार पर जो सिद्धांत विकसित किए हैं, उनको प्राप्त करने में सामान्य जन सुयोग्य पात्र नहीं हैं । ये तथ्य विशेष लोगों तक ही सीमित रहने चाहिए। इस सोच के कारण ही कुछ लाभदायक परिणाम प्रकट नहीं हो पाए । बहुत से शोधकर्मी अपने निष्कर्षों को अपने साथ ही लेकर स्वर्ग सिधार गए । अपवादों पर नियंत्रण का अभ्यास जरूरी

यद्यपि मैंने प्राचीन ग्रंथों से बहुत कुछ सीखा है, लेकिन यहां इन ग्रंथों के आधार पर फलित की मार्गदर्शिका तैयार करने का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि जब तक पाठक स्वयं में अपवादों पर निर्णय करने की क्षमता विकसित नहीं कर लेता है, तब तक उसके लिए ये मान्यताएं एक भ्रम का निर्माण कर सकती हैं। बेहतर हो कि आरंभ में एक ऐसी वैज्ञानिक पद्धति को विकसित किया जाए, जो न केवल सहज-सरल हो, बल्कि जो संभावनाओं से भी भरी हो ।

आप अपने शुरुआती काल में प्राचीन ग्रंथों को आधार न बनाएं, क्योंकि इस प्रकार आप एक भंवर में फंसते जाएंगे। बेहतर हो कि आप आरंभ में एक साधारण पद्धति से कुंडली को देखें । धीरे-धीरे आप में एक क्षमता विकसित होने लगेगी कि आप प्राचीन ग्रंथों के सिद्धांतों को समझ सकें।

यद्यपि साधारण से दिखने वाले इन सिद्धांतों में ऐसा कुछ नहीं है कि समझने में किसी प्रकार की कोई समस्या हो, लेकिन इनके अपवाद बहुत हैं और जब तक आप अपवादों को नहीं समझेंगे, तब तक इन सिद्धांतों का उपयोग नहीं कर पाएंगे।

जरूरी है फलकथन की सरल पद्धति

फलित ज्योतिष की प्रारंभिक जानकारी के उपरांत, कुंडली को देखने के लिए एक ऐसी पद्धति की आवश्यकता होती है, जो कि न केवल बहुत ही सहज-सरल हो, बल्कि सटीक भी हो। जैसा कि पाठक जान चुके हैं कि ज्योतिष में फलित का क्षेत्र बहुत विस्तृत है।

कुछ पद्धतियां तो इतनी क्लिष्ट हैं कि उन्हें समझने और अनुभव करने में एक अच्छी खासी उम्र चाहिए, लेकिन यहां जो सिद्धांत अनुशंसित किए जाएंगे, वे फलित ज्योतिष के शुरुआती ज्ञान को प्रकाशित करेंगे। ये वे फलित सूत्र हैं, जो कि आपको फलित करने के मूलभूत तत्त्वों के संबंध में जानकारी देंगे। इनको समझने के बाद, आप किसी भी तरह के सिद्धांतों को समझने में सक्षम हो सकेंगे।

कुंडली देखने का अर्थ है कि जातक के जन्मांग से ही उसके, भूतकाल, वर्तमान और भविष्य के घटनाक्रम को जान लेना । लेकिन यह इतना आसान नहीं है। इसके लिए निरंतर शोधकार्य की आवश्यकता रहती है ।

फलित के मूल सिद्धांतों से परिचित हो जाने के बाद यह आवश्यक है कि आप अपने अभ्यास या शोध को निरंतर जारी रख सकें। इन सबके लिए आप अधिकाधिक कुंडलियों का अवलोकन करें और संबंधित जातकों के जीवन-वृतांत को भी नोट करें। यह विधि आपके लिए रामबाण है। कुछेक सौ कुंडलियों के अध्ययन के उपरांत आप आसानी से फलित पर अपनी पकड़ मजबूत कर सकेंगे।

