विधवापन को हटाने वाला घट – विवाह

विवाह मेलापक करते समय ज्योतिष शास्त्र में मंगल का मिलान करना अति आवश्यक समझा जाता है वरना दोनों में से एक की मृत्यु हो जाती है। कई बार ऐसा होता है कि लड़का पसन्द है, लड़की मंगलीक है, पर मंगल का मिलान नहीं हो रहा है ऐसे में शास्त्र घट विवाह जिसको कुम्भ विवाह भी कहते हैं, करने का निर्देश देता है। अतः विवाह के पूर्व कन्या का विवाह पहले विष्णुरूप घट (कुम्भ) से कराया जाता है। इससे मंगलदोष का परिहार हो जाता है।

इसके अतिरिक्त लड़की की जन्म कुण्डली में यदि “ वैधव्य योग” हो या “विष योग ” हो तो उस दोष की निवृत्ति करने हेतु भी कुम्भ विवाह करने की व्यवस्था जाती है। अतः कुल तीन कारणों से घट विवाह किया जाता है।

(1) मंगलीक कुण्डली: कन्या की जन्मकुण्डली में 1 /4/7/8/12वें स्थान में मंगल हो तथा इन इन स्थानों में वर की जन्मकुण्डली में मंगल न हो तो शास्त्र कन्या के अखण्ड सौभाग्य की रक्षा हेतु घटविवाह करने की आज्ञा देते हैं। इसके पूर्व मंगलीक भंग योग हो तो वह भी देख लेने चाहिए।

(2) विष कन्या योग:

  • रवि, मंगल, शनिवार हो भद्रातिथि 2/7/12 हो, शतभिषा, आश्लेषा, कृत्तिका, मूल नक्षत्र हो तथा इनमें से किन्हीं तीनों का जन्म के समय पूर्ण योग हो तो उत्पन्न बालिका विष कन्या होती है।
  • जन्म लग्न में शत्रुक्षेत्री पापग्रह हो तथा उपर्युक्त प्रथम में से कोई दो योग बनते हों तो ऐसी बालिका विष कन्या होती है।
  • जिस कन्या के लग्न में शनि स्थित हो, पंचम भाव में सूर्य हो, नवम भाव में मंगल हो तो वह भी विष कन्या होती है।

इस तरह तीन प्रकार की विष कन्याएं कही गई हैं। विषकन्या योग में उत्पन्न कन्या शोक पीड़ित, परिवार को कष्ट देने वाली, पति तथा सन्तानसुख से हीन कही गई है। अतः विवाह करने से पूर्व अष्टकूट एवं मंगल मिलान के अतिरिक्त यह योग भी सूक्ष्मता से देखना चाहिए।

गुजराती व राजस्थानी में इसी आशय की एक कहावत सर्वत्र प्रचलित है :-

” चौथ चतुर्थी षष्ठी जाणं, वारशनि के मंगल भाण। ज्येष्ठा मूला श्रवण सही, आ पुत्री विषकन्या थई।

आप मरे के कुटुम्ब संहारे, नाम देवतो ब्राह्मण मारे। इम करतो विष कन्या मोटी थाय, चंवरी माये वरने खाय।

देव संजोगे परणी जाय, ब्रह्मा विष्णु जोवण आय।

अर्थात् 4/6/14 इन तिथियों में से किसी भी तिथि को शनि या मंगलवार हो तो उस दिन ज्येष्ठ मूल या श्रवण में का कोई भी नक्षत्र हो तो तीनों के सम्मिश्रण काल में यदि कोई कन्या पैदा हो तो वह विषकन्या कहलाती है।

इस योग में जन्मी कन्या जीवित नहीं रहती। प्रथमतः पैदा होते ही मर जाती है या फिर कुटुम्ब को नष्ट कर देती है। नामकरण संस्कार के समय यह नाम देने वाले ब्राह्मण को मार डालती है। फिर भी बड़ी हो जाए तो विवाह के समय (फेरे देते वक्त) वर को मार डालती है। फिर भी विवाह हो जाए तो ब्रह्मा, विष्णु महेश तीनों देवता, उसको देखने आते हैं। अर्थात् विषकन्या का विवाह कष्टकर होता है।

यदि किसी कन्या की कुण्डली में इस प्रकार के योग हों तो उसका भी परिहार “घट विवाह” से होता है।”

विषकन्या भंग योग – सप्तम स्थान में स्वयं सप्तमेश स्थिति हो, चाहे वह पापग्रह ही क्यों न हो अर्थात् सप्तम स्थान में स्वयं सप्तमेश हो तथा सप्तम भाव में शुभग्रह स्थिति हो तो विषकन्या योग भंग हो जाता है।

सप्तम भाव में स्त्री के सौभाग्य का विचार होता है। यह बात हमें सदैव स्मरण रखनी चाहिए कि सप्तम में शुभग्रह हो, सप्तम भाव पर शुभग्रहों का प्रभाव हो तो सौभाग्य तो बढ़ेगा ही ।

यदि ये दोनों योग पड़े हों तो उपर्युक्त तीन प्रकार के योग नष्ट हो जाते हैं। इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