कुंडली का सामान्य फलित

यहां सामान्य फलित से अर्थ कुंडली के बल को देखना है। यह वर्गीकृत फलित से पूर्व का अध्याय है। इस फलित से आपको कुंडली के समग्र अध्ययन में सहयोग मिलेगा। वर्गीकृत फलित का अर्थ है कि जीवन की किसी घटना; जैसे- शिक्षा, विवाह, संतान या व्यवसाय का अवलोकन करना ।

यद्यपि अधिसंख्य कुंडलियों को देखते समय यही परंपरा है कि हम आगंतुक के किसी प्रश्न पर ध्यान केंद्रित करें, क्योंकि यह संसार विभिन्नताओं से भरा हुआ है। हर व्यक्ति की समस्या दूसरे व्यक्ति से अलग है। किसी को धन के न होने की समस्या है, तो कोई अधिक धन के कारण संतान के पथभ्रष्ट होने से चिंतित है। इसलिए आमतौर पर कुंडली देखने का अर्थ है किसी घटना का आकलन करना ।

सामान्य फलित के सूत्र ही वर्गीकृत फलित में मूल का कार्य करते हैं। सामान्य फलित से आप इस तथ्य का अंदाजा लगा सकते हैं कि कुंडली में जो शुभाशुभ योग पड़े हैं, वे कितना कुछ फल देंगे।

साधारण भाषा में आप इस धारणा को इस प्रकार समझें कि किसी जातक की कुंडली में अच्छा धन योग है, लेकिन लग्नेश और चंद्रमा निर्बल है, इस स्थिति में तय है कि जातक को यदि धन की प्राप्ति होती भी है, तो भी वह उसका भोग नहीं कर पाएगा। सामान्य फलित सूत्रों से शुभाशुभ योगों के बलों का मूल्यांकन भी होता है।

लग्न और लग्नेश

चंद्रमा की शुभाशुभ स्थिति

चंद्र लग्न का महत्त्व उदय लग्न सदृश्य है। यदि जन्मांग में चंद्रमा बली नहीं है, तो दूसरे योगों का आधा फल समझना चाहिए। चंद्रमा के महत्त्व को सारावली में पर्याप्त रूप से स्पष्ट किया गया है :

सर्वेर्गगनभ्रमणेर्दृष्टश्चन्द्रो विनाशयतिरिष्टम् ।

आपूर्यमाणमूर्तिर्यथा नृपः सन्नयेद्वेषम् ॥

(सारावली, एकादशोऽध्याय, श्लोक – 3)

अर्थात् अंशों में बली चंद्रमा सर्वग्रहों से दृष्ट हो, तो अरिष्ट का नाश करता है।

आधुनिक मत से चंद्रमा को सूर्य से न्यूनतम 70 अंश पृथक् होना चाहिए, अर्थात् चंद्र और सूर्य के मध्य 70 अंश पड़े हों। उन जन्मांगो में चंद्रमा को बली मानना चाहिए, जिनके जातक शुक्ल पक्ष की सप्तमी से कृष्ण पक्ष की अष्टमी की मध्यावधि में पैदा हुए हैं।

चंद्रमा वायव्य दिशा का स्वामी है और एक जलीय ग्रह है। इसके द्वारा बुद्धि, माता और मनोस्थिति का विचार करना चाहिए। मन का कारक होने के कारण लग्न के उपरांत चंद्रमा सर्वोपरि है ।

कर्क राशि चंद्रमा की स्वराशि है, वृष उच्च राशि है । इन राशियों में चंद्रमा बली रहता है। इसके अलावा वर्गोत्तमी, स्वयं की होरा, बृहस्पति से युति, रात्रि में जन्म होने पर और चतुर्थ में रहने से चंद्रमा को बली समझना चाहिए।

चंद्रमा से बनने वाले शुभाशुभ योग

कुंडली को फलित की दृष्टि से देखते समय पाठकों को चाहिए कि वे सर्वप्रथम चंद्रमा की स्थिति पर विचार करें। चंद्रमा से बनने वाले कुछ योग जहां कुंडली को बल प्रदान करते हैं, वहीं कुछ योग निर्बलता की स्थिति भी लाते हैं । भारतीय फलित ज्योतिष में सुनफा, अनफा, दुर्धरा और केमद्रुम योगों की संरचना चंद्रमा से होती है ।

जैसा कि मैं अध्याय के आरंभ में बता चुका हूं कि यह पद्धति जन्मांग के बल को बताती है । इन योगों को भी किसी घटना विशेष से संलग्न नहीं करना चाहिए । इन योगों की शुभाशुभ स्थिति से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जातक किस हद तक अपना विकास या भौतिक उन्नति कर सकता है।

सुनफा योग : जब चंद्रमा से द्वितीय भाव में कोई ग्रह हो, तो सुनफा योग होता है।

अनफा योग : जब चंद्रमा से द्वादश भाव में कोई ग्रह हो, तो अनफा योग होता है।

दुर्धरा योग : जब चंद्रमा से द्वितीय और द्वादश दोनों भावों की ग्रहों की स्थिति हो, तो दुर्धरा योग कहते हैं ।

सुनफा, अनफा और दुर्धरा तीनों ही योग शुभ हैं और जन्मांग को बल प्रदान करते हैं। लेकिन एक तथ्य को स्मरण रखना चाहिए कि चंद्रमा से द्वितीय या द्वादश में सूर्य नहीं होना चाहिए। सूर्य के अतिरिक्त अन्य ग्रह हो सकते हैं। सूर्य से ये योग नष्ट हो जाते हैं। इसका कारण मैं अध्याय के आरंभ में वर्णन कर चुका हूं। उल्लेखनीय है सूर्य और चंद्रमा के मध्य 70 अंश का अंतर होना चाहिए। चंद्रमा के निकट सूर्य के होने से चंद्रमा पक्ष बल से हीन हो जाता है।

केमद्रुम योग : उपरोक्त सुनफा, अनफा और दुर्धरा योग शुभ योगों की श्रेणी में आते हैं। भारतीय आचार्यों ने माना है कि किसी भी कुंडली में उपरोक्त तीनों में से एक योग का विद्यमान होना आवश्यक है।

यदि ऐसा नहीं है, तो यह एक अशुभ स्थिति है और इसको ‘केमद्रुम’ नामक योग की संज्ञा दी गई है। जिस जातक की कुंडली में केमद्रुम योग होता है, वह कृपण, दरिद्र, भयग्रस्त और संघर्षशील रहता है । प्रायः इनका भाग्योदय विलंब से होता है । केमद्रुम योग के होने से दूसरे योगों के फल भी न्यूनतम मिलते हैं।

कुंड्ली संख्या-1

कुंड्ली संख्या-1 केमद्रुम का सशक्त उदाहरण है। चंद्र से द्वितीय और द्वादश में कोई ग्रह नहीं है। चंद्र लग्न और बृहस्पति से अष्टमस्थ है और चंद्र से केंद्रों में राहु, केतु, सूर्य और शनि जैसे पृथकतावादी पाप ग्रह हैं । जातक ने जीवन के सुनहरे अवसर गंवा दिए और साधारण जीवन यापन को विवश है।

चंद्रमा से तीनों केंद्रों में जब पाप ग्रह हों, तो भी केमद्रुम के समकक्ष ही फल प्राप्त होता है। यद्यपि चंद्र से द्वितीय, द्वादश कोई शुभ ग्रह के रहने से केमद्रुम का परिहार माना गया है, लेकिन अनुभव में आता है कि यह परिहार तभी संभव है, जब कि चंद्र पर शुभ ग्रहों की दृष्टियां हों। कुंड्ली संख्या 2 देखिए :

कुंड्ली संख्या-2

इस कुंडली में चंद्रमा से चतुर्थ, सप्तम और दशम में क्रमशः केतु, सूर्य, मंगल और राहु हैं। जातक भोग-विलास और सुख से वंचित रहा। जीवन में कुछ मूलभूत प्राप्तियों का भी अभाव है, जिनमें वंशवृद्धि भी शामिल है।