वैधव्य योग

(1) जिस कन्या की कुण्डली में सप्तम भाव में मंगल पापग्रहों से युक्त हो तथा पापग्रह सप्तमभाव में स्थित मंगल को देखते हों तो ऐसी कन्या युवावस्था में पहुँचने के पूर्व बालविधवा हो जाती है।

(2) चन्द्रमा से सातवें या आठवें भाव में पापग्रह हो तो मेष या वृश्चिक राशिगत राहु और आठवे या बारहवें स्थान में हो तो ऐसी कन्या निश्चय ही विधवा होती है। यह योग वृष, कन्या एवं धनु लग्नों में लागू होता है। (3) मकर लग्न हो तो सप्तमभाव में कर्क राशिगत सूर्य-मंगल के साथ हो तथा चन्द्रमा पापपीड़ित हो तो यह योग बनता है। ऐसी स्त्री विवाह के सात-आठ वर्ष के भीतर विधवा हो जाती है।

( 4 ) लग्न एवं सप्तम भाव दोनों स्थानों में पापग्रह हों तो, विवाह के सातवें वर्ष पति का देहान्त हो जाता है।

(5) सप्तम भाव में पापग्रह हो तथा चन्द्रमा छठे या सातवें स्थान पर हो तो विवाह के आठवें वर्ष स्त्री विधवा हो जाती है।

(6) यदि अष्टम स्थान स्वामी सप्तम भाव में हो, सप्तमेश को पापग्रह देखते हों, सप्तम भाव पापपीड़ित हो तो नवोढ़ा स्त्री भी शीघ्र विधवा हो जाती है।

(7) षष्ठ व अष्टम स्थान के स्वामी यदि षष्ठ या व्यय भाव में पापग्रहों के साथ हो, सप्तम भाव शुभग्रहों से दृष्ट न हो, सप्तम भाव पाप पीड़ित हो तो नवोढ़ा स्त्री भी शीघ्र वैधव्य को प्राप्त हो जाती है।

(8)  जन्म लग्न से सप्तम, अष्टम स्थानों के स्वामी पाप पीड़ित होकर छठे या बारहवें स्थानों में चला जाए तो निःसन्देह वैधव्ययोग होता है।

(9) यदि पापग्रह से दृष्ट पापग्रह अष्टम स्थान में हो और शेष ग्रह चाहे उच्चराशि में ही क्यों न हों, ऐसी स्त्री विधवा अवश्य होती है।

इस प्रकार के वैधव्य दोष की निवृत्ति हेतु धर्मशास्त्र कहते हैं – “वट् सावित्रीव्रत कथा, वटवृक्ष के साथ विवाह, वटवृक्ष की लकड़ी से बनी सुवर्णयुक्त विष्णुप्रतिमा अथवा कुम्भ (घट) के साथ पहले विवाह करके ही अन्य के साथ विवाह करने से वैधव्य दोष परिहार हो जाता है।“

विधवापन को हटाने वाला घट - विवाह

अथ घट-विवाह प्रयोग

कन्या का पिता सपत्नीक किसी देवालय, नदी या किसी एकान्त स्थल में जाए। शुभ आसन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठे प्राणायाम एवं पवित्रीकरण करके अपनी कन्या के विष- दोष, मंगली दोष अथवा वैधव्य दोष के परिहार हेतु घट-विवाह का संकल्प निम्न प्रकार से करे।

संकल्प – ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमदभगवतो इत्यादि पठित्वा एवं गुण विशेष विशिष्टायां शुभ पुण्यतिथौ मम अस्याः कन्याया नक्षत्रादि योगेन ग्रहयोगेन च विषाख्य योग जननसूचित वैधव्यारिष्ट परिहारार्थ श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थ घटविवाहख्य कर्म करिष्ये।

इतना कहकर संकल्पित जल भूमि पर त्याग दे एवं पुनः हाथ या आचमनी में जल ले।

तत्रादौ निर्विघ्नता सिद्ध्यर्थं गणपतिपूजन, स्वस्तिपुण्याहवाचन, मातृका पूजन वसोर्धारापूजन वैश्वदेव-संकल्प नान्दीश्राद्धम् आचार्यवरणञ्च करिष्ये। तत्रादी दिग्रक्षणं-कलशार्चञ्च करिष्ये।

इसके बाद दिग्रक्षण कलशपूजन करें, गणपतिपूजन एवं आचार्य का वरण करें। तत्पश्चात् प्रधानपीठ पर कलश स्थापित करें एवं विष्णु की सुवर्ण प्रतिमा अथवा वट (अश्वत्थ) वृक्ष की बनी प्रतिमा का ” अग्न्युत्तारण” करें। मूर्ति का घी से स्नान करावें “ ॐ समुद्रास्यत्वा” पढ़कर जलधारा से स्नान करा अग्न्युत्तारण करके प्राण प्रतिष्ठा करें। मूर्ति को दक्षिण हाथ में ग्रहण करके निम्न मन्त्र पढ़ें अथवा चाहें तो घट के भीतर विष्णु की प्रतिमा रखें।