केमद्रुम योग के रहने पर चंद्रमा को बलहीन समझना चाहिए, लेकिन कुछ स्थितियां ऐसी भी हैं कि केमद्रुम योग भंग हो जाता है। इसे दोष परिहार कहते हैं ।

यह स्थिति तब आती है, जब कि चंद्रमा से केंद्र में कोई शुभ ग्रह हो । मेरे अनुभव में आता है कि यदि चंद्रमा पक्षबली हो (सूर्य से न्यूनतम 70 अंश दूर हो), तो भी चंद्रमा को बली ही मानना चाहिए ।

आचार्यों ने अनफा, सुनफा, दुर्धरा और केमद्रुम के अनेक भेद बताएं हैं, लेकिन यहां अधिक विस्तार में जाने से तुरंत कोई लाभ नहीं है ।

गजकेसरी योग

अनफा, सुनफा और दुर्धरा के उपरांत चंद्रमा से बनने वाला यह सर्वोपरि योग है। यह प्रसिद्ध योगों में से एक है। जब चंद्रमा से केंद्र (लग्न, चतुर्थ, सप्तम या दशम) में बृहस्पति हो, तो गजकेसरी योग होता है। प्रसिद्ध लेखक डॉ. नेमीचन्द शास्त्री ने लिखा है कि ऐसा जातक मुख्यमंत्री होता है ।

गजकेसरी के दूसरे फलों में जातक राजा के सदृश्य संपत्ति, बलशाली, प्रसिद्ध और अपने कुल या कुटुंब का मुखिया होता है। गजकेसरी योग शास्त्रोक्त और प्रामाणिक है।

महर्षि पराशर ने बृहत्पाराशरहोराशास्त्र में लिखा है कि जब चंद्रमा से केंद्र में बृहस्पति हो, तो ‘गजकेसरी’ नामक योग होता है । इस योग में उत्पन्न जातक तेजस्वी, धनी, तीव्र बुद्धियुक्त और समृद्धिशाली होता है।

केंद्रस्थिते देवगुरौ मृगांकद्योगस्तदाहुर्गजकेसरीति ।

दुष्टे युते वेदसुते शशांके नीचास्तहीनैर्गजकेसरी स्यात् ॥

गजकेसरिसंजातस्तेजस्वी धनवान् भवेत् ।

मेधावी गुणसंपन्नो राजप्रियकरो भवेत् ॥

(बृहत्पाराशरहोराशास्त्र, अष्टादशोऽध्याय, श्लोक -1 और 2)

गुरु और चंद्रमा की युति गजकेसरी का ही एक प्रतिरूप है । सारावली में कल्याण वर्मा ने स्पष्टतः चंद्र-गुरु की युति को अत्यंत शुभ बताया है।

दृढसौहृदो विनीतः स्वबन्धुसम्मानवर्धनेशश्च ।

गुर्विन्दोः शुभशीलः सुरद्विजेभ्यो रतो भवत्पुरुषः ॥

(सारावली, पंचदश अध्याय, श्लोक -10)

यद्यपि गजकेसरी एक श्रेष्ठ योग है, लेकिन इससे पूर्व चंद्रमा के बल का विचार कर लेना चाहिए। जैसा कि मैं बता चुका हूं, कि इस अध्याय का समस्त वृत्तांत समग्र फलित के लिए है। यही स्थिति गजकेसरी योग के लिए है। कुंडली और चंद्रमा बली है, तो ही गजकेसरी योग का फल प्राप्त होता है, अन्यथा यह निष्फल होता है।

गजकेसरी योग के पूर्णतः फल देने के लिए यह आवश्यक है कि चंद्रमा पक्ष बली हो, जैसा कि मैं उल्लेख कर चुका हूं।

गजकेसरी एक महत्त्वपूर्ण योग है, अतः पाठकों को चाहिए कि इस संबंध में बहुत सावधानी रखें। चंद्रमा भी ग्रहों में तीव्रतम ग्रह है, अतः प्रत्येक दो राशियों को छोड़कर गजकेसरी योग का बनना तय है।

इस स्थिति में यह आवश्यक है कि चंद्रमा और बृहस्पति के बल के आधार पर गजकेसरी योग के होने या न होने का निर्णय किया जाए। सामान्यतया बहुत कम कुंडलियों में पूर्ण और निर्दोष गजकेसरी योग बन पाता है।

कुंड्ली संख्या-3

कुंड्ली संख्या-3 देखें। यह संपूर्ण गजकेसरी योग का उदाहरण है । जैसा कि मैं उल्लेख कर चुका हूं कि गजकेसरी को तभी सुफली मानना चाहिए, जब कि चंद्रमा या बृहस्पति स्वयं की राशि, मित्र या उच्च राशिगत हों । पाठक पढ़ चुके हैं कि प्रत्येक दो राशियों को छोड़कर चंद्रमा गजकेसरी बनाता है, लेकिन यह महत्त्वहीन है। उल्लेखित जन्मांग में

  • नवमस्थ चंद्र और बृहस्पति मित्र राशिगत है।
  • चंद्रमा सूर्य से 70 से अधिक अंश दूर है।
  • चंद्रमा पर कोई पाप दृष्टि नहीं है।
  • चंद्रमा से केंद्र में शुक्र और बुध जैसे शुभ ग्रह हैं।

जातक अपने क्षेत्र का मान्य विशेषज्ञ है और भौतिक सुविधाओं की पूर्णता है। नवम में गजकेसरी के सृजन से ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखता है।

बृहस्पति की स्थिति

बृहस्पति शुभ ग्रहों में सर्वोपरि है। जब कुंडली के नैसर्गिक बलाबल का निर्णय करना हो, तो बृहस्पति की स्थिति को अवश्य देख लेना चाहिए। आचार्यों का मत है कि बृहस्पति की दृष्टियां शुभ फलदायी होती हैं।

जैसा कि पाठक जानते हैं, बृहस्पति की तीन पूर्ण दृष्टियां हैं- सप्तम, पंचम और नवम अर्थात् बृहस्पति जिस भाव में स्थित हो वहां से सातवें, पांचवें और नौवें भाव को देखते हैं। जब ये तीनों भाव लग्न (शरीर), द्वितीय (धन), पंचम (नवीन कार्यों का आरंभ), नवम (भाग्य) और एकादश (लाभ) में से तीन हों, तो कुंडली को सकारात्मक बल मिलता है ।

यद्यपि यह संभव नहीं है कि केवल बृहस्पति के आकलन से किसी अंतिम निर्णय पर पहुंचा जा सके, लेकिन बृहस्पति को देवताओं के गुरु की संज्ञा प्राप्त है और यह विवेक का कारक है । बृहस्पति की शुभ स्थिति होने से व्यक्ति में क्षमता का उत्तरोत्तर विकास होता है और जीवन सफल रहता है।

वर्गोत्तमी ग्रह

उत्तर भारत में जिस प्रकार लग्न कुंडली के साथ चंद्र कुंडली के संलग्न करने की परिपाटी है, उसी प्रकार दक्षिण भारत में नवांश को महत्त्व दिया जाता है। नवांश का अर्थ है- राशि का नववां अंश । मेषादि सभी राशियों में नवग्रहों के नवांश की व्यवस्था की गई है। इसके लिए एक राशि के नौ भाग किए जाते हैं। प्रत्येक भाग 3 अंश और 20 कला का होता है। यहां नवग्रहों के नवांश का अर्थ ग्रहों की वे राशियां हैं, जिनके कि वे स्वामी हैं। जैसे मेष राशि के प्रथम 3 अंश, 20 कला स्वयं मेष का नवांश है। चूंकि मेष का स्वामी मंगल है, अतः यदि मंगल मेष राशि के 3 अंश और 20 कला के मध्य स्थित है, तो कहा जाएगा कि मंगल स्वयं के नवांश में है । इसी प्रकार क्रमशः शेष राशियां या ग्रहों के नवांश होते हैं।

अब हमें यह देखना है कि नवांश की कुंडली के बल के संदर्भ में क्या भूमिका है। दरअसल नवांश दो प्रकार से महत्त्वपूर्ण है।