ॐ आं ह्रीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हं सः अस्या विष्णुमूर्तेः प्राणा इह प्राणाः। ॐ आं अस्या विष्णुमूर्तेः जीव इह स्थितः। ॐ आं आस्याः विष्णुमूर्तेः सर्वेन्द्रियाणि वांग्मनः चक्षु क्षोत्रजिह्वाप्राणपाणि पादपा यूपस्थानीहागत्य सुख चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा। गर्भाधान दिषोडश संस्कारार्थ षोडश प्रणवान् जपेत।

तत्पश्चात् आवाहन इत्यादि षोडशोपचार से पूजा करें और फिर प्रार्थना करें- ” हे जलों के टिकने के स्थान कुंभ! वरुण के शरीर रूपी तुझको नमस्कार है और तुम इस कन्या के पति को चिरकाल तक स्थिर रखें और पुत्र, पौत्र आदि के सुख से सुखी करो। हे विष्णो! हे देव! इस कन्या के दुःख को आप दूर करो, तत्पश्चात् विष्णुरूपी कुंभ (घट) को कन्या अर्पित करे।

“वरुणांगस्वरूपाय जीवनानां समाश्रयः।

पतिं जीवय कन्यायाश्चिचरं पुत्रसुखं कुरु॥

देहि विष्णो वरं देहि कन्यां पालय दुःखतः॥

इतना कहकर सुवर्ण युक्त विष्णु प्रतिमा को जल में छोड़ दें। कन्या एवं घट के मध्य अन्तर्पट रखें। घड़े का मुख कपड़े से वेष्ठित करें कन्या को उसके सम्मुख पश्चिममुखी बैठाकर मंगलाष्टक पढ़ें।

फिर “ ॐ प्रतिष्ठा” आदि पढ़कर कुंभ (घट) पर वस्त्र, उपवस्त्र रखें। मधुपर्क, अलंकार दे। मंगल तन्तु बांधे। मंगल मन्त्रों ” परित्वा.” को पढ़ते हुए कुम्भरूप विष्णु को कन्या दान करें। कन्या दान का संकल्प इस प्रकार करें।

कन्यादान संकल्प

“ ॐ विष्णुविष्णु विष्णुः श्रीमद्भग्वतो महापुरुषस्य विष्णो. इत्यादि पठित्वा। एवं गुण विशेषण विशिष्टायां शुभपुण्य तिथौ अस्याः कन्याया विषाख्ययोग जनन वैद्यव्यदोषाय नुत्तयें श्री विष्णु स्वरूपिणे अश्वत्थ कुम्भाय श्री रूपिणीमिमां कन्या तुभ्यमहं सम्प्रददे ।”

इतना कहकर कन्या के दक्षिण हाथ में जल देकर विष्णु स्वरूप घट को समर्पित कर दें और मन्त्र पढ़ें।

“गौरी कन्यामिमां श्लक्ष्णां यथाशक्ति विभूषिताम्।

ददामि विष्णवे तुभ्यं सौभाग्यं देहि सर्वदा ॥

विष्णुं रूपिणे कुम्भायेइ मां कन्यां सम्प्रददे ॥

इसके बाद वस्त्र ग्रन्थि खोलकर घड़े को जल में छोड़ दें। कन्या चूड़ियां छोड़ दे। बिन्दी मिटा दे रंगीन वस्त्र आभूषण त्यागकर आचार्य को सौंप दे। आचार्य “ऐन्द्रवारूपणपावनीय ” मन्त्रों से त्याग पंचमल्लवों से युक्त कलश के पवित्र जल से कन्या को अभिषेक दे। कन्या स्नान करके दूसरे शुद्ध वस्त्र पहने। ‘कन्या आचार्य को दक्षिणा देकर सन्तुष्ट करे और कहे- “भो ब्राह्मणाः अहम् अनेन कुम्भविवाहकर्मणा अनघाऽस्मि ?” ऐसे तीन बार कहे “त्वमनधाऽसि एवमस्तु ” ऐसे वाक्य आचार्य तीन बार प्रवचन में कहे।

उसके बाद कर्म प्रधान देवता एवं गणपति का विसर्जन करे। ब्राह्मण भोजन दान के बाद आचार्य अखण्ड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दे।

पुरुषों के लिए अर्क विवाह

जिस प्रकार विषकन्या योग स्त्री को होता है उसी प्रकार पुरुष के भी कुण्डली में मृतपत्नी योग विधुरयोग या विषयोग होता है। सप्तम भाव दूषित होने पर या जिस पुरुष की स्त्री जीवित नहीं रहती जिसके दो-तीन विवाह होने पर भी स्त्री का सुख नहीं रहता, ऐसे पुरुष को अर्क के साथ विवाह कर उसके बाद अन्य कन्या से विवाह कराया जाता है। घट विवाह की भाँति अर्क विवाह भी शास्त्रसम्मत सप्तमभाव जन्यदोष व अनिष्ट निवारण का उत्तमोत्तम परिहार है।


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