प्रथम तो, जो ग्रह नवांश कुंडली में भी उसी राशि में आ जाता है, जिसमें कि वह लग्न कुंडली में है, तो उस ग्रह को वर्गोत्तमी कहा जाता है।

दूसरा महत्त्व उन ग्रहों को बल देने के संदर्भ में है, जो कि नीच या शत्रु ग्रह की राशि में पड़े हों। जैसे मंगल यदि शनि की राशि कुंभ में हो, तो उसे शत्रु राशिगत कह सकते हैं । इसी प्रकार मेषगत शनि नीच राशि का होता है ।

लेकिन शनि यदि नवांश में मकर, कुंभ या तुला राशि में हो, तो लग्न में राशिगत निर्बलता का ह्रास होकर शनि या तो निष्पक्ष रहेगा या शुभ फल देगा। इसी प्रकार दूसरे ग्रहों के संदर्भ में मानना चाहिए।

पहले जो मैंने वर्गोत्तमी ग्रहों की चर्चा की है, वह अधिक महत्त्वपूर्ण है । वर्गोत्तमी ग्रह उसे कहते हैं, जबकि ग्रह नवांश में भी उसी राशि में हो, जिसमें कि वह लग्न कुंडली में है । वर्गोत्तमी ग्रहों के संदर्भ में इस तथ्य का अधिक महत्त्व नहीं है कि ग्रह लग्न में किस राशि में है । यदि ग्रह नीच या शत्रु राशि में होकर भी वर्गोत्तमी है, तो वह अवश्य ही शुभ फल देगा।

ग्रहों के साथ लग्न भी वर्गोत्तमी हो सकता है । यदि अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो अनुभव में आता है कि जिस किसी के जन्मांग में दो-तीन ग्रह वर्गोत्तमी हों, वह जातक जीवन में पूर्ण भौतिक सुख भोगता है। वह न्यूनतम बाधाओं का सामना करते हुए सफलता प्राप्त करता है । इसे राजयोग की संज्ञा दी गई है। जितने अधिक ग्रह (लग्न भी) वर्गोत्तमी हों, कुंडली की क्षमता उसी अनुपात बढ़ती है।

मैंने अनुभव किया है, कुछ लोगों के जन्मांगों में एक भी ग्रह स्वग्रही या उच्च का नहीं होने के बावजूद वे लोग बहुत अच्छी प्रगति करते हैं और एक पूर्ण और सफल जीवन जीते हैं। लेकिन यदि आप इन कुंडलियों का गहराई से अध्ययन करेंगे, तो पाएंगे कि इनमें दो से अधिक ग्रह वर्गोत्तमी हैं ।

स्व. इंदिरा गांधी की कुंडली का विश्लेषण: श्रीमती इंदिरा गांधी के जन्मांग में एक भी ग्रह उच्च या स्वग्रही नहीं है, लेकिन बृहस्पति और मंगल वर्गोत्तमी ग्रह हैं। देखिए कुंड्ली संख्या-4

कुंड्ली संख्या-4

कर्क लग्न की इस कुंडली में मंगल सर्वाधिक कारक ग्रह है, जैसा कि कर्क और सिंह लग्न की कुंडली में होता है। इस प्रकार जन्मांग का सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रह वर्गोत्तमी है।

दूसरा वर्गोत्तमी ग्रह बृहस्पति है, जो कि भाग्य का स्वामी होकर लाभ में पड़ा है। इन दो ग्रहों के वर्गोत्तमी होने का श्रीमती इंदिरा गांधी के लक्ष्य प्राप्ति में विशेष योगदान रहा।

उपयोगी दशाएं उपयुक्त समय पर हों

कुंडली के समग्र बल के लिए यह आवश्यक है कि उपयोगी दशाएं उपयुक्त समय पर हों। उदाहरण के लिए देखिए, कि जब कर्क लग्न हो तो यह आवश्यक है कि मंगल की महादशा जीवन के 20 वर्ष के उपरांत और 50 वर्ष से पूर्व की मध्यावधि में आनी चाहिए।

यदि ऐसा नहीं होता है, तो जातक अपनी सर्वोत्तम दशा का पूर्ण लाभ नहीं ले पाता है । यद्यपि मंगल की महादशा मात्र 7 वर्षों तक रहती है, लेकिन दूसरे ग्रहों में ऐसा नहीं है। बहुत से ग्रहों की दशाएं 15 वर्ष से 20 वर्ष के बीच होती हैं ।

  • यदि मेष लग्न है, तो सूर्य की दशा अच्छा फल देती है।
  • वृष और तुला लग्न में शनि की दशाएं शुभ हैं।
  • मिथुन लग्न के जातकों को शुक्र की दशा शुभ है।
  • कर्क और सिंह लग्न के लिए मंगल कारक ग्रह है ।
  • कन्या लग्न के लिए बुध और शुक्र की दशाएं शुभ हैं।
  • वृश्चिक लग्न के लिए चंद्रमा और सूर्य की दशाएं जीवन में स्वर्णकाल लाएंगी।
  • धनु लग्न के जातकों के लिए सूर्य और बृहस्पति की दशाएं शुभ हैं।
  • मकर और कुंभ लग्नों के लिए शनि की दशा श्रेष्ठ है।
  • मीन लग्न के लिए बृहस्पति और चंद्रमा की दशाएं शुभ रहेंगी ।

गोचर अनुकूल हों

जब हम किसी कुंडली का अध्ययन करते हैं, तो हमारे लिए यह आवश्यक है कि जातक की वर्तमान स्थिति का सही और सटीक आकलन कर सकें। इसके लिए गोचर को देखना सब तरह से लाभदायक है । यद्यपि गोचर शीघ्रता से बदलता है। इसलिए यह आवश्यक नहीं कि आज गोचर ग्रह अनुकूल नहीं है, तो भविष्य में भी नहीं होंगे। ऐसा विंशोत्तरी दशा में हो सकता है, जबकि लगातार 40-50 वर्षों तक प्रतिकूल ग्रहों की ही दशा रहे ।

गोचर में शनि के अलावा सभी ग्रह लगभग एक से दो वर्ष में राशि बदल लेते हैं। शनि एक राशि का भ्रमण ढाई वर्षों में पूर्ण करता है। कभी-कभी दो या तीन प्रतिकूल राशियों का भ्रमण करने में इसे साढ़े सात वर्ष का समय भी लगता है। कई बार ऐसा होता है कि शनि लगातार तीन-चार प्रतिकूल राशियों में रहता है। इस स्थिति में दस से पंद्रह वर्षों तक का समय संघर्षपूर्ण रह सकता है।

सारांश

कुंडली में वर्गीकृत फलित को देखने से पूर्व समग्र कुंडली का अध्ययन कर लेना चाहिए। जैसा कि मैंने इस अध्याय में वर्णन किया है। वर्गीकृत फलित से पूर्व यह भूमिका है। यदि उपरोक्त तथ्यों पर कुंडली खरी नहीं उतरती है, तो जातक को सामान्य जीवन ही जीना होता है ।

उदाहरण के लिए आप जिस कुंडली की परीक्षा कर रहे हैं, उसमें आपको आकस्मिक धन प्राप्ति का सशक्त योग दृष्टिगोचर हो रहा है, लेकिन यदि आपने कुंडली का समग्र अध्ययन नहीं किया है, तो आप आकस्मिक धन की मात्रा के संबंध में कभी भी सटीक भविष्यवाणी नहीं कर पाएंगे।

एक सरकारी चपरासी की कुंडली में भी वही राजयोग मिलेगा, जो कि एक आई.ए.एस. या एक सत्तारूढ़ नेता की कुंडली में है । इन सबकी कुंडलियों में बहुत अंतर होगा, लेकिन राजयोग समान हो सकता है। कोई शुभ योग कितना शुभ है, इसके लिए संपूर्ण कुंडली का आकलन, शुभ योग के आकलन से अधिक महत्त्वपूर्ण है।


